राजन बाला के निधन से क्रिकेट समालोचना के महान युग का अंत : शनिवार की सुबह यशवंत भाई ने जब राजन बाला के निधन का हृदयविदारक समाचार बताया तो एकदम से हिल गया मैं. ये मौत अचानक नहीं हुई. इसका अंदेशा तो उनके करीबियों को था पर हर कोई चमत्कार की उम्मीद पाले हुए था कि शायद कोई मैच करने वाली किडनी मिल जाए. पर वो नहीं मिली और एक महान क्रिकेट समीक्षक अपने असंख्य चाहने वालों को रोता कलपता छोड़ कर इस दुनिया से कूच कर गया. इसके साथ क्रिकेट समालोचना के महान युग का अंत हो गया. महान इसलिए कि एनएस रामास्वामी, केएन प्रभु और राजन बाला त्रयी की आखिरी कड़ी भी कल टूट गई. इन तीनों ने क्रिकेट राइटिंग को जो आयाम दिए वो अतुलनीय है. क्रिकेट में गहरे डूबे रहने वाले एनएस रामास्वामी की खेल से संपृक्तता बेजोड़ थी. प्रभु ने लयात्मक संगीतमय लेखन किया. प्रभु के लेखन में बिथोवन की सिंफनी बजती थी. रविशंकर के सितार की मधुरता थी.
मिल्टन व शेली के काव्य का सौंदर्य जीवंत हुआ करता था. प्रभु अपने लेखन से सबको मुग्ध कर लेते थे. इन दोनों से अलग राजन बाला क्रिकेट की तकनीकी एनालिसिस के पायोनियर थे. कहने को तो इस संदर्भ में पूर्व आस्ट्रेलियाई टेस्ट क्रिकेटर जैक फिंगल्टन का नाम लिया जाता है जिन्होंने सन 30 के दशक में क्रिकेट का बल्ला छोड़ कर कलम थामी थी. पर सच तो यह है कि ये राजन बाला थे कि जिन्होंने लेखन में खेल के तकनीकी पहलुओं को पूरी शिद्दत से उजागर किया. गेंद का सामना करते समय बल्लेबाज के कंधे, उसकी गर्दन, कोहनी, कलाई के प्रयोग, फुटवर्क आदि पर राजन की पैनी नजर होती थी. यही बात आप उनके गेंदबाजी विश्लेषण को लेकर भी कह सकते हैं. लेकिन तकनीक ने कभी भी उनके लेखन को बोझिल नहीं बनाया. उनका लेखन कामन मैन को जहां खूब भाता ही था तो क्रिकेटर्स के लिए तो उनका विश्लेषण एक तरह से उनके खेल का आइना हुआ करता था. सुनील गावस्कर रहें हों या सचिन तेंदुलकर, सभी अपनी खेल की कमियों के बारे में क्रिकेट व्याकरण के इस पाणिनी की ही शरणागत रहा करते थे. एक क्रिकेट राइटर जिसने विश्वविद्यालयी क्रिकेट ही महज खेली, दुनिया के चोटी के बल्लेबाजों के खेल का बतौर चिंतक एकदम सटीक आंकलन किया करता था. लालाजी (स्वर्गीय लाला अमरनाथ) कहा करते थे- राजन जैसा क्रिकेटीय मस्तिष्क और किसी के पास नहीं. वो दुनिया का नंबर एक क्रिकेट क्रिटिक है.
मेरे लिए तो राजन फ्रेंड, फिलोस्फर, गाइड था. 1978 में यूपी – कर्नाटक रणजी फाइनल के दौरान प्रभु, एनएस रामास्वामी, राजन की महा त्रयी से पहली मुलाकात हुई थी. ये मेरे करियर का भी पहला एसाइनमेंट था. सच तो ये है कि मैंने जो कुछ भी सीखा, इन तीनों से ही. पर मुझ पर सबसे ज्यादा प्रभाव राजन का ही पड़ा जो मेरे लिए किसी इनसाइक्लोपीडिया या रेडी रेकनर से कम नहीं थे. जब भी कहीं फंसता, राजन याद आता. देसी और विदेशी दौरों में कई बार होटल में उनके साथ ठहरना मेरे लिए किसी क्रिकेट मंदिर में रहने जैसा था. सालों नहीं तो महीनों साथ रहने का सुयोग मेरे लिए किसी अनमोल खजाने की तरह है. सोते, उठते, बैठते, खाते…हर वक्त क्रिकेट चर्चा में डूबे रहना ही राजन का वैशिष्ट्य था. क्रिकेट राजन के लिए नौकरी नहीं बल्कि सेवा थी. इधर मिलना तो कम हो गया था पर फोन से गाहे-बगाहे हमारा संपर्क बना रहता था.
कुछ महीने पहले की बात है. चैनल के लिए राजन का फोनो लेना था. (यहां इस शख्स का खेल के प्रति समर्पण देखिए) फोन मिलाया तो वैसे ही रोबदार आवाज गूंजी- बोलो पदम, मैं हास्पिटल में हूं. डायलिसिस होनी है. पर बताओ क्या मामला है? और शुरू कर दिया उन्होंने क्रिकेट पारायण. मुझे तब तक उनकी बीमारी के बारे में जानकारी नहीं थी. मैंने पूछा- अरे राजन क्या हुआ? पता चला कि गुर्दे खराब हो चुके हैं और किडनी ट्रांसप्लांट होना है. मैं भूल गया था अपने फोनो को. क्या आदमी है ये. मैं यही सोच रहा था कि क्या कोई सलीब पर भी क्रिकेट की एनालिसिस कर सकता है. हिंदी खेल पत्रकारिता पर शोधकार्य के लिए राजन ने भाषाई पत्रकारिता पर एक सारगर्भित आर्टिकल लिखा था. किन्हीं कारणों से माखनलाल विश्वविद्यालय ने उस आर्टिकल को मेरी पुस्तक में स्थान नहीं दिया. उस लेख को जल्द ही भड़ास4मीडिया पर प्रकाशित किया जाएगा. .
राज भाई के बाद भारतीय क्रिकेट को ये दूसरा गहरा सदमा लगा है. मेरे अनुज राधे (प्रो. राधे श्याम शर्मा) गया तो यूं लगा कि गोया एक हाथ ही कट गया हो. अब राजन के जाने से मेरा दूसरा हाथ भी शरीर से अलग हो गया. पिता और भाई की मौत के बाद शायद इतना मैं कभी नहीं रोया था. सचमुच मैं ही क्या, समूची खेल पत्रकार बिरादरी ही आज आंसुओं में डूबी है. शोकमग्न है.