रियलिटी शो कोई मुद्दा नहीं : ‘सच का सामना‘ शो हमारी संस्कृति के लिए कितना सही है और कितना गलत, ये तो उन पर निर्भर करता है, जिनकी जिन्दगी का एक हिस्सा वाकई टीवी देखने में जाता है। मैं आप सबके साथ एक किस्सा बांटना चाहूंगी। मेरी एक दोस्त है, जिसकी फैमिली काफी पुराने खयालात की है। यहां तक कि उनके घर में लड़कियों की पढ़ाई को भी बुरी नजर से देखा जाता है। यह तकरीबन पांच साल पहले की बात है, जब उनके घर में क्रिकेट मैचों के अलावा और कुछ नहीं देखा जाता था। यहां तक कि फिल्में भी घर वाले साथ में नहीं देखते थे। मगर आज वही लोग, वही परिवार साथ बैठकर ‘सच का सामना’ देखता हा। बताना चाहूंगी कि उस परिवार में माता-पिता के अलावा एक भाई और दो बहनें हैं। हमारा समाज और उसकी सोच बहुत तेजी से बदली है। आज लोग उस तरह नहीं सोचते, जैसे दस साल पहले सोचते थे। हर इंसान का अपना नजरिया होता है और उसे क्या देखना है, क्या नहीं देखना, इसका फैसला वह खुद कर सकता है। इसके पीछे कोई जोर ज़बरदस्ती नहीं होती है। अभी कुछ साल पहले तक लोग बड़े चाव से सास-बहू सीरियल देखते थे, मगर अब ऐसे शो धीरे-धीरे बंद हो रहे हैं क्योंकि लोगों को लगता है कि ये बेहद बनावटी हैं कि घर की बहू हर वक्त कांजीवरम साड़ी और भारी मेकअप में रहे। आज लोग इस तरह की फिल्में भी कम ही पसंद करते हैं, जिसमें एक्ट्रेस एक्टर से कहे “तुम्हारे चूमने से मैं मां तो नहीं बन जाऊंगी?”
आज लोग सच्चाई पसंद करते हैं और रियलिटी सिनेमा की तरफ लोगों का झुकाव बढ़ रहा है। उसी तरह टीवी पर भी लोग रियलिटी शो पसंद कर रहे हैं और इससे बढ़िया रियलिटी कहाँ मिलेगी, जहाँ पार्टिसिपेन्ट्स अपनी जिन्दगी के काले पन्नों पर से पर्दा उठाएं। वैसे यह शो ‘मोमेंट ऑफ़ ट्रुथ’ के नाम से 23 देशों में चल रहा है और हर जगह इसके फार्मेट को लेकर कंट्रोवर्सी बनी हुई है। पर किसी भी मुल्क में यह मुद्दा राज्यसभा या लोकसभा में नहीं उठाया गया।
अब बात यह है कि क्या हमारे पास मुद्दों की कमी है? परेशानियों की कमी है? या एक इसी शो के चलने या बंद होने पर हमारी व्यवस्था टिकी हुई है?
-फौज़िया रियाज़
नई दिल्ली
ढोते रहिए थोथी सभ्यता
अरविन्द सुधाकर के साहसी लेख को पढ़कर खुशी हुई। इस शो के बारे में जो विरोध लिख कर या चिल्लाकर हो रहा है, नाहक है, बेकार है, कहूं तो बेमतलब है। समझ नहीं आता कि क्यों इस देश में लोगों को नाहक में मॉरल पॉलिसी बनाने की पड़ी रहती है। कोई इन्सान अपनी मर्जी से उस शो में जाता है। सब कुछ जानते हुई सच बोलता है तो हमें क्यों तकलीफ हो रही है? क्यों हम नैतिकता का डंडा भांजने पर उतारु हो रहे हैं। कुछ लोगों का तर्क है कि इस शो से देश की सभ्यता और संस्कृति खराब होती है। कोई मुझे बतलाएगा कि देश की संस्कृति क्या है और ऐसी कौन-सी हरकतें हैं, जिनसे हमारी सभ्यता चोटिल नहीं होती है। किसी ने पेंटिंग बना दी तो सभ्यता चोटिल होती है, किसी लडकी ने अपनी मर्जी से शादी कर ली या कपडे़ पहन लिए तो संस्कृति घायल हो जाती है, सेक्स और काम पर बात हो जाए तो सभ्यता घायल। अगर इतनी नाजुक है हमारी सभ्यता तो माफ करियेगा, आज के एक बडे़ वर्ग को ऐसी किसी सभ्यता और संस्कृति के बोझ को ढोने की कोई जरुरत नहीं है।
आपको आपकी ये थोथी सभ्यता और संस्कृति मुबारक़ हो.. ढोते रहिये!
-विकास कुमार
नई दिल्ली
मैं मेघनानी की राय से सहमत हूं
प्रिय अरविंद सुधाकर जी, रियलिटी शो ‘सच का सामना’ पर कमलेश मेघनानी के लेख पर आपकी प्रतिक्रिया पढ़ने के बाद आपसे बातचीत का मौका मिल रहा है। मैं कमलेश मेघनानी से पूरी तरह सहमत हूं। अरविंद जी, हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। ‘सच का सामना’ के मामले में मैंने एक पहलू देखा, आपने दूसरा पहलू देखा क्योकि हर किसी की सोच एक जैसी नहीं हो सकती। आपका कहना सही है कि सच बोलना हिम्मत की बात है। लेकिन मैं ये कहना और समझाना चाहता हूं कि इस शो में जो सच बोला जा रहा है वो किस कीमत पर बोला जा रहा है। मैं आपको विस्तार से समझाता हूं। इस शो में सच बोला जा रहा है सिर्फ पैसों के लिए। जो लोग इस मंच पर सच बोल रहे हैं उनके परिवारवालों से पूछो कि क्या जिंदगी के इतने साल गुजर जाने के बाद भी उनसे ईमानदारी बरती गई? क्या इस शो से पहले कभी उन्हें वे बातें बताई गईं जो अब कही जा रही हैं? जबाव होगा नहीं। क्यों? क्योंकि उस वक्त डर था परिवार में कलह का, रिश्ते टूटने का, आत्मसम्मान खोने का। लेकिन अब कोई डर नहीं क्योंकि बात पैसे की है। तो जनाब जिंदगी के तराजू में हुआ न पैसे का पलड़ा भारी। एक बात और बताइए। अगर इस सच पर नकद इनाम की जगह कोई सजा मिलती तो क्या कोई सच बोलता। बिल्कुल नहीं। क्योंकि ऐसा होता तो या तो न्यायपालिका की जरूरत नहीं होती या फिर कोई अपराध नहीं करता।
एक आखिरी सवाल आपसे- क्या आप ऐसे सच का सामना कर पाएंगे?
-देवेंद्र शर्मा
नई दिल्ली
सच का सार
सच जो भी हो… मैं नहीं जानता…. पर इतना जरूर जानता हूं कि… एक पत्रकार होकर दूसरे पत्रकार पर अपने विचार थोपना गलत है…. कमलेश मेघनानी ने जो भी अपने विचार भड़ास4मीडिया को दिए वो उनकी व्यक्तिगत राय थी… अरविंद सुधाकर को ये हक कतई नहीं है कि… वो अपनी राय किसी दूसरे पर थोपे और ये कहें कि…. कमलेश मेघनानी कौन है?… और बच्चों जैसी बातें कर रहे हैं। मुल्क कहने को आज़ाद है… फिर किसी के विचारों को क्यों रोका जाए…. पत्रकार तो दूर, हर नागरिक को अधिकार है कि वो हर मुद्दे पर अपनी निजी राय दे सकता है… फिर सहारा चाहे… टीवी हो… अखबार हो…. कोई न्यूज़ पोर्टल हो… या किसी का ब्लॉग… हर कोई स्वतंत्र अधिकार रखता है…. फिर कमलेश मेघनानी के इस लेख पर इतना आक्रोश किस बात का…. समझ से थोड़ा परे है…।
कमलेश मेघनानी तो एक पत्रकार हैं…. उनकी ताकत उनकी कलम है…. उनका आधार उनके सच्चे विचार हैं…. और उनकी पहचान उनकी लेखनी है…. सिर्फ विचारों का मतभेद है… जो व्यवहारिक नहीं है। स्टार प्लस का धारावाहिक ‘सच का सामना’ जो भी बेच रहा है…. वो वक्त की मांग है… इसके सिवा कुछ नहीं है…. 21वीं सदीं के लोग जागरूक है… आज के युग में कौन नहीं जानता इन रियलिटी शो के बनावटी चहरों को…. जो टीवी स्क्रीन पर दूसरे के घर की इज्जत को तार-तार करके बेचते हैं…. खुलेआम लड़ाई कराते हैं…. एक-दूसरे को गाली देते हैं…. और जब बात हद से ज्यादा बढ़ जाती है…. तो बीप की आवाज़ बढ़ा देते हैं…. ताकि दर्शक और अच्छे से समझ जाए कि… अरे इस शो में तो गाली-गलौज भी होता है…. और इन सब की नज़ीर कोई और नहीं बनता बल्कि हमारे ही समाज के कुछ ना-समझ लोग होते हैं… जो पैसे के खातिर अपने आप को बेचने से भी नहीं चूकते…। खैर अरविंद सुधाकर की अपनी राय है…. वो जो कमलेश मेघनानी से ताल्लुक नहीं रखती है… सच जो भी हो पर एक दूसरे पर टिप्पणी करके सच का सार नहीं निकाला जा सकता।
-राकेश सारण
नई दिल्ली
इन्हें भी पढ़ सकते हैं-