कमलेश मेघनानी पता नहीं कौन हैं! बिना कुछ जाने-सुने आवेश में अनर्गल बातें लिख गए हैं। एक शो के प्रसारण से न जाने कौन-सा पहाड़ टूट पड़ा, न जाने किस परिवार की पगड़ी उछाल दी गई! भड़ास4मीडिया पर प्रकाशित मेघनानी के लेख को पढ़कर लगता है कि वह भी उन बच्चों की तरह रैली का हिस्सा बनना चाहते हैं, जिनको इतना तक नहीं पता हो कि रैली का अर्थ क्या होता है? बस विरोध करने के लिए विरोध करना है। खैर, नादान हैं। जल्द समझ जाएंगे। यहां मैं बात कर रहा हूं ‘सच का सामना’ की। एक विनोद काम्बली कह देता है कि सचिन ने उसका साथ नहीं दिया तो बवाल हो जाता है, क्योंकि सचिन तो क्रिकेट के भगवान हैं। उनकी शान में गुस्ताखी क्यों। और अगर काम्बली की जगह सचिन से ये सवाल पूछा जाता, तब क्या जवाब होता उनका? यूसुफ़ साहब ने जितना सफाई से हर उस बात का जवाब दिया, जो उनके जीवन में गलती के रूप में हुई, वो वाकई काबिलेतारीफ था। उम्र के उस पड़ाव पर जब आदमी मोक्ष चाहता है, स्वीकारोक्ति से उन्होंने जीवन के सारे पापों से निजात पा ली है। बात शो की नहीं, हर उस बात की है, जिस पर कुछ बेवकूफ व समाज के झूठी ठेकेदार बवाल मचा कर सस्ती लोकप्रियता पाना चाहते हैं।
शायद भारत के इतिहास में ऐसा शो पहली बार आया है, जिसमें आप सच और सिर्फ सच बोलते हैं। ये शो सचमुच हिम्मत देता है कि गलत करने से अच्छा है, अपनी गलती को स्वीकार करना। शायद लोग ये नहीं जानते कि इस कार्यक्रम में 21 सवाल शिरकत करने से पूर्व के 50 सवालों का ही हिस्सा होते हैं। वे सवाल काफी शोध के बाद तैयार किये जा रहे हैं, न कि किसी से भी कुछ भी पूछ लिया जाए। रही बात खुलेआम सच बोलने की तो एक बात जरूर कहूँगा। हमेशा सच ही बोलें ताकि महफिलों में जाकर ज़लालत न मिले। संसद में भी इस पर सवाल उठा। उठे भी क्यों नहीं, क्योंकि वहां तो देश के सबसे बड़े सच्चाई के नायक जो बैठे हैं!
लोगों को शायद डर लग गया, क्योंकि जो कुकर्म उन्होंने किये, उनको वे स्वीकार क्यों कर रहे हैं? आइए, अब इस सारी बकवास का सार मैं आपको बताता हूं। पहली बात, जो भी सवाल पूछे जा रहे हैं, वे हमारी आम जिंदगी में सबके साथ कभी-न-कभी घट रहे होते हैं, लेकिन हम कभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते कि उसे स्वीकार कर सकें। यदि कोई स्वीकार कर रहा है तो उस पर बेकार का हल्ला। कमोबेश, लोगों का यही हाल समलैंगिकता के मुद्दे पर रहा है, जबकि जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं, वे अपने गिरेबान में झांक कर देख लें कि वे ऐसे संबंधों से किस रूप में बंधे रहे हैं? बात जहां स्वीकार करने की आती है, हम सब पीछे हट जाते हैं और विरोध में सबसे आगे।
देखिए, ये ‘थोथा चना, बाजे घना’ वाली कहावत है। जिसको सबसे ज्यादा दर्द, वही सबसे बड़ा कुकर्मी। सिर्फ अपनी बात बुलंद कर हम अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते। न जाने कितने मंच अब सिर्फ सच ही स्वीकार करेंगे, और कितना अच्छा होगा कि हमे पूर्व में किए अपने किसी कुकर्म पर 20-30 साल बाद छमा मांगने की जरूरत महसूस न होगी, न अफ़सोस होगा कि हमने झूठ क्यों बोला।……”दिल की हर बात अब यहाँ होगी, सच और सच बात बस यहाँ होगी।”
लेखक अरविंद सुधाकर टीवी जर्नलिस्ट हैं और इन दिनों दिल्ली में सीएनईबी न्यूज में कार्यरत हैं। उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।