बहस खूब चल रही है छत्रधर महतो के पकड़े जाने के तरीके को लेकर। पत्रकारिता के प्रबुद्धजनों ने भी उसे हत्यारा करार दिया लेकिन मुझे लगता है कि इस बहस से कुछ छूटता जा रहा है। क्या ये बहस का मुद्दा नहीं होना चाहिए कि आखिर छत्रधर जैसों को बंदूक उठाने की जरूरत क्यों पड़ती है और क्यों उनका पोषण किया जाता है तब तक जब तक कि पानी नाक तक नहीं आ जाता। आखिर क्या कारण है कि समाज और राजनीति की मुख्यधारा से आदिवासी अलग हैं। शालबनी में इस्पात कारखाने के शिलान्यास के उपरांत मुख्यमंत्री को लक्षित कर बारूदी सुरंग का विस्फोट किया जाता है। इसके बाद पुलिस के साथ-साथ माकपा के अति उत्साही कार्यकर्ता तो मानो पूरे इलाके को माओवादी मान बैठते हैं। पूरे लालगढ़ की घेराबंदी कर दी जाती है और शुरू होता है अत्याचार व उत्पीड़न का घिनौना कृत्य। तो सवाल उठता है कि क्या सैकड़ों गांवों के हजारों आदिवासी एकाएक माओवादी हो गए थे और उन्हें मारकर कौन सी स्वतंत्रता और संप्रभुता की रक्षा की जा रही थी।
इसी घटना के बाद छत्रधर की अगुवाई में जनसाधारण पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी का धरना प्रदर्शन शुरू होता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ममता के साथ-साथ उस समय वहां के कुछ बुद्धिजीवियों का भी छत्रधर को समर्थन प्राप्त था। भले ही ममता मंत्री बनने के बाद अपना मुंह फेर ली हों। इसे तृणमूल की दोगली नीति ही कही जाएगी और पौ-बारह तो केंद्र की है जिसने वाम को ही वाम के खिलाफ खड़ा कर दिया है।
भाई साहब, हथियार उठाने का शौक किसे होता है। ये तो समाज और व्यवस्था के सताए हुए हैं। मुझे याद आ रहा है कि मैं जमुई (बिहार) अपने एक संबंधी के यहां गया हुआ था। खेत में काम कर रहे एक मजदूर से पूछा कि आप लोग माओवादियों को संरक्षण क्यों देते हैं? थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने कुछ यूं कहा- ‘क्या करें साहेब, कभी बाबुओं से परेशान होते हैं तो कभी ये पुलिस वाले (उस गांव में सीआरपीएफ की छावनी है) तंग करते हैं। मैदान (शौच) को जाती हैं महिला लोग तो जबरदस्ती करते हैं साहेब ये पुलिस वाले।’
और ऐसी कई घटनाएं आपको देखने और सुनने को मिलि जाएंगी। मेरा तो बस यही कहना है कि बहस इस पर भी होनी चाहिए कि आखिर इसके पीछे कारण क्या है, क्यों नहीं इन्हें मुख्यधारा में आने दिया जाता है? और फिर इन मुद्दों पर विचार-विमर्श हमारे वरिष्ठ नहीं करेंगे तो कौन करेगा। मैंने अपने ब्लाग पर कुछ लाइनें लिखी हैं, जो इस तरह हैं-
लोग-बाग़ चिल्लाने लगे है
उंगलियाँ उठाने लगे हैं।
हक जबसे जताने लगे हैं
नक्सली कहलाने लगे हैं।
कुछ मुसहर मेरे गाँव के
हाथ-पाँव फैलाने लगे हैं।
मंदिर बना तकते थे दूर से
अब वो भी हवन कराने लगे हैं।
बाबुओं की नींद उचट गयी
इंसानियत अब बताने लगे हैं।
शोषित थे जो सदियों से सागर
ख्वाब वो अब सजाने लगे हैं।
व्यवस्था को वैकल्पिक रास्ता चुनना ही होगा, नहीं तो कब तक दबाओगे इनकी आवाज को और कब तक मिटाओगे इन्हें। ये फिर संगठित होंगे और लड़ेंगे व्यवस्था से अपने अधिकार और अपनी इज्जत की खातिर।
लेखक शशि सागर युवा और प्रतिभाशाली स्वतंत्र पत्रकार हैं.