डॉ. नार्मन बोरलाग नहीं रहे। अमरीका के दक्षिणी राज्य टेक्सॉस में 95 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया और पिछली सदी के सबसे महान व्यक्तियों में से एक ने अपना पूरा जीवन मानवता को समर्पित करके विदा ले ली। उन्हें 1970 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। डा. बोरलाग ने भूख के खिलाफ लड़ाई लड़ी और दुनिया के बड़े हिस्से में भूख को पराजित किया। पूरे दक्षिण अमरीका और एशिया में उन्होंने भूख को बेदखल करने का अभियान चलाया और काफी हद तक सफल रहे। प्रो. बोरलाग को ग्रीन रिवोल्यूशन का जनक कहा जाता है। हालांकि वे इस उपाधि को स्वीकार करने में बहुत संकोच करते थे।
लेकिन सच्ची बात यह है कि 1960 के दशक में भूख के मुकाबिल खड़ी दक्षिण एशिया की जनता को डॉ. नार्मल बोरलाग ने भूख से लड़ने और बच निकलने की तमीज सिखाई। 20 वीं सदी की सबसे खतरनाक समस्या भूख को ही माना जाता है। ज्यादातर विद्वानों ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भविष्यवाणी कर दी थी कि सदी के अंत के दो दशकों में अनाज की इतनी कमी होगी कि बहुत बड़ी संख्या में लोग भूख से मर जाएंगे। विद्वानों को समझ में नहीं आ रहा था कि किया क्या जाए। इसी दौरान दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति पर जब नार्मन बोरलाग, वापस आए तो उन्हें अमरीका की बहुत बड़ी रासायनिक कंपनी में नौकरी मिली लेकिन उनका मन नहीं लगा और रॉकफेलर फाउंडेशन के एक प्रोजेक्ट के तहत वे मैक्सिको चले गए। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य मैक्सिको के किसानों को अपनी फसल को सुधारने की जानकारी और ट्रेनिंग देना था। इस योजना को उस वक्त की अमरीकी सरकार का आशीर्वाद प्राप्त था। बोरलाग जब मैक्सिको पहुंचे तो सन्न रह गए, वहां हालात बहुत खराब थे। मिट्टी का पूरा दोहन हो चुका था, बहुत पुराने तरीके से खेती होती थी और किसान इतना भी नहीं पैदा कर सकते थे कि अपने परिवार को दो जून की रोटी खिला सकें।
इसी हालत में इस तपस्वी ने अपना काम शुरू किया। कई वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद गेहूं की ऐसी किस्में विकसित कीं जिनकी वजह से पैदावार कई गुना ज्यादा होने लगी। आमतौर पर गेहूं की पैदावार तीन गुना ज्यादा हो गई और कुछ मामलों में तो चार गुना तक पहुंच गई। मैकि्सको सहित कई अन्य दक्षिण अमरीकी देशों में किसानों में खुशहाली आना शुरू हो गई थी, बहुत कम लोग भूखे सो रहे थे। बाकी दुनिया में भी यही हाल था। 60 का दशक पूरी दुनिया में गरीब आदमी और किसान के लिए बहुत मुश्किल भरा माना जाता है। भारत में भी खेती के वही प्राचीन तरीके थे। पीढ़ियों से चले आ रहे बीज बोए जा रहे थे। 1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान से लड़ाई हो चुकी थी, गरीब आदमी और किसान भुखमरी के कगार पर खड़ा था। अमरीका से पी.एल-480 के तहत सहायता में मिलने वाला गेहूं और ज्वार ही भूख मिटाने का मुख्य साधन बन चुका था और कहा जाता था कि भारत की खाद्य समस्या, ‘शिप टू माउथ’ चलती है। यानी अमरीका से आने वाला गेहूं, फौरन भारत के गरीब आदमियों तक पहुंचाया जाता था। ऐसी विकट परिस्थिति में डॉ. बोरलाग भारत आए और हरितक्रांति का सूत्रपात किया। हरित क्रांति के अंतर्गत किसान को अच्छे औजार, सिंचाई के लिए पानी और उन्नत बीज की व्यवस्था की जानी थी जो डॉ. बोरलाग की प्रेरणा से संभव हुआ। भारत में दो ढाई साल में ही हालात बदल गए और अमरीका से आने वाले अनाज को मना कर दिया गया। भारत एक फूड सरप्लस देश बन चुका था। भारत में हरितक्रांति के लिए तकनीकी मदद तो निश्चित रूप से नॉरमन बोरलाग की वजह से मिली लेकिन भारत के कृषिमंत्री सी. सुब्रहमण्यम ने राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया और हरित क्रांति के लिए जरूरी प्रशासनिक इंतजाम किया। डा. बोरलाग का अविष्कार था बौना गेहूं और धान जिसने भारत और पाकिस्तान में मुंह बाए खड़ी भुखमरी की समस्या को हमेशा के लिए बौना कर दिया। बाद में चीन ने भी इस टेक्नालोजी का फायदा उठाया।
डा. बोरलाग पूरे जीवन भूख के खिलाफ लड़ते रहे और दुनिया भर में उन्नत खेती की क्रांति के अगुवा बने रहे। 1970 में जब उन्हें शांति के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया तो डा. बोरलाग ने नोबेल पुरस्कार वालों से निवेदन किया कि अन्य श्रेणियों के अलावा कृषि वैज्ञानिकों के लिए भी नोबेल पुरस्कार होना चाहिए। उनकी बात मानी नहीं गई तो उन्होंने विश्व खाद्य पुरस्कार की स्थापना की जो उनके नाम से ही जाना जाता है। अमूल दुग्ध क्रांति के संस्थापक डा. वर्गीज कुरियन को यह पुरस्कार मिल चुका है। विख्यात कृषि वैज्ञानिक डा. एम.एस. स्वामीनाथन को भी इस पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
प्रो. बोरलाग को जिन्दगी में खासी परेशानियों का सामना भी करना पड़ा था। 1966 में जब वे भारत आए थे तो उन्होंने भारतीयों से कहा था कि अमरीका से अनाज मंगाकर खाना, देश के लिए ठीक नहीं है, आत्मनिर्भर बनने की कोशिश की जानी चाहिए। अमरीका ने इस बात का बहुत बुरा माना था और वापस जाने पर उन्हें परेशानी भी उठानी पड़ी थी। भूख के खिलाफ जारी अपने अभियान को नॉरमन बोरलाग अफ्रीका भी ले जाना चाहते थे लेकिन वहां जरूरी राजनीतिक समर्थन नहीं मिला और वहां कार्यक्रम शुरू ही नहीं हो पाया। उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका। जब भी इथोपिया, सूडान, रवांडा, युगांडा आदि देशों में अकाल के शिकार भूख से तड़प रहे लोगों को टेलीविजन पर देखते थे, मन मसोस कर रह जाते थे। अफ्रीका के अवाम को भूख के खिलाफ जंग में विजय दिलवाने की उनकी तमन्ना दिल में ही रह गई।
आमतौर पर पूरी दुनिया में डा. नॉर्मन बोरलाग के काम को बहुत ही इज्जत से देखा जाता है लेकिन कुछ हलकों में शुरू के दौर में उनकी आलोचना भी हुई। वामपंथी दलों ने आरोप लगाया कि उनके तरीके से खेती करने से बड़ी कंपनियों द्वारा खेती को नियंत्रित करने के अवसर बढ़ेंगे। आज चालीस साल बाद इस तकü में कोई खास दम नहीं है। प्रो. बोरलाग के अंतिम दिनों में हरित क्रांति के सामाजिक और पर्यावरण संबंधी नतीजों पर भी भारी बहस शुरू हो गई थी और वे उसका जवाब देते फिर रहे थे। भारत समेत दुनिया के कई हिस्सों में हरितक्रांति की उपयोगिता और औचित्य पर बहस जारी है। बोरलाग के समर्थक उसका जवाब देंगे लेकिन भूख के खिलाफ युद्ध का नायक अब चिर निद्रा में सो चुका है।
लेखक शेष नारायण सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई न्यूज चैनलों व अखबारों में काम कर चुके हैं. उनसे संपर्क करने के लिए [email protected] का सहारा ले सकते हैं.