पुण्यतिथि 27 जून के मौके पर
इस युग में हिंदी पत्रकारिता को सार्थक आयाम देने, उसे तथ्यपरक, सशक्त और बोधगम्य बनाने में सुरेंद्र प्रताप सिंह का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वे हिंदी के प्रबल हिमायती थे और कभी भी उनको यह पसंद नहीं था कि उनकी सक्षम भाषा को अंग्रेजी की बैसाखी थमायी जाये। हम लोग आनंद बाजार प्रकाशन समूह के हिंदी साप्ताहिक ‘रविवार’ में उनके संपादकत्व में कार्य करते वक्त इस वक्त के साक्षी बने। उस पत्रिका में शायद ही कभी अनुवाद छपता रहा हो। सारी आमुख कथाएं, विशेष रिपोर्ट हमारे सहयोगी पत्रकार मूल रूप से हिंदी में ही करते थे। कभी-कभार एमजे अकबर, केवल वर्मा या कुलदीप नैयर के आलेख ही अंग्रेजी में आते थे जिन्हें हम लोग हिंदी में अनुदित कर ले लेते थे। इसके अलावा कभी ऐसा नहीं हुआ कि हमें पत्रिका को भरने के लिए अंग्रेजी से अनुवाद की जरूरत पड़ी हो।
एसपी लिखते बहुत कम थे, हालांकि जब लिखते थे तो मन खुशी से भर जाता था। उनकी लिखने की शैली, शब्द चयन और उन्हें सजाने का शिल्प लाजवाब था। ऐसा कि हम उनके लिखे या अनुवाद की गयी राजनीतिक रिपोर्ट में भी साहित्य का मजा ले लेते थे। जनार्दन ठाकुर की बहुत ही मशहुर पुस्तक ‘आल द प्राइम मिनिस्टर्स मेन’ का एक अंश रविवार में छापा जाना था। हम लोगों ने एसपी दा से अनुरोध किया कि इसका अनुवाद वे खुद करें। काफी अनुरोध करने पर वे मान गये और अनुवाद करके अपने सहयोगियों को पढ़वा कर पूछा- ‘क्यों भाई ठीकठाक तो है न?’ उनकी बच्चों जैसी इस सहजता का हर वह व्यक्ति कायल होता रहा है जो एक बार भी उनके संस्पर्श में आया। उनका अनुवाद इतना उत्तम था कि हम सब अपने को रोक नहीं पाये और उनसे अनुरोध किया कि वे कभी-कदा लिखते रहें। हालांकि यह अनुरोध फिर पूरा नहीं हुआ। उन्होंने फिर नहीं लिखा।
‘रविवार’ व्यवस्था विरोधी पत्र के रूप में ख्यात था। विधान सभाओं में यह सबूत के तौर पर पेश किया जाता था। सत्ता के शीर्ष स्तरों पर यह प्रहार करने में नहीं हिचकता था। ऐसे में यह लाजिमी था कि इस पर हर दो-तीन माह बाद कोई न कोई कहीं से मामला ठोक देता था। इसके चलते एसपी दा अक्सर तनाव में रहते थे लेकिन अगर कहीं कार्यालय में उनके अभिन्न मित्र कवि अक्षय उपाध्याय आ जाते तो फिर उनके ठहाके सुनते ही बनते थे। सारा तनाव काफूर हो जाता और गंभीर एसपी सहज भाव से अक्षय के चुटकुलों का आनंद लेते और जमकर ठहाके लगाते। उन्हें इस तरह प्रसन्न मन देख हम लोगों को भी अच्छा लगता। अक्षय से उनकी खूब पटती थी।
‘रविवार’ के प्रारंभ से ही एसपी दा ही उसके अघोषित संपादक थे। अघोषित इसलिए कह रहा हूं क्योंकि पहले उसमें संपादक के रूप में एमजे अकबर का नाम छपता था। काम सारा एसपी ही देखते थे। कुछ दिनों बाद एमजे अकबर विदेश यात्रा पर जाने लगे तो बाकायदा उन्होंने एक लिखित सर्कुलर जारी कर घोषित किया कि अब से एसपी सिंह ही ‘रविवार’ के संपादक होंगे। हम लोग बहुत खुश हुए। एसपी कार्य तो सफलतापूर्वक कर ही रहे थे, अब उस कार्य को विधिवत स्वीकृति और सम्मान भी मिल गया था।
वे बहुत ही ईमानदार और उसूल के पक्के इनसान थे। उन्होंने जिस संस्थान में काम किया, कभी किसी भी प्रकार की आर्थिक, व्यवस्था संबंधी या अन्य अनियमितता नहीं होने दी। ‘रविवार’ के उनके कार्यकाल का एक प्रसंग याद आता है। एक फिल्म पत्रकार जो मुंबई में रहते थे एसपी के पुराने मित्रों में थे। एक बार वे कोलकाता आये उन्हें पैसों की दरकार पड़ गयी। एसपी से उन्होंने एक हजार रुपये यह कहते हुए मांगे कि यह पैसा वे ‘रविवार’ के लिए लेख लिख कर चुका देंगे। एसपी ने उनको एक हजार रुपये कार्यालय से अग्रिम दिलवा दिये। इसके बाद वे पत्रकार महोदय कई बार आये लेकिन लेख लिखना भूल गये। उधर एसपी को कार्यालय के रुपयों की चिंता थी जो उन्होंने उन पत्रकार महोदय को दिलवाये थे। कई बार उनसे ताकीद की पर वे बिना लेख दिये मुंबई लौट जाते थे। एक बार वे कोलकाता आये तो एसपी ने लिखने का एक मोटा पैड उन्हें पकड़ाकर अपने चैंबर में बिठा दिया । उनसे कहा कि आज वे पत्रिका के लिए तीन-चार लेख लिख कर ही बाहर निकलें। बाहर आये तो हम लोगों से बोले कि ये जो पत्रकार भीतर लिख रहे हैं, वे चार लेख तैयार कर लें, तभी बाहर जा पायें। इस बीच पानी वगैरह मांगे तो दिलवा दिया जाये लेकिन हर हाल में उनको लेख लिखवा कर ही मुक्त करना है। कहना नहीं होगा कि उस पत्रकार ने भी एसपी का कहा माना और जब लेख पूरे हो गये तो मुस्कराते हुए चैंबर से बाहर आये और कहा- ‘लो भाई, मैंने चुका दिया एसपी का कर्जा! अब तो जाऊं। वाकई, एसपी जैसा कोई और नहीं होगा।’
उस पत्रकार के चेहरे पर परेशानी या तनाव का भाव नहीं बल्कि एक आत्मतोष का भाव था कि उसने अपने एसपी दा को बेवजह की बेचारगी से बचा लिया।
थोड़ी देर बाद एसपी लौटे तो चैंबर खाली पाया लेकिन उनके दीर्घप्रतीक्षित लेख वहां थे। वे बाहर आये और उन्होंने कहा कि वे चाहते तो ये पैसा अपनी तरफ से चुका सकते थे लेकिन तब वे एक गलत आदत को प्रोत्साहन देने के भागीदार बन जाते। वह पत्रकार दूसरी जगह भी ऐसा करते रहते। एसपी इतने ईमानदार और उसूल के पक्के थे।
वे पहले शिक्षक थे। पत्रकारिता की अपनी पारी उन्होंने धर्मयुग से शुरू की थी। धर्मयुग के दिनों की अपनी यादों को कभी-कभी फुरसत में हम लोगों से बांटते थे तो कई रोचक प्रसंगों का भी जिक्र हो जाता था। उन्होंने बताया कि एक बार कार्यालय में किसी बात पर उन्होंने जम कर ठहाका लगा दिया। इस पर धर्मयुग के उनके साथी पत्रकार सन्न रह गये। उनके चेहरे पक्क पड़ गये। इस पर एसपी ने उन लोगों से पूछा कि बात क्या है? हंसने से चेहरों पर मायूसी क्यों छा गयी? इस पर साथियों ने जवाब दिया कि इस तरह ठहाका लगाने से चैंबर (संपादक) नाराज हो जायेंगे। इस पर एसपी ने एक और जोरदार ठहाका लगाया और कहा- ‘मै विष्णुकांत शास्त्री का शिष्य रहा हूं जिनका सिद्धांत था जो करो उनमुक्त-स्वच्छंद मन से करो। बंधन मुक्त रहो। मुझे इस तरह आनंद व्यक्त करने से कोई रोक नहीं सकता।’
जाने कितनी यादें हैं। एसपी के एक और गहरे दोस्त थे वसंत पोतदार। मध्य प्रदेश के रहने वाले वसंत पोतदार विशाल व्यक्तित्व के धनी और एकल अभिनय में सिद्धहस्त थे। जब कभी वे विवेकानंद या किसी और महापुरुष का एकल अभिनय करते तो पूरा सभागार शांत चित्त हो उनके अभिनय में खो जाता। विवेकानंद का धर्मसभा में दिया ओजपूर्ण भाषण वसंत बहुत प्रभावी ढंग से पेश करते थे। वे कोलकाता आयें और एसपी से मिलने न आयें, ऐसा कभी नहीं हुआ। वे आते तो घंटों कार्यालय में गूंजती रहती उनकी बुलंद आवाज। उनके लिखने की अपनी शैली थी जो बहुत अच्छी थी। एसपी ने उनको एक स्तंभ दे दिया ‘कुछ जिंदगियां बेमतलब’। उसके माध्यम से वसंत ने लोगों को ऐसी विभूतियों से परिचित कराया जो बड़ा हुनर जानते हुए भी बेबसी और लाचारी की जिंदगी गुजार रही थीं।
बहुत ही बातूनी थे वसंत पोतदार। एक बार क्या हुआ कि वे कार्यालय में आये और संकेतों से बातें करने लगे। आप ही बतायें, कोई वाचाल व्यक्ति अचानक मूक हो जाये तो आपको कितनी अकुलाहट होगी। हम लोग समझ नहीं पाये तो उन्होंने कागज की परची निकाली और लिखा- मौन व्रत में हूं। फिर दूसरी पर्ची में लिखा- एसपी हैं क्या? हम लोग उन्हें इस तरह लिख कर बात करते देख परेशान थे। अच्छा-भला बोलता आदमी खामोश क्यों हो गया? वसंत ने देखा नहीं था, हमने देख लिया था कि एसपी दरवाजा खोल उनके पीछे आ खड़े हुए हैं और तमाशा देख कर मंद-मंद मुस्करा रहे हैं। उन्होंने मुझे इशारा किया जिसका मतलब था कि वसंत का मुंह खोलवाना है। इसके बाद मैंने वसंत पोतदार से कहा- ‘भाई साहब आपके जैसा अच्छा-खासा आदमी खामोश हो जायेगा तो हम लोगों को बड़ी तकलीफ होगी। आपकी वाणी ही तो आपका परिचय है। आपकी अभिनय कला को जन-जन तक पहुंचाने का माध्यम है, वही नहीं रही तो फिर आपकी तो पहचान ही खो जायेगी।’
इसके बाद वसंत ने ठहाका लगाया और कहा -‘पिछले कई दिनों से मौन व्रत साध रहा हूं। आप लोगों ने उसे तोड़वा ही दिया।’
वसंत को भी एसपी बहुत मानते थे।
एसपी में एक विशेषता थी। कोई उनसे पहली बार भी मिला तो वह कुछ देर में ही ऐसा महसूस करने लगता था कि जैसे वह उनका पुराना परिचित है। उनमें आत्मीयता और सहजता इतनी थी कि वे कभी किसी को भी असहज नहीं लगे। वे हमारे संपादक थे लेकिन हमें सदा यह अनुभव होता रहा कि वे हमारे बड़े भाई या हमारे कार्यालय के अभिभावक हैं। आज वे नहीं है लेकिन उनके आदर्श हैं और सदा रहेंगे। वही हमारा संबल और पाथेय हैं।
एसपी महान थे उनकी महानता का बखान जितना किया जाये कम है। ऐसा व्यक्तित्व धराधाम में कम ही आते हैं और जाते हैं तो दे जाते हैं एक ऐसा सूनापन जो रह रह कर उनकी कमी का अहसास कराता रहता है। उस महना आत्मा को शतशः नमन।
लेखक राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं और तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इन दिनों हिंदी दैनिक सन्मार्ग में कार्यरत हैं। राजेश से संपर्क [email protected] के जरिए कर सकते हैं।