: आनंद प्रधान को एनडीटीवी की महिला पत्रकार ने निजी पत्र लिखा तो आनंद प्रधान ने शीतल को संस्थान की तरफ से सो-काज नोटिस थमा दिया : अन्ना हजारे के आंदोलन को सपोर्ट करने और भ्रष्टाचारियों को खेदड़ने का साहस रखने वाले इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मास कम्युनिकेशन (आईआईएमसी) के छात्र योगेश कुमार शीतल की मुश्किलें दिन ब दिन बढ़ती जा रही हैं.
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बरखा का झूठ बयां करती है ‘नो वन किल्ड जेसिका’
[caption id="attachment_19259" align="alignleft" width="79"]सुधांशु[/caption]जेसिका लाल की हत्या पर आधारित हाल में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में रानी मुख़र्जी बरखा दत्त का किरदार अदा कर रही हैं। फ़िल्म तथ्यों से कोसों दूर है। ऐसा लगता है कि फ़िल्म की पटकथा जेसिका लाल की हत्याकांड को नहीं, बल्कि बरख़ा दत्त के कैरेक्टर को ध्यान में रखकर लिखी गई है। फ़िल्म ऐसे समय में रिलीज़ हुई है, जब बरख़ा दत्त चारों तरफ़ से भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई हैं। पूरी फ़िल्म जेसिका को नहीं, बल्कि बरख़ा दत्त और एनडीटीवी को समर्पित है।
किसकी ‘छवि’ की चिंता करे मीडिया?
पढऩे-सुनने में यह कड़वा तो लगेगा, किंतु सच यही है कि इंडिया और भारत नाम के हमारे देश में एक ओर जहां सामर्थ्यवानों को हजारों-लाखों करोड़ लुटने की छूट मिली हुई है, वहीं दूसरी ओर आम आदमी झूठ, फरेब और धूर्तता की विशाल शासकीय चट्टान के नीचे दब छटपटा रहा है। इसकी सुननेवाला, सुध लेनेवाला कोई नहीं। दुखी मन से निकली इस टिप्पणी के लिए क्षमा करेंगे कि न्यायपालिका का आचरण (अपवादस्वरूप ही सही) भी सामर्थ्यवानों का पक्षधर दिखने लगा है।
बरखा ने बनवाया राजा को मंत्री!
कनिमोझी ने अपने पिता और डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि से कहा था यदि उन्होंने मारन को मंत्री बनने से नहीं रोका तो वे आत्महत्या कर लेंगी। कनिमोझी के बारे में यह जानकारी नीरा राडिया ने सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष तरुण दास को दी थी।
आखिर में राडिया गैंग के पत्रकार वेबमीडिया को घेरने की कोशिश करेंगे
नीरा राडिया के टेलीफोन के शिकार हुए लोगों की नयी किश्त बाज़ार में आ गयी है. पहली किश्त में तो अंग्रेज़ी वाले पत्रकार और दिल्ली के काकटेल सर्किट वालों की इज्ज़त की धज्जियां उडी थीं. उनमें से दो को तो उनके संगठनों ने निपटा दिया. वीर संघवी और प्रभु चावला को निकाल दिया गया है लेकिन बरखा दत्त वाले लोग अभी डटे हुए हैं, मानने को तैयार नहीं हैं कि बरखा दत्त गलती भी कर सकती हैं. आउटलुक और भड़ास वालों की कृपा से सारी दुनिया को औपचारिक तौर पर मालूम हो गया है कि पत्रकारिता के टाप पर बैठे कुछ लोग दलाली भी करते थे. हालांकि दिल्ली में सक्रिय ज़्यादातर लोगों को मालूम है कि खेल होता था, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि उसके बारे में बात कर सके.
पैसे के खेल से जो पत्रकारिता चलेगी, वो पैसे का ही खेल करेगी
इन दिनों मीडिया में भ्रष्टाचार को लेकर बड़ा स्यापा हो रहा है. जिससे भी जितना बन पड़ रहा है, उतना विलाप वो कर रहा है. दुखी लोग कह रहे हैं कि बड़ा भ्रष्टाचार हो गया है! उनके कहने से ऐसा लग रहा है कि जैसे किन्हीं छोटे लोगों ने अपनी औकात भूल कर कोई बड़ी वारदात कर दी है! अरे भाई! जब बड़े लोगों ने की है तो बड़ी वारदात ही तो करेंगें! आखिर इतनी सड़ांध आने के बावजूद अभी भी तो बदस्तूर कहा ही जा रहा है कि देश के दो बड़े पत्रकार…!
धंधई लक्ष्मण रेखा से अनजान नहीं थे पत्रकार : मृणाल
सबको खबर देने और सबकी खबर लेने का दावा करने वाला, अपने को जनता का पक्षधर और सबसे तेज, निर्भीक व निष्पक्ष बताने वाला मीडिया राडिया टेपों के प्रकाश में आने के बाद जनता के बीच खुद सवालों के कठघरे में खड़ा है। देर से ही सही, तीन शीर्ष संस्थाओं ने हमपेशा लोगों के साथ इन सामयिक सवालों पर समवेत चर्चा की प्रशंसनीय पहल की। यह सही है कि गहरी स्पर्धा के युग में ताबड़तोड़ जटिल स्टोरी का पीछा करते हुए एक पत्रकार को हर तरह के लोगों से मिलना होता है। पर दलील दी जा रही है कि पत्रकार अगर दोस्ती का चरका देकर (स्ट्रिंगिंग एलॉन्ग) किसी ऐसे महत्वपूर्ण स्रोत से संपर्क साधे, जो कारपोरेटेड घरानों का ज्ञात और भरोसेमंद प्रवक्ता तथा राजनीतिक दलों से उनके हित साधन का जरिया भी हो, तो क्या उससे फोन पर बात करना पत्रकार के दागी होने का प्रमाण है?