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टीवी के संपादक अब चिरकुटई से तौबा करें

टीवी न्यूज चैनलों के संपादक अगर समय से अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए, खुद की पहल पर, इकट्ठे मिल-बैठकर, यह तय कर लिए होते कि उन्हें इस-इस तरह के कार्यक्रम नहीं दिखाने हैं, और इस तरह के दिखाने हैं, तो संभवतः टीवी न्यूज चैनलों का इस कदर कबाड़ा नहीं हुआ होता। जनता तो गरिया ही रही है, सरकार भी आंखें तरेर रही है। जब पानी नाक तक पहुंच रहा है तो मजबूरन हाथ-पांव मारने की कवायद के तहत टीवी संपादकों ने एक बाडी बना ली और सरकार से संयुक्त बारगेनिंग में जुट गए हैं। तेवर और गरिमा खो चुके टीवी के संपादकों की बात सरकार कितनी सुनेगी, या सुन भी लेगी तो उससे क्या भला हो जाएगा, यह तो नहीं पता लेकिन इतना तय है कि टीवी जर्नलिज्म के नाम पर चिरकुटई परोसने वाले टीवी के संपादकों को अब भी अक्ल आ जानी चाहिए। उन्हें टीआरपी की फोबिया से मुक्त होना चाहिए। उन्हें टीआरपी के पीछे भागने की जगह, गंभीर खबरों व विश्लेषणों की तरफ वापस लौटना चाहिए। देश व समाज के सामने खड़े बड़े मुद्दे पर खोजी पत्रकारिता करनी चाहिए। सरकारों को कठघरे में खड़े करने की परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए।

<p align="justify">टीवी न्यूज चैनलों के संपादक अगर समय से अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए, खुद की पहल पर, इकट्ठे मिल-बैठकर, यह तय कर लिए होते कि उन्हें इस-इस तरह के कार्यक्रम नहीं दिखाने हैं, और इस तरह के दिखाने हैं, तो संभवतः टीवी न्यूज चैनलों का इस कदर कबाड़ा नहीं हुआ होता। जनता तो गरिया ही रही है, सरकार भी आंखें तरेर रही है। जब पानी नाक तक पहुंच रहा है तो मजबूरन हाथ-पांव मारने की कवायद के तहत टीवी संपादकों ने एक बाडी बना ली और सरकार से संयुक्त बारगेनिंग में जुट गए हैं। तेवर और गरिमा खो चुके टीवी के संपादकों की बात सरकार कितनी सुनेगी, या सुन भी लेगी तो उससे क्या भला हो जाएगा, यह तो नहीं पता लेकिन इतना तय है कि टीवी जर्नलिज्म के नाम पर चिरकुटई परोसने वाले टीवी के संपादकों को अब भी अक्ल आ जानी चाहिए। उन्हें टीआरपी की फोबिया से मुक्त होना चाहिए। उन्हें टीआरपी के पीछे भागने की जगह, गंभीर खबरों व विश्लेषणों की तरफ वापस लौटना चाहिए। देश व समाज के सामने खड़े बड़े मुद्दे पर खोजी पत्रकारिता करनी चाहिए। सरकारों को कठघरे में खड़े करने की परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए। </p>

टीवी न्यूज चैनलों के संपादक अगर समय से अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए, खुद की पहल पर, इकट्ठे मिल-बैठकर, यह तय कर लिए होते कि उन्हें इस-इस तरह के कार्यक्रम नहीं दिखाने हैं, और इस तरह के दिखाने हैं, तो संभवतः टीवी न्यूज चैनलों का इस कदर कबाड़ा नहीं हुआ होता। जनता तो गरिया ही रही है, सरकार भी आंखें तरेर रही है। जब पानी नाक तक पहुंच रहा है तो मजबूरन हाथ-पांव मारने की कवायद के तहत टीवी संपादकों ने एक बाडी बना ली और सरकार से संयुक्त बारगेनिंग में जुट गए हैं। तेवर और गरिमा खो चुके टीवी के संपादकों की बात सरकार कितनी सुनेगी, या सुन भी लेगी तो उससे क्या भला हो जाएगा, यह तो नहीं पता लेकिन इतना तय है कि टीवी जर्नलिज्म के नाम पर चिरकुटई परोसने वाले टीवी के संपादकों को अब भी अक्ल आ जानी चाहिए। उन्हें टीआरपी की फोबिया से मुक्त होना चाहिए। उन्हें टीआरपी के पीछे भागने की जगह, गंभीर खबरों व विश्लेषणों की तरफ वापस लौटना चाहिए। देश व समाज के सामने खड़े बड़े मुद्दे पर खोजी पत्रकारिता करनी चाहिए। सरकारों को कठघरे में खड़े करने की परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए।

ऐसा इसलिए क्योंकि अब सरकार भी कहने लगी है कि जिस टीआरपी के लिए सब लोग पगलाए हैं, उस टीआरपी को मुहैया कराने वाली संस्था ‘टैम’ दूध से धुली नहीं है। कई गंभीर आरोपों के घेरे में है। इस बात की तस्दीक तो पहले भी कई बार हो चुकी है लेकिन कल हिंदुस्तान अखबार में अमिताभ पराशर की पहले पन्ने पर प्रकाशित रिपोर्ट ने सब कुछ साफ कर दिया है। इस रिपोर्ट को यहां प्रकाशित किया जा रहा है। –एडिटर, भड़ास4मीडिया


टैम की टीआरपी तय कर सकती है सरकार

टीआरपी के माया जाल में पूरे टीवी जगत को उलझाने वाली ‘टैम’ खुद झमेले में नजर आ रही है. सरकार की पैनी नजरें सालों से चैनलों और उनके कार्यक्रमों की लोकप्रियता उर्फ टीआरपी तय करती इस एजेंसी पर टिकी हैं सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय के कुछ अधिकारी टैम के खिलाफ जांच कर रहे हैं और उम्मीद की जा रही है कि जब यह जांच पूरी होगी तो सरकार फैसला लेगी कि सालों से विवाद के घेरे में रही इस एजेंसी के साथ क्या किया जाए. टैम (टेलीविजन ऑडिएंस मीटर) को चलाने वाली मूल एजेंसी “एसी नील्सन” है जो देश करीब सात हजार घरों मे पीपल मीटर नाम की एक रिकार्डिंग मशीन लगाकर आंकड़े इकट्ठा करती है कि इन घरों में रहने वाले कितने लोग किस चैनल के कौन से कार्यक्रम देखते हैं.

विज्ञापन उद्योग इन्हीं आंकडों का इस्तेमाल कर तय करता है कि कौन से कार्यक्रम को कितना विज्ञापन दिया जाए. पिछले कई सालों से टैम पर आरोप लगते रहें हैं कि वह केवल सात हजार घरों की पसंद-नापसंद के आधार पर करोडों टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद तय करती है. एक दूसरा आरोप यह भी है कि टैम की रेटिंग ज्यादा मिले, इसके लिए चैनल विवादास्पद और ऊल-जुलूल कार्यक्रमों के प्रसारण के लिए प्रेरित होते हैं. अब सरकार टैम की कथित क्रॉस होल्डिंग की जांच कर रही है. कानूनन इस तरह के काम में लगी एजेंसी में किसी अन्य संबंधित मीडिया कंपनी या एजेंसी का कोई वित्तीय जुड़ाव नहीं होना चाहिए.

सूचना व प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने इस बारे में कहा, “हमें शिकायत मिली है कि टैम में कुछ कंपनियों की क्रॉस होल्डिंग हैं और एक विज्ञापन कंपनी के भी हित टैम के साथ जुड़े हैं. अगर यह सच है तो हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे. हमारे अधिकारी इसकी तहकीकात कर रहे हैं. अगर टीवी कार्यक्रमों की रेटिंग देने वाली एजेंसी के क्रियाकलापों में पारदर्शिता न हो तो यह चिंताजनक है.” माना जा रहा है कि टैम का विकल्प खड़ा करने में सरकार की रुचि बढ़ रही है क्योंकि एक अन्य एजेंसी एमैप का विज्ञापन उद्योग में दखल नहीं है.

क्या है टैम का खेल

  • सात हजार मीटरों के जरिए करीब आठ करोड़ केबल टीवी दर्शकों की पंसद-नापसंद तय करता है.
  • इसके आंकड़ों पर निर्भर है करीब बाईस करोड़ छ: सौ (22,600 करोड़) रुपये सालाना का टीवी विज्ञापन उद्योग.
  • आंकड़े देने के लिए वसूलता है चैनलों और विज्ञापन कंपनियों से मोटी फीस

सभार : हिन्दुस्तान

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