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इंटरनेट से मिल रही सूचनाओं पर भरोसा कम!

इंटरनेट-मोबाइल पर सूचनाएं मुफ्त में मिले तो ठीक अन्यथा पैसे देकर प्रिंटेड पढ़ना मुफीद : सर्वे सच है तो कह सकते हैं कि बची रहेगी प्रिंट मीडिया की परंपरा की पूंजी : वैश्विक मंदी और लगातार घटती विज्ञापन की कमाई के कारण अमेरिका-यूरोप के अखबारों से कर्मचारियों की छंटनी और खर्चे में कटौती वाली खबरों की बाढ़ ने भारतीय मीडिया उद्योग और उसमें कैरियर चाहने वालों की निराशा ही बढ़ाने में मदद दी है। रही-सही कसर भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विकास का कथित गुब्बारा फूटने की घटना ने पूरी कर दी है। ऐसे में विकसित देशों में ये सवाल सामने है कि अखबारों का दम क्या आखिरी बार फूल रहा है, जिसके बाद जिंदगी नहीं, अंतिम सांस ही होती है। इसका जवाब हां में है तो निश्चित तौर पर मीडिया क्षेत्र के लिए भयावह स्थिति होगी। पर निराशा के गर्त में डूबे पत्रकारों और मीडिया हाउसों को अंतरराष्ट्रीय एजेंसी प्राइसवाटर हाउसकूपर कंपनी की ताजा रिपोर्ट राहत दे सकती है। वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूजपेपर्स यानी वैन की पहल पर किए गए एक सर्वे की रिपोर्ट अक्टूबर 2009 में प्रिंट उद्योग के लिए उम्मीदों का नया झोंका बनकर आई है। 4900 अखबारी उपभोक्ताओं, तीस मीडिया हाउसों और दस बड़े विज्ञापनदाताओं पर किए इस सर्वे की रिपोर्ट परेशान हाल अखबारी संस्थानों को राहत देने के लिए काफी है। पश्चिमी दुनिया में अखबारों के लगातार घटते सर्कुलेशन के लिए इंटरनेट को ही जिम्मेदार माना जा रहा है।

इंटरनेट-मोबाइल पर सूचनाएं मुफ्त में मिले तो ठीक अन्यथा पैसे देकर प्रिंटेड पढ़ना मुफीद : सर्वे सच है तो कह सकते हैं कि बची रहेगी प्रिंट मीडिया की परंपरा की पूंजी : वैश्विक मंदी और लगातार घटती विज्ञापन की कमाई के कारण अमेरिका-यूरोप के अखबारों से कर्मचारियों की छंटनी और खर्चे में कटौती वाली खबरों की बाढ़ ने भारतीय मीडिया उद्योग और उसमें कैरियर चाहने वालों की निराशा ही बढ़ाने में मदद दी है। रही-सही कसर भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विकास का कथित गुब्बारा फूटने की घटना ने पूरी कर दी है। ऐसे में विकसित देशों में ये सवाल सामने है कि अखबारों का दम क्या आखिरी बार फूल रहा है, जिसके बाद जिंदगी नहीं, अंतिम सांस ही होती है। इसका जवाब हां में है तो निश्चित तौर पर मीडिया क्षेत्र के लिए भयावह स्थिति होगी। पर निराशा के गर्त में डूबे पत्रकारों और मीडिया हाउसों को अंतरराष्ट्रीय एजेंसी प्राइसवाटर हाउसकूपर कंपनी की ताजा रिपोर्ट राहत दे सकती है। वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूजपेपर्स यानी वैन की पहल पर किए गए एक सर्वे की रिपोर्ट अक्टूबर 2009 में प्रिंट उद्योग के लिए उम्मीदों का नया झोंका बनकर आई है। 4900 अखबारी उपभोक्ताओं, तीस मीडिया हाउसों और दस बड़े विज्ञापनदाताओं पर किए इस सर्वे की रिपोर्ट परेशान हाल अखबारी संस्थानों को राहत देने के लिए काफी है। पश्चिमी दुनिया में अखबारों के लगातार घटते सर्कुलेशन के लिए इंटरनेट को ही जिम्मेदार माना जा रहा है।

सही मायने में ऐसा है भी। यही वजह है कि दुनिया के सबसे बड़े मीडिया सम्राट रूपर्ट मर्डोक भी अब ऐसे सॉफ्टवेयर पर काम करा रहे हैं, जिसके जरिए वे अपने प्रकाशनों के इंटरनेट संस्करणों के पाठकों से उसकी कीमत वसूल सकें। ऐसे सॉफ्टवेयर पर विकसित दुनिया के कई और मीडिया हाउसों ने भी ऐसे ही सॉफ्टवेयर बनाने का काम अपने इंजीनियरों को सौंप रखा है। ये प्रयास कितना सफल हो पाएगा, इसका फैसला तो बाद में ही हो पाएगा। लेकिन प्राइसवाटर हाउस कूपर के मीडिया और इंटरटेनमेंट के निदेशक डेविड मॉस के मुताबिक उनके हालिया अध्ययन रिपोर्ट से चौंकाने वाले नतीजे सामने आए हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक विकसित दुनिया में भी इंटरनेट से मिल रही सूचनाओं पर लोगों का ज्यादा भरोसा नहीं है। यहां के महज 62 फीसदी लोग ही अखबारों के डिजिटल संस्करणों को पढ़ने के लिए कीमत चुकाने को तैयार हैं। ये हालत तब है, जबकि विकसित दुनिया में घर-घर और हर मोबाइल फोन तक इंटरनेट की पहुंच है। लेकिन हैरत की बात ये है कि प्रिंट के क्षरण के दौर में भी शत-प्रतिशत लोग इसके लिए अब भी कीमत चुकाने को तैयार हैं।

दरअसल प्रिंट के पास परंपरा की पूंजी के दम पर हासिल ना सिर्फ ताकत है, बल्कि उसका अपना एक खास प्रभाव भी है। इसके बावजूद प्रिंट के लिए प्राइसवाटर हाउस कूपर की रिपोर्ट में सिर्फ अच्छी-अच्छी बातें ही नहीं हैं। कूपर ने अनुमान लगाया है कि समाचार पत्रों के ग्लोबल बाजार में इस साल 10.2 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की जाएगी। और 2013 तक इसमें हर साल करीब दो प्रतिशत की गिरावट देखी जाएगी। पश्चिमी दुनिया के अखबारों के लिए विज्ञापनों में आई कमी को इसकी बड़ी वजह माना जा रहा है। बहरहाल प्राइसवाटर हाउसकूपर की रिपोर्ट ने विज्ञापनों में गिरावट की भी उम्मीद जताई है। कूपर की रिपोर्ट के ही मुताबिक खुद मीडिया संस्थान ही मानते हैं कि वैश्विक मंदी और विज्ञापनों में गिरावट के चलते वे अपना घाटा 2011 में ही पूरा कर पाएंगे।

उदारीकरण के दौर में विज्ञापनों की बाढ़ के चलते पश्चिमी दुनिया में कुछ अखबारों ने मुफ्त में ही बांटने का कार्यक्रम शुरू किया। अमेरिका और ब्रिटेन में कई कम्युनिटी अखबार विज्ञापनी कमाई के चलते मुफ्त में बंटते या बांटे जाते रहे हैं। यह चलन अपने यहां दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े महानगरों के बसंतकुंज या ग्रेटर कैलाश जैसी धनाढ्य बड़ी कॉलोनियों में आज भी बदस्तूर जारी है। जहां मुफ्त में कम्युनिटी अखबार हर रविवार या शनिवार को दस्तक दे देते हैं। वैश्विक मंदी भी इनकी इस अनूठी राह में बाधा नहीं बन पाई है। कुछ साल पहले भारत में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह ने भी ऐसा करने का सोचा था। लेकिन उसे रोक दिया गया था। क्योंकि इससे गलत प्रतिस्पर्धा पैदा होने का डर बढ़ गया था। हालांकि मुफ्त में उपलब्ध अखबारों में पाठकों की दिलचस्पी को लेकर दिल्ली, मुंबई या भारत में ऐसा कोई सर्वे नहीं हुआ है। वैसे भी मुफ्त में मिलने वाले कम्युनिटी अखबारों को लेकर चाहे ब्रिटेन हो या अमेरिका या दिल्ली-मुंबई की रईस कॉलोनियां, इसमें कोई खास उत्साह नहीं देखा जाता। वहां पैसे देकर खरीदे गए गार्जियन, टाइम्स या टाइम्स ऑफ इंडिया को ही तरजीह दी जाती है। लब्बोलुआब ये कि पाइसवाटर हाउस कूपर के सर्वे में भी लोगों ने पैसे देकर ही कंटेंट पढ़ने पर ज्यादा भरोसा जताया है। इस रिसर्च में सबसे दिलचस्प निष्कर्ष ये आया है कि ई पेपर या मोबाइल पर बैकग्राउंड सामग्री या ऐसी दूसरी सूचनाएं पैसे देकर हासिल करने में लोगों ने दिलचस्पी नहीं दिखाई है। यानी इंटरनेट और मोबाइल पर सूचनाएं मुफ्त में मिले तो ठीक अन्यथा प्रिंट में खरीदकर पढ़ना ही लोगों को ज्यादा बेहतर और मुफीद नजर आ रहा है। किसी भी माध्यम की सफलता का राज उसके पाठकों, दर्शकों या श्रोताओं के भरोसे पर ही टिका होता है। ऐसे में इस रिसर्च के निष्कर्षों पर ही भरोसा करें तो परंपरा की पूंजी से लैस प्रिंट माध्यम पर पाठकों का भरोसा बना हुआ है, बनिस्बत रेडियो, टेलीविजन या इंटरनेट के। साफ है कि प्राइसवाटर हाउसकूपर की इस भविष्यवाणी के बावजूद भी प्रिंट का भविष्य खुद पश्चिमी दुनिया में बेहतर नजर आ रहा है।

दरअसल ये रिपोर्ट उस पश्चिमी और विकसित दुनिया के मीडिया की दुश्वारियों और चिंताओं को दूर करने में कामयाब होगी, जहां शत-प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य हासिल किया जा चुका है। जहां नए पाठक वहीं हैं या होंगे, जो स्कूलों या कॉलेजों की दुनिया से निकल रहे हैं या वहां पदार्पण कर रहे हैं। लेकिन भारत में अभी स्थिति उलटी है। तमाम राजनीतिक प्रयासों के बावजूद आज भी शत-प्रतिशत साक्षरता हासिल करने से हम कोसों दूर हैं। 2001 की जनगणना के मुताबिक देश की करीब 65 फीसदी आबादी ही साक्षर है। साक्षरता मिशन और ऐसी संस्थाओं की तमाम कोशिशों के बावजूद माना जा रहा है कि अभी भी देश के करीब तीस फीसद लोग निरक्षर हैं । जरूरी शिक्षा का विधेयक पारित होने के बावजूद ये सच है कि इसमें तेजी आएगी। यही वजह है कि यहां अखबारी संस्थानों में अब भी उत्साह का माहौल बना हुआ है। पिछले दो साल से हिंदी पट्टी में  मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और झारखंड अखबारी संस्थानों की आशाओं के प्रतीक बने हुए हैं। मध्यप्रदेश में राजस्थान पत्रिका, सिर्फ पत्रिका के नाम पर दस्तक दे रहा है। पीपुल्स समाचार और राज एक्सप्रेस के संस्करण-दर-संस्करण खुलते जा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में रूहेलों की धरती बरेली और नाथसंप्रदाय का मैदान गोरखपुर से हिंदुस्तान की धमक सुनाई पड़ने लगी है। झारखंड के आदिवासी इलाके और जंगलों के बीच प्रभात खबर के साथ हिंदुस्तान भी पहुंच गया है। इसके पीछे इस हिंदी पट्टी के इलाकों की खरीद क्षमता, बढ़ती साक्षरता दर और राजनीतिक चेतना अहम भूमिका निभा रही है। यही वजह है कि फिक्की की पहल पर पिछले साल प्राइसवाटर हाउस कूपर ने भारतीय मीडिया की जो रिपोर्ट जारी की थी, उसमें प्रिंट मीडिया का भविष्य बेहतर बताया गया था। इस आकलन के मुताबिक 2008 में भारत में प्रिंट मीडिया उद्योग करीब 140.7 बिलियन डॉलर का था। यह बढ़त पिछले साल के मुकाबले करीब सात फीसदी ज्यादा थी। इस तरह 2009 में बढ़कर यह उद्योग 146.4 बिलियन डॉलर हो गया। यानी पिछले साल की तुलना में करीब चार फीसद की बढ़त दर्ज की गई। कूपर ने जब ये रिपोर्ट जारी की थी, तब आर्थिक मंदी शुरू नहीं हुई थी। बहरहाल कूपर ने 2010 में यहां के प्रिंट माध्यम का बिजनेस करीब 154.8 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाने का अनुमान लगाया था। यानी पांच दशमलव आठ फीसद की बढ़त होनी है। इसी तरह 2011 में इस उद्योग के 166.5 बिलियन डॉलर तक पहुंचने अनुमान था। यानी साढ़े सात फीसद की बढ़ोत्तरी। इसी तरह 2012 में 178.1 बिलियन डॉलर तक पहुंचने का अनुमान सात फीसद की बढ़त का अनुमान था। प्राइसवाटर हाउस कूपर ने 2013 में 184.8 बिलियन डॉलर तक पहुंचने का अनुमान लगाया है यानी करीब तीन दशमलव सात फीसद की बढ़त। 2008 से 2013 के बीच की ये बढ़त प्राइसवाटर हाउस कूपर के मुताबिक करीब पांच दशमलव छह फीसद की बैठती है। यानी भारत में देसी प्रिंट माध्यमों का भविष्य कूपर ने अच्छा जताया था। आर्थिक मंदी के बाद मीडिया हाउसों में छंटनी की परेशान करने वाली खबरों के बीच लगातार नए संस्करणों का खुलना इस रिपोर्ट के आकलन को ही सही साबित करता है।

यह सच है कि पूरी दुनिया में इंटरनेट की तरफ विज्ञापनों का रूझान बढ़ रहा है। भारत में अभी ये विकास ज्यादा नहीं है। लेकिन पिछले कुछ सालों में इसमें तेजी आई है। ऐसा अनुमान है कि भारत में विज्ञापन का बाजार करीब बीस हजार करोड़ का है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विस्तार के दौर में अखबारों से विज्ञापनों की बाढ़ टेलीविजन की ओर रही। इंटरनेट माध्यम इस दौर में पीछे ही रहा। इसकी वजह इंटरनेट पर उपभोक्ताओं का अभी ज्यादा भरोसामंद नहीं होना है। सितंबर 2007 में मोबाईल एसोसिएशन आफ इंडिया ने एक अध्ययन करवाया था। जिसके मुताबिक देश में तब करीब पौने चार करोड़ सक्रिय इंटरनेट कनेक्शन थे। निश्चित तौर से इसमें बढ़त देखी जा रही है। इसका असर इंटरनेट विज्ञापन पर भी दिखना शुरू हो गया है। गूगल के मुताबिक 2004 में इंटरनेट विज्ञापनों पर भारत में कुल खर्च 400 करोड़ रूपया था जो साल 2007 में 2,700 करोड़ रूपये हो गया. अनुमान है कि इस साल आनलाईन विज्ञापन 6,000 करोड़ रूपये का है।

इस तमाम आंकड़ेबाजी का लब्बोलुआब ये है कि इंटरनेट में भी लोगों की पहुंच बढ़ेगी। लेकिन जिस देश की जनसंख्या सवा अरब को पार कर चुकी है, जिसके अधिकांश इलाके में बिजली अब भी कई-कई दिन तक नसीब नहीं होती है, वहां इंटरनेट कैसे काम करेगा। लेकिन अखबार की वहां पहुंच बनी रहेगी या कई मामलों में बढ़ेगी। बचपन से लेकर जवानी की शुरूआत तक इन पंक्तियों का लेखक पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिस गांव में रहता था, वहां सड़क और रेल होने के बावजूद अखबार पढ़ने के लिए बगल के कस्बे तक जाना पड़ता था। लेकिन अब उसी गांव में पचास से ज्यादा अखबार आते हैं। जिस दिन अखबार नहीं आता, लोगों में उदासी देखी जा सकती है। तकरीबन पूरे देश के गांवों की आज यही हालत है। यही वजह है कि प्रिंट माध्यमों को लेकर भारत में उत्साह बना हुआ है।

पश्चिमी दुनिया में अखबार की मौत के विचार को 2005 में लंदन से प्रकाशित पत्रिका द इकोनॉमिस्ट की कवर स्टोरी से तेजी मिली थी। निश्चित तौर पर पिछले दस-बारह साल से पश्चिमी प्रिंट मीडिया उद्योग मायूसी से जूझ रहा था। द इकोनॉमिस्ट की कवर स्टोरी – हू किल्ड द न्यूजपेपर?. ने इस विचार को जैसे गति दे दी थी। द इकोनॉमिस्ट का मानना था कि अखबार तो मर ही चुका है, अब असली सवाल यह है कि उसे मारा किसने और उसकी मौत का जिम्मेदार कौन है?  उसने इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार मीडिया हाउसों के मालिकों को ठहराया था। पत्रिका ने इस अंक में मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक का इंटरव्यू छापा था-जिसमें उन्होंने अपनी ही बिरादरी के लोगों पर निशाना साधते हुए कहा था कि इन हाउसों ने कमाई का रिकॉर्ड तोड़ दिया, लेकिन उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि समाचार पत्र उद्योग के टिकाऊ विकास के लिए थोड़ा अनुसंधान या नये-नये प्रयोगों पर भी धन खर्च किया जाना चाहिए। मर्डोक की इस बात से बदलते दौर में भारतीय मीडिया हाउस भी सहमति जताते नजर आ रहे हैं। मध्य प्रदेश के अखबार नई दुनिया की ओर से इसी साल आयोजित एक कार्यक्रम में आईएनएस के अध्यक्ष और बॉम्बे समाचार समूह के प्रमुख होर्म्सजी कामा  को मानना पड़ा कि समाचार-पत्रों को बदलते दौर के मुताबिक खुद को नए रूप में ढालना होगा, इसके लिए शोधपरक अध्ययन पर बल देने की जरूरत है। उन्होंने अखबारों की डिजाइन, ले-आउट और स्वरूप में भी नयापन लाने पर भी जोर देने की वकालत की।

अखबारों की मौत को लेकर चीन और जापान में भी चिंताएं जताई जाती रही हैं। लेकिन वहां के अखबारों ने खुद को बदल डाला और अपनी उपादेयता बनाए रखी। उनके बदलाव को लेकर बहस हो सकती है। क्योंकि जापान में खबरों को कॉमिक की तरह पेश किया जाने लगा है। उनकी गंभीरता को लेकर सवाल उठाए जा सकते हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि उन्होंने अपनी पाठकीय परंपरा की पूंजी को बरकरार रखा है। अगर उन्होंने अपनी परंपरा को बचाए रखा है तो जाहिर है कि विज्ञापनदाताओं का भरोसा भी उनमें बरकरार है। इसकी तस्दीक प्राइसवाटर हाउस कूपर की रिसर्च रिपोर्ट भी करती है। रिपोर्ट के मुताबिक डिजिटल माध्यमों की ओर विज्ञापन का प्रवाह बढ़ रहा है। लेकिन विज्ञापनदाता भरोसेमंद पाठकों को लुभाने के लिए अखबारों पर ही ज्यादा भरोसा जता रहे हैं। इस दिशा में वे अखबार ज्यादा अच्छा काम कर रहे हैं, जो खुद को डिजिटल यानी इंटरनेट और टेक्नोलॉजी का बेहतरी से इस्तेमाल कर रहे हैं। हालांकि रिपोर्ट में ये दुख भी जताया गया है कि यह चलन अभी ज्यादातर अखबार समूहों में शुरू नहीं हो पाया है। लेकिन बाजार में बने रहने के लिए उन्हें देर-सबेर आधुनिकता की इस दौड़ में शामिल होना ही होगा।

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जब-जब कोई नया माध्यम आता है, पुराने की मौत की आशंका जताई जाने लगती है। रेडियो- टीवी के आने के दौरान भी ऐसा ही हुआ था। लेकिन नई चुनौतियों से जूझते हुए प्रिंट माध्यम ने खुद को मजबूती से खड़ा होने का रास्ता तलाश लिया था और आगे बढ़ता रहा। ये सच है कि एक बार फिर उनके सामने ऐसी चुनौती आ खड़ी हुई है, लेकिन यह भी सच है कि इससे निबटने और खड़ा होने का रास्ता प्रिंट माध्यम तलाश ही लेगा। यहीं पर याद आती है अमेरिका के प्रसिद्ध खेल पत्रकार बिल जेम्स की याद। हाल में प्रकाशित अपने एक लेख में उन्होंने कहा है – “ आज जो अखबार हमारे सामने है 1935 का अखबार उससे बहुत अलग था। 1935 में जो अखबार था 1910 का अखबार उससे बहुत अलग था। और इसी तरह से 1910 का जो अखबार था, 1885 का अखबार उससे बहुत ही अलग था। निश्चित रूप से 1836 में जो सिलसिला शुरू हुआ था, आज का अखबार उसी का एक नतीजा है। हम फिर से 1836 वाली स्थिति में पहुंच गए हैं। उस स्थिति में जब जो चाहता था, अपना अखबार शुरू कर लेता था। हम यह नहीं जानते थे कि इनमें से कौन अच्छा है, कौन बुरा। कौन भरोसेमंद है और कौन नहीं। यही सब आज भी होता दिखाई दे रहा है। मुझे लगता है कि आज जो ब्लॉग हैं, वे बड़े होते जाएंगे। जो अच्छे होंगे उमेश चतुर्वेदीऔर चल निकलेंगे उन्हें एक सहायक की जरूरत पड़ेगी, फिर दूसरे और फिर तीसरे सहायक की भी। फिर हम एक सदी या उससे भी ज्यादा समय एक नए बाजार को बनाने में लगा देंगे। इसमें कोई बुरी बात नहीं है, यह तो एक अच्छी चीज है।”

लेखक उमेश चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं. उमेश से संपर्क [email protected] या फिर 09891108295 के जरिए किया जा सकता है.

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0 Comments

  1. Hariom Trivedi

    January 17, 2010 at 7:33 am

    प्रिंट मीडिया पर लोगों का भरोसा कभी भी खत्‍म नहीं हो सकता। इसका एक बहुत बडा कारण भी है। देश में आज भी ज्‍यादातर लोग प्रिंट मीडिया को ज्‍यादा विश्‍वसनीय मानते हैं। इसके अलावा अखवारों में स्‍थानीय खबरें भी होती है जो फिलहाल समाचार चैनलों के लिए संभव नहीं है। समाचार पत्रो के लगातार बढते पाठक इस बात का गवाह हैं कि प्रिंट मीडिया पर आज भी लोगों का भरोसा कायम है।
    हरिओम त्रिवेदी
    खुटार,शाहजहांपुर-उ0प्र0

  2. Urmil Grover

    January 18, 2010 at 2:40 pm

    Print media has its own important. Nobody can down the importance of print media, because reader waits for their newspapers with a curiosity . Everybody wants to read current news to know the facts.

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