सीधे मुद्दे पर आ रहा हूं। दरअसल आज महसूस हुआ कि गीत संगीत से जिंदगी कितनी दूर चली आई है। बरसों बाद काम के बहाने ही सही, बड़े मन से गीत सुना। महानगर की जिंदगी का सुर ताल संभालने में सुर ताल से कितने बेगाने हो चले हैं, इसका एहसास हुआ। याद नहीं कि कितने दिन, कितने महीने, कितने साल पहले गीत-संगीत से ऐसी मुलाकात हुई थी। और एक दौर ऐसा था कि कुछ हो न हो, गीत संगीत का साथ था।
पूर्वांचल की जिस मिट्टी में जन्म हुआ, वहां तो बच्चे के जन्म लेने से पहले ही गीत शुरू हो जाते हैं। मेरे जन्म के वक्त भी सोहर जरूर गाया गया होगा। … ललना घरे घरे बाजेला बधइया कि होरिला जनम लेहले हों….। दर्जनों महिलाओं के समवेत स्वर में ये और इसी तरह कई और सोहर गाए गये होंगे। जहां से जेहन में कुछ याद है..तो वो याद भी गीतों से जुड़ी है। मुझे मेरी मां ने नहीं, मेरी ताई ने पाला था। निःसंतान थीं, विधवा थीं। घर भर उन्हें दिद्दा कहते थे। मेरे जन्म के वक्त उन्होंने पिताजी से कहा था कि इसी बच्चे के सहारे जिंदगी काट लूंगी। मां से उन्होंने मुझे मांग लिया था।
वो जमाना कोई और ही था। आज तो शायद कोई सोच भी न पाए, लेकिन मेरा सच यही है। दो महीने की उम्र में ही मैं दिद्दा की गोद में आ गया। मां से नाता सिर्फ दूध पीने तक का ही था। दूध पिया, फिर दिद्दा के पास वापस। मैंने मां की गोद नहीं देखी। जब होश संभाला तो दिद्दा की गोद में था। उन्हीं का दुलारा था। हर जिद पूरी करती थीं दिद्दा। और हर बात में जुड़ा था गीतों से नाता। गा गाकर खाना खिलाती थीं दिद्दा। इतनी निर्मल आवाज में खाना खिलाने की मनुहार हो तो बच्चा भला कैसे न खाए। आज भी याद है दिद्दा खिलाते समय गाती थीं– चंदा मामा आरे आवा, पारे आवा, नदिया किनारे आवा, दूध भात लेहले आवा, बाबू के मुंह में घुटूक से। और घुटुक से कहते ही एक घूंट दूध हलक के भीतर।
सोने का वक्त आ जाता था तो दिद्दा की लोरियां चालू हो जाती थीं। पहले तो पैर पर बैठकर घुंतू-मुंतू खेलते..। वो भी गीत के साथ- घुंतु मुंतु एक कौड़ी पउलीं, उहै कौड़िया, गंगा बहउलीं। गंगा माता बालू देहलिन। ऊ बलुआ भड़भुजवा के देहली, भड़भुजवा हमें भूजा देहलसि। ऊ भुजवा घसिकटवा के देहलीं, घसिकटवा हमें घासि देहलिस। ऊ घसिया हम गइया के देहली। गइया हम्में दूध देहलिस। ऊ दुधवा हम राजा के देहलीं। राजा हम्मे घोड़ा देहलें। ऊ घोड़वा हम बाबू के देहलीं। (हिंदी भावार्थ–घूमते घूमते एक कौड़ी मिली, जिसे मैंने गंगा में बहाया, गंगा मां ने बालू दिया, बालू को भड़भूजे को देकर उससे भूजा लिया, भूजा मैंने घास काटने वाले को देकर उससे घास लिया। घास को गाय को खिलाया, गाय ने दूध दिया, दूध हमने राजा को दिया, राजा ने खुश होकर घोड़ा दिया, जिस पर मेरा बेटा बैठा)
..अपने बेटे को घोड़े पर बैठने का सुख देखने वाली मां की ये लोरी। एक कौड़ी की मदद से कैसे अपने बेटे को घोड़े पर बैठे देखना चाहती है मां..। पैरों पर लिटाकर झुमा झुमाकर ये गीत गाकर पहले तो सोने के लिए तैयार करतीं दिद्दा। फिर लोरी सुनातीं, आंख लग जाती..लोरी चलती रहती।
बड़े हो गए, स्कूल जाने लगे थे, लेकिन लोरी सुनने की आदत नहीं गई। गांव में तमाम असुविधाएं थीं, लेकिन गीत संगीत से अटूट नाता था। घर में धान फटकने के लिए गांव की महिलाएं इकट्ठा होतीं तो गाना शुरू हो जाता। अचार बनाने के लिए गांव की महिलाएं आतीं, भरुआ मिर्चा भरने के लिए आतीं तो समवेत स्वर में गाना होता। जब धान की रोपाई चलती थी तो सिरवार चाचा (आज के शब्दों में जायदाद के रखवाले या मैनेजर) खेतों में ले जाते। दर्जनों महिलाएं गाना गाते हुए रोपाई कर रही होतीं। गाना उन्हें थकने नहीं देता था, और उन गीतों में वो जादू था, जो हमें वहां से हिलने नहीं देता था।
सावन आया नहीं कि गीत चालू। नीम के पेड़ में ताड़ के बत्तल और बांस का झूला पड़ जाता था। कजरी शुरू हो जाती थी– झूला पड़े कदम की डारी, झूलें किशन मुरारी ना…। दर्जनों गीत थे, हर गीत का सुर अलग अलग था। ये सुर परम्पराओं से आए थे, किसी ने कम्पोज नहीं किए थे। –हरे रामा कच्ची कसइली कचनारी..तुड़त डर लागी रे हारी… जैसे गीत समवेत सुर में झूला झूलने का आनंद चौगुना करते थे।
महीने में दो बार आल्हा होता था। गांव का फक्कड़ फकीर बादशाह का आल्हा सुनने कई गांव के लोग आते थे। मुख्य गवैया बादशाह और उसके पीछे दर्जन भर पछुवा। ढोल मजीरे के साथ शाम को आल्हा शुरू होता था, पौ फटने तक चलता था। क्या मजाल कि कोई अपनी जगह से हिल जाए। बादशाह ऐसा समां बांधता था जैसे लड़ाई के मैदान में आल्हा-ऊदल पहुंच चुके हों। आल्हा में अतिशयोक्ति की भरमार है, लेकिन बचपन में सब सच सच लगता था।
घर में कोई उत्सव हुआ तो गाना। शादी-ब्याह, जनेऊ हो तो पूछिए मत। सिर्फ गीत संगीत ही गूंजता था। संझा उठता था– सांझ भइल संझा रहलू तू कहंवा, रहलू मैं रहलूं मिसिर जी के अंगना। नींद खुलती थी गानों से। कभी कभी तो गुस्सा आता था। संझा उठने से लेकर तोरन सिरवाने तक गीतों का क्रम चलता रहता था। भोजपुरी से अवधी तक पहुंचते थे गानों के बोल- जसुमति लेति बलइया रे मालिनि ठाढ़ि जमुना जी के तीर..। ये शायद दो संस्कृतियों का कुदरती मिलन था।
मुहर्रम आने के कई दिन पहले से ही ढोल ताशे बजने लगते थे और शुरू हो जाता था झर्रा। झर्रा शब्द की व्युत्पत्ति मैं नहीं जानता। क्या होता है, कहां से आया ये शब्द। लेकिन हम लोग झर्रा ही जानते थे। मूल रूप से इसमें करबले की कहानी होती थी। इसी कहानी को गीत के माध्यम से गाया जाता था। दर्जन भर लोग बिना माइक के गाते थे और सैकड़ों लोग दम साधे सुनते रहते थे। हसन-हुसैन भाइयों की कुर्बानी जैसे ही बयान होती थी, सबकी आंखों में आंसू आ जाते थे। झिन्ना चाचा झर्रा गाने के अगुवा थे। मुहर्रम मातम का त्योहार था, लेकिन हम लोगों के लिए सबसे बड़ा उत्सव। बाद के दिनों में भी दशहरे की छुट्टी में भले ही घर नहीं आ पाए, लेकिन मुहर्रम से हफ्ते भर पहले पहुंच जाते थे झिन्ना चाचा का झर्रा सुनने।
होली आने से पहले तो ऐसा लगता था जैसे मां सरस्वती ने अपनी वीणा का पूरा सरगम हमारे गांव में छोड़ गई हों। सत्तर फीसदी मुस्लिम आबादी वाले गांव में पूरा गांव होली के रंग में महीने भर पहले से डूब जाता था। गांव की भौजाइयों को देखते ही लड़के कबीरा गाते थे और बदले में मिलता था भौजी के हाथ का गोबर या कीचड़। शाम को फगुआ गाया जाता था। पूरा श्रृंगार रस..। बचपन में तो सिर्फ धुन ही समझ में आती थी। बड़े हुए तो पूरा समझने लगे। होली के दिन तो कबीरा की अति हो जाती थी। शाम को पंडितजी जब पत्रा बांचते। नए संवत्सर का हाल बतलाते। फिर उसके बाद भांग छनती और देर रात तक चलता रहता फगुआ।
हाईस्कूल के बाद इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए बनारस आ गया। इस शहर की फिजाओं में ही जैसे संगीत घुला था। पहली होली में ही अस्सी घाट का साहित्य हाथ लग गया। मित्रों के बीच इसका सस्वर पाठ होता था। कच्ची उम्र में शरीर के अंग विन्यास पर आधारित गीतों वाला ये साहित्य बांचने में एक दूसरे ही तरह का मौज मिलता था। जमकर पढ़ाई होती, दोस्तों का साथ मिलता तो गाने बजाने का भी कार्यक्रम चलता। स्कूल के अध्यापकों पर कविताएं बनतीं।
ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद आ गए। गीत संगीत से नाता गहरा होता गया। दिद्दा ने पैसे दिए थे, फिलिप्स वाइकिंग रेडियो खरीदा था। विविध भारती से ऐसा नाता हो गया कि रेडियो अमूमन बंद ही नहीं होता था। गाने सुनते सुनते याद हो गए थे। टेबल कुर्सी पर पढ़ाई चलती, साथ ही धीमी आवाज में गाने चलते। पढ़ाई की कड़वी दवा संगीत के शहद में लिपटकर दिमाग में चली जाती थी।
नब्बे का दशक शुरू होने वाला था..। मूंछें आ गई थीं, दाढ़ी बनाना भी शुरू हो चुका था। अब गीत के बोल मायने रखने लगे थे। शेरो शायरी से नाता जुड़ता गया। गजलें सुनने में अच्छी लगने लगी थीं। याद भी होने लगी थीं। इसी बीच कमबख्त इश्क भी हो गया। तारे जमीन पर के दर्शील सफारी की तरह हालत थी। किताब खोलते थे तो अक्षर भागने लगते थे, अक्षरों की जगह कोई अक्स उभर जाता था। प्रेम गीत अब रूह में समाने लगे थे। गाने और भी प्यारे लगने लगे थे। उमराव जान का ये गीत कई बार सुना था– जिंदगी जब भी तेरी बज्म में लाती है हमें..ये ज़मीं चांद से बेहतर नजर आती है हमें। मुहब्बत के उन दिनों में ये गीत अचानक सुना और इसकी ये लाइन सुनी- हर मुलाकात का अंजाम जुदाई क्यों है, अब तो हर वक्त यही बात सताती है हमें…। क्या असर किया था इन लाइनों ने बयां नहीं कर सकता। क्योंकि वो मुहब्बत जुदाई पर ही खत्म होनी थी। इसका अंदाजा हम दोनों को था।
मुहब्बत में मुलाकातों का सिलसिला शुरू हुआ, नेहरू जी को बहुत बहुत धन्यवाद। क्योंकि उनका घर आनंद भवन और उनके नाम पर बना नेहरू पार्क प्रेमी युगलों के बड़े काम आता था। मांगी हुई मोटरसाइकिल पर उड़ चलते थे। इन पार्कों से नाता हुआ तो यहां अब प्रेम गीत गाए जाने लगे। बाकायदा कभी सोलो तो कभी युगल। महबूबा कभी सहेलियों के साथ आती तो वहां मजबूरी में सुनाने पड़ते थे गीत। बदले में वो भी सुनाती थीं तराने। गाने से ज्यादा सुनने में आनंद था। हां, ‘वो’ भी गाती थी, लेकिन बहुत सिफारिश करवाती थी। सिफारिश हो नहीं पाती थी।
बीए पार्ट थ्री में को-एजुकेशन था। पहली बार लड़कियों का साथ मिला। हमारे मित्र बिरादरी में कई लड़कियां शामिल हो गईं। संस्कृत विभाग में क्लास खत्म होने के बाद जमती थी गाने की महफिल। डेस्क का तबला बजता था। गाने गाए जाते थे। आनंद, रमाशंकर, ज्योति, माया, ममता, समीर, महात्मा, मैं खुद। सब के सब तो तानसेन के रिश्तेदार थे। कुछ दोस्त सिर्फ श्रोता थे। पिकनिक मनाने पूरी टोली जाती तो वहां भी खूब गूंजते तराने। गाने बाकायदा रिकॉर्ड भी होते। गीतों में सुनाए जाते दिलों के हाल। क्योंकि कुछ दोस्त सिर्फ दोस्त नहीं रह गए थे। दिल दोस्ती की सरहद पार करना चाहता था। लिहाज का परदा ऐसा था कि सीधे सीधे बात कहने में जुबान फंसती थी। कोई सुनाता– दिन ढल जाए हाय रात न जाए, तू तो ना आए तेरी याद सताए। कोई सुनाता– मेरे महबूब कयामत होगी..। तो कोई सुनाता– ओ महबूबा तेरे दिल के पास ही है मेरी मंजिले मकसूद..।
पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए आईआईएमसी दिल्ली पहुंचा तो रंग थोड़ा बदल गया था। दो महीने तो दिल्ली समझने में लग गए। दोस्त बने, साथ हुआ तो महफिल भी जमने लगी। आईआईएमसी की कैंटीन में गाना बजाना होता था, लेकिन वो पहले जैसा मजा नहीं था, क्योंकि यहां श्रोताओं की संख्या ही ज्यादा थी।
आईआईएमसी की पढ़ाई खत्म हुई तो नौकरी लग गई। रोजी-रोटी से नाता हुआ, गीत संगीत से दूरी बढ़ती गई। लखनऊ में जिंदगी ने कड़ा इम्तिहान लिया, और इस इम्तिहान में गीतों ने साथ दिया। विचार मीमांसा मैग्जीन बंद हो चुकी थी। फाकेमस्ती के दिन थे, आश्वासनों पर पल रहे थे। दिन भर मेहनत करते थे, रात में खाकर सभी साथी एक सुर में गाते थे-हम होंगे कामयाब—हम होंगे कामयाब एक दिन। एक ये गाना और फिर प्रदीप के गीत- पिंजरे के पंछी रे..तेरा दर्द ना जाने कोय…। या फिर… टूट गई है माला, मोती बिखर गए…।
पीछे मुड़कर देखता हूं कि किस तरह जिंदगी पल पल दूर हो गई गीत संगीत से। किस तरह सब कुछ बदलने लगा। अब बड़े हो गए तो बचपन के खेल खिलौने की तरह गीतों से नाता भी टूट गया। जब इलाहाबाद में था, तभी दिद्दा का निधन हो गया था। गीतों की सबसे पुरानी डोर टूट गई। गांव में धान अब भी रोपे जाते हैं, गाने शायद अभी भी गाये जाते हों, लेकिन उन्हें सुने 20 बरस से भी ज्यादा हो गए हैं। बादशाह अब आल्हा नहीं गाता, क्योंकि किसी को भी आल्हा सुनने की फुर्सत नहीं है। झिन्ना चाचा का भी इंतकाल हो गया। मुहर्रम अब रस्मी हो गया है। होली के रंगों में अब गीतों की सरगम नहीं मिलती, क्योंकि बरसों पहले मौलाना जी आकर गांव के मुसलमानों को समझा गए थे कि होली-दीपावली मुसलमानों के त्योहार नहीं हैं। जो मित्र खुलकर गाते थे, वो घर गृहस्थी में लगे हैं, कोई इसलिए नहीं गाता कि बड़ा अफसर हो गया है, कोई आंदोलनकारी हो गया है। कोई विधायक हो गया तो कोई जेल में बंद है।
मैं अपनी क्या कहूं। तीन हजार से ज्यादा गाने याद होंगे, लेकिन पिछले 15 सालों से एक भी नया गाना याद नहीं हुआ। पहले रेडियो बिना चैन नहीं पड़ता था, लेकिन अब घर में रेडियो नहीं है। जरूरत ही महसूस नहीं हुई। मकान के लिए कर्ज लिया, जमीन खरीदने के लिए कर्ज लिया, कर्ज पर कार खरीदी, लाखों का कर्ज लेकर चुका रहा हूं, लेकिन पांच हजार रुपये कार में स्टीरियो लगवाने के लिए नहीं निकल पाए..। निकलते भी कैसे, तेज रफ्तार जिंदगी में गीत संगीत की जरूरत तो जैसे बहुत पीछे छूट गई हों। जिंदगी एक नया लय पकड़ चुकी है, इस पर अब पुराने सुर सधते भी नहीं।
सच ही तो लिखा है बशीर बद्र ने-
है अजीब शहर की जिंदगी, न सफर रहा, न कयाम है।
कहीं कारोबार सी दोपहर, कहीं बदमिजाज सी शाम है।
लेखक विकास मिश्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी पत्रकार हैं। इन दिनों वे हिंदी न्यूज चैनल ‘न्यूज 24’ में सीनियर प्रोड्यूसर पद पर कार्यरत हैं। उनसे संपर्क [email protected] या 09873712444 के जरिए किया जा सकता है।
यशवंत
August 17, 2010 at 11:19 am
क्या कहूं.
इतनी शिद्दत से खुद के अतीत को याद करने वाले लोग बहुत कम हैं दिल्ली में. अगर कोई याद कर रहा है तो इसका मतलब है कि जड़ें बहुत गहरी हैं उसकी. वो ऐसी जड़ें हैं जिसके साथ फिर जुड़कर जीवन जीने की लालसा होती है और उन्हीं जड़ों के साथ जीवन की यात्रा के अंत का मन करता है.
बधाई साथी. शानदार रचना के लिए.
ये अब तक की आपकी लिखी गई रचनाओं में सर्वाधिक योग्य है, इसलिए कि आपने खुद पर लिखा है, पूरे मन व ईमानदारी से लिखा है, बेजोड़ भाव व संवेदना के साथ लिखा है, इसी कारण यह रचना बेजोड़ की श्रेणी में आ जाती है.
आपका यह लिखा नए पत्रकारों को सोचने को मजबूर करे कि आखिर पत्रकार बनना कहते किसको हैं. जिनके अंदर ऐसी संवेदना, ऐसा लेखन न हो, वो क्या करेगा पत्रकारिता में.
उम्मीद करते हैं, ऐसा ही अन्य पत्रकार साथी भी लिखेंगे ताकि उन्हें उनके व समाज को जिंदा रहने का आभास रहे.
आभार
यशवंत
Saroj Singh
August 17, 2010 at 11:33 am
I did not expect u 2 forget our IIMC days 😉 u should have discussed those days also :D[b][/b][b][/b]
akhilesh dwivedi
August 17, 2010 at 11:49 am
vikash sir aapka lekh padh ke mann ko ati prasannta hui…mann ek baar fir se bachpan me jaane ke liye lalayit ho utha….. yashwant sir ne shi kha hai ki aapka lekh padhne ke baad khud ko patrekaar kahne waale bahut se logon ko samajh me aa jayega ki patrkaarita kise kahte hain….. aisa lekh likhne ke liye mai aapko sachhe dil se badhaie deta hoon……..
Ashok Priyadarshi
August 17, 2010 at 12:13 pm
yashvant bhai, aapne theek hi likha hai ki aaj na to itni imandari hai aur na hi samvedanshilta ki koi is tarah se likh sake. bhai vikash se meri pehli mulakat dilli main hi rajveer colony main hui thi ek common friend ke yahan aur tab wah meerut main dainik jagran main hua karte the. bad main unse ek mulakat meerut main bhi hui, tab main apne ek dost ki madad ke liye unke pas gaya tha. iske bad kuch aur mulakatain hui aur fir wah dilli aa gaye. har mulakat main vikas ka ek naya chehra samne aata gaya. is rachana ke bad unka ek aur chehra samne aaya hai. is bar aisa lag raha hai jaise didda ko hata den to yeh meri kahani ho. shuru se ant tak kam se kam teen bar padhne ke bad main yahi sochta raha. yeh bat jehan main kai bar aai par use shabdon main nahin utar saka. ab chunki aap keh rahe hain to main bhi ise likh dalne ka prayas jarur karunga…
bhai vikash ko hamari shubhkamnayen aane wale samay main unse isse bhi achhe lekh ki kamnaon ke sath…
ashok priyadarshi
Siddharth Kalhans
August 17, 2010 at 12:36 pm
जान मार दीहो भईया। जियो
Pravin Dubey
August 17, 2010 at 1:51 pm
क्या…. बात… है साहब…? इतनी संजीदगी से अतीत की तुरपन उधेड़ी कि दिल गदगद हो गया. अतीत को याद करने वाले बहुत होते हैं…कोई अतिरंजित करके उसे अपना सबसे सुनहरा वक्त ठहराता है, तो कोई उन अभावों के साथ अपने वर्तमान के वैभव और रौब को दर्शाने की कोशिश करता है. आपने जबरदस्त साम्य के साथ लिखा…. निहायत ईमानदारी के साथ लिखा और एकबारगी सबको उनके पुराने दिनों की याद ताज़ा करवा दी. लेखक का महत्व तभी तक है जब तक पाठक उससे तादात्म्य बनाए रखता है…. यहाँ तो भैया.. एक पल को भी हम लेख से दूर नहीं हो पाए. आँखों के आगे सारा द्रश्य घूम गया.. कैसे दिद्दा दुलार करती होंगी, तक देख लिया. जय हो आपकी… वाकई काबिले तारीफ़….
प्रवीण दुबे
शैलेन्द्र द्विवेदी, भोपाल
August 17, 2010 at 2:53 pm
आप सही कहते हैं यशवंत जी, कि जिनके अंदर ऐसी संवेदना, ऐसा लेखन न हो, वो क्या करेगा पत्रकारिता में.लेकिन अफसोस आज दिली संवेदनाओं और सच्ची भावनाएं बाहर आने के लिये नसों में हांफ रहीं हैं, बावजूद इसके किसी को साहित्यिक दमा भी नहीं होता, हम पत्रकार हर वक्त खबरों में जीते हैं, लेकिन कभी अपनी जिंदगी नहीं जी पाते, क्योंकि अपना कुछ भी नहीं, या तो चैनल या अखबार के लिये या समाज के लिये….हर रोज पचासों ऐसे-ऐसे वाकये देखने को मिलते हैं कि हम संवेदनाशून्य होते जा रहे हैं……लेकिन संभलना भाईयों…..जिंदगी एक ही बार मिलती है, इसमें संवेदना का लिबास लिपटा रहने दीजियेगा….. विकास जी आपका आर्टिकल पढ़कर बहुत अच्छा लगा……बधाई
deepak dudeja
August 17, 2010 at 4:36 pm
“टूट गई है माला, मोती बिखर गए… ” अब क्या बताएं भैया …. बस समझ ले चुपी भी बहुत कुछ बोलती है. पुराने ज़ज्बात काबू से बहार हो गए…………
deepak dudeja
August 17, 2010 at 4:48 pm
“जिंदगी एक नया लय पकड़ चुकी है, इस पर अब पुराने सुर सधते भी नहीं।” – इससे ज्यादा कहने को कुछ भी नहीं बचता. …… जियो विकास जी तहे दिल से कामना करते है.
khabri
August 17, 2010 at 5:01 pm
कितना जीवंत और सजीव वर्णन। वाह
satya prakash "AZAD"
August 18, 2010 at 5:00 am
अगर एहसास जिंदा हैं, तो उन्हें जगाए रखिये……अपने में भी, औरों में भी…..ज़रूरत पड़े तो याद कीजिये…..9453520853, बनारस……जय हिंद
Haresh Kumar
August 18, 2010 at 9:50 am
बहुत खूब। आपने बचपन की याद ताजा कर दी। इसे पढ़कर लगता है कि जैसे अपनी ही कहानी हो। एक बार पढ़ना शुरू किया तो अंत पर ही जाकर नजर रूकी। हां ‘विचार मीमांसा’ बहुत ही शानदार पत्रिका थी। मैंने उसका हर अंक पढ़ा है। पूरी तरह से बेबाक लेखन उसमें मौजूद होता था। लगता है राजनीतिक दबाव के कारण विचार मीमांसा को बंद करना पड़ा। उसे जैसा कोई और पत्रिका पढ़ने को नहीं मिला जिसमें नेताओं के बारे में छोटी-बड़ी हर जानकारी खोल कर रख दी जाती थी। जैसे बंदर के हाथ में बिहार (लालू यादव के शासन पर) कवर स्टोरी। राष्ट्रपति जी (तत्कालीन राष्ट्पति शंकरदयाल शर्मा) आपके बेटे इतने बेलगाम क्यों है। रामविलास पासवान पर भी एक कवर रिपोर्ट छपी थी। वाकई में शानदार पत्रिका थी। कोई पक्षपात नहीं।ऐसी पत्रिका असमय मौत का कारण बन जाती है।
जिंदगी एक जगह ठहर कर तो रहती नहीं। बचपन में देखे ख्वाब जवानी आते-आते यथार्थ की धरातल पर बदल जाते हैं। और फिर काम के सिलसिले में सब कुछ छूट जाता है। अब तो बस काम-काम-काम याद रहता है। क्योंकि जिंदगी में आगे बढ़ना है तो समझौता करना पड़ता है। और बहुत कुछ छूट जाता है। जिसमें बचपन के दोस्त से लेकर गीत-संगीत का साथ भी है। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जिन्हें शौभाग्य से सबकुछ प्राप्त हो जाता है। वरना संघर्ष ही जीवन है।
आपकी बेहतरीन लेखन के लिए हार्धिक शुभकामना। यशवंत जी ने अपने पोर्टल पर स्थान देकर हम सबको पढ़ने का मौका दिया इसके लिए वे भी बधाई के पात्र हैं।
संजस ओझा 'भोजपुरी'
August 18, 2010 at 11:24 am
सर…पढा तो रोंगटे खड़े हो गए…सचमुच अपना जमाना याद आ गया…वो बचपन…वो अल्हड़पन…फिर धीरे-धीरे सम्भलना…उन छोटे शहरों में रहना, लेकिन उनकी रंगीनियत में सराबोर रहना…वो संगीतमय जीवन शायद कहीं बेसुर सा हो गया है….लेकिन इस लेख को पढ़कर एक पल के लिए ही सही, सचमुच मज़ा आ गया……
Chandrabhan Singh
August 18, 2010 at 1:04 pm
Vikas bhai
Excelent, I never forget this article.
yuva gunj
August 18, 2010 at 2:56 pm
good to see u,
but every mobile set has FM radio. you can listen any time every where…
vikas ji
vikas singh
August 19, 2010 at 12:50 pm
bahut sundar sir….mi kaun vikas hu sayad aapko yaad dilane ki jarurat nahi hi…hum apko aap hamko sadev yaad rahenge…..darasal baat ye hi..ki mi aapki taareef nahi kar raha…warna aap pata nahi kya kya sonchenge….par ye jaroor kahunga ki…apke sabdo mi jo baat hi…wo mujhe bahut achi lagti hi….mi kai baar baar rec bulletin ke samay apke pkg ko baitha baitha padhta rahta tha….aap aur divyasu ji ke pkg ko padhne mi bada aanand aata tha….aage bhi aap logo se yahi umeed kara hu ki aap log isse bhi acha likhenge……….
Nadim Akhter
August 19, 2010 at 4:34 pm
Vikas bhai,
aapne dil se likha hai…aapne bataya tha..so aaj issi ko padhne ke liye bhadas khola…maine kaha tha padh ke comment doonga…ab kya comment doon…
doston ne to pahle hi sab bata diya hai aapko…
aap ek jindadil insaan hain aur rahenge..
Nadim Akhter
vikas mishra
August 21, 2010 at 8:21 am
मन में उमड़े कुछ जज्बात थे, जिन्हें बयां किया था। लोगों का इतना प्यार मिलेगा, मैंने सोचा भी नहीं था। बेहतरीन कमेंट्स आए। दूर दराज से लोगों ने फोन भी किया। जिन्होंने भी पढ़ा, उन्हें धन्यवाद। कुछ शिकायतें भी आईं तो कुछ सुझाव भी। भाई सरोज सिंह ने कहा कि आईआईएमसी के दिनों को एक लाइन में निपटा दिया। हां गलत तो हुआ, क्योंकि कैसे भूल सकते हैं वहां के दिनों के और सरोज भाई के गाने को। मनोज कुमार का वो गाना–मुझे इश्क है तुम्हीं से मेरी जाने जिंदगानी। 15 साल बाद भी मनोज ऐसे ही डूबकर ये गीत गाता है। खैर… यशवंत भाई ने चुटकी लेते हुए पूछा कि स्वामी सच बताइए कहीं कार में स्टीरियो लगवाने के लिए तो नहीं लिखा आपने इतना लम्बा चौड़ा पोथन्ना। एक साथी का सुझाव आया मोबाइल में गाना सुनने का। दरअसल इस लेख का थीम ये नहीं है कि गाना सुनने के यंत्र नहीं हैं। भाई अच्छा खासा कमाता हूं। सब कुछ है, लेकिन गाने आज की जरूरतों में शामिल नहीं हो पा रहे हैं, जबकि कभी गानों के बगैर सब कुछ अधूरा था। मोबाइल से गाना सुनना भी झंझट का काम लगता है। गीतों से रिश्ता तो बस अब उस पुरानी चोट की तरह है, जो ठंडी बयार चलते ही करकता है। तब याद आता है गीतों से रिश्ता। जब मित्रों के साथ छठें-छमासे बैठने का मौका मिलता है तो तब तो सजती ही है गीत संगीत की महफिल। खैर, मेरा ये लिखना इस नाते सार्थक हो गया कि कई भाइयों-मित्रों को अपना बचपन और जवानी के दिन याद आ गये। एक बार फिर सबको धन्यवाद।
विकास
ruchi shukla
August 26, 2010 at 2:22 pm
बहुत नाज़ होता है खुदपर कि आप जैसी शख्सियत का हाथ है सिर पर…..
और रही बात लिखने की तो अच्छा तो आप लिखते ही हैं….बार बार हर बार….बस इस बार कुछ ज्यादा ही अच्छा लिख दिया आपने। मैनें अपने सभी दोस्तों को पढ़ाया….सबने कहा…क्या धासू लिखते हैं ! बहुत खुश हूं।
vineet sharma
September 2, 2010 at 12:11 pm
🙂 vikas ji, bahut dino baad apka likha padha. aapne likha hai to khas hona hi tha. khud par likha hai isliye dil ke paas hai. afsos ki saath ke un varshon main apka gungunana bhi nahin sun saka.