सकारात्मक पत्रकारिता कैसे होगी? : आज अखबार वालों पर आंसू बहाने वाले या पत्रकारों के खिलाफ आग उगलने वाले लोग हर जगह मिल जाएंगे। आखिर क्यों पत्रकारों पर ऐसे आरोप लग रहे हैं? कुछ अखबार पत्रकारों को नाम मात्र का पैसा देकर उन्हें खुली कमाई के लिए छोड़ देते हैं।
पिछले महीने एक अखबार के पत्रकार ने बताया कि एक स्ट्रिंगर ने कई लाख का फ्लैट खरीदा है। मैंने पूछा- इतना पैसा कहां से आता है? पत्रकार ने कहा- विज्ञापन में धोखाधड़ी या कमीशनबाजी करके। ऐसे पत्रकार से आप किस नैतिकता की उम्मीद करेंगे? बड़ी- बड़ी कंपनियां प्रेस कांफ्रेंस करती हैं और पत्रकारों को उपहार देती हैं। जाहिर है उपहार पाने वाले पत्रकार उनके पक्ष में खबरें लिखते हैं। कहां है नैतिकता?
अब आइए अखबारों में जो छपता है उसे देखें। जो लोग राज्यसभा के लिए चुने गए, उनके हंसते हुए फोटो छपे। यह नहीं छपा कि वे वहां जाकर क्या करेंगे। आम आदमी हाशिए पर चला गया है। अखबार में आपको कोई नेता, कोई अभिनेता या मशहूर हस्ती हंसते हुए मिलेगी। जिस देश में ८० प्रतिशत लोग किसी तरह अपना जीवन यापन कर रहे हों, वहां के अखबारों में आम आदमी गायब है। नेता जी हंस रहे हैं। क्या इससे पाठक धन्य होंगे? महंगाई आम आदमी को परेशान कर रही है। कीमतें बढ़ रही हैं। नेता जी हंस रहे हैं। राज्यसभा के लिए चुने गए हैं न? हंसे क्यों नहीं।
आप कहेंगे हंसना भी मना है क्या? नहीं, हंसना कोई गुनाह नहीं है। अच्छा है। हंसी सबको अच्छी लगती है। लेकिन आपकी हंसी में आम आदमी या जनता की सेवा का अक्स नहीं है। फिर यह हंसी किस काम की?
आज कौन खोजी पत्रकारिता कर रहा है? ज्यादातर पत्रकार तो फाइव या सेवेन स्टार होटलों में होने वाले प्रोग्रामों में ही व्यस्त रहते हैं। खोजी पत्रकारिता कौन करेगा? कौन शरीर और दिमाग को कष्ट देगा? बाजार हावी है तो नैतिकता की बात कैसे हो? कोई अखबार सर्वे कराता है कि कितने लोगों को सिर्फ माड़- भात खा कर गुजारा करना पड़ता है? कितने लोगों को नया कपड़ा बनवाए दो साल हो गया? कितने लोगों के बच्चे इलाज के बिना मर गए? नहीं न? तो फिर आंख बंद रखिए औऱ आंख खोलते ही रंगीन चश्मा पहन लीजिए और अखबार में रंगीन ही रंगीन लिखिए।
लेखक विनय बिहारी सिंह कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
Haresh Kumar
June 19, 2010 at 11:54 am
आपकी बात सोलह आने सच है। लेकिन पत्रकारिता का अपना मर्म होता है। सिर्फ पैसे या शोहरत के लिए पत्रकारिता करनी अच्छी बात नहीं। अगर पैसे ही कमाना है तो कोई और धंधा शुरू कर दो। यह सही है कि पत्रकारिता के लिए पैसे की जरूरत होती है। कोई भी एजेंसी बगैर पैसे के नहीं चल सकती। उसूल आज कल पत्रकारिता से गदहे के सिंग की तरह गायब हो गया है।
sushil Gangwar
June 19, 2010 at 2:06 pm
हमाम में सभी नंगे है गर किसी का नेकर दिख जाये तो उसे उतार कर फाड़ देने में अपनी चतुराई समझते है ————-
फिल्म मनोरंजन का साधन है । फिल्म और मीडिया पर राजीनति नहीं की जा सकती है । प्रकाश झा की फिल्म राजीनति भारत में फैली भ्रष्ट राजनीती को दर्शाती है । आतंक को सही मायने में दर्शाने का श्रेय बॉलीवुड की फिल्मो को जाता है । आज कल प्रिंट – इलेक्ट्रानिक मीडिया हर खबर को बढ चढ़ कर दिखा रहा है .
जिससे अधिक मुनाफा हो सके है। टीवी मीडिया की भाषा में टी आर पी का गन्दा खेल भी कह सकते है । हर तरफ फैले भ्रटाचार की जड़े पेड़ बन चुकी है । जिसे जड़ से उखाड़ कर फैकना इतना आसान नहीं है । गर ईट हटाई जाये तो हर ईट के नीचे एक नेता और पत्रकार पैदा होता है और दोनों ही भ्रष्टाचार में लिप्त है । आदर्श राजनीति कोसो दूर खड़ी होकर दलाल नेता पत्रकार से पूछ रही है अरे तुम कितने गहरे पानी में हो ।
जब भी सवाल चौथे खम्भे का होता है तो चौथा खम्बा भी उखड़ने सा लगा है । इसे उखाड़ने में पत्रकार खुद जिम्मेदार है । अमीरों की दहलीज की जूठन चाटकर गर्व से कहता है, हम पत्रकार है। जेब में रखे रिश्वत के नोट , जो जूठन चाटने से पहले मिले थे उस पर हाथ रखकर गर्व महसूस करता है फिर ऊँगली किसी नेता , अमीर , दलाल की तरफ उठा देता है
हमाम में सभी नंगे है गर किसी का नेकर दिख जाये तो उसे उतार कर फाड़ देने में अपनी चतुराई समझते है । पिछली बार अजीत अंजुम ने लिखा था । लडकिया घुमाने वाला संपादक ? मुंबई में उनके ऑफिस लड़की रो रोकर किसी संपादक की घटिया हरकतों की कहानी सुना रही थी । संपादक ने नौकरी के नाम पर कैसे शोषण किया था। हमें अपने गिरेमान में झाककर देखने की नौबत ही नहीं मिलती है ।
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गजेन्द्र राठौड़, राजस्थान पत्रिका, बेंगलूरु कर्नाटक
June 20, 2010 at 3:06 pm
विनय जी नमस्कार,
हां, आप की बात सही हैं। लोगों को नए और आधुनिक रंगीन चश्में तो खरीदने ही पड़ेंगे। मैंने बेंगलूरु में के प्रेस क्लब में देखा हैं कि पचास फीसदी पत्रकार अपनी दुकान लेकर बैंठे हैं। ना जाने क्या हो रहा है इस क्षेत्र में…।
आप बात कर रहें है उपहार की तो, ऐसी एक घटना मेरे साथ भी घटित हुई। एक संवाददाता सम्मेलन में मुझे भेजा गया। वहां पीआर द्वारा मेरे लिए उपहार लाया गया था, मैंने मना कर दिया। लेकिन तभी मैंने देखा मैंरे पास में बैठे एक जनाब (पत्रकार महोदय ) ने उसके पास जा कर मेरे नाम से पुरस्कार प्राप्त कर लिया और मैं देखता ही ……..।
Pradeep Sangam
June 21, 2010 at 3:26 am
bazar mein sweekrati sab akhbaron ki mazboori aur zaroorat hai. naitikta ki deenge hankne wale ye kyon nahi batate ki lagaatar ghaate mein akhbar koi kaise kab tak chala sakta hai? kyon chaleaye jab vyaparik rasta bhi bazar mein hai? bhukhmari akhbaron aur patrakaro par naitikta ke naam par kyo rahe haavi? akhbar jinda hein to do khari khari sahi aur janhit ki baat bhi kar payega warna ghate mein to taale hi padte hein. taalon mein band hone se to achchha yahi hai. patrakarita ke jugad se aap rajyasabha tak jayen ya kisi sarkari anukampa ke pad par kablyat hai to apni naitik shakti se wahan bhi do auron se achchhi aur chauthe kahmbe ke hit ki bhi koi baat kar payenge warna to anchal sinha, ashok pandy, umesh dobhal aur deshpal sing pawar jaise door sarkate jayenge.