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आयोजन

हिंदुस्तान वाले प्रेस रिलीज का करते रहे इंतजार

‘हिंदुस्तान’ के दिवंगत पत्रकार विनय तरूण की याद में पूर्णिया में पिछले दिनों एक कार्यक्रम हुआ। ‘हिंदुस्तान’ के पत्रकारगण एक प्रेस रिलीज का इंतजार करते रहे। पूर्णिया दफ्तर में कार्यरत पत्रकारों की विवशता ये रही कि कार्यक्रम के दिन हिंदुस्तान के उप स्थानीय संपादक विनय बंधु ने पूर्णिया में मीटिंग रख दी। भागलपुर से जब खुद संपादक महोदय हाजिर हों तो फिर भला कोई क्या करे? सवाल कौंधता है कि कहीं ये विनोद बंधु का निर्देश ही तो नहीं था कि विनय तरुण की याद में आयोजित कार्यक्रम का कोई कवरेज न किया जाए?

<p style="text-align: justify;">'हिंदुस्तान' के दिवंगत पत्रकार विनय तरूण की याद में पूर्णिया में पिछले दिनों एक कार्यक्रम हुआ। 'हिंदुस्तान' के पत्रकारगण एक प्रेस रिलीज का इंतजार करते रहे। पूर्णिया दफ्तर में कार्यरत पत्रकारों की विवशता ये रही कि कार्यक्रम के दिन हिंदुस्तान के उप स्थानीय संपादक विनय बंधु ने पूर्णिया में मीटिंग रख दी। भागलपुर से जब खुद संपादक महोदय हाजिर हों तो फिर भला कोई क्या करे? सवाल कौंधता है कि कहीं ये विनोद बंधु का निर्देश ही तो नहीं था कि विनय तरुण की याद में आयोजित कार्यक्रम का कोई कवरेज न किया जाए?</p>

‘हिंदुस्तान’ के दिवंगत पत्रकार विनय तरूण की याद में पूर्णिया में पिछले दिनों एक कार्यक्रम हुआ। ‘हिंदुस्तान’ के पत्रकारगण एक प्रेस रिलीज का इंतजार करते रहे। पूर्णिया दफ्तर में कार्यरत पत्रकारों की विवशता ये रही कि कार्यक्रम के दिन हिंदुस्तान के उप स्थानीय संपादक विनय बंधु ने पूर्णिया में मीटिंग रख दी। भागलपुर से जब खुद संपादक महोदय हाजिर हों तो फिर भला कोई क्या करे? सवाल कौंधता है कि कहीं ये विनोद बंधु का निर्देश ही तो नहीं था कि विनय तरुण की याद में आयोजित कार्यक्रम का कोई कवरेज न किया जाए?

कहीं पूर्णिया में रखी गई मीटिंग एक साजिश तो नहीं थी कि व्यक्तिगत तौर पर भी कोई साथी इस आयोजन में शरीक न हो सके? मेरे मन में ऐसा खयाल आने की कुछ ठोस वजहें हैं। एक तो स्थानीय संस्करणों में छपने वाली खबरों को देख एक सामान्य पाठक के तौर पर भी मुझे ये लगता है कि शहर में हुए इस आयोजन को जानबूझकर नजरअंदाज किया गया। 28 अगस्त 2010 को कार्यक्रम की कोई सूचना दैनिक के पन्नों पर नहीं थी। यहां तक कि ‘शहर में आज’ के तहत एक लाइन में भी ये जिक्र नहीं किया गया। हिंदुस्तान, पूर्णिया में कार्यरत अरुण कुमार और अखिलेश चंद्रा जैसे पत्रकारों से लंबा संपर्क होने की वजह से मुझे ये पक्का यकीन है कि ये महज गफलत नहीं है। इसकी पुष्टि तब और हो गई जब अगले दिन 29 अगस्त 2010 का अखबार देखा। पूर्णिया में 100 से ज्यादा लोगों ने जिस कार्यक्रम में शिरकत की उसका जिक्र अखबार में कहीं दर्ज तक नहीं था।

कार्यक्रम से सीधे तौर पर जुड़े होने की वजह से मेरे सामने ये दलील भी नहीं रखी जा सकती कि इसकी सूचना हिंदुस्तान के पूर्णिया कार्यालय को नहीं थी। मैं खुद इस आयोजन का आमंत्रण दफ्तर में देकर आया था, इस आग्रह के साथ कि ‘क्षेत्रीय पत्रकार-काम का बोझ, न्यूनतम वेतन और बदनामियां’ विषय पर बोलना आप को कबूल न हो तो भी अपनी उपस्थिति जरूर दर्ज कराएं। इतना भी मुमकिन नहीं हो पाया तो इसकी कुछ ठोस वजहें जरूर होंगी, जो विनय बंधु और उनके सहकर्मियों से बेहतर भला कौन बता सकता है?

हिंदुस्तान के इस रवैये पर पूर्णिया के बुद्धिजीवियों में तीखी प्रतिक्रिया हुई तो हिंदुस्तान दफ्तर का रवैया थोड़ा बदला। वहां से प्रतिक्रिया मिली कि प्रेस रिलीज पहुंची ही नहीं, अगर अब भी दो-चार लाइनें लिख कर भेज दी जाएं तो खबर छप जाएगी। ऐसी खबर छपवाना न तो उस दिवंगत साथी की आत्मा को कबूल होता और न ही उनके दोस्तों को, सो ये प्रस्ताव विचार से पहले ही खारिज कर दिया गया। हिंदुस्तान अखबार में वहां काम करने वाले साथी की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम की खबर प्रेस रिलीज पर छपे इससे ज्यादा दुखद बात और क्या हो सकती है?

इस सारे प्रकरण में बार-बार संपादक विनोद बंधु की भूमिका को लेकर संशय पैदा होता है। दरअसल वो इन दिनों तथाकथित ‘विस्मृति’ के शिकार होते जा रहे हैं। मुझे यकीन तो नहीं होता लेकिन मुमकिन है कि उन्हें याद ही न हो कि विनय तरूण नाम का कोई साथी उनके मातहत काम कर चुका है। दो महीने में ये भूल पाना मुमकिन तो नहीं लेकिन विनय बंधुजी के साथ कुछ कहा नहीं जा सकता। इस आयोजन को लेकर फोनवार्ता में उनकी विस्मृति से मैं दो चार हो चुका हूं। पूर्णिया के नवभारत टाइम्स दफ्तर में कार्यरत रहे विनोद बंधु ने विनय स्मरण कार्यक्रम में शिरकत करने से तो इंकार किया ही, मुझे पहचानने से भी कतराते रहे। कई घटनाओं का जिक्र करने के बावजूद बस इतना ही कहा कि आमना-सामना हो तो शायद यादें ताजा हो जाएं।

विनोद बंधु साहब, मेरा तो आपसे कभी न कभी आमना सामना जरूर होगा लेकिन बेचारा विनय वो कैसे आपकी यादें कुरेदेगा? कैसे आपसे पूछेगा कि ऐसा क्या गुनाह कर दिया था कि मेरी स्मृति के लिए आप दो पल भी न निकाल सके? कैसे वो आपसे पूछेगा कि आप के दिल में उसकी खट्टी या मीठी यादें शेष भी रह गई हैं या नहीं? कैसे पूछेगा कि संपादक महोदय कम से कम इतनी जल्दी इस कड़वी हकीकत से मुंह मत मोड़िए कि मैं दफ्तर के लिए निकला लेकिन कहीं नहीं पहुंचा और अब कभी पहुंच भी न पाऊंगा… न दफ्तर, न घर… न यार दोस्तों की किसी महफिल में।

लेखक बच्चा यादव पूर्णिया की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था ‘साहित्यांचल’ के सचिव हैं.

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