नियम यह है विधाता का, सभी आकर चले जाते। मगर कुछ लोग ऐसे हैं, जो जाकर भी नहीं जाते॥ न सब भगवान होते हैं, न सब धनवान होते हैं। दयालु, लोकप्रिय, सतपाल, भले इनसान होते हैं।। ऐसे ही एक भले इनसान और अप्रतिम प्रतिभा के धनी थे डा.योगेश्वर प्रसाद सिंह योगेश। मगही साहित्य के मूर्धन्य हस्ताक्षर, हिंदी साहित्य के प्रखर समालोचक और मानस के मर्मग्य डा.योगेश का जाना साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। जनता का निचला तबका योगेश जी की कविता के केंद्र में रहता था। उनका कहना था कि आम लोगों की बात आम लोगों की ही भाषा में की जा सकती है। इसीलिए उन्होंने अपनी कविता के माध्यम के लिए जनभाषा मगही को चुना। मगही महाकाव्य गौतम की भूमिका में योगेश जी कहते भी हैं-
जे कविता के पंडित समझे, अनपढ़ समझ न पावे,
ऊ कविता की? अप्पन लौ, जे नय सगरो फइलावे??
मगही में व्यंग्य कविताओं के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार योगेश जी ने देश के कोने-कोने में मगही कविताओं का पाठ कर इस लोकभाषा का मान बढ़ाया। मंच चाहे हिंदी, उर्दू, भोजपुरी या मगही का हो, योगेश जी के माइक संभालते ही उनका हो जाता था। उनकी हास्य रचनाओं में डूबे श्रोता ‘एक और एक और’ की गुहार लगाते रह जाते थे। नवचेतन साहित्य परिषद, बाढ़ के उपाध्यक्ष के रूप में मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि कवि सम्मेलनों के लिए आमंत्रण स्वीकार करते वक्त योगेश जी ने कभी मोलभाव नहीं किया।
योगेश जी लोकभाषा मगही के लोकप्रिय जनकवि ही नहीं, सच्चे समाजसेवी और ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की प्रतिमूर्ति थे। अपनी सहजता से कभी बुद्धिजीवी होने का आभामंडल उन्होंने अपने इर्द गिर्द-नहीं बनने दिया। ढीला कुरता, घुटनों से थोड़ी नीचे की धोती और बड़ी-बड़ी मूछें। सरकारी अफसरी, शैक्षिक डिग्रियों और सम्मान-अलंकारों की भरमार के बावजूद, एकदम देहाती वेश। यही सहजता उन्हें पाठकों, श्रोताओं से सहज संवाद करने में मदद करती थी और यही उन्हें आशुकवियों में भी सबसे आगे खड़ा कर देती थी। वे कविता करते नहीं थे, कविता उनके मुख से निर्झरिणी की तरह बहती थी, धाराप्रवाह, बिना किसी पूर्व तैयारी के।
अपनी सांसारिक यात्रा के आखिरी दिनों में भी योगेश जी ने लोक साहित्य और समाज सेवा में अपनी उम्र और बीमारी को कभी आड़े नहीं आने दिया। इसका अंदाजा आपको इस घटना से लग जाएगा। गत 12 अगस्त को निधन से दो घंटे पहले एक व्यक्ति उन्हें एक समारोह में ले जाने के लिए वाहन लेकर पहुंचे थे। योगेश जी की इच्छा भी थी, लेकिन कमजोरी के कारण वे नहीं जा पाए। उन्होंने उक्त व्यक्ति को बुलाया और सामने पड़ा सादा कागज मांगकर तत्क्षण आठ पंक्तियों का काव्यमय संदेश वहां के आयोजक शशिभूषण जी के लिए लिख दिया। साथ ही कहा कि इसे वहां मेरी तरफ से पढ़ देना-
..भाई शशिभूषण जी, पहले बोलें जय श्रीराम
श्रोताओं वक्ताओं से फिर, मेरा कहें प्रणाम॥
एक साथ ही कई सेना ने मुझ पर किया प्रहार
दम्मा ने दम तोड़ दिया, हूं आने से लाचार॥
विद्यालय के समारोह में, आने की थी चाह
प्रभु की जैसी मर्जी, जीवन का वह रहा प्रवाह॥
समारोह हो सफल, कामना मेरी है यह शेष
सबके मंगल आकांक्षी हैं कविवर श्री योगेश॥
किसी पुरस्कार और सम्मान के साथ योगेश जी का नाम जुड़ते ही उसका मान बढ़ जाता था। बिहार सरकार ने जहां उन्हें लोकभाषा सम्मान प्रदान किया, वहीं देश भर के विभिन्न साहित्यिक, सामाजिक संगठनों ने उन्हें लोकसाहित्य शिरोमणि, मानस मयंक, मगध मयूर जैसे दर्जनों अलंकारों से नवाजा। उन्होंने मगही और हिंदी में दो दर्जन से अधिक चर्चित पुस्तकें लिखीं। मगही में रचित पहला महाकाव्य ‘गौतम’ योगेश जी की श्रेष्ठ रचनाओं में शामिल है।
इधर एक साल में उनकी तीन पुरानी कृतियां छपकर आईं। पहली ‘विभा’। यह १९५१ से ५५ के बीच लिखी हिंदी कविताएं थीं। दूसरी मगही में ‘कि हम्मर मोछ निहार ह’। तीसरी ‘मगही रामायण’। ‘मगही रामायण’ भी १९५८ से ६२ के बीच लिखी गई थी। इसमें उन्होंने लीक से हटकर राम और रावण का नया चरित्र गढ़ा था। योगेश जी का राम भगवान नहीं बल्कि आम आदमी था और आम आदमी के लिए लड़ रहा था।
लेखक रंजन राजन 17 वर्षों से अधिक समय से हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय हैं। वह पिछले दस वर्षों से एक प्रमुख हिंदी अखबार से जुड़े हैं और अभी नोएडा में हैं। रंजन राजन से मोबाइल नंबर 09015960389 या [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है।
Sarita
May 14, 2010 at 6:42 am
आदरणीय श्री योगेश जी के बारे में बढ़िया शब्द चित्र।