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फिर तो बाबा कर देंगे नेताओं की छुट्टी!

अंचल सिन्‍हा आज से दो-तीन दिन पहले उगांडा की इस स्वार्थी धरती पर, जहां मौज मस्ती के अलावा कोई गंभीर जीवन कहीं नहीं दिखता, टीवी पर दिल्ली का एक कार्यक्रम दिखा। कंपाला में सिटी केबल के एक एजेंट ने कुछ भारतीय चैनलों को दिखाना आरंभ किया है। इसमें बाबा रामदेव का चैनल भी है। 14 नवंबर को बाबा और उनके अनेक समर्थकों, जैसे- मुसलमानों के प्रतिनिधि बन रहे कल्बे सादिक, शायद यही नाम है, और ईसाइयों के भी एक वरीय पादरी के साथ स्वामी अग्निवेश और किरन बेदी आदि- को एक मंच पर देखकर एक अजीब सी अनुभूति हुई।

अंचल सिन्‍हा

अंचल सिन्‍हा आज से दो-तीन दिन पहले उगांडा की इस स्वार्थी धरती पर, जहां मौज मस्ती के अलावा कोई गंभीर जीवन कहीं नहीं दिखता, टीवी पर दिल्ली का एक कार्यक्रम दिखा। कंपाला में सिटी केबल के एक एजेंट ने कुछ भारतीय चैनलों को दिखाना आरंभ किया है। इसमें बाबा रामदेव का चैनल भी है। 14 नवंबर को बाबा और उनके अनेक समर्थकों, जैसे- मुसलमानों के प्रतिनिधि बन रहे कल्बे सादिक, शायद यही नाम है, और ईसाइयों के भी एक वरीय पादरी के साथ स्वामी अग्निवेश और किरन बेदी आदि- को एक मंच पर देखकर एक अजीब सी अनुभूति हुई।

थोड़ी देर के लिए मुझे लगा कि मैं 1974 के उन दिनों में पहुंच गया हूं जब कांग्रेस की भ्रष्‍ट सरकारों के खिलाफ जेपी का आंदोलन चल रहा था। बाबा रामदेव के नेतृत्व में जंतर मंतर पर चल रहे हजारों लोगों के उस धरने को देखकर क्षणभर को मन रोमांचित तो हो ही उठा था। लगा जैसे एकबार फिर व्यवस्था परिवर्तन के लिए कुछ लोग खड़े हो रहे हैं। जेपी भी पंडित नेहरु के समय की चर्चा करते थे और बाबा भी पंडित नेहरु के जन्मदिन पर ही देशभर में भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध लड़ाई का शंखनाद कर रहे थे। यह और बात है कि देश की इस खस्ताहाल भ्रष्‍ट व्यवस्था के लिए जेपी पंडित नेहरु की ही नीतियों को मूल रुप से जिम्मेवार मानते थे, पर बाबा का चैनल नेहरु के जन्मदिन पर उन्हें शत-शत नमन कर रहा था।

लेकिन इसके बावजूद मेरे जैसे आदमी के मन में एक आस जगी है। मैं पूरे कार्यक्रम का सीधा प्रसारण देख रहा था और बार-बार यह सवाल मन में उठ रहा था कि क्या एक बार फिर कोई ऐसा आंदोलन आरंभ हो सकता है जो पूरे देश में अलख जगा सकता है, एक बार फिर देश की तमाम जनता को भ्रष्‍ट सरकारों के खिलाफ गोलबंद कर सकता है। और एक नई व्यवस्था के जन्म के लिए राजनैतिक और सामाजिक एकता कायम कर सकता है। 1974 के आंदोलन के दिनों में मैं भी एक साधारण सिपाही था और जेपी के साथ अनेक कदम मिलाने का गर्व था मुझे। पर मैं राजनीति में जाने का साहस नहीं जुटा सका, क्योंकि मेरे सामने 1974 के अनेक सिपाहियों में लालू यादव जैसे लोग ही ज्यादा दिखते थे। मैं नौकरी के साथ लेखन और पत्रकारिता से जुड़ा रहा। उसके बाद मैंने जीवन में इतने लोगों को अपने स्वार्थ के लिए एक दूसरे का गला काटते देखा कि मेरा मन सरकारी नौकरी और अखबारी नौकरी से भी उकता गया। यह और बात है कि जीवन यापन के लिए मैं एक निजी कंपनी के बुलावे पर भले ही इन दिनों उगांडा की धरती पर टिका हूं, पर मेरा मन अब भी भारत की वर्तमान व्यवस्था को बदलने के लिए बेचैन रहता है। इसलिए जब से बाबा और दूसरे लोगों की बातें सुनी हैं, एक उम्मीद सी जगने लगी है।

कल मैं कंपाला के कुछ भारतीयों से इस बाबत चर्चा कर रहा था तो उनमें से एक ने कहा- बाबा लोग संत होते हैं और वे किसी आंदोलन का क्या नेतृत्व कर सकेंगे? आखिर बाबा भी अपने आश्रम और अपने उत्पादों के माध्यम से व्यापार ही तो कर रहे हैं। पर सवाल यह भी है कि अपने देश की आम जनता को भी किसी के पीछे चलने के लिए एक बड़े व्यक्तित्व की इमेज देखने की आदत बन गई है। अगर मैं देश भर में घूमता रहूं तो भी कोई मेरे पीछे कोई नहीं होगा। पर हजारों लोगों को योग या किसी भी माध्यम से वशीभूत करने वाले बाबा कहें तो उनके पीछे एक बहुत बड़ी सेना खड़ी हो सकती है। असली बात है कि इस सेना को उसका नायक कैसे और कहां ले जा रहा है। और अगर बाबा सचमुच किसी नई व्यवस्था की कल्पना लेकर चल रहे हैं तो उनको सहयोग क्यों न किया जाय?

यह सच है कि भारत में जिस आर्थिक प्रगति का ढोल पीटा जा रहा है वह कागजी है। वरना जिस देश में मंहगाई चरम पर हो, गांव-गांव के आम लोग भूख से और कर्ज से थककर आत्महत्या कर रहे हों, सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की आत्मा मर चुकी हो, पुलिस का एक अदना सा सिपाही भी अपने को कमाने और किसी को भी किसी केस में फंसाने की धमकी देकर वसूली करने में अपनी शान महसूस करता हो और जहां लोग अपनी जात के नाम पर खून बहाने को तैयार रहते हों, वहां एकबार फिर कोई नई व्यवस्था लाने की बात करे तो आशा की किरण दिखती तो है ही। सबसे बड़ी बात यह कि बाबा और उनके लोगों ने अपने आंदोलन को शहरों से ज्यादा गांवों की ओर ले जाने की बात कही है। अगर देश के लगभग 4 हजार गावों में बाबा की बात मान ली गई और गांव के गांव संगठित हो गए तो अनेक राजनैतिक दलों और नेताओं की तो छुट्टी हो जाएगी। पर क्या बाबा के सामने इस व्यवस्था को हटाकर एक नई व्यवस्था बनाने का कोई ब्लू प्रिंट है। कोई खाका?

लेखक अंचल सिन्हा बैंक के अधिकारी रहे, पत्रकार रहे, इन दिनों उगांडा में बैंकिंग से जुड़े कामकाज के सिलसिले में डेरा डाले हुए हैं. अंचल सिन्‍हा से सम्‍पर्क उनके फोन नंबर +256759476858 या ई-मेल – [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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0 Comments

  1. dhanish sharma

    November 17, 2010 at 4:44 am

    asa nai hai apna nata ji jo dash ko bach raha hain.vo itna talanted hain ki kisi sahi admi ko sahi kaam nai karna data.baba ji ko best of luck.

  2. ..XYZ..

    November 17, 2010 at 12:53 pm

    Anchal ji , Aap ke lekh humesha bahut hi prabhaawit karte hain . SAADHUWAAD !

  3. प्रदीप

    March 14, 2011 at 2:38 pm

    आपने शायद आस्‍था व संस्‍कार पर रात्रि के 8.00 व 9.00 के कार्यक्रम नहीं देखे है? उनके सारे विचार इन चेनलो पर सुनने को मिल जाऐगें. फिर आप ही फैसला करें कि सही क्‍या है गलत क्‍या है?

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