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साहित्य

‘एक दिन तुम बहुत बड़ी कलाकार बनोगी’ कह कर उसे बांहों में भर लिया

दयानंद पांडेय: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (2) : चेयरमैन साहब को हालांकि लोक कवि बड़ा मान देते थे पर मिसिराइन पर अभी-अभी उनकी टिप्पणी ने उन्हें आहत कर दिया था। इस आहत भाव को धोने ही के लिए उन्होंने भरी दुपहरिया में शराब पीना शुरू कर दिया। दो कलाकार लड़कियां भी उनका साथ देने के लिए इत्तफाक से तब तक आ गईं थीं।

दयानंद पांडेय

दयानंद पांडेय: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (2) : चेयरमैन साहब को हालांकि लोक कवि बड़ा मान देते थे पर मिसिराइन पर अभी-अभी उनकी टिप्पणी ने उन्हें आहत कर दिया था। इस आहत भाव को धोने ही के लिए उन्होंने भरी दुपहरिया में शराब पीना शुरू कर दिया। दो कलाकार लड़कियां भी उनका साथ देने के लिए इत्तफाक से तब तक आ गईं थीं।

लोक कवि ने लड़कियों को देखते ही सोचा कि अच्छा ही हुआ कि चेयरमैन साहब चले गए। नहीं तो इन लड़कियों को देखते ही वह खुल्लमखुल्ला अश्लील टिप्पणियां शुरू कर देते और जल्दी जाते ही नहीं। लड़कियों को अपनी जांघ पर बिठाने, उनके गाल ऐंठने, छातियां या हिप दबा देने जैसे ओछी हरकतें चेयरमैन साहब के लिए रुटीन हरकतें थी। वह कभी भी कुछ भी कर सकते थे। ऐसा कभी कभार क्या अकसर लोक कवि भी करते थे। पर उनके इस करने में लड़कियों की भी विवश सहमति ही सही, सहमति रहती थी। लोक कवि दबाते-चिकोटते रहते और वह सब ‘गुरु जी, गुरु जी’ कह कर कभी उकतातीं तो कभी उत्साहित भी करती रहतीं। लेकिन चेयरमैन साहब की इन ओछी हरकतों पर लड़कियों की न सिर्फ असहमति होती थी, वह सब बिलबिला भी जाती थीं।

लेकिन चेयरमैन साहब बाज नहीं आते। अंततः लोक कवि को ही पहल करनी पड़ती, ‘त अब चलीं चेयरमैन साहब!’ चेयरमैन साहब लोक कवि की बात को फिर भी अनुसना करते तो लोक कवि हिंदी पर आ जाते, ‘बड़ी देर हो गई, जाएंगे नहीं चेयरमैन साहब।’ लोक कवि के हिंदी में बोलने का अर्थ समझते थे चेयरमैन साहब सो उठ खडे़ होते कहते, ‘चलत हईं रे। तें मौज कर।’

‘नाईं  चेयरमैन साहब बुरा जिन मानिएगा।’ लोक कवि कहते, ‘असल में कैसेट पर डांस का रिहर्सल करवाना था।’

‘ठीक है रे, ठीक है।’ कहते हुए चेयरमैन साहब चल देते। चल देते किसी और ‘अड्डे’ पर।

चेयरमैन साहब कोई साठ बरस की उम्र छू रहे थे लेकिन उनकी कद काठी अभी भी उन्हें पचास के आस-पास का आभास दिलाती। वह थे भी उच्श्रृंखल किसिम के रसिक। सबसे कहते भी रहते थे कि, ‘शराब और लौंडिया खींचते रहो, मेरी तरह जवान बने रहोगे।’

चेयरमैन साहब की अदाएं और आदतें भी कई ऐसी थीं जो उन्हें सरेआम जूते खिलवा देतीं लेकिन वह अपनी बुजुर्गियत का भी न सिर्फ भरपूर फायदा उठाते बल्कि कई बार तो सहानुभूति भी बटोर ले जाते। जैसे वह किसी भी बाजार में खड़े-खड़े अचानक बेवजह जोर से इस तरह चिल्ला पड़ते कि यकायक सबकी नजरें उनकी ओर उठ जातीं। सभी उन्हें देखने लगते। जाहिर है इनमें बहुतायत में महिलाएं भी होतीं। अब जब महिलाएं उन्हें देखने लगतीं तो वह अश्लीलता पर उतर आते। चिल्ला कर ही अस्फुट शब्दों में कहते,….‘दे !’ महिलाएं सकुचा कर किनारे हो दूसरी तरफ चल देतीं। कई बार वह कोई सुंदर औरत या लड़की देखते तो उसके इर्द गिर्द चक्कर काटते-काटते अचानक उस पर भहरा कर गिर पड़ते। इस गिरने के बहाने वह उस औरत को पूरा का पूरा बांहों में भर लेते। इस क्रम में वह औरत की हिप, कमर, छातियां और गाल तक छू लेते। पूरी अशिष्टता एवं अभद्रता से। औरतें अमूमन संकोचवश या लोक लाज के फेर में चेयरमैन साहब से तुरंत छुटकारा पा कर वहां से खिसक जातीं। एकाध औरतें अगर उनके इस गिरने पर ऐतराज जतातीं तो चेयरमैन साहब फट पैंतरा बदल लेते। कहते, ‘अरे बच्चा नाराज मत होओ! बूढ़ा हूं न, जरा चक्कर आ गया था सो गिर गया।’ वह ‘सॉरी!’ भी कहते और फिर भी उस औरत के कंधे पर झुके-झुके उसकी छातियों का उठना बैठना देखते रहते। तो भी औरतें उन पर तरस खाती हुई उन्हें संभालने लगतीं तो वह बड़ी लापरवाही से उसके हिप पर भी हाथ फिरा देते। और जो कहीं दो तीन औरतें मिल कर संभालने लग जातीं उन्हें तो उनके पौ बारह हो जाते। वह अकसर ऐसा करते। लेकिन हर जगह नहीं। जगह और मौका देख कर! तिस पर कलफ लगे चमकते खद्दर का कुरता पायजामा, उनकी उम्र से उनके इन ऐबों पर अनायास ही पानी पड़ जाता। तिस पर वह हांफने, चक्कर आने का दो चार आना अभिनय भी फेंक देते। बावजूद इस सबके वह कभी-कभार फजीहत में भी घिर ही जाते। तो भी इससे उबरने के पैंतरे भी वह बखूबी जानते थे।

एक दिन वह लोक कवि के पास आए बोले, ‘25 दिसंबर को तुम कहां थे भाई?’

‘यहीं था रिहर्सल कर रहा था।’ लोक कवि ने जवाब दिया।

‘तो हजरतगंज नहीं गए 25 को?’

‘क्यों क्या हुआ?’

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‘तो मतलब नहीं गया?’

‘नाहीं!’

‘तो अभागा है।’

‘अरे हुआ क्या?’

चेयरमैन साहब स्त्री के एक विशिष्ट अंग को उच्चारते हुए बोले, ‘एतना बड़ा औरतों की….का मेला हमने नहीं देखा!’ वह बोलते जा रहे थे, ‘हम तो भई पागल हो गए। कोई कहे इधर दबाओ, कोई कहे इधर सहलाओ।’ वह बोले, ‘मैं तो भई दबाते-सहलाते थक गया।’

‘चक्कर-वक्कर भी आया कि नाहीं?’ लोक कवि ने पूछा।

‘आया न!’

‘कितनी बार?’

‘यही कोई 15-20 राउंड तो आया ही।’ कह कर चेयरमैन साहब खुद हंसने लगे।

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लेकिन चेयरमैन साहब के साथ ऐसा ही था।

वह खुद एंबेसडर में होते और जो अचानक किसी सुंदर औरत को सड़क पर देख लेते, या दो-चार कायदे की औरतों को देख लेते तो ड्राइवर को तुरंत डांटते हुए काशन देते, ‘ऐ देख क्या कर रहा है, गाड़ी उधर मोड़!’ ड्राइवर भी इतना पारंगत था कि काशन पाते ही वह फौरन कार मोड़ देता बिना इस की परवाह किए कि एक्सीडेंट भी हो सकता है। चेयरमैन साहब जब कभी दिल्ली जाते तो दो तीन दिन डी.टी.सी. की बसों के लिए भी जरूर निकालते। किसी बस स्टैंड पर खड़े होकर बस में चढ़ने के लिए वहां खड़ी औरतों का मुआयना करते और फिर जिस बस में ज्यादा औरतें चढ़तीं, जिस बस में ज्यादा भीड़ होती उसी बस में चढ़ जाते। ड्राइवर से कहते, ‘तुम कार लेकर इस बस को फालो करो।’ और ड्राइवर को यह आदेश कई बार बिन कहे ही मालूम होता। तो चेयरमैन साहब डी.टी.सी. की बस में जिस-तिस महिला के स्पर्श का सुख लेते। उनकी एंबेसडर कार बस के पीछे-पीछे उनको फालो करती हुई। और चेयरमैन साहब औरतों को फालो करते हुए। ऊंघते, गिरते, चक्कर खाते। ‘फालो आन’ की हदें छूते हुए।

चेयरमैन साहब के ऐसे तमाम किस्से लोक कवि क्या कई लोग जानते थे। लेकिन चेयरमैन साहब को लोक कवि न सिर्फ झेलते थे बल्कि उन्हें पूरी तरह जीते थे। जीते इस लिए थे कि ‘द्रौपदी’ को जीतने के लिए चेयरमैन साहब लोक कवि के लिए एक महत्वपूर्ण पायदान थे। एक जरूरी औजार थे। और एहसान तो उनके लोक कवि पर थे ही थे। हालांकि एहसान जैसे शब्द को तो चेयरमैन साहब के तईं एक नहीं कई-कई बार वह उतार क्या चढ़ा भी चुके थे तो भी उनके मूल एहसान को लोक कवि भूलते नहीं थे और इससे भी ज्यादा वह जानते थे कि चेयरमैन साहब द्रौपदी जीतने के महत्वपूर्ण पायदान और औजार भी हैं। सो कभी कभार उनकी ऐब वाली अदाएं-आदतें वह आंख मूंद कर टाल जाते। मिसिराइन पर यदा कदा टिप्पणी को वह आहत हो कर भी कड़वे घूंट की तरह पी जाते और खिसियाई हंसी हंस कर मन हलका कर लेते। कोई कुछ टोकता, कहता भी तो लोक कवि कहते, ‘अरे मीर मालिक हैं, जमींदार हैं, बड़का आदमी हैं। हम लोग छोटका हैं जाने दीजिए!’

‘काहें के जमींदार? अब तो जमींदारी ख़त्म हो चुकी है। काहें का छोटका बड़का। प्रजातंत्रा है!’ टोकने वाला कहता।

‘प्रजातंत्रा है न।’ लोक कवि बोलते, ‘त उनका बड़का भाई केंद्र में मंत्री हैं और मंत्री लोग जमींदार से जादा होता है। ई जानते हैं कि नाई?’ वह कहते, ‘अइसे भी और वइसे भी दूनों तरह से ऊ हमारे लिए जमींदार हैं। तब उनका जुलुम भी सहना है, उनका प्यार दुलार भी सहना है और उनका ऐब आदत भी!’

अर्जुन को तो सिर्फ एक द्रौपदी जीतनी थी पर लोक कवि को हरदम कोई न कोई द्रौपदी जीतनी होती। यश की द्रौपदी, धन की द्रौपदी और सम्मान की द्रौपदी तो उन्हें चाहिए ही चाहिए थी। इन दिनों वह राजनीति की द्रौपदी के बीज भी मन में बो बैठे थे। लेकिन यह बीज अभी उनके मन की धरती में ही दफन था। ठीक वैसे ही जैसे उनकी कला की द्रौपदी उनके बाजारी दबाव में दफन थी। इतनी कि कई बार उनके प्रशंसक और शुभचिंतक भी दबी जबान सही, कहते जरूर थे कि लोक कवि अगर बाजार के रंग में इतने न रंगे होते, बाजार के दबाव में इतना न दबे होते और आर्केस्ट्रा कंपनी वाले शार्ट कट की जगह अपनी बिरहा पार्टी को ही तरजीह दिए होते तो तय तौर पर राष्ट्रीय स्तर के कलाकार होते। नहीं तो कम से कम तीजन बाई, बिस्मिल्ला खां, गिरिजा देवी के स्तर के कलाकार तो वह होते ही होते। इससे कम पर तो कोई उन्हें रोक नहीं सकता था। सच यही था कि बिरहा में लोक कवि का आज भी कोई जवाब नहीं था। उनकी मिसरी जैसी मीठी आवाज का जादू आज भी ढेर सारी असंगतियों और विसंगतियों के बावजूद सिर चढ़ कर बोलता था। और इससे भी बड़ी बात यह थी कि कोई और लोक गायक बाजार में उनके मुकाबले में दूर-दूर तक नहीं था। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि लोक कवि से अच्छा बिरहा या लोक गीत वाले और नहीं थे। और लोक कवि से बहुत अच्छा गाने वाले लोग भी दो-चार ही सही थे। पर वह लोग बाजार तो दूर बाजार की बिसात भी नहीं जानते थे। लोक कवि भी इस बात को स्वीकार करते थे। वह कहते भी थे कि ‘पर ऊ लोग मार्केट से आउट हैं।’ लोक कवि इसी का फायदा क्या उठाते थे बल्कि भरपूर दुरुपयोग करते थे। दूरदर्शन, आकाशवाणी, कैसेट, कार्यक्रम, आर्केस्ट्रा हर कहीं उनकी बहार थी। पैसा जैसे उनको बुलाता रहता था। जाने यह पैसे का ही प्रताप था कि क्या था पर अब गाना उनसे बिसर रहा था। कार्यक्रमों में उनके साथी कलाकार हालांकि उन्हीं के लिखे गाए गाने गाते थे पर लोक कवि जाने क्यों बीच-बीच में दो-चार गाने गा देते। ऐसे जैसे रस्म अदायगी कर रहे हों। धीरे-धीरे लोक कवि की भूमिका बदलती जा रही थी। वह गायकी की राह छोड़ कर आर्केस्ट्रा पार्टी के कैप्टन कम मैनेजर की भूमिका ओढ़ रहे थे। बहुत पहले लोक कवि के कार्यक्रमों के पुराने उदघोषक दुबे जी ने उन्हें आगाह भी किया था कि, ‘ऐसे तो आप एक दिन आर्केस्ट्रा पार्टी के मैनेजर बन कर रह जाएंगे।’ पर लोक कवि तब दुबे जी की यह बात माने नहीं थे। दुबे जी ने जो ख़तरा बरसों पहले भांप लिया था उसी ख़तरे का भंवर लोक कवि को अब लील रहा था। लेकिन बीच-बीच के विदेशी दौरे, कार्यक्रमों की अफरा तफरी लोक कवि की नजरों को इस कदर ढके हुए थी कि वह इस ख़तरनाक भंवर से उबरना तो दूर इस भंवर को वह देख भी नहीं पा रहे थे। पहचान भी नहीं पा रहे थे। लेकिन यह भंवर लोक कवि को लील रहा है, यह उनके पुराने संगी साथी देख रहे थे। लेकिन टीम से ‘बाहर’ हो जाने के डर से वह सब लोक कवि से कुछ कहते नहीं थे। पीठ पीछे बुदबुदा कर रहे जाते।

और लोक कवि?

लोक कवि इन दिनों किसिम-किसिम की लड़कियों की छांट बीन में रहते। पहले सिर्फ उनके गाने डबल मीनिंग की डगर थामे थे, अब उनके कार्यक्रमों में भी डबल मीनिंग डायलाग, कव्वाली मार्का शेरो शायरी और कामुक नृत्यों की बहार थी। कैसेटों में वह गाने पर कम लड़कियों की सेक्सी आवाज भरने के लिए ज्यादा मेहनत करते थे। कोई टोकता तो वह कहते, ‘इससे सेल बढ़ जाती है।’ लोक कवि कोरियोग्राफर नहीं थे, शायद इस शब्द को भी नहीं जानते थे। लेकिन किस बोल की किस लाइन पर कितना कूल्हा मटकाना है, कितना ब्रेस्ट और कितनी आंखें, अब वह यह ‘गुन’ भी लड़कियों को रिहर्सल करवा-करवा कर सिखाते क्या घुट्टा पिलाते थे। और बाकायदा कूल्हा, कमर पकड़-पकड़ कर। गानों में भी वह लड़कियों से गायकी के आरोह-अवरोह से ज्यादा आवाज को कितना सेक्सी बना सकती थीं, कितना शोख़ी में इतरा सकती थीं, इस पर जोर मारते थे। ताकि लोग मर मिटें। उनके गानों के बोल भी अब ज्यादा ‘खुल’ गए थे। ‘अंखिया बता रही हैं, लूटी कहीं गई है’ तक तो गनीमत थी लेकिन वह तो और आगे बढ़ जाते, ‘लाली बता रही है, चूसी कहीं गई है’ से लेकर ‘साड़ी बता रही है, खींची कहीं गई है’ तक पहुंच जाते थे। इस डबल मीनिंग बोल की इंतिहा यहीं नहीं थी। एक बार होली पहली तारीख़ को पड़ी तो लोक कवि इसका भी ब्यौरा एक युगल गीत में परोस बैठे, ‘पहली को ‘पे’ लूंगा फिर दूसरी को होली खेलूंगा।’ फिर सिसकारी भर-भर गाए इस गाने का कैसेट भी उनका खूब बिका।

अच्छा गाना गाने वाली एकाध लड़कियां ऐसा गाना गाने से बचने के फेर में पड़तीं तो लोक कवि उसे अपनी टीम से ‘आउट’ कर देते। कोई लड़की ज्यादा कामुक नृत्य करने में इफ बट करती तो वह भी ‘आउट’ हो जाती। यह सब जो लड़की कर ले और लोक कवि के साथ शराब पी कर बिस्तर में भी हो ले तो वह लड़की उनके टीम की कलाकार नहीं तो बेकार और आउट! एक बार एक लड़की जो कामुक डांस बहुत ढंग से करती थी, पी कर बहक गई। लोक कवि के साथ बेडरूम में गई और साथ में लोक कवि के बगल में जब एक और लड़की कपड़े उतार कर लेट गई तो वह उचक कर खड़ी हो गई। निर्वस्त्रा ही। चिल्लाने लगी, ‘गुरु जी यहां या तो यह रहेगी या मैं।’

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‘तुम दोनों रहोगी!’ लोक कवि भी टुन्न थे पर पुचकार कर बोले।

‘नहीं गुरु जी!’ वह अपने खुले बाल और निर्वस्त्रा देह पर कपड़े बांधती हुई बोली।

‘तुम तो जानती हो एक लड़की से मेरा काम नहीं चलता!’

‘नहीं गुरु जी, मैं इस के साथ यहां नहीं सोऊंगी। आप तय कर लीजिए कि यहां यह रहेगी कि मैं।’

‘इसके पहले तो तुम्हें ऐतराज नहीं था।’ लोक कवि ने उसका मनुहार करते हुए कहा।

‘पर आज ऐतराज है।’ वह चीख़ी।

‘लगता है तुमने जादा पी ली है।’ लोक कवि थोड़ा कर्कश हुए।

‘पिलाई तो आप ही ने गुरु जी!’ वह इतराई।

‘बहको नहीं आ जाओ!’ गुस्सा पीते हुए लोक कवि ने उसे फिर पुचकारा। और लेटे-लेटे उठ कर बैठ गए।

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‘कह दिया कि नहीं!’ वह कपड़े पनहते हुए चीख़ी।

‘तो भाग जाओ यहां से।’ लोक कवि धीरे से बुदबुदाए।

‘पहले इसको भगाइए!’ वह चहकी, ‘आज मैं अकेली रहूंगी।’

‘नहीं यहां से अब तुम जाओ।’

‘नीचे बड़ी भीड़ है गुरु जी।’ वह बोली, ‘फिर सब समझेंगे कि गुरु जी ने भगा दिया।’

‘भगा नहीं रहा हूं।’ लोक कवि अपने को कंट्रोल करते हुए बोले, ‘नीचे जाओ और रुखसाना को भेज दो!’

‘मैं नहीं जाऊंगी।’ वह फिर इठलाई। लेकिन लोक कवि उसके इस इठलाने पर पिघले नहीं। उलटे उबल पड़े, ‘भाग यहां से ! तभी से किच्च-पिच्च, भिन्न-भिन्न किए जा रही है। सारी दारू उतार दी।’ वह अब पूरे सुर में थे, ‘भागती है कि भगाऊं!’

‘जाने दीजिए गुरु जी !’ लोक कवि के बगश्ल में लेटी दूसरी लड़की जो निर्वस्त्रा तो थी पर चादर ओढ़े हुए बोली, ‘इतनी रात में कहां जाएगी, और फिर मैं ही जाती हूं रुखसाना को बुला लाती हूं।’

‘बड़ी हमदर्द हो इसकी?’ लोक कवि ने उसको तरेरते हुए कहा, ‘जाओ दोनों जाओ यहां से, और तुरंत जाओ।’ लोक कवि भन्नाते हुए बोले। तब तक पहले वाली लड़की समझ गई कि गड़बड़ ज्यादा हो गई है। सो गुरु जी के पैरों पर गिर पड़ी। बोली, ‘माफ कर दीजिए गुरु जी।’ उसने थोड़ा रुआंसी होने का अभिनय किया और बोली, ‘सचमुच चढ़ गई थी गुरु जी! माफ कर दीजिए!’

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‘तो अब उतर गई?’ लोक कवि सारा मलाल धो पोंछ कर बोले।

‘हां गुरु जी!’ लड़की बोली।

‘लेकिन मेरी भी दारू तो उतर गई!’ लोक कवि सहज होते हुए दूसरी लड़की से बोले, ‘चल उठ!’ तो वह लड़की जरा सकपकाई कि कहीं बाहर भागने का उसका नंबर तो नहीं आ गया। लेकिन तभी लोक कवि ने उसकी शंका धो दी। बोले, ‘अरे हऊ शराब का बोतल उठा।’ फिर दूसरी लड़की की तरफ देखा और बोले, ‘गिलास पानी लाओ।’ वह जरा मुसकुराए, ‘एक-एक, दो-दो पेग तुम लोग भी ले लो। नहीं काम कैसे चलेगा?’

‘हम तो नहीं लेंगे गुरु जी।’ वह लड़की पानी और गिलास बेड के पास रखी मेज पर रख कर सरकाती हुई बोली।

‘चलो आधा पेग ही ले लो।’ लोक कवि आंख मारते हुए बोले तो लड़की मान गई।

लोक कवि ने खटाखट दो पेग लिए और टुन्न होते कि उसके पहले ही आधा पेग पीने वाली लड़की को अपनी ओर खींच लिया। चूमा चाटा, और उसके सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया और बोले, ‘एक दिन तुम बहुत बड़ी कलाकार बनोगी।’ कह कर उसे अपनी बांहों में भर लिया।

लोक कवि के साथ यह और ऐसी घटनाएं आए दिन की बात थी। बदलती थीं तो सिर्फ लड़कियां और जगह। कार्यक्रम चाहे जिस भी शहर में हो लोक कवि के साथ अकसर यह सब बिलकुल ऐसे-ऐसे ही न सही इस या उस तरह से ही सही पर ऐसा कुछ घट जरूर जाता था। अकसर तो कोई न कोई डांसर उनके साथ बतौर ‘पटरानी’ होती ही थी और यह पटरानी हफ्ते भर की भी हो सकती थी, एक दिन या एक घंटे की भी। महीना, छः महीना या साल दो साल की भी अवधि वाली एकाध डांसर या गायिका बतौर ‘पटरानी’ का दर्जा पाए उन की टीम में रहीं। और उनके लिए लोक कवि भी सर्वस्व तो नहीं लेकिन बहुत कुछ लुटा देते थे।

बात बेबात !

बीच कार्यक्रम में ही वह ग्रीन रूम में लड़कियों को शराब पिलाना शुरू कर देते थे। कोई नई लड़की आनाकानी करती तो उसे डपटते, ‘शराब नहीं पियोगी तो कलाकार कैसे बनोगी?’ वह उकसाते हुए पुचकारते, ‘चलो थोड़ी सी चख लो!’ फिर वह स्टेज पर से कार्यक्रम पेश कर लौटती लड़कियों को लिपटा चिपटा कर आशीर्वाद देते। किसी लड़की से बहुत खुश होने पर उसकी हिप या ब्रेस्ट दबा, खोदिया देते। वह कई बार स्टेज पर भी यह आशीर्वाद कार्यक्रम चला देते। और फिर कई बार बीच कार्यक्रम में ही वह किसी ‘चेला’ टाइप व्यक्ति को बुला कर बता देते थे कि कौन-कौन लड़की ऊपर सोएगी। कई-कई बार वह दो के बजाय तीन-तीन लड़कियों को ऊपर सोने का शेड्यूल बता देते। महीना पंद्रह दिन में वह खुद भी आदिम रूप में आ जाते और संभोग सुख लूटते। लेकिन अकसर उनसे यह संभव नहीं बन पाता था।

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….जारी….

उपन्यासकार दयानंद पांडेय से संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है. इस उपन्यास का पहला पार्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- LKAGN part one

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0 Comments

  1. umesh soni

    August 22, 2011 at 3:58 pm

    भईया मस्तराम की सिरीज इसीलिए बन्द हो गई है।

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