मेरी हालत इस वक़्त आलोक जी के लिए कुछ भी लिख पाने की नहीं है…. आश्चर्य है कि किस तरह इतना बोलने वाला एक शख्स पूरी दुनिया को निःशब्द कर के चला गया है…. पता नहीं क्यों मैं भरोसा नहीं कर पा रहा…. आलोक तोमर कैसे मर सकते हैं…. और क्या उनके न होने पर भी उनके शब्द कानों से कभी दूर हो पाएंगे…. पता नहीं…. ज़्यादा नहीं कह पाऊंगा…
आपको आलोक जी की एक कविता भेज रहा हूं…. जो उन्होंने 14 सितम्बर 2009 को मुझे भेजी थी….. आलोक जी के विद्रोही व्यक्तित्व को ये कविता भली भांति दिखाती है. –मयंक सक्सेना (लखनऊ से दिल्ली के लिए रास्ते में)
तुम मुखर हो
तुम प्रखर हो
तुम निडर हो
तो सुनो चेतावनी
राज चालाक गूंगों का है
एक राजाज्ञा मिलेगी
तुम मुखर हो कर
तुम प्रखर हो कर
तुम निडर हो कर भूखे ही मरोगे
झूठ के और नपुंसक दर्प के
जब कभी टेंडर खुलेंगे
राजपथ को गली में बदलने के सभी ठेके इनको मिलेंगे
और तुम सीमा पार से
देखोगे
स्वयंभू घोषित
प्रखर
आत्म घोषीत मुखर
दयनीयता की हद तक निडर
Comments on “आलोक तोमर की एक कविता”
जिंदगी बस एक उम्मीद भरी डगर है…लेकिन मौत एक हक़ीकत है। लेकिन आख़िर दम तक अपने पसंदीदा क्षेत्र में सक्रिय रहते हुए मौत से रुबरू होने का नसीब कम लोगों को ही मिलता है। आलोक जी आपका जाना दुखद है लेकिन आपका सफ़र सुकुन भी देता है क्योंकि इसमें ये अहसास छिपा है कि अपनी शर्तों पर भी जिदंगी को बख़ूबी जिया जा सकता है। कलम के इस अद्वितीय सिपाही को पूरे सम्मान और गौरव के साथ भावभीनी श्रद्धाजंलि…. विशाल शर्मा,पत्रकार.जयपुर)