मैं और नूतन दिल्ली से लौट आये हैं, आलोक तोमर जी से मिल आये हैं. वे वहाँ चित्तरंजन पार्क में अपने घर में चुपचाप शांत भाव से लेते हुए थे. एक शीशे के चौकोर से बक्से में उन्हें लिटाया गया था. जैसा कि मैंने उम्मीद किया था वे उतने ही शांत भाव से लेटे थे जितना वे जीवन भर कभी नहीं रहे थे.
लेकिन यह जरूर है कि उनके चेहरे पर कहीं भी किसी प्रकार का खौफ्फ़ नहीं दिख रहा था, और उन्हें देख कर किसी प्रकार का दयाभाव उभरने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. मृत्यु की नीरवता और एकान्तता में भी उनके चेहरे का प्रभामंडल अपनी पहचान और अपना असर बनाए हुए था. हाँ, यह देख कर साफ़ जाहिर हो जाता था कि यहाँ कोई शेर लेटा हुआ है.
वहीँ सामने उनकी पत्नी और हम लोगों की भाभी सुप्रिया जी बैठी हुई थीं. जैसे ही मैंने अपना परिचय दिया तो उनका पहला सवाल यही था कि आप इनके जीवित रहते क्यों नहीं आये, आपकी तो अक्सर चर्चा करते रहते थे. अफ़सोस मुझे भी हुआ, और भयानक रूप से अफ़सोस हुआ, क्योंकि यह सही है कि आलोक तोमर साहब को उनके जीवन में देखने और उनसे मिलने की मेरी भी उत्कट इच्छा थी जो दुर्भाग्यवश पूरी नहीं हो सकी. पर सच्चाई यही है कि मुझे मन ही मन ऐसा लगता था कि यह जिद्दी आदमी कैंसर को भी हरा देगा और इतनी जल्दी विदा नहीं लेगा. मुझे सचमुच ऐसा ही एहसास था कि आलोक तोमर अभी कई साल रहेंगे. इसीलिए मैंने उनसे मिलने की कोई जल्दी नहीं दिखाई थी.
फिर हाल में मेरठ पोस्टिंग भी हो गयी थी तो लगा था कि इसी बहाने उनसे मिलना होता रहेगा. सुप्रिया जी का बस यही कहना रहा कि क्या इनके जिन्दा रहते आप नहीं आ सकते थे. मेरी बदकिस्मती! वहाँ आलोक जी के मित्र और प्रशंसकों की काफी तादात थी. उनके तमाम बंगाली रिश्तेदार थे, उनके साले साहब थे. इनके बीच सिसकती हुई और चुप्पी साधे उनकी इकलौती लड़की भी थी जो इसी साल कॉलेज जाने लगी है. साथ ही उसके तमाम सहपाठी भी थे.
उनके कई पत्रकार मित्र भी थे. जिन्हें मैं जानता था उनके राहुल देव जी, उनके भाई संजय देव, अजीत अंजुम और उनकी पत्नी गीताश्री जी, अनुरंजन झा, कृष्ण मोहन सिंह आदि थे. कृष्ण मोहन जी का बस एक ही कहना था कि ऐसा जिद्दी और हठी व्यक्ति उन्होंने अपने पूरे जीवन में नहीं देखा. वे आलोक जी और उनकी पत्नी सुप्रिया जी पर इस बात के लिए नाराज़ हो रहे थे कि इन लोगों ने उनकी एक बात नहीं मानी, भागलपुर में एक नेचुरोपैथी के बहुत बड़े साधक से बात हो गयी थी पर वे नहीं गए, ना ही मुंबई के टाटा मेमोरिअल अस्पताल गए. अफ़सोस कर रहे थे कि शायद आज प्रभाष जोशी होते तो आलोक जी पर कुछ अंकुश लगा पाते, वरना आलोक जी जैसे मनमौजी और अल्हड जल के तीव्र प्रवाह कर नियंत्रण रख पाना हर किसी के वश में नहीं था.
इन सबों के बीच में सुप्रिया जी मुझे, मेरी पत्नी नूतन और वहाँ उपस्थित सभी लोगों से एक ही बात बार बार कह रही थीं कि क्या किसी अच्छे आदमी को इसी तरह से मात्र पचास साल की उम्र में ही चला जाना जरूरी होता है. एक बात वह और कह रही थीं-“आलोक जी कहते थे कि उन्हें किसी बात से डर नहीं लगता. वे किसी चीज़ के सामने नहीं झुकते थे. फिर आज क्यों झुक गए? आज क्यों डर गए हैं? आज क्यों चुप हैं?”
मैं भी सोचता हूँ कि आज आलोक जी इतना चुप क्यों हैं? सचमुच आज वहाँ सब कुछ था, बस आलोक जी नहीं थे और उनकी अद्भुत मेधा और उनका अपूर्व व्यक्तित्व नहीं था. मेरी दृष्टि में और मेरे मन-मस्तिष्क में आलोक जी हमेशा रहेंगे यह मैं जानता हूँ पर इतना जरूर है कि यदि वे अभी इतनी जल्दी नहीं जाते तो सुप्रिया भाभी और उनकी बेटी को इस तरह से सिसकते हुए और क्रंदन करते नहीं देखना पड़ता.
यह आपने अच्छा नहीं किया, आलोक जी.
अमिताभ ठाकुर
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी
मेरठ
Ajit Singh
March 20, 2011 at 7:49 pm
आज पहली बार किसी ऐसे के जाने पर तकलीफ हुई जिससे न कभी मिला न कभी बातचीत हुई, व्यक्तिगत रूप से न तो कभी जाना , हा उनके लिखे शब्द सीधे दिल में उतरते थे, उनका निर्भीक तरीका, सर्व ग्राह्य शब्द और एक ठोस रचना, अब शायद कभी पढने को न मिले , अभी कुछ ही महीनो से datelineindiaA को पढना शुरू किया था और भारत से दूर परिस में सुबह की शुरुआत उसी से होने लगी…दिल रो रहा है, और कुछ चीजो का अफ़सोस ताउम्र रहेगा, ये उनमे से एक है….अलोक जी को भगवान् स्वर्ग के साथ सबके दिल में जगह और उनके परिवार और हम जैसे क्झाहने वालो को इस असीम दुःख से निपटने की शक्ति दे…
vishal shukla
March 20, 2011 at 8:12 pm
भारतीय पत्रकारिता जगत के लिए यह होली काफी दुखद रही। क्योंकि भारतीय पत्रकारिता का मजबूत स्तंभ धाराशाई हो गया। कलम की धार के महारथी योद्धा आलोक तोमर का तेज कैंसर की बीमारी के आगे मंद पड चुका है। अपराध पत्रकारिता के शिखर पुरुष को शत शत नमन।
vishal sharma
March 21, 2011 at 3:20 am
जिंदगी बस एक उम्मीद भरी डगर है…लेकिन मौत एक हक़ीकत है। लेकिन आख़िर दम तक अपने पसंदीदा क्षेत्र में सक्रिय रहते हुए मौत से रुबरू होने का नसीब कम लोगों को ही मिलता है। आलोक जी आपका जाना दुखद है लेकिन आपका सफ़र सुकुन भी देता है क्योंकि इसमें ये अहसास छिपा है कि अपनी शर्तों पर भी जिदंगी को बख़ूबी जिया जा सकता है। कलम के इस अद्वितीय सिपाही को पूरे सम्मान और गौरव के साथ भावभीनी श्रद्धाजंलि…. विशाल शर्मा,पत्रकार.जयपुर)
vishal sharma
March 21, 2011 at 3:42 am
जिंदगी बस एक उम्मीद भरी डगर है…मौत एक हक़ीकत है। लेकिन आख़िर दम तक अपने पसंदीदा क्षेत्र में सक्रिय रहते हुए मौत से रुबरू होने का नसीब कम लोगों को ही मिलता है। आलोक जी आपका जाना दुखद है लेकिन आपका सफ़र सुकुन भी देता है क्योंकि इसमें ये अहसास छिपा है कि अपनी शर्तों पर भी जिदंगी को बख़ूबी जिया जा सकता है। कलम के इस अद्वितीय सिपाही को पूरे सम्मान और गौरव के साथ भावभीनी श्रद्धाजंलि…. विशाल शर्मा,पत्रकार,(जयपुर)
Khushdeep Sehgal
March 21, 2011 at 7:28 am
अद्भुत आलोक जी को विनम्र श्रद्धांजलि…न जाने क्यों आज धर्मेंद्र की फिल्म सत्यकाम की शिद्दत के साथ याद आ रही है…
जय हिंद…
Khushdeep Sehgal
March 21, 2011 at 7:29 am
अद्भुत आलोक जी को विनम्र श्रद्धांजलि…न जाने क्यों आज धर्मेंद्र की फिल्म सत्यकाम की शिद्दत के साथ याद आ रही है…
जय हिंद…
Arjun Sharma
March 21, 2011 at 7:52 am
अब किसकी लेखन शैली को सबक मानते हुए तुम जैसा लिखने का प्रयास करूंगा, अलोक भाई तुमने अच्छा नहीं किया. यह कोई जाने की उम्र थी? सुप्रिया भाबी व मिष्ठी को कौन से शब्द सांत्वना दे सकेंगे तुम तो खुद ही शब्द थे और खुद ही अर्थ! हे शब्दार्थ तुम्हे मेरा अश्रु भीगा प्रणाम
girish srivastav
March 21, 2011 at 12:17 pm
alok ji, aap ko hum bhul nahi paynge. aapko sat sat naman.