इस्तीफानामा- 2 : दिल्ली-बनारस वाया लखनऊ

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पदमपति शर्मामशहूर खेल पत्रकार पदमपति शर्मा के इस्तीफेनामे  के पहले  भाग से ठीक आगे पढ़ें,  दूसरा  भाग— 

यहां मैं यह भी स्पष्ट कर दूं कि यह सही है कि मैं और अजय जी एक ही नगर में पैदा हुए और वहीं करियर भी शुरू किया। परंतु मेरी उनसे पहली मुलाकात हिंदुस्तान टाइम्स के दफ्तर में ही हुई थी। अजय जी ने अपना करियर 1983 में आज अखबार से शुरू किया जबकि मैं 1981 में ही आज छोड़कर जागरण में जा चुका था। मुझे तो हिंदुस्तान वाराणसी के सीनियर प्रबंधक श्री यादवेश कुमार ने फोन पर अग्रवाल साहब का संदेश दिया कि मैं जाकर अजय उपाध्याय से मिलूं।

यह भी कहा गया कि मुझे बिहार और यूपी के ही संस्करण देखने हैं। दिल्ली से बस इतना ही मतलब रहेगा कि आप वहां भी समस्त खबरें भेजा करें। हालांकि दिल्ली की खेल डेस्क उनका उपयोग नहीं करेगी, यूनियन का चक्कर है।

मैं तो सीधे वाराणसी संस्करण खुलने पर ही ज्वाइन करना चाहता था, मगर अजय जी के इस अनुरोध पर कि हम री-लांचिंग कर रहे हैं अखबार की तो आप सितंबर (2000) में लखनऊ में ज्वाइन कीजिए। बाद में आपकी डेस्क को वाराणसी स्थानांतरित कर दिया जाएगा। अमर उजाला ने भी मुझे इसी आश्वासन पर बुलाया था। जागरण (वाराणसी) में लगभग 17 बरस की कार्यावधि के दौरान हिंदी खेल पत्रकारिता में काफी काम हुआ। जागरण से मतभेद मास्टर पेज को लेकर हुआ। उन्होंने मुझसे शुरू में ही यह वायदा किया था कि वाराणसी से ही मास्टर पेज भेजा जाएगा। लेकिन बाद में उन्होंने कानपुर में पेज तैयार करने को कहा, जिस पर मैंने त्यागपत्र दे दिया और अमर उजाला में चला गया।

जीवन में शुचिता ही मेरी थाती रही है। अपने 28 वर्षीय करियर के दौरान शराब-सिगरेट को हाथ तक नहीं लगाया। कभी ऐसी पार्टियों में भी नहीं गया। बस, बचपन से ही खेलों को लेकर एक जुनून था, उसे पूरा करने में लगा हुआ था।

मैंने खेल पत्रकारिता को पूजा है मृणाल जी। पिता की अंतिम सांसें चल रहीं थीं और रेडियो से मैं विम्बलडन फाइनल (1983) कवर कर रहा था। मैं आपको अलग से पत्र में (उस घटना का उल्लेख एक अंग्रेजी खेल पत्रिका ने मुझ पर प्रकाशित एक स्तंभ में किया है)  उसकी छाया प्रति भेजूंगा और कदाचित तब आपको अहसास होगा कि समर्पण किसे कहते हैं। साथ ही भेजूंगा आदरणीय शोभना जी को संबोधित शिवप्रसाद सिंह जी (लब्ध प्रतिष्ठिति साहित्यकार स्वर्गीय डाक्टर शिवप्रसाद सिंह) का पत्र जो उन्होंने मेरे लिए तब लिखा था जब हिंदुस्तान का लखनऊ संस्करण आरंभ होने को था। मृणाल जी, मैं आपकी तरह साहित्यकार नहीं, अदना सा खेल समीक्षक हूं। लेकिन साहित्यकारों के चरणों में बैठने का सानिध्य मुझे मिलता रहा था। शिव प्रसाद जी के साथ गली आगे मुड़ती है  में गंगा के 36 विविध रंगों को मैंने भी उनके साथ देखा है। नीला चांद (सरस्वती सम्मान प्राप्त उपन्यास) के पात्र भुवन शास्त्री (मेरे स्वर्गीय पिता) से प्रदत्त संस्कारों पर ही चलता रहा।

जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि ईमानदारी मेरे जीवन का एकमात्र संकल्प रहा है। मेरा कट्टर विरोधी भी मुझ पर ऐसा आरोप नहीं लगा सकता। पान की तो मैं बात नहीं कहता, इससे ज्यादा मेरे लिए कुछ भी लेना गोमांस खाने के समान ही रहा है। बस, दीवानगी इतनी ही कि हमारा खेल पन्ना पूर्णता प्राप्त हो और पाठक को कम से कम खेलों के लिए अंग्रेजी अखबारों का सहारा लेने की जरूरत न पड़े।

प्रांज्लय, प्रवाहमयी, सरस्र व व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध (जो अब अखबारों से लुप्त होती जा रही है) भाषा का प्रयोग करने की चेष्टा इसलिए रही कि खेल पाठक (बच्चे) अखबार के माध्यम से हिंदी सीखते भी हैं। इसलिए खेल पृष्ठ की हमेशा से दोहरी जिम्मेदारी रही है।

….जारी

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