नीड़ नहीं, निराशा के निर्माण का दशक, यह कहना है 15 अगस्त, 1947 को मुल्क की आजादी के संग अपना सफर शुरू करने वाले युगवाणी पत्र का। साप्ताहिक से मासिक पत्र के रूप में अपने दस साल पूरे करने जा रही इस पत्रिका ने एक राज्य के रूप में उत्तराखंड की दस वर्ष की यात्रा का विश्लेषण इस तरह किया है। कुछ ऐसा ही तहलका ने भी निराशा के भाव प्रकट किए हैं।
ये बताते हैं, जिन उम्मीदों की रोशनी लिये यह राज्य बना था, वह विवेकहीन राजनीतिकों का अखाड़ा बनकर रह गया है। सीमित संसाधनों से चलने वाले इन पत्रों का यह आकलन उन बड़े़ मीडिया घरानों की गुलाबी तस्वीरों से जुदा है, जो वे अपने पन्नों पर साया करते हैं।
देहरादून से प्रकाशित युगवाणी अपने संपादकीय में कहता है,‘ उत्तराखंड अपने जन्म की दसवीं वर्षगांठ मना रहा है। अपने सपनों के राज्य से कहीं बहुत दूर। एक खतरा और बढ़ गया है। बांध निर्माण के बहाने नये मालिक भीतर आ गए हैं। नागरिकों को अपनी जमीन पर बुनियादी हक हासिल नहीं हो पाते हैं और उद्योग के नाम पर बड़े उद्योग घराने आराम से हर कहीं कानून से उपर उठकर काबिज हो जाते हैं।’
‘नीड़ नहीं, निराशा के निर्माण का दशक’ शीर्षक से पत्रिका के मुख्य आलेख में वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश चंद्र जुगरान कहते हैं, ‘इन दस सालों में हम अपनी उद्यमी छवि नहीं गढ़ पाए और अविभाजित उत्तर प्रदेश की कार्बन कॉपी बनकर रह गए। अब तक का तजुर्बा तो यही कह रहा है कि हमने नए राज्य में नेतृत्व नहीं, सिर्फ नेता तैयार किए और उसी अनुपात में उनके भ्रष्ट चाटुकारों की एक पूरी फौज। इन गारे-घंतरों से पटी कच्ची नींव पर किले का ख्वाब देखें तो भला कैसे?’
राज्य आंदोलनकारी पत्रकार जय प्रकाश उत्तराखंडी बताते हैं, कैसे एक के बाद एक सरकारों ने चपरासी व क्लर्की की कुर्सी थमाकर जनता की बेहतरी के लिए मरने-खपने को तैयार रहने वाले आंदोलनकारी ताकतों को भिखारी बना दिया। ऐसे लोग सरकारी नौकरी बजा रहे हैं और जनता की आवाज कहीं गुम सी हो गई है। जगमोहन रातैला, योजनाकारों के विवेक पर सवाल खड़ा करते हैं तो रजपाल बिष्ट एक दशक बाद भी गैरसैंण को राज्य की राजधानी न बनाए जाने पर पृथक राज्य की अवधारणा के नेपथ्य में धकेले जाने को इंगित करते हैं। पत्रिका के संपादक संजय कोठियाल हैं। उत्तराखंड को समझने के लिए यह एक जरूरी पत्रिका है। हालांकि कुछ किन्तु-परंतु की गुजाइश हर कहीं होती है।
अपनी जनसरोकारी पत्रकारिता के लिए जाने जाने वाले ‘तहलका’ ने भी दस साल के इस राज्य की विभिन्न पहलुओं से पड़ताल की है। तहलका कहता है, ”राज्य के दस साल की यात्रा को कतई आशाजनक नहीं कहा जा सकता है। इन दस साल में सरकारों और उसके तंत्र को चलाने वालों पर आम आदमी का भरोसा कम होता गया है। राज्य में एक विशिष्ट शासक वर्ग पैदा हो गया है, जो अब आम जन की नाराजगियों के लिए संवेदनहीनता की सीमा को पार कर ‘जनता की कौन परवाह करता है’ या ‘जनता तो कहती है रहती है’ की बेशर्मी तक पहुंच चुका है। यह बेशर्मी जारी रही तो राज्य को ले डूबेगी।”
नेतृत्व व नौकरशाही के सवाल पर तहलका में ही पृथक राज्य गठन का आधार बनी कौशिक कमेटी के सचिव रहे और बाद में राज्य के मुख्य सचिव से होते हुए मुख्य सूचना आयुक्त के पद से मुक्त हुए डॉ आर एस टोलिया जो कहते हैं उस पर गौर करने की कई वजहें हैं। जैसे वे राज्य के अहम ओहदों पर रहे और वे इस पृथक राज्य के उस हिस्से पिथारौगढ़ के मूल निवासी हैं, जिसके लिए आज भी देहरादून की यात्रा उतनी ही मुश्किल है, जितनी लखनऊ या दिल्ली की। टोलिया कहते हैं, ‘यदि पर्वतीय क्षेत्रों की उपेक्षा को नए राज्य के गठन का आधार माना जाय तो ये दस साल एक बड़ी सीमा तक असपफलता के ही वर्ष कहे जाएंगे।’ डॉ टोलिया राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच गंभीर संवादहीनता व आने वाले दिनों में गंभीर वित्तीय संकट की ओर इशारा करते हैं।
जागरण समूह का टेबलायड अखबार ‘आई नेक्स्ट’ के कुणाल वर्मा राज्य में पॉवर प्रोजेक्ट को लेकर हो रही राजनीति पर सवाल उठाते हुए एक रिपोर्ट में कहते हैं, ‘यह विकास की कड़वी सच्चाई है, जिसमें ख्वाबों के आशियानों के उजड़ने का दर्द है। पलायन की राह है। बर्बादी का दंश है। सरकार की अदूरदर्शिता और पर्यावरण संरक्षण की राजनीति है। साथ ही एक ऐसा सवाल जो उत्तराखंड की युवा पीढ़ी सरकार से पूछ रही है। क्या यही विकास का सच है?‘
इन निराशाजनक कतरनों से सवाल उठता है क्या इन दस वर्षों में उत्तराखंड अपनी राह भटक गया है? जैसे कुछ लोग इसके गठन के समय ही आशंकाएं जाहिर कर रहे थे। और क्या अपनी विषम भौगोलिकता के चलते यह हिमालयी राज्य भविष्य में दिल्ली के लिए नई चुनौती बनने जा रहा है?
बड़े अखबारों से इतर इस हिमालयी राज्य में क्या कुछ लिखा और सोचा जा रहा है, उससे उत्तराखंड की सीमाओं से बाहर लोगों को समझना जरूरी है। यह उन समूहों के लिए भी उतना ही जरूरी है जो तेलंगाना से लेकर गोरखालैंड व बुंदेलखंड तक अलग राज्य की लड़ाई लड़ रहे हैं। ताकि पता चल सके कि छोटे राज्य जरूरी नहीं कि विकास की गारंटी लिए ही पैदा होते हैं।
लेखक दीपक आजाद हाल-फिलहाल तक दैनिक जागरण, देहरादून में कार्यरत थे. इन दिनों स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं.
ajay
November 7, 2010 at 2:46 pm
ये वही युगवाणी है जिसके मालिकों ने इसी उत्तराखंड में कुछ अरसा पहले एक मुख्यमंत्री कोष से मोटी धनराशि सहायता के रूप में वसूल की है। आर.टी.आई. में इसका खुलासा हो चुका है। ताज्जुब है कि एक मुख्यमंत्री से सहायता के नाम पर धन बटोरने वाले अब खुद को निष्पक्ष दर्शाने के लिए कीचड भी उछालने लगे हैं…. कुछ तो शर्म करो। पत्रकारिता को वसूली का जरिया तो मत ही बनाओं।
mayank rai
November 7, 2010 at 2:53 pm
deepak bhai ap senior journlist ho ye sabko pta hai such likhna vastav me aj k ghor arthvadi yug me muskil hai .kbhi kisi ka pressure to kbhi kisi ka .lekin mudda to hao ki pahad ke vikas ko lekar akhir kia kya gya .kas in 10 years me koi positive pahal hui hoti to pahad ki hariyali aur bhi damkti .