: बहुत दिन बाद बाबा ने सुनाई बच्चों वाली एक प्यारी-सी कहानी : बाबा बहुत पहले गुजर गए मेरे. शायद कक्षा दस में पढ़ता था. व्रत वाले एक दिन वे पड़ोस के गांव में जा रहे थे कि उसी पड़ोस वाले गांव में अपने एक अनन्य मित्र के घर के दरवाजे पर हार्ट अटैक के कारण गिरे और चले गए. देर रात हम लोग गाजीपुर शहर से गांव लौटे थे. उनका शरीर उसी नीम के पेड़ के नीचे जमीन पर ढककर लिटाया गया था जहां मैं बाबा के साथ उनकी चारपाई पर सोता था.
और, बाबा जब जल्द सो जाया करते तो उनके अधखुले पेट पर तीली विहीन माचिसों के ढेर को एक दूजे से जोड़कर ट्रैक्टर बनाकर चलाया करता था.. भड़भड़ भड़भड़ ठकठक ठकठक की आवाज मुंह से निकालते हुए. और, वे जब काफी देर बाद अनमनाते तो मेरे सारे ट्रैक्टर गिर पड़ते, तब दूसरा खेल खेलता. बाबा की बड़ी बड़ी सफेद मूछों को ऐंठकर उपर की तरफ कर देता. बाबा की मूंछें बड़ी बड़ी हुआ करती थी लेकिन लटकी हुई होतीं. उन्हें टे-टा कर चंद्रशेखर आजाद की तरह करता तो भी वे चुप शांत सोये रहते. और, इसी बीच निबौनी (हमारे यहां नींबकौड़ी बोलते हैं) नींब के पड़ से खटिया पर टपकते रहते तो उन्हें उठा उठा कर कुछ को चखकर और कुछ को यूं ही नीचे फेंकता रहता.
इस रुटीन दृश्य से अलग कुछ और दृश्य होते जो स्थायी भाव होते. वो था बाबा द्वारा रोज एक कहानी सुनाना. बाबा की कहानियों और उनको सुनते वक्त अपने अंदर की भाव भंगिमाओं के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि बाबा की कहानियों के इमोशन, उतार-चढ़ाव, विस्तार… सब हम लोगों को इस तरह आगोश में ले लेता कि हर कहानी के बाद अपन बच्चा लोगों का शरीर शांत हो जाता, सिर्फ दिमाग दौड़ता रहता, सोचता रहता. और, आज वही दृश्य सब याद आ गया. चिल्लर पार्टी देखते हुए. फिल्म देखकर लौटते वक्त नास्टेल्जिक होता गया. बाबा के पास पहुंचता रहा. बचपन की कहानियों में गोता लगाने लगा.
एक था कुत्ता. आवारा था. और उसका दोस्त था एक लड़का. वो भी गली छाप था, इसलिए आवारा था. वो एक बार शहर में आ गया, मजूरी करने वाले अपने बाबा के पास. उसके बाबा शहर की उस कालोनी में कपड़े प्रेस करते थे जहां राजे-राजकुमार सरीखे लोग रहते, सारी सुविधाओं से लैस. उस कालोनी के सभी राजकुमार बच्चे उस आवारा लड़के और उसके आवारा कुत्ते के आने से खुश नहीं थे. क्योंकि राजकुमारों की क्रिकेट पिच पर उस कालोनी की एक राजकुमारी सरीखी पालतू बिच उर्फ कुतिया रोज टट्टी कर देती थी. राजकुमार लोग टट्टी जैसी बुरी चीजों को भला कैसे झेल पाते, सो वे प्लान बनाते रहते कि कैसे इस कालोनी के एक घर की एलीट कुतिया को कालोनी से बाहर भगा दिया जाए ताकि उनकी पिच चाक-चौबंद रहे. और, लो, यह क्या. एक पालतू व सभ्य-सुशील कुतिया अभी गई भी नहीं कि एक आवारा कुत्ता कालोनी के भीतर आ गया.
आवारा लड़का और उसका आवारा कुत्ता उस कालोनी के मैदान के एक किनारे पड़ी बेहद पुरानी, जर्जर, कबाड़ी कार में रात बिताते थे और दोनों आपस में बतियाते थे. कुत्ता बेचारा क्या बोलता, पर आवारा लड़का उसके मूड मिजाज को खूब समझता और उसी अनुरूप बातें भी करता. यह भी कह सकते हैं कि आवारा लड़के का कालोनी में कोई दोस्त नहीं था क्योंकि वहां सब राजे-राजकुमार थे, सो उसने बातचीत करने का काम अपने दोस्त कुत्ते से जारी रखा. बाबा ने अपने गरीब बालक को कालोनी की कार साफ करने का काम दिलवा दिया था. सो, वह अपना काम निपटाकर कुत्ते के साथ बोलता-बतियाता और खटारा-कबाड़ा-जर्जर कार में सो जाता. अब जब ये आवारा टाइप लोग आ गए तो इन्हें भगाना बेहद जरूरी हो गया था राजे-राजकुमारों के लिए. इसके लिए एक से बढ़कर एक प्लानिंग की गई और उसे आजमाया गया.
एक बार तो एक तेजतर्रार बुद्धि वाले चश्माधारी छटांक भर के राजकुमार ने अपने पापा की रिमोट कंट्रोल वाली घर के बाहर खड़ी बड़ी-सी कार में आवारा कुत्ते को घुसा दिया और कार को दूर से ही रिमोट से लाक कर दिया. बेचारा आवारा कुत्ता. बंद शीशों वाली कार में क्यूं क्यूं कांहें कांहें करता हुआ दम घुटने की प्रताड़ना झेलता रहा और उधर यह सब देख राजे-राजकुमार प्रसन्न होते रहे. अपने दोस्त को न पाकर मैला-कुचैला कपड़ा पहनने वाला गरीब लड़का दुखी हो गया और बेचैन होकर खोजने लगा. खोजते-खोजते खोजते वह हर जगह पहुंचा. दाएं बाएं यहां वहां. कालोनी के चप्पे चप्पे को आवाज देकर पुकार लिया, पूछ लिया, रो लिया, पर कुत्ता दोस्त नहीं मिला. उसका रोना जारी रहा. धीरे धीरे वह जोर जोर से रोने लगा. इतना जोर जोर से रोने लगा कि कालोनी के राजे-राजकुमार के दिलों में खुशी की लहर दौड़ गई. आखिरकार रोते हुए आवारा लड़के ने कार में मरते हुए अपने आवारा दोस्त को खोजने में कामयाब हो गया पर उससे तो कार का दरवाजा खुल ही नहीं रहा था.
सिर पटक पटक कर हाथ पटक पटक कर वह थक गया, बैठ गया, रोता रहा पुक्का फाड़ के, पर कार का दरवाजा नहीं खुला और अंदर उसका दोस्त दम घुटने से छटपटाता जा रहा था…. राजे-राजकुमारों को इस हृदयविदारक दृश्य से दया आई. रिमोट दबाया तो कार से टक टक की आवाज आई. दोस्त ने दोस्त को निकाल लिया, बचा लिया, पानी पिलाकर उसके दम घुटते जाने के दर्द के एहसास को कम किया… और फिर एक दिन आवारा लड़के और अच्छे लड़कों में दोस्ती हो गई. दोस्ती क्रिकेट के नाम पर हुई क्योंकि राजे-राजकुमारों की क्रिकेट टीम के फास्ट बालर को हैंड इंजरी थी और आवारा लड़का फास्ट बालिंग में एक बार यूं ही अपना गुर टीम को दिखा चुका था….
उफ्फ… बड़ी लंबी कहानी है भाई… बच्चा लोग अब सो जाओ. अभी तो आधी भी नहीं हुई है… बाकी कल सुनाएंगे… इसके आगे की कहानी और मजेदार है….
और, तब बच्चा लोगों की तरफ से समवेत स्वर में अनुनय-विनय… नहीं बाबा, आज ही सुना दो, आज ही पूरी कर दो.. अच्छा चलो बता दो कि लास्ट में क्या हुआ… बाबा बच्चों की जिद के आगे हार गए और अपनी ऊंघ, नींद, जम्हाई को किनारे कर धीमी आवाज में कहानी को आगे बढ़ाने लगे और बच्चे लोग कहानी के चरित्रों के साथ एकाकार होकर शांत होने लगे. कई तो इसी दौर में सोचते सोचते सो जाते.
और, जब बाबा को लगता कि सभी सो गए, कहीं से किसी की हुंकारी (कहानी के बीच में श्रोताओं द्वारा हां हूं करते रहने की आवाज) की आवाज नहीं आ रही तो वो भी अचानक चुप होकर सो जाते. पर मुझे नींद कहां, मुझे तो पूरी कहानी सुननी थी. बोल बैठा- बाबा, सोना नहीं, मैं सुन रहा हूं, फिर क्या हुआ. तब बाबा समझाते कि कल बाकी बच्चे कहेंगे कि कहानी पूरी कर दो तो फिर दुहराना पड़ेगा इसलिए रात ज्यादा हो गई है और सुनो, सियारों की भी आवाज आ रही है, इसलिए सो जाओ. तब कहीं जाकर मैं सोने के प्रयास में जुट जाता, बाबा से चिपककर, बाबा के पेट पर लात फेंककर, ताकि सियार-हुंड़ार का भय मेरे करीब न आ सके.
और, आज जब पहली बार नेट बैंकिंग से स्पाइस माल में लगी चिल्लर पार्टी फिल्म का टिकट बुक किया तो मुझे कतई एहसास नहीं था कि फिल्म देखकर लौटते वक्त कार में मैं सिर्फ शरीर से रहूंगा, आत्मा तो कहीं बाबा के शरीर पर लात फेंककर सो रही होगी, कही गई कहानी के सीन को रिपीट कर कर के सोचते गुनते समझते हंसते दुखी होते हुए. फिल्म इसलिए सभी को देखनी चाहिए क्योंकि हर आदमी में एक बच्चा होता है जो शरीर के बूढ़ा होने पर भी बच्चा ही रहता है, बेहद निर्दोष रहता है, वह अपनी गल्तियों को एहसास करता है, वह रोता है, वह दुखी होता है, वह हंसता है, वह इमोशनल होता है, वह महसूस करता है, वह गलत सही में तुरंत फर्क कर लेता है…
पर काया की उम्र बढ़ने के साथ-साथ उस बच्चे का काया पर से अधिकार-प्रभाव कम होने लगता है, सो वह कहीं कोने में छोटा-मोटा होकर पड़ा रहता है और चिल्लर पार्टी जैसी फिल्म देखकर कुलांचे मारने लगता है. इस फिल्म को काया के हिसाब से हो चुके दिमाग से नहीं बल्कि अंदर बसे बच्चे की निगाह से देखेंगे और किस्सागोई का लुत्फ लेने के लिए सुनेंगे तो ज्यादा आनंद आएगा. फिल्म बनाने वालों को बधाई. इसके कलाकारों को बधाई. और मुझको बधाई, कि मैं यह फिल्म देखने गया, जाने किस भाव से प्रेरित होकर. बहुत दिनों बाद हफ्ते में दो फिल्में देख डाली. सिंघम देखकर आया था तो मन की बात लिख दी थी. अब चिल्लर पार्टी की चिल्ल-पों आपको सुना दिया.
सोचा है कि हर हफ्ते कम से कम एक फिल्म देखा करूंगा. दिल को दिल्ली में लगाने का ये खयाल अच्छा है. ज्यादा कहा सुना हो तो माफ करें. अब पैसा हजम. कहानी खतम. बोलो लड़कों सीताराम. बस. सो जाओ सब लोग. वरना किसी पार्टी का कोई नेता आ जाएगा, देखो आवाज सुनाई पड़ रही है न…
लेखक यशवंत भड़ास4मीडिया से जुड़े हैं. उनसे संपर्क yashwant@bhadas4media.com के जरिए किया जा सकता है.
Comments on “चिल्लर पार्टी : पैसा हजम कहानी खतम बोलो लड़कों सीताराम…”
यशवंत भाई,
साल दो साल में कभी-कभी बच्चों पर कोई न कोई साफ़-सुथरी और अच्छी मनोरंजक फिल्म आ ही जाती है. जरूरी ये है की इसकी दर बढे. आज बड़े कहलाने का भ्रम पालने वाले फिल्म समीक्षक भी इन फिल्मों को वो स्थान नहीं देते जो इन्हें मिलना चाहिए. आपने खुद इस फिल्म की समीक्षा कर एक नेक काम किया है. कहा ये जा रहा है की ये फिल्म फ्लॉप हो गयी है और कलेक्शन के लिहाज से कमजोर साबित हो रही है. इन सबसे बेखबर सलमान खान ने पूरी एक सीरीज इस जैसी फिल्मों के बनाने की घोषणा की है.
इस फिल्म के बहाने बाबा को याद करना वास्तव में एक सच्चा प्रयास है. वो सदा आपकी यादों में होंगे और रहेंगे पर सबके साथ उनको याद करना एक बढ़िया प्रयास है. ईश्वर उनतक आपकी संवेदना जरूर पहुंचाए.
Achha likhte ho yaar ! Balia ka rahne wala hoon par last 12-13 saal se mumbai me hoon…. par aksar is bhid bhad wale shahar me bhi apne gaon ke khet aur khalihan ki yaad aati rahti hai….. aksar aisa lagta rahta hai “kuchh” pane ke liye maine “bahut kuchh” kho diya hai…. aksar tumhe padata rahta, yaade taza ho uthti hai, so thanks brother
Yashwant ji aap ke duwara film ki tarif se ye to hua ki main bhi bachcho ke saath film dekhne jaun……….dusara ye ke jo neem ki niboli jise aap nimkodi bolte the……..padh kar apne gaon ki yaad aa gai yaad aa gaya apna bachpan jab hum bhi sawan main neem ki niboli khate the……….patang chipkate the……….bada achchha lagta tha magar ye sab aajkal kahan dekhne ko milta hai es shahri zindgi main…………hamare bachche to en sab se mahrum hai……….sawan to gaon hota tha jab jhule padte the bade-2 bargad ke paid par……bote-2 rasson se jhulaya jata tha…………….kahan gaya……….wo bachpan……..aapki ye bachpan ki yaade pad kar achchha laga…………thanks again….yashwant ji………