: मैं तलाशता हूं अपना नाम और धाम! : पिछले दिनों मैं बनारस गया था। गंगा के घाट पर अपने फोन से अपनी एक तस्वीर उतारी ब्लैकबेरी के जरिए और फेसबुक पर डाल दिया। अभी मैं घाट पर ही था कि एक मैसेज आया- घर आए नहीं घाट पहुंच गए। वो संदेश आलोक जी का था। दरअसल एक रोज पहले ही हमने उनसे कहा था कि घर आ रहा हूं आपके लेकिन बनारस पहुंच गया।
बनारस से लौटते ही सपरिवार उनसे मिलने गया। काफी बीमार थे। 27 बेअसर कीमोथेरेपी हो चुकी थी और रेडियोथेरेपी की जा रही थी। सुप्रिया भाभी ने हमारे आने की जानकारी दी, उठकर बैठ गये. मैने कहा लेटे रहिए तो बोले अरे तुम्हें क्या लगता है मैं बीमार हूं आज का नवभारत टाइम्स देखो … । उस रोज भी उनका लेख छपा था। बोले पत्रकार जबतक लिख रहा है जिंदा है। अब वो ठसक देखने को नहीं मिलेगी। सच तो ये है कि दूसरा आलोक तोमर नहीं मिलेगा। बेबाक, निर्भीक, जाबांज और तेवर वाले तोमर आज के दौर में नहीं हो सकते। आज जहां लोग महज नौकरी करते हैं वहीं आलोक जी सारा जीवन पत्रकारिता करते रहे।
स्व. प्रभाष जी के स्कूल के चुनिंदा और उम्दा पत्रकारों में शुमार किये जाने वाले आलोक तोमर ने जीवन में कभी समझौता नहीं किया। जो मन आया लिखा, जो मन बोला और जो मन आया किया। तभी तो दिल्ली से लेकर भिंड तक अपनी लेखनी से अलग पहचान बनाई। जहां भी गलत लगा लड़ने-भिड़ने में कभी गुरेज नहीं किया। हालांकि पत्रकारीय करियर में हमने बहुत कम समय साथ-साथ काम किया लेकिन आत्मीयता के साथ। दरअसल हमारे और आलोक जी के बीच एक सेतु था हमारा दोस्त शैलेंद्र जो दो साल पहले हमें छोड़ गया।
शैलेंद्र को काफी प्यार करते थे आलोक जी और शायद इसीलिए हमें भी। जब हम पत्रकारिता में संघर्षरत हुए तो आलोक जी अपनी फीचर एजेंसी चलाते थे शब्दार्थ। टीवी की दुनिया में रमने की वजह से लिखना पढ़ना कम होने लगा था, शैलेंद्र बार-बार कहता कुछ लिखो और आलोक भाई को भेजो तुम्हारे बारे में पूछ रहे थे। शायद एक –दो बार ही ऐसा हो पाया। तकनीक के सहारे हम एक दूसरे से लगातार जुड़े रहे, पहले फोन..फिर ब्लॉग..फेसबुक और आखिरी दिनों में ब्लैकबेरी। पिछले अगस्त में जब मैं सीएनईबी पहुंचा तो आलोक जी बीमार हो चुके थे। कीमोथेरेपी कराते और ऑफिस चले आते किसी को कुछ बताते नहीं।
एक रोज सुप्रिया भाभी से हमें हकीकत का पता चला फिर मैंने उनसे कहा कि आपको इलाज के दौरान आराम की सख्त जरुरत है इसमें कोताही न करें। कहने लगे अरे यार बिना काम किए मैं नहीं रह सकता फिर मैने कहा आप घर से काम करें जो करना चाहते हैं। इस तरह के कर्मठ इंसान थे आलोक जी। कभी उनको कोई सलाह देनी होती तो फोन करते और बोलते मैं अपने दफ्तर के सीओओ से नहीं अनुरंजन से बात करना चाहता हूं अगर वो बात करना चाहे तो। ऐसे सुलझे इंसान थे आलोक जी। एक दिन मैसेज किया फुर्सत हो तो आओ…मैने कहा कल आता हूं … बोले मत्स्य भोजन का इरादा है … मैने कहा बिल्कुल… बोले फिर शाम में आना।
जा नहीं पाया भाभी को फोन कर कहा आप परेशान नहीं होना क्योंकि हमें पता था मेरे नहीं पहुंचने तक कौन सी मछली अच्छी होती है, किसका स्वाद कैसा होता है जैसे तमाम मुद्दों पर वो भाभी से बार बार पूछेंगे क्योंकि खुद नहीं खाते थे। फोन करके मना करने की हिम्मत हममें नहीं थी इसलिए मैंने भी सुबह-सुबह मैसेज किया आज नहीं कल आता हूं । जवाब आया.. चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले। ऐसे जिंदादिल इंसान थे आलोक जी। कभी-कभार ही मिलने जा पाता लेकिन जब कभी आने की इजाजत मांगता तो तपाक से जवाब आता..मछली पकड़ूं।
उन्हें मालूम था मुझे मछली बहुत पसंद है और मैं हर बार उनको निराश करता बिना बताए पहुंचता। अब मैं उनको और निराश नहीं कर पाउंगा। एक शिकायत, एक तकलीफ मौजूदा मीडिया जगत से रहेगी कि आलोक जी जो डिजर्व करते थे वो हम उन्हें नहीं दे पाए। लिखने, बोलने और करने में सामंजस्य बिठा पाना बहुत मुश्किल होता है। आलोक जी की यही खासियत थी। मौजूदा दौर के मठाधीशों ने आलोक जी खूबियों, खासियतों को दरकिनार कर उनके अक्खड़पन को सबसे आगे रखा जो उनके साथ घोर ना इंसाफी है। लिखने को तो और भी बहुत कुछ है लेकिन फिर कभी फिलहाल आपलोगों को आलोक जी की एक कविता के साथ छोडे जाता हूं।
जैसे ओस तलाशती है दूब को,
जैसे धूप तलाशती है झील को
जैसे सच तलाशता है तर्क को
…
जैसे अघोरी साधता है नर्क को
जैशे हमशक्ल तलाशता है फर्क को
मैं तलाशता हूँ अपना नाम और धाम
जिस नाम से तुम मुझे जानते हो
जिस शक्ल से पहचानते हो
वह नहीं हूँ मैं फिर भी
भोला मन जाने अमर मेरी काया
अनुरंजन झा
सीओओ
सीएनईबी न्यूज
Comments on “तुम्हें क्या लगता है मैं बीमार हूं, आज का नवभारत टाइम्स देखो…”
कहने को शब्द नहीं हैं….
आज पहली बार किसी ऐसे के जाने पर तकलीफ हुई जिससे न कभी मिला न कभी बातचीत हुई, व्यक्तिगत रूप से न तो कभी जाना , हा उनके लिखे शब्द सीधे दिल में उतरते थे, उनका निर्भीक तरीका, सर्व ग्राह्य शब्द और एक ठोस रचना, अब शायद कभी पढने को न मिले , अभी कुछ ही महीनो से datelineindiaA को पढना शुरू किया था और भारत से दूर परिस में सुबह की शुरुआत उसी से होने लगी…दिल रो रहा है, और कुछ चीजो का अफ़सोस ताउम्र रहेगा, ये उनमे से एक है….अलोक जी को भगवान् स्वर्ग के साथ सबके दिल में जगह और उनके परिवार और हम जैसे क्झाहने वालो को इस असीम दुःख से निपटने की शक्ति दे…
भारतीय पत्रकारिता जगत के लिए यह होली काफी दुखद रही। क्योंकि भारतीय पत्रकारिता का मजबूत स्तंभ धाराशाई हो गया। कलम की धार के महारथी योद्धा आलोक तोमर का तेज कैंसर की बीमारी के आगे मंद पड चुका है। अपराध पत्रकारिता के शिखर पुरुष को शत शत नमन।
अनुरंजनजी का बड़ा ही आत्मीय वर्णन… लेकिन यशवंत जी यहां भी आलोक जी और अनुरंजन जी के बीच सीएनईबी का सीओओ कहां से आ गया… कृपया परिचय से सीओओ हटा दें तो बड़ी मेहरबानी… आज दोनों का साबका बिना इस दीवार के होने दें…
ALOK JI KA NIDHAN SAB KE LIYE DUKH DAAYEE HAI. ==Hari Ram Tripathi ,Lucknow
जिंदगी बस एक उम्मीद भरी डगर है…लेकिन मौत एक हक़ीकत है। लेकिन आख़िर दम तक अपने पसंदीदा क्षेत्र में सक्रिय रहते हुए मौत से रुबरू होने का नसीब कम लोगों को ही मिलता है। आलोक जी आपका जाना दुखद है लेकिन आपका सफ़र सुकुन भी देता है क्योंकि इसमें ये अहसास छिपा है कि अपनी शर्तों पर भी जिदंगी को बख़ूबी जिया जा सकता है। कलम के इस अद्वितीय सिपाही को पूरे सम्मान और गौरव के साथ भावभीनी श्रद्धाजंलि…. विशाल शर्मा,पत्रकार,जयपुर
परिचय में सीइओ लगाकर अच्छी ब्रांडिंग हो रही है पद की कि एक सीिओ के सीने में बी दिल धड़कता है। वैसे न भी लगाते तो दुनिया आपको जानती है।.
🙁 Panch Tatwa mai mil gaye alok ji
Koi aur unka jagah nai le sakta
KAHA CHALE GAYE, AAPKI LEKHNI KA INTEZAR KAL BHI THA, AUR KAL BHI RAHEGAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA
kam he patrakaro me himmte hoti hai. baki to chatukar hote hai. aalok ko naman