बिहार में पत्रकारिता की नई इबारत अब साफ-साफ़ दिखाई देने लगी है। पत्रकारिता में इस नई इबारत के लिखने की शुरुआत ठीक उसी वक्त हुआ था जिस वक्त बिहार में लालू प्रसाद यादव के पंद्रह साल के साम्राज्य का ख़ात्मा हुआ था और नीतीश कुमार ने बिहार में सत्ता संभाली थी।
विकास की जिस पटरी पर नीतीश बिहार को ले जाने का सपना पाले हुए थे, उसमें मीडिया को नाथना उनकी प्राथमिकता में सबसे ऊपर था। उन्हें पता था कि बिहार का ‘विकास’ बिना मीडिया को मैनेज किए हुए नहीं किया जा सकता है, इसलिए सत्ता संभालते ही मीडिया को अपने साथ लेने के लिए उन्होंने हर वह हथकंडा अपनाया जो सत्ता के शीर्ष पर बैठा कोई व्यक्ति कर सकता है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि बिहार में सुशासन के नारे के साथ ही पत्रकारिता की नई इबारत लिखे जाने की शुरुआत हुई थी और इन पांच सालों में पत्रकारिता का चेहरा बिहार में कितना और किस तरह से बदला है, बिहार से प्रकाशित अख़बारों या वहां काम कर रहे पत्रकारों को देख कर लगाया जा सकता है। नीतीश कुमार ने बिहार का कितना और किस हद तक विकास किया है इस पर बहस हो सकती है लेकिन इतना तय है कि बिहार में पत्रकारिता का चेहरा पूरी तरह बदल गया है। खास कर प्रिंट मीडिया ने अपने को पूरी तरह बदल डाला है। यह नीतीश के राजनीतिक कौशल का ही कमाल है कि उन्होंने पत्रकारिता को सरकारी भोंपू में बदल कर अपने हितों के लिए लगातार इस्तेमाल किया और अब सारे अख़बार उसी भाषा में बोल-बतिया रहे हैं जो भाषा उन्हें नीतीश कुमार बताते हैं और उनका सूचना विभाग उन्हें मुहैया कराता है।
हद तो यह है कि अपने को चिंतक और विचारक कहने वाले संपादकों तक ने नीतीश के सामने घुटने टेक दिए हैं और उनके अख़बार में भी वही सब छप रहा है जो सरकार चाहती है। किसानों पर पुलिस के अत्याचार की ख़बर हो या फिर विरोधी दलों का बयान, बिहार के अख़बारों के लिए अब यह ख़बर नहीं है इसलिए इन ख़बरों को कहीं अंदर के पन्नों में इस तरह छापा जाता है कि पाठकों को पता तक न चले कि प्रदेश में क्या हो रहा है। बिहार के अख़बारों में राष्ट्रीय महत्त्व की ख़बरों को पहले पन्ने पर तो स्पेस न के बराबर ही मिलता है। सरकार के स्तुति गान में बिहार के अख़बारों में होड़ सी लगी है और सरकार ने बिहार में प्रेस पर अघोषिति सेंसरशिप थोप रखी है। नीतीश कुमार जो चाहते हैं वहीं अख़बारों में छपता है इसलिए पिछले पांच साल के अख़बार उठा कर देख लें, नीतीश कुमार या उनकी सरकार के ख़िलाफ़ पहले पन्ने पर कोई खोजी ख़बर छपी है कम से कम मुझे तो याद नहीं पड़ता। यह लक्षण ख़तरनाक है।
कहा जा सकता है कि इन पांच सालों में बिहार में पत्रकारिता के सामने संकट बढ़ा है। यह संकट बाहरी भी है और भीतरी भी। बाहरी संकट उन तत्वों से है जो पत्रकारों को दलाल की तरह इस्तेमाल कर उन्हें अपने हित में इस्तेमाल करना चाहते हैं। यह बाहरी संकट हाल के दिनों में पत्रकारिता पर बढ़ा है। दिल्ली से लेकर पटना तक इन ताक़तों ने पत्रकारों के एक ऐसे गिरोह को पाल रखा है जो सरकार से लेकर नौकरशाहों तक उनके लिए दलाली कर हर वह सुविधा उनके लिए मुहैया कराते हैं, जो अमूमन सही तरीक़े से हासिल नहीं की जा सकती। नीरा राडिया के टेप ने इस तथ्य को बड़े स्तर तक उजागर किया है। हालांकि यह भी सही है कि हमाम में सब नंगे नहीं है और बाहरी ताक़तों से पत्रकारों का ही एक बड़ा वर्ग दो-दो हाथ करता भी दिखाई देता है।
पत्रकारिता पर इस बाहरी संकट से तो निपटा जा सकता है लेकिन भीतरी ख़तरा ज्यादा डराता है। यह भीतरी ख़तरा ही है जिसने बिहार में पत्रकारिता को नीतीश का पिट्ठू बना डाला है। पत्रकारिता को भीतरी ख़तरा पत्रकारों से ही है जो बाहरी तत्वों के हाथ अब बिकने के लिए तैयार है। ज़ाहिर है कि यह ख़तरा ज्Þयादा डराता है क्योंकि किसी भी पत्रकारिता संस्थान में अगर एक बार चोर दरवाज़े से स्याह को सफ़ेद करने की प्रवृति पनपती है तो देर-सवेर पूरी पत्रकारिता कठघरे में खड़ी दिखाई देती है। बिहार में यह ख़तरा अब साफ-साफ़ दिखाई दे रहा है।
विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की ‘शानदार सफलता’ ने इस ख़तरे को और हवा दी है। नीतीश की कामयाबी को मीडिया ने जिस तरह महिमामंडित किया वह कम हैरत में डालने वाला नहीं था। नीतीश की शान में क़सीदे पढ़ता हुआ हर पत्रकार उनके विकास का बखान करता हुआ यह कहता नज़र आया कि बिहार में जातीयता की हार हुई और विकास की जीत हुई। लेकिन यह सब लिखते-बोलते हुए पत्रकारों ने इस सच को झुटला दिया कि नीतीश बिहार में जातीयता को लालू यादव से आगे लेकर गए हैं। विकास का ढोल पीटने वाले पत्रकारों से पूछा जा सकता है कि महादलित और अतिपिछड़ा का नारा किसने दिया। क्या यह जातीय आधार पर लोगों को गोलबंद करना नहीं है।
नीतीश को अगर अपने काम पर भरोसा था तो फिर महादलित और अतिपिछड़ों का शगूफ़ा उन्होंने क्यों उछाला। कोई भले कह ले कि नीतीश की जीत विकास की जीत है, लेकिन बिहार में नीतीश ने जिस तरह से लोगों को अगड़े-पिछड़ों में बांटा वह कम ख़तरनाक नहीं है। फिर मुसलमानों को भी कम फुसलाने की कोशिश नीतीश ने नहीं की। नरेंद्र मोदी के साथ छपी तस्वीर को लेकर जिस तरह का नाटक उन्होंने किया वह किसी से छुपा नहीं है। फिर ईद-बक़रीद पर टोपी पहन कर मुसलमानों को ईदगाह जाकर बधाई देने की एक नई परंपरा भी उन्होंने शुरू की। मुसलमानों को बधाई देते, उनसे गले मिलते नीतीश की छपी तस्वीरें इसकी गवाह हैं। इस तरह का ‘भरत मिलाप’ नीतीश ने वोट के लिए नहीं किया था क्या ? लेकिन बिहार के अख़बारों के लिए यह सब सुशासन की एक नज़ीर थी।
कोसी बाढ़ ने कितने लोगों की जान ली और कितने लोग आज भी बेघर हैं, इसकी खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं है। अख़बारों को इस बात की फ़ुर्सत नहीं है कि वह इस तरह की कोई खोज ख़बर लें। विश्वास यात्रा और विकास यात्रा के दौरान जिन गांवों का नीतीश ने दौरा किया था, आज उन गांवों की हालत जस की तस है लेकिन कोई लिखने वाला नहीं है। दरअसल विकास के जिस रथ पर नीतीश सवार हैं, पत्रकार उस रथ को खींचने में लगे हैं। इसलिए बिहार में अपहरण, हत्या, बलात्कार, उत्पीड़न, दंगे अब ख़बर नहीं हैं। सुशासन का राग अलापते अख़बारों को गांव-ग्राम में खुले शराबख़ाने नहीं दिखाई देते, लालू यादव का चरवाहा स्कूल और इसकी बदहाली के किस्से तो खूब छपे-छपवाए गए, लेकिन नीतीश ने चरवाहों को स्कूल का मास्टर बना डाला है यह सच किसी को दिखाई नहीं दे रहा है।
स्कूल के शिक्षकों को बीडीओ और दूसरे अधिकारियों की जी-हज़ूरी से फ़ुसर्त नहीं है और नीतीश लिखवा रहे हैं और अख़बार लिख रहे हैं कि स्कूलों की हालत सुधर गई है। ठीक है कि सड़कों की हालत सुधरी है, क़ानून-व्यवस्था भी बेहतर हुई है लेकिन इसके अलावा और ऐसा क्या हुआ है बिहार में जिसे लेकर विकास के लंबे-चौड़े दावे किए जा रहे हैं। नीतीश से यह सवाल तो किया ही जा सकता है कि उनके पहले कार्यकाल में बिहार में कितनी और किन-किन कंपनियों ने निवेश किया। बिहार का चेहरा सिर्फ़ सड़कों से नहीं बदला जा सकता है और न ही रात में देर तकर बाहर रहने-घूमने से विकास को परिभाषित किया जा सकता है। लेकिन इसे लिखे कौन।
कोसी की बाढ़ ने कितनों को लीला इसका सही-सही आंकड़ा आज तक न तो किसी अख़बार ने दिया और न ही चैनलों ने लेकिन विश्व बैंक के मुखिया आकर कोसी के विकास के लिए कुछ देने की घोषणा करते हैं तो सारे अख़बार उसे महत्त्व के साथ छापते हैं क्योंकि नीतीश कुमार इसके केंद्र में हैं। कोसी ही क्यों ट्रेजरी घोटाले जैसी ख़बरें भी दबा दी जाती हैं। समाचार एजंसियों और अख़बार के दफ्तरों में आईबी के अधिकारी घूमते रहते हैं और डेस्क से लेकर रिपोर्टिंग करने वालों तक की नकेल उनके हाथ में है। वे जो चाहते हैं वहीं खबरें छपती है। मेरे कई मित्र जो विपक्ष में हैं वे कहते हैं कि अब तो अख़बार वाले नीतीश के एजंट के तौर पर काम कर रहे हैं। सही भी है यह। बिहार के अख़बारों और चैनलों को देख लें, पता चल जाएगा कि बिहार के चेहरा तो नीतीश के राज में बदला ही है पत्रकारिता का चेहरा भी पूरी तरह से बदल गया है। इस चेहरे में उतना ही दिखाई देता है जितना नीतीश दिखाना चाहते हैं।
पत्रकारिता बिहार में आज पूरी तरह नीतीश के आसपास ही घूम रही है। पत्रकारों को नीतीश का वह चेहरा दिखाई देता है जो भागलपुर दंगों में मारे गए लोगों के पक्ष में खड़ा होता है लेकिन वही नीतीश बिहारशरीफ के दंगों के लिए जब कुछ नहीं करते हैं तो सवाल तो खड़ा होता ही है। क्या किसी ने नीतीश कुमार से पूछा कि उन्होंने भागलपूर के दंगा पीड़ितों को ‘न्याय’ तो दिलवा दिया (जिसकी वे ढोल पीटते हैं) लेकिन बिहारशरीफ़ के पीड़ितों के साथ वे ऐसा क्यों नहीं कर पाए। क्या ऐसा करने की वजह सिर्फ़ यह तो नहीं थी कि भागलपुर दंगों के जो सूत्रधार थे उनता ताल्लुक यादव जाति से था और नीतीश लालू यादव के मुसलिम प्रेम की बाज़ीगरी को उनके ही अंदाज़ में ख़त्म करना चाहते थे या फिर यह भी कि बिहारशरीफ़ दंगों के सूत्रधार उनकी अपनी ही जाति वाले यानी कुर्मी थे और बिहारशरीफ़ दंगों की फ़ाइल खोल कर वे अपनी जाति के लोगों के बीच ‘विभीषण’ नहीं बनना चाहते थे।
इतना ही नहीं अगर वे बिहारशरीफ़ की फ़ाइल खोल देते तो फिर दंगों को लेकर जो कार्ड लालू यादव के ख़िलाफ़ खेलना चाहते थे वे उसमें सफल नहीं हो पाते। उनकी मंशा साफ़ थी। यादवों को दंगाई के तौर पर मुसलमानों के सामने पेश कर लालू यादव के जादू को उतारना। लेकिन बिहारशरीफ़की फ़ाइल खुलते ही दंगाइयों का एक और चेहरा सामने आता और वह चेहरा कुर्मियों पर चस्पां हो जाता और यक़ीनन नीतीश ऐसा नहीं चाहते थे। नीतीश का यह जाति प्रेम नहीं तो और क्या था, जिसमें वे यादवों को तो दंगाई के तौर पर सामने लाना चाहते थे लेकिन अपनी जाति को बचाना भी चाहते थे। लेकिन नीतीश को महिमामंडित करने वालों ने इस तरह के सवाल पूछने की उनसे ज़हमत नहीं की बल्कि उन्हें मुसलमानों के नए मसीहा के तौर पर ही पेश करने की एक-दूसरे से होड़ लगाते रहे।
यह होड़ अब और भी बढ़ी है। बिहार के अख़बारों को देख कर इसे समझा जा सकता है। क़रीब पखवाड़े भर पहले पटना में था। नीतीश कुमार की मां के श्राद्ध की ख़बरें वहां के अख़बारों ने जिस तरह से छापी थीं, उसे पत्रकारिता के किस ख़ाने में फ़िट किया जाए, कह नहीं सकता लेकिन पत्रकारिता के इस चेहरे को देख कर हैरत, ग़ुस्सा और क्षोभ मेरे भीतर क़तरा-क़तरा उतरने लगा था। यह बात तो समझ में आती है कि वशिष्ठ नारायण सिंह अपने मुख्यमंत्री की मां की श्राद्ध में मकर संक्रांति पर दिए जाने वाला भोज एक दिन आगे सरका डालें लेकिन यह बात तो समझ से परे है कि नीतीश कुमार की मां की श्राद्ध की ख़बर पहले पन्ने पर चार-पांच कालम में फोटो के साथ लीड की तरह छपे। लेकिन हुआ ऐसा ही।
बिहार में नीतीश कुमार की मां की श्राद्ध की ख़बरों को छापने में हर अख़बार में होड़ लगी थी। नीतीश कुमार की मां का निधन दुखद समाचार है और उनके साथ पूरी संवेदना है लेकिन यह उनके लिए व्यक्तिगत क्षति है और श्राद्ध कर्म उनका नितांत निजी मामला है। बिहार के लोगों और अख़बार के पाठकों के लिए यह कोई ऐसी ख़बर नहीं है जो लीड की तरह छापी जाए। फिर उनकी मां ख़ालिस गृहणी थीं कोई ऐसी बड़ी शख्सियत भी नहीं जिनका ताल्लुक समाज सेवा से रहा हो। लेकिन उनके श्राद्ध की ख़बरें बिहार के हिंदी-उर्दू के अख़बारों में जिस तरीक़े से छापी या छपवार्इं गर्इं वह बात परेशान करने वाली है।
पत्रकारिता की यह नई इबारत है। हाल के दिनों में देश के बड़े से बड़े नेता के श्राद्ध को अख़बारों ने इस तरह कवर किया हो, कम से कम मुझे तो याद नहीं पड़ता। पहले पेज पर पांच-छह कालम की तस्वीर और फिर लीड की तरह ख़बर। अंदर के पेज पर भी सात-सात कालम के फोटो….प्रसाद में क्या-क्या था और कहां से मंगवाया गया, इस तरह की और कई बातों को भी ख़बर के तौर पर परोसा गया। नीतीश की मां की नसीहतों का ज़िक्र करने में भी किसी अख़बार ने कंजूसी नहीं दिखाई थी। पांच-छह तस्वीरों के साथ नीतीश कुमार की मां के श्राद्ध की ख़बरों को देख कर तो ऐसा ही लगा कि बिहार में अब पत्रकारिता के श्राद्ध करने का भी सही समय आ गया है।
नीतीश ने मुख्यमंत्री बनते ही पत्रकारिता को मुखाग्नि दी थी, अब श्राद्ध की बारी है। कभी बिहार ने जगन्नाथ मिश्र के काले प्रेस क़ानून के ख़िलाफ़ पूरे देश में अलख जगाई थी और पत्रकारों को एकजुट किया था, आज उसी बिहार में पत्रकारिता को नीतीश ने ख़त्म कर डाला है और हम ख़ामोश तमाशाई बने हुए हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो फिर हम न तो अपना घर बचा पाएंगे और न ही समाज। पत्रकारिता की यह नई इबारत भले बिहार में लिखी जा रही हो लेकिन इसके प्रभाव से दूसरे लोग भी अछूते नहीं रह सकते। संकट बड़ी और गंभीर है, क्या आप ऐसा नहीं समझते?
लेखक फज़ल इमाम मल्लिक वरिष्ठ पत्रकार हैं. वे जनसत्ता से जुड़े हुए हैं. बिहार की मीडिया और नीतीश सरकार पर उनका लिखा एक अन्य लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें– बिहार में प्रेस पर नीतीश का अघोषित सेंसर
Comments on “नीतीश लिख रहे हैं पत्रकारिता की नई इबारत”
Fazal ji, sabse pahle mai aapko bata doon ki aap sirf baat banana jante hain. Hakikat kya hai wo hum sabse puchhiye, humlog village se belong karte hain. jahan na to aapki akhbar padhi jati hai aur na koi news suna jata hai. fir v wahan ke aadmi se puchhiye ki Nitish ji se koi problem hai kya to sayad aapka answer mil jayega. Aap to gangajal film ke us patrakar ki tarah likh rahe hai jise baad me public ne hi shant kiya aur kis tarah sayad aap jante hain………. ab public bebkuf nahi hai jo aap use banaege aur wo ban jaega. Haquikat sabhi ko pata hai ki kya sab ho raha hai aur hame kya karna chahiye. Rahi baat aap media wale ki to wo kya chhapenge, use apne purane din jarur yaad hoga jab jabardasti kuchh v chhapwa diya jaata tha. khair aapka kaam likhna hai, aap wawahi lutna chahte hain na par wo nahi milegi……aapke is ghatia lekh se …. AC me baith kar likhne se kuchh nahi hota hai jara gaaon ka bhraman kijiye to ye vichar khud-b-khud door ho jayega. Aap se achha to Nitish ji hain jo humlogo ka khoj khabar to lene jaate hain.
सच लिखा है आपने, बिहार में पत्रकारिता के लिए एक शब्द है दलाली. ……
यही शुरु यही अंत है.
फ़जल भाई स्थिति इतनी भयावह है जिसकी कल्पना नही की जा सकती है । जो नीतीश के भ्रष्ट शासन का विरोध कर रहे हैं वहीं जानते हैं की कितने खतरों से गुजरना पड रहा है । जातिवाद का जहर नश नश में फ़ैलाने का ककaाम किया है नीतीश ने और तीन उंची जाति ब्राह्मण , भुमिहार और कायस्थ ने प्रोपगंडा क जिम्मा संभाला है । अघोषित आपातकाल लागू है । अखबार जनता के संघर्ष की खबर नही छापते हैं, सरकार की किसी निती की आलोचना नही छपती है । भी एक नया शगुफ़ा नीतीश ने छोडा है सवर्ण आयोग गठन का जो तीन साल में अपनी रिपोर्ट देगा , यानी अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी । बहुत खराब समय आ चुका है , और इस समय को लाने तथा इसकी बुराई को ढक कर विकास का प्रोपगंडा करने वाले उंची जातिंयो को भी अपनी गलती का फ़ल भुगतना पडेगा ।
fajal aap bilkul thik kah rahe hai ki bihar me nitish ne media par aghoshit sensarship laga di hai.laloo ke jamane me media laloo birodhi thi.uske apne kai karan bhi hai. apna birodh laloo nahi sun pate the. patrakaro ko pitwate the . hum par bhi hamla ka diya tha. lekin nitish ke raj me media satta ki daSHI HO GAYEE HAI. LAGTA bihar me sab achha hi ho raha hai. yeh alag baat hai ki bihar badal raha hai aur laloo ke raj se behtar hai lekin jitne bare paimane par rajya me dalali, bhrastachar aur loot chal rahi hai kahna muskil hai. bihar mukhar patrakarita ke liye jana jata raha hai, lekin abhi yeh nitish ki chakri karti dikh rahi hai.
Even Yogendra Yadav stated that though Nitish is a popular CM but he manages the Media. In Bihar even the Media will have to follow his dictates or to face dire consequences. What happened with Mukesh Kumar of Maurya Tv.Mulesh zee had to resign as he run interview of Laln Singh, dissent JD(U) MP.
राजेश जी, हालांकि आपके लिखे पर प्रतिक्रिया देना नहीं चाहता था। लेकिन बात से बात निकली है तो बात करना ज़रूरी लगा, क्योंकि बात से ही तो बात बनती है और रही बात बनाने की बात तो आज देश में ऐसा ही तो हो रहा है और बिहार में भी। मैं कोई विदेश से नहीं हूं। मैं भी गांव-देहात से ही आता हूं और मेरा सरोकार बिहार के अपने पुशतैनी गांव से बना हुआ है। गांव की क्या हालत है और गांव वाले कितने ख़ुशहाल, इस सच को आप भी जानते हैं और दूसरे भी। इसलिए कम से कम मुझे तो गांव का पाठ न पढ़ाएं। काश यशवंत जी ने अखबारों में छपी उन तस्वीरों को भी छाप देते तो बहुत सारी बातें अपने-आप साफ़ हो जातीं। मित्र, एसी में बैठ कर लिखने वालू दूसरे होंगे। कम से कम किसी पर लिखने से पहले उसके बारे में जान-समझ लेना ज़रूरी है। आपने भी तो बिना जांच-पड़ताल किए बात ही तो बनाई है। दस दिन पहले ही गांव से आया हूं दोस्त और मुझे पता है कि बिजली, पानी और बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं वहां कैसी और किस तरह की है। बीस साल पहले भी उसी तरह की थी और आज भी उसी तरह की। मेरे गांव में तो न तो नीतीश जी खोज-खबर लेने आए और न ही उनके दूसरे चेले-चमच्चे। चुनाव के वक्त वे जरूर आए थे। लगता है कि नीतीश ने आपके गांव में कुछ जातीय प्रेम की गंगा बहाई है।
फ़ज़ल इमाम मल्लिक
fajal imam sahab ne bahut hi satik tippni ki hai. Bihar me media ko nirtish kumar ne sach main naath diya hai. koi bhi patrakar wahan sarkar ke khilaf likne ki jurat nahi karte.
fazl ji,
aapne media ko aina dekhaya hai. kash media ke malik aapki baat se sahmat hote.
ahmad suhail
बिहार विधानसभा चुनाव की कवरेज वहां के स्थानीय समाचार पत्र किस तरह किए ये तो मैं नहीं कह सकता लेकिन न्यूज चैनल वालों ने नीतीश सरकार द्वारा दिये गए टुकड़े के बल पर गुड़गान करते दिखे…. इस होड़ में छोटे और बड़े चैनल दोनों ही शामिल थे….और रही बिहार की स्थिति तो वो आप लोग ज्यादा बेहतर बताएंगे…
शायद नितीश कुमार उची कुर्सी पर बैठने के बाद ये भूल गये है की जो पंडित शादी करता है वो श्राद्ध का भी मंत्र जनता है ..!
मीडिया जिस सरकार के हाथ की कटपुतली बन चुकी थी उसके लिए ये होना जरुरी भी था..! मीडिया ने नीतीश की विकाश यात्रा को बड़ा चढ्ढा कर जनता के सामने नीतीश को विकाश पुरुष बना दिया …!
मीडिया ने उस विकाश यात्रा के दौरान मिले जनता के आवेदनों के बारे में कभी कुछ ना सरकार से पूछा और ना ही उसके बारे में कुछ लिखना उचित समझा ! बिहार के किसी मीडिया वाले ने ये नहीं पूछा की २००७ में शुरू की गयी किसान सम्मान पुरुस्कार का क्या हुआ ????
वो सम्मान केवल जदू नेताओ को क्यों मिला ??२००७ में आयी चंपारण की बाठ में पूरा चम्पारण छतिग्रस्त हुआ पर बूठी गंडक किनारे स्थित संग्राम पुर प्रखंड टापू कैसे बच गया ??
आज रोजगार कार्डधारी के लिए बैंक और पोस्ट ऑफिस में पैसा मिलने का प्रावधान है पर आज भी दलाल क्यों??? जिसे नहीं मिलना चाहिए कार्ड उसे क्यों मिल रहा है ?? जिस तारक २०११ के चुनाव परिणाम के समय मीडिया के द्वारा नाटक किया जा रहा था उससे तो ये लगता था की मीडिया किसी के हाथो बीक चुकी है !
पर तब भी हम मीडिया के साथ है ..???
मीडिया जब भी आपने रास्तो को बदलेगी तो ऐसा ही होगा ..!!