सन् 1999 की एक रात कुछ पत्रकारों को सूचना मिली कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अजमेर आ रहे हैं। गहलोत कुछ माह पहले ही पहली बार मुख्यमंत्री बने थे और ‘सुशासन’ लाने के कारण ज्यादातर दौरे रेलगाड़ी से किया करते थे। रेल आने का समय रात करीब दो-ढाई बजे का था। एक संवाददाता, फोटोग्राफर के साथ रेलवे स्टेशन जा पहुंचा।
अजमेर में उस समय आधी रात के बाद रेलगाडियों का आवागमन कम ही होता था। कांग्रेस कार्यकर्ताओं को भी सबको खबर नहीं हो पाई थी लिहाजा सरकारी अफसरों समेत दस-पंद्रह से ज्यादा लोग नहीं पहुंच पाए। स्टेशन पर सन्नाटा पसरा पड़ा था। गहलोत रेल से उतरे। फूल मालाएं पहनने के बाद बाहर आने के लिए आगे बढे़। फोटोग्राफर ने वह फोटो लेने की कोशिश की परंतु यह क्या, कैमरे में रील खत्म हो गई। अंगूरी बेटी से फोटोग्राफर को इतना लगाव था कि दिन में ही तरन्नुम में रहते थे। यहां तो आधी रात बीत चुकी थी। कैमरा चैक करने की फुर्सत किसे थी।
गले में कैमरे को छोड़ा और दोनों हाथ सामने की ओर कर अंगुलियों का इशारा कर कड़क आवाज लगाई.. ”एक मिनट-एक मिनट”। मुख्यमंत्री समेत सब सावधान की मुद्रा में खडे़ हो गए। उन्हें लगा फोटोग्राफर अब फोटो लेगा परंतु फोटोग्राफर ने कैमरा खोला, पुराना रोल निकाला, कंधे पर लटके बैग को सामने लाया, दूसरा रोल निकाला, उसे कैमरे में लगाया। तब तक मुख्यमंत्री समेत सब सावधान की मुद्रा में फोटो खिंचवाने के लिए खडे़ रहे। और इस तरह गहलोत के मुख्यमंत्री की हैसियत से अजमेर आगमन का वह पहला फोटो उस दैनिक अखबार में अगले दिन छपा।
यह फोटोग्राफी क्या थी? फोटो पत्रकारिता या फोटो शूटिंग। अपने हिसाब से तो यह फोटो पत्रकारिता कतई नहीं थी। और उस समय यह अहसास भी नहीं था कि अचानक हुआ यह सीन बाद में एक ही दिन में कई-कई बार देखने को मिलेगा। अपने को नहीं पता, दूसरे शहरों में वास्तव में क्या हो रहा होगा परंतु अंदाज जरूर है कि जो अपने अजमेर में हो रहा है, वही दूसरी जगह हो रहा होगा।
पत्रकार मित्र प्रदीप शेखावत ने निधन से पहले एक फोटोग्राफर की नियुक्ति का किस्सा सुनाया था। गरीब नवाज की दरगाह पर जियारत और आनासागर झील पर तफरीह के लिए आने वालों की पचास रूपए में दस फोटो खींचकर होटलों या रेल-बस तक पहुंचाने वाला एक फुटकर फोटोग्राफर एक दैनिक अखबार में जा पहुंचा। संपादक से बोला, जी हम आपके अखबार में फोटोग्राफर बनने आए हैं। संपादक ने पूछा अभी कहां काम करते हो। जी अपना बिजनेस करते हैं, फोटो ‘हींचने’ का। कहां के फोटो खींचते हो। जी दरगाह के गेट पे ‘हींचते’ हैं, नसियां जी पे और आनासागर पे भी ‘हींचते’ हैं। शादी और बर्थ डे के भी ‘हींच’ देते हैं। हमारे लिए खींचोगे। जी ‘हींच’ देंगे। और इस तरह अखबार में प्रकाशित प्रति फोटो के 20 रूपए भुगतान, फोटो के साथ नाम छापने, खुद का कैमरा होने, अपना ‘बिजनेस’ जारी रखने आदि-आदि के ‘अलिखित ऑन कॉल असाइनमेंट बेस एग्रीमेंट’ पर फोटो जर्नलिस्ट की नियुक्ति हो गई।
इस घटना के जिक्र के पीछे अपना मकसद उस फोटोग्राफर का मजाक उड़ाना नहीं है। उसने तरक्की के लिए हिम्मत दिखाई, इसमें कोई बुराई नहीं है। अपना उद्देश्य तो फोटोग्राफरों के शोषण और फोटो पत्रकारिता के नाम पर हो रहे मजाक को सामने लाना है। बडे़-बडे़ अखबार और न्यूज चैनल कैसे स्थानीय स्तर पर अपने लिए फोटोग्राफर भर्ती कर रहे हैं? नाम मात्र के दाम में उनसे काम ले रहे हैं ? ना उनके ज्ञान की परख की जाती है और ना ही उनका कौशल विकसित करने के लिए प्रशिक्षण या सामाजिक सुरक्षा जैसी कोई व्यवस्था की जाती है?
इसके दुष्परिणाम किस रूप में सामने आ रहे हैं, जरा इस पर गौर कीजिए। एक सामाजिक संस्था ने अस्सी साल से अधिक आयु के बुजुर्ग समाज सेवियों की सेवाओं के प्रति कृतज्ञता के लिए उनका अभिनंदन कार्यक्रम आयोजित किया। कार्यक्रम के बीच में अचानक एक दैनिक पत्र का फोटोग्राफर, माफ कीजिएगा फोटो जर्नलिस्ट पहुंचा। आयोजकों से कहा, मुझे सम्मानित होने वालों का ग्रुप फोटो लेना है, सबको एक साथ मंच पर इकट्ठा करो। आयोजकों ने कहा, अभी तो कार्यक्रम जारी है। सबको एक साथ मंच पर बुलाने से अव्यवस्था हो जाएगी। देख लो आप फोटो छपवाना है तो यह करना ही पडे़गा।
आयोजक ने अपनी मजबूरी बताई कि सम्मानितों की संख्या ज्यादा है सब एक साथ मंच पर आ भी नहीं पाएंगे। इसके अलावा कुछ इतने बुजुर्ग और बीमार हैं कि अतिथि खुद मंच से उतर पर उन्हें सम्मानित करने उन तक जा रहे हैं। सहारे के बावजूद वे चार सीढ़ियां नहीं चढ़ पाएंगे। कैसे भी करो यह तो करना ही पडे़गा, या फिर मैं जाता हूं। आयोजक गिड़गिड़ाए- नहीं-नहीं आप रूकिए अभी कुछ करते हैं। माइक पर आवाज गूंजी। फलां अखबार के फोटोग्राफर जी आए हैं, इसलिए सभी सम्मानित हुए बुजुर्गों से निवेदन है कि कृपया ग्रुप फोटो के लिए मंच पर पधारें। बीमार, अशक्त बुजुर्गों को सहारा दे देकर दुबारा मंच पर लाया गया। कुछ खडे़ हुए, कुछ को ‘जवान बुजुर्गों’ को उनके पीछे लगाई कुर्सियों पर डगमगाती हालत में पकड़ कर खड़ा किया गया। कुछ कुर्सियों पर बैठे और कुछ बड़ी मुश्किल से दर्द के बावजूद घुटने मोड़ कर कतार में सबसे आगे बैठे।
फोटो जर्नलिस्ट ने दो फोटो शूट किए और आयोजकों को दो सेलफोन नंबर नोट करवाए। कहा, यह मेरा नंबर है और दूसरा हमारे पत्रकार का। अगर आपको इस कार्यक्रम के फोटो चाहिए तो मैं आठ-दस फोटो और खींच लेता हूं। कम रेट में आपको तैयार कर दे दूंगा। और हां खबर के लिए जरा प्रेस नोट भिजवा देना। आयोजकों का नंबर भी लिया ताकि समारोह कवर करने वाले वे पत्रकार महोदय फोन पर थोड़ी और जानकारी लेकर प्रेस नोट से हटकर अपनी अलग खबर बना सकें। थोड़ी देर बाद दूसरे अखबार के फोटोग्राफर आ गए, फिर वही सीन दोहराया गया। शूटिंग के दौरान एक स्थानीय चैनल का कैमरामैन आ गया। उसने निर्देश दिए। सभी अपनी मुटिठयां बांधकर हवा में लहराइए और अपनी संस्था के जिंदाबाद के नारे लगाइए ताकि लगे आप में आज भी समाज सेवा का जोश बरकरार है। फिर आयोजकों को बोला, आप में एक इधर आइए जो कार्यक्रम की जानकारी दे सकता हो, मुझे उसकी ‘बाइट’ लेनी है। आयोजकों में से एक की ‘बाइट’ ली। उसका नाम-पता लिया। इस तरह टीवी समाचार कवरेज हो गया।
ऐसा रोजाना लगभग हर आयोजन, धरना, प्रदर्शन में हो रहा है। एक बार तो हद हो गई। हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश का सम्मान हो रहा था। फोटोग्राफर जरा देर से पहुंचे। सम्मान हो चुका था। न्यायाधीश सम्मान स्वरूप पहनाई गई माला और साफा भी उतार चुके थे। फोटोग्राफर आयोजकों को यह कहने से नहीं चूके कि दुबारा जज साहब को माला और साफा पहनाओ, उनकी फोटो लेनी है। आयोजकों ने मना किया तो अपनी नौकरी की दुहाई देने लग गए। आखिर एक आयोजक ने साहस कर जज साहब को इसके लिए मना लिया और चलते समारोह को बीच में रोककर फिर जज साहब को साफा और माला पहनाकर उनका दुबारा सम्मान करने का सीन फिल्माया गया। राजनेता चाहे मंत्री हो या विधायक, उनकी तो आदत बन चुकी है कि फोटोग्राफर आएंगे और जो कहेंगे उस हिसाब से उन्हें शूटिंग का हिस्सा बनना है। रोजाना अपना नाम और शक्ल मीडिया में देखने की उनकी मजबूरी के चलते यह एक परंपरा बन चुकी है।
इसके लिए फोटोग्राफरों को पूरी तरह दोषी ठहराया जाना उचित नहीं होगा। उनके संपादक भी तो उनसे ऐसी ही अपेक्षा करते हैं। मान लीजिए दोपहर 12 बजे कहीं धरना या प्रदर्शन होना है। फोटोग्राफर वहां जा पहुंचता है। वह देखता है कि साढे़ बारह बजे तो तम्बू गाड़ा जा रहा है और प्रदर्शनकारियों का पता ही नहीं है। संपादक के लिए ना समय की देरी कोई खबर है और ना ही समय के बाद तैयार किया जा रहे तम्बू की फोटो। साफ हिदायत है कि फोटो धरना देते हुए लोगों का लाना है।
एक अघोषित आदर्श वाक्य बन गया है, ‘फोटो हर कीमत पर, भले ही मैनेज कर।’ यही वजह है कि अजमेर के अखबारों में अब मैनेज किए फोटो की तादाद ज्यादा नजर आती है। सीआरपीएफ, रेलवे भर्ती बोर्ड, लोक सेवा आयोग आदि संस्थाएं जब कोई भर्ती परीक्षा आयोजित करती है तो कई अभ्यर्थियों के रिश्तेदार भी साथ आते हैं। परीक्षा देने आई पत्नी के साथ पति भी आया है ताकि परीक्षा के दौरान दुधमुहें बच्चे को संभाल सके। बेटी के साथ बूढ़ा लाचार पिता भी आया है। ऐसी कई स्थितियां नजर आती हैं जो संवेदना, व्यवस्था, लगन आदि-आदि को सामने लाती हैं।
परीक्षा स्थलों के बाहर इनके लिए कोई इंतजाम नहीं होता। अखबारों में दूसरे दिन परीक्षा केंद्रों का जो फोटो छपता है, उसमें एक लाइन में खड़ी चार-छह खूबसूरत लड़कियां, सबके हाथ में किताबें, सभी की निगाहें एक दूसरे की ओर परंतु चेहरा कैमरे की ओर। फोटो कैप्सन होता है-परीक्षा के बाद प्रश्नपत्र पर चर्चा करती कुछ परीक्षार्थी। अब संपादकों-फोटोग्राफरों को कौन समझाए कि समूह में चर्चा कतार में खडे़ होकर नहीं होती। आमने-सामने या गोले में खडे़ होकर होती है। भाई यहां ना तो किसी की पीठ दिखाई दे रही है ना ही किसी को साइड पोज। इन्हीं हालात के चलते कई बार ना चाहते हुए भी गंभीर विषय की चर्चा पर मुस्कुराते हुओं का फोटो आ जाता है जो किसी भी समझदार पाठक के समक्ष फोटो की हकीकत बयां करने के लिए काफी होता है।
संपादक चाहते हैं कि हर घटना का फोटो आए, पत्रकार और फोटोग्राफर चाहते हैं कि रूटीन आयोजन बगैर उनके जाए ही कवरेज हो जाए। इसका तोड़ निकाला फोटोग्राफरों ने। मान लीजिए एक ही समय में चार कार्यक्रम हैं। चार फोटोग्राफर हैं तो चारों एक-एक बांट लेते हैं और मिलने का स्थान तय कर लेते हैं। वहां सब अपने डिजीटल कैमरों की चिप निकालते हैं किसी कंप्यूटर में फोटो अपलोड करते हैं और फिर दो-दो कदम के अंतर से ली गई फोटो कौन सी किसे लेनी है, अपने-अपने कैमरे में डाउनलोड कर लेते हैं। आयोजकों का फोन नंबर और नाम एक दूसरे को उपलब्ध करवा देते हैं जो पत्रकार के काम आ जाता है। फिर जाकर अपने अखबार के दफ्तर में फोटो अपलोड कर देते हैं, हो गया कवरेज।
पहले सब सारी फोटो एक्सचेंज कर लिया करते थे। संपादकों की पसंद के कारण कई बार तब अजीब स्थिति हो जाती थी जब सब अखबारों में एक ही एंगल का फोटो छपता था और लाख सफाई के बावजूद ‘पूल’ का रहस्य उजागर हो जाता था। कई बार फोटोग्राफर को अपने दफ्तर के ज्यादा चक्कर लगाने पड़ते हैं। एक कार्यक्रम की फोटो दफ्तर के कंप्यूटर मे डाली और फिर फील्ड में गया। वहां सभी ने अपनी चिप या कैमरे ही एक्सचेंज कर लिए और दूसरे कार्यक्रमों की फोटो डालने फिर लौट गए दफ्तर। इस गिरावट का ही नतीजा है कि वे भले की अपने को फोटो जर्नलिस्ट मानते हैं और कहलवाते हैं परंतु फोटो जर्नलिस्म की जगह उनकी हैसियत फोटोग्राफरों से आगे नहीं बढ़ पा रही है।
शादी-ब्याह में वर माला का रीटेक करवाने, समधियों को बार-बार गले मिलवाकर फोटो खिंचवाने वाले गैर-पत्रकार फोटोग्राफरों जैसी इसी हैसियत के कारण उनका अलग से कोई नाम नहीं हो पा रहा है। ‘पूल’ व्यवस्था का हिस्सा बन जाने के कारण वे नया प्रयोग भी नहीं कर पा रहे हैं। ना ही दूसरे शहरों या अखबार, चैनलों में उनकी पहचान बन पा रही है। दाम भी फिर काम जैसा ही मिल रहा है। अपना मानना है कि ‘पूल’ व्यवस्था खत्म करते हुए अगर वे अपना विजन, अपनी सोच और अपने प्रयोग करेंगे तो संपादक भी उनके काम को तरजीह देंगे, नाम तो होगा ही दाम भी बढे़गे। और आखिर में फोटो पत्रकारिता का वही मूल चीनी वाक्य, ‘एक फोटो हजार शब्दों के बराबर होता है।’ यहां उसका उल्टा रहा है, फोटो समझाने के लिए शब्दों का प्रयोग करना पड़ रहा है।
राजेंद्र हाड़ा राजस्थान के अजमेर के निवासी हैं. करीब दो दशक तक सक्रिय पत्रकारिता में रहे. अब पूर्णकालिक वकील हैं. यदा-कदा लेखन भी करते हैं. लॉ और जर्नलिज्म के स्टूडेंट्स को पढ़ा भी रहे हैं. उनसे संपर्क 09549155160 के जरिए किया जा सकता है.
Comments on “फोटो ‘हींचते’ हैं मेरे शहर के फोटो पत्रकार क्योंकि फोटो हर कीमत पर, भले ही ‘मैनेज’ कर”
aap ke dwara kahi ari bath such hai is may koi sandeh nai hai kyu ki roj hum bhe isi tarah say apney aas pass hota hua dakh rahey hai lakin is may sirf 2 logo ki he galti nai pura system iske leya zimmader hai sir kahi na kahi filhaal bahoot zaldi ya swaroop badeley ge aisi ummed hum sabhi kar shaktey hai
pradeep dubey
student of photojournalism and visual comminucation allahabad university
currenty working as a photojournalist danik jagran i – next gorakhpur
aapki baat se hum poori tarah sehmat hi. aapne jo likha hi aisa lagat hi jaise jabalpur ki kahani likh di ho.
20 se 30 saal poorane photogrphr jab photo journalist nahi ban pay to naye log kya banenge
yaha to jitne bhi aa rahe hi we sirf dukaandaari sajane ke liye. na ki press ke liye
jabalpur journalist
bilkul sahi kaha aapne ……… kamobesh yahi hal har jile ka hai bareilly me bhi shadio me photo khichne vale akhbaro ke photo grapher ban gay hai , pairo me havai chappale pahan kar din bhar press confrence me ghoomte hai , photo chape ya na chape 50 bar flash chamkate hai , aur din bhar kotvali me baithkar police ki dalali karte hai >:(
Bhai ji aap ne sahi kaha par iske piche jo bat hai vo hai ki samapadak ke chaheton ke chehre hone chahiye nahi to agle din ayegi photojournalist ki samat. or sampadak ko photojournlist ki nahi aise kam ke liye sirf flash chamkane bale nammatra unke isaron par nachne bale kam pagar main majdooron ki jaroorat bale logo ko photojournlist nahi sadi bale phtographer hi chahiye jo patrkaron ki naukri bhi chlate rahen. photojournlist Denik Jagran.
AAP KI BAT SAHI HAI, EDITOR LOG KO BHI GALTI HAI
JAI SE PATNA KE NEWS PAPPER
PRABHAT KHABAR KO HI LIJIYE
6000/- RS ME PHOTOGRAPHER SE RAT DIN KAAM LETE HAI
TO ITANE KAM DAM ME M A PASS PHOTOGRAPHER MILE GA
6000/- SAMSHAN GHAT ME PHOTO KHICHANE BALA HI MILEGA NA
REPOTER LOG TO PHONE SE KAAM KARATE KAHI JATE HI NAHI HAI
UNAKE BADALE PHOTOGRAPHER HI KAM KAR LAKAR DETE TO REPOTER NEWS BANATA HAI
PATANA KE SAHARA KE PHOTOGRAPHER
DANAPUR SE COMPUTER PATNA LANA
AUR LEJA YEHI KAM KARATA HAI
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MAINE PHOTO KHICHE GA HI