उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (11 और अंतिम) : जाने यह टूटना उनका भोजपुरी भाषा की बढ़ती दुर्दशा को लेकर था या एलबम, सी.डी. के बाजार में अपनी अनुपस्थिति को लेकर था यह समझ पाना खुद लोक कवि के भी वश का नहीं था। उनके वश में तो अब अपने कैंप रेजींडेंस में बढ़ती चोरी को रोक पाना भी नहीं था। बात अब पैसा, कपड़ा-लत्ता और मोबाइल तक ही नहीं रह गई थी।
अब तो गैस सिलिंडर तक उनके यहां से चोरी होने लगे थे। इस चोरी को रोकने के लिए वह कोई प्रभावी कदम नहीं उठा पा रहे थे। इसलिए भी कि लड़कियां उनकी बड़ी कमजोरी बन चली थीं। और कमजोर क्षणों में कोई भी लड़की उनका कुछ भी ले सकती थी, मांग सकती थी। कभी सीधे-सीध तो कभी चोरी छुपे, तो कभी-कभार सीनाजोरी से भी। कई बार तो वह पी कर टुन्न रहते और कोई लड़की मौका देख कर उन की कमजोर नस छूते हुए पूछ लेती,’ गुरु जी, यह चीज हमको दे दीजिए।’ या ‘गुरु जी दस हजार रुपया हमको दे दीजिए!’’ या ‘गुरु जी हम तो फला चीज ले जा रहे हैं।’ जैसे जुमलों को बोल कर कभी धीरे से, कभी फुसफुसा कर ले लेती और लोक कवि कभी ना नुकुर नहीं करते, फराख़ दिल बन बैठते और अंततः मामला चोरी के खाते में दर्ज हो जाता। कई बार यह भी होता कि लोक कवि टुन्नावस्था में सो रहे होते, या अधजगे या अधलेटे होते तो लड़कियां या चेले भी ‘प्रणाम गुरु जी!’ बोल कर कमरे में घुसते। इधर-उधर ताकते झांकते। गुरु जी का कोई प्रति उत्तर न पा कर भी उनका पैर छूते। लोक कवि फिर भी टुन्न पड़े रहते और बोलते नहीं तो चेले या लड़कियां जो भी होते बोलते, ‘लगता है गुरु जी सो गए हैं का?’ फिर भी वह नहीं बोलते तो अपनी सुविधा से वांछित चीज उठा लेते और लेकर निकल लेते यह बोलते हुए, ‘गुरु जी सो गए हैं!’ ‘यह सारे तथ्य, संवाद मय अभिनय के लोक कवि बाकायदा छटक-छटक कर चलते हुए सदृश्य बताते भी। लेकिन किस दिन कौन था, क्या ले गया यह बात वह अमूमन गोल कर जाते। कोई बहुत कुरेदता भी तो वह बात टाल जाते। कहते, ‘जाने दीजिए! अरे, यही सब तो मेहनत करते हैं।’ लड़कियों के लिए कहते, ‘अरे यही सब तो गांड़ हिला-हिला कर नाचती हैं। इन्हीं सबों के बूते तो हमारे पास पोरोगरामों की इतनी बाढ़ लगी रहती है!’
‘क्यों? आप नहीं गाते हैं?’ एक दिन उस ठाकुर पत्रकार ने सवालिया निगाह दौड़ाते हुए कहा, ‘टीम भी आप के नाम से है। आप ही बुक होते हैं। आप ही के नाम से यह सब खाती कमाती हैं।’
‘का बोल रहे हैं बाऊ साहब!’
‘क्यों?’ बाबू साहब गिलास की शराब देह में ढकेलते हुए बोले, ‘मैं तो तथ्य बता रहा हूं।’
‘अइसेहीं अख़बार में रिपोर्टिंग करते हैं आप?’ लोक कवि ने थोड़ा मुसकुराते, हलका सा तरेरते और मीठी मार बोलते हुए अपना सवाल दुहराया, ‘अइसेहीं अख़बार में रिपोर्टिंग करते हैं आप?’
‘क्या मतलब?’ बाबू साहब अचकचाए।
‘मतलब ई कि आप कुछ नहीं जानते हैं।’ लोक कवि बोले तो मिठास घोल कर पर ऐसे जैसे तमाचा मार रहे हों।
‘क्या मतलब?’
‘अब जाने भी दीजिए।’ लोक कवि बोले, ‘कुछ और बात कीजिए।’
‘और क्या बात करें?’
‘कुछ विकास की बात करिए, कुछ राजनीति का बात करिए।’
‘क्यों?’
‘कुछ भी करिए बकिर ई गाना और लड़कियों की बात छोड़ दीजिए!’
‘गाने और लड़कियों की बात तो मैं कर भी नहीं रहा। मैं तो कह रहा था कि आप ही के नाम से सब कुछ होता है। आपका नाम बिकता है। बस! यही तो मैं कह रहा था!’ बाबू साहब अपने को जस्टीफाई करते हुए बोले, ‘और आप मेरी अख़बार में रिपोर्टिंग की बात करने लगे।’ वह बोले, ‘अख़बार में तो मैं दोगलई वाली रिपोर्टिंग करता ही हूं। थोड़े से सच में ज्यादा गप्प और ज्यादा गप्प में थोड़ा सा सच। और कई बार सारे झूठ को सारा सच बता कर। पर यह तो अख़बारी नौकरी की विवशता है। कई बार अनचाहे करता हूं तो एकाध बार अपने मन से भी।’ वह बोले, ‘पर लोक कवि आप का नाम बिकता है यह तो पूरा सच बोल रहा हूं। और कोई नौकरी में नहीं, किसी दबाव में नहीं बल्कि पूरे मन से बोल रहा हूं।’
‘बोल चुके आप?’ लोक कवि संक्षिप्त सा बोले।
‘बिलकुल!’ बाबू साहब बोले, ‘पर आगे भी बोलूंगा और यही बात बोलूंगा। क्योंकि यही सच है। वास्तविकता है!’
‘सच यह नहीं है!’ लोक कवि बुदबुदाए, ‘आप को तीन पेग में ही आज चढ़ गई है।’
‘नहीं बिलकुल नहीं चढ़ी। चढ़ गई हो शराब तो हराम है शराब मेरे लिए।’ वह बोले, ‘लोक कवि! आफ्टर आल आप मेरी मातृभाषा गाते हैं। और लखनऊ में मेरी मातृभाषा को परवान चढ़ाए हुए हैं।’
‘सब गलत।’
‘तो आप का नाम नहीं बिकता?’ बाबू साहब लोक कवि से बोले, ‘मुझे नहीं आप को चढ़ गई है।’
‘मैंने तो अभी छुई भी नहीं।’ लोक कवि बोले, ‘अभी नहाऊंगा। नहाने के बाद पिऊंगा।’
‘तो फिर क्यों बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं?’
‘बहकी-बहकी बातें मैं नहीं, आप कर रहे हैं।’ लोक कवि बोले, ‘आप की मातृभाषा भोजपुरी को मैं गाता हूं सही है। पर मुझे सुनता कौन है?’
‘क्या?’
‘हां!’ लोक कवि बोले, ‘जानते हैं लोग पोरोगराम बुक करने मेरे पास आते जरूर हैं पर सट्टा करने के पहले पूछते हैं कि लड़कियां कितनी होंगी? यह नहीं पूछते कि आप कितना गाना गाएंगे? फिर लड़कियों की संख्या पर ही सट्टा और रेट तय होता है।’ लोक कवि बोले, ‘जैसे रैलियों में बड़का नेता लोग लोकल नेताओं से पूछते हैं कि भीड़ कितनी होगी ? वैसे ही पोरोगराम बुक करने वाले पूछते हैं लड़कियां कितनी होंगी? पोरोगराम के लिए पहुंचिए तो छूटते ही पूछते हैं लड़कियां कितनी आई हैं? वह चाहे होली, दीवाली का पोरोगराम हो, चाहे नए साल का या जन्माष्टमी, शादी बियाह का! और अब तो सरकारी पोरोगरामों में भी दबी जबान, फुसफुसा कर ही सही लोग लड़कियों के बारे में दरियाफ्त करते हैं।’ लोक कवि बोले, ‘और जानेंगे? पोरोगराम में जनता भी लड़कियों का डांस ज्यादा देखना चाहती है वह भी धक्का मार सेक्सी डांस। मैं तो कभी कभार तब गाता हूं जब लड़कियां कपड़े चेंज कर रही होती हैं या सुस्ता रही होती हैं। तो वोही में एहर वोहर करके दूइ चार गाने मैं भी ठोंक देता हूं।’ वह बोले, ‘और इनाम मेरे गाना गाने पर नहीं, मेरे ही गाने के कैसेट पर डांस करती लड़कियों के डांस पर आते हैं। और कई बार तो सट्टे के तय रुपए से ज्यादा रुपए इनाम के आ जाते हैं।’ लोक कवि आंखें तरेर कर बोले, ‘तो का ई इनाम आप समझते हैं आप की मातृभाषा के गानों को मिलते हैं? कि लड़कियों के सेक्सी डांस को?’ वह बोले, ‘आप ही तय कर लीजिए मैं कुछ नहीं बोलूंगा।’
‘क्या कह रहे हैं लोक कवि आप?’
‘यही कि अब मैं नहीं गाता हूं।’
‘तो क्या करते हैं आप?’
‘पोरोगराम करता हूं।’ वह बोले ऐसे जैसे अपने ही को परास्त कर चुके हों।
‘यह तो बड़ा दुखद है लोक कवि!’
‘अब बात दुख का रहे चाहे सुख का बकिर है यही!’ लोक कवि बोले ऐसे जैसे वह लुट गए हों।
‘तो आप अपने प्रोगामों में से लड़कियों को हटा क्यों नहीं देते?’
‘हटा दें?’ लोक कवि अर्थभरी लेकिन धीमी मुसकान फेंकते हुए बोले।
‘बिलकुल।’ बाबू साहब ठनक कर बोले।
‘मनो हमको बिलवा देंगे?’
‘क्या मतलब?’
‘मतलब ई कि अगर लड़कियों को मैं अपने पोरोगरामों में से हटा दूंगा तो हमारा काम तो ठप समझिए!’
‘क्यों?’
‘क्यों क्या?’ लोक कवि बोले, ‘अरे बाऊ साहब लड़कियां नहीं रहेंगी तो हमको फिर पूछेगा कौन? कौन सुनेगा आप की मातृभाषा? आप की मरी हुई मातृभाषा?’
‘क्या बक रहे हैं आप?’ बाबू साहब अब चौथा पेग ख़त्म करते हुए बोले, ‘और बार-बार आप की मातृभाषा, आप की मातृभाषा कह-कह कर मेरा उपहास उड़ा रहे हैं यह बंद कीजिए।’ वह बोले, ‘भोजपुरी मेरी ही नहीं आप की भी मातृभाषा है!’
‘मेरी तो रोजी रोटी भी है भोजपुरी!’ लोक कवि बोले, ‘मेरा नाम, सम्मान इसी भाषा के नाते है! मैं क्यों उपहास उड़ाऊंगा बाऊ साहब। मैं तो बस आप को जश्मीनी हकष्ीकष्त बता रहा था कि आप समझ जाएं बकिर….’
‘बकिर क्या?’
‘बकिर दोगली रिपोर्टिंग करते-करते आप की आंख अन्हरा गई है। सच नहीं देखती, सो वही बता रहा था।’ वह बोले, ‘जानते हैं जो आज लड़कियों का डांस हटा दूं और ख़ाली बिरहा गाऊं तो जो आज महीने में पंद्रह से बीस दिन बुक होता हूं साल में भी शायद एतनी बुकिंग नहीं मिलेगी। जो मिलेगी भी वह भी सिर्फ सरकारी।’ वह बोले, ‘बाऊ साहब एक मजेदार बात और बताऊं आप को?’
‘क्या?’
‘जानते हैं लड़कियां जब डांस करते-करते थक जाती हैं, रात के तीन चार बज जाते हैं, पब्लिक फिर भी नहीं छोड़ती तो क्या करता हूं?’
‘क्या?’
‘मैं मंच पर आ के कान में अंगुली डाल के बिरहा गाने लगता हूं। पब्लिक उकता जाती है। धीरे-धीरे खदबदाने लगती है। फिर भी उम्मीद लगाए रहती है कि अभी अगला आइटम फिर डांस का या डुवेट का होगा। लेकिन मैं अगले आइटम में किसी लौंडे से भजन गवाने लगता हूं। वह दो तीन भजन ताबड़ तोड़ ठोंक देता है। तब कहीं जा के पब्लिक से छुट्टी मिलती है।’ वह बोले, ‘भोजपुरी और भजन की स्थिति यह है हमारे समाज में। आप भी जान लीजिए, आप पहरूआ हैं समाज के इसलिए बता दिया।’
‘यह तो सचमुच बड़ी मुश्किल स्थिति है।’
‘इस मुश्किल स्थिति से आखि़र कैसे निपटा जाए?’ लोक कवि बोले, ‘इस तरह मरती हुई भोजपुरी में कैसे जान फूंकी जाए?’ वह बोले, ‘आप बुद्धिजीवी हैं, विद्वान हैं, अख़बार में हैं। आप ही लोग कुछ सोचिए।’ कह कर लोक कवि अपनी छत पर रखे बाथ टब में नहाने चले गए। बाबू साहब की दारू थम गई। वह सकते में आ गए। लोक कवि की त्रासदी और अपनी मातृभाषा की दुर्दशा को ले कर। उन्हें अपनी मातृभाषा पर बड़ा गुमान था। भोजपुरी की मिठास, इसका लालित्य और इसकी रेंज का बखान वह करते नहीं अघाते थे। दो दिन पहले ही तो प्रेस क्लब में उन्होंने अपनी मातृभाषा का झंडा ऊंचा किया था। पंजाबी साथियों से उन्होंने बीयर पीते हुए बघारा था कि तुम्हारे यहां क्या है सिवाए बल्ले-बल्ले और भांगड़ा के? हमारी भोजपुरी में आओ, सब कुछ है यहां। जितने संस्कार गीत भोजपुरी में हैं किसी भाषा में नहीं हैं और आदमी बनता है संस्कार से। बात ज्यादा जब बढ़ी तो वह बोले चइता, कजरी, सोहर, लचारी तो छोड़ो भोजपुरी में श्रम गीत ही इतने हैं कि तुम लोग सुनते-सुनते थक जाओ। कहा था कि एक मरने को छोड़ दो तो भोजपुरी में हर समय, हर काम के लिए गीत हैं। चाहे जांत का गीत हो, फसल का हो, मेला बाजार जाने का हो हरदम गीत गाओ। शादी का उदाहरण देते हुए हांका था कि तुम्हारे यहां तो सिर्फ लेडीज संगीत से छुट्टी पा ली जाती है लेकिन भोजपुरी में एक-एक कस्टम के लिए गीत हैं जो भोर में भोरहरी से शुरू हो संझवाती से होते हुए सोने तक चलते हैं। और एक दो दिन नहीं, कई-कई दिन तक। यहां तक कि बारातियों के खाना खाने के समय भी गारी गीत गाए जाते हैं। शादी ख़त्म होने के बाद भी पांच दिन तक गीतों का कार्यक्रम चलता है। उसने उदाहरण दे-दे कर बताया था। तब वह सब लाचार हो गए थे और कहने लगे कि, ‘हो सकता है पंजाब के गांवों में हमारी पंजाबी में भी यह सब चलता हो पर हमें मालूम नहीं।’ तो एक बुंदेलखंडी पत्रकार उछलता हुआ बोला, ‘हमारे बुंदेलखंड में भी है!’
‘क्या है?’ कह कर बाबू साहब ने उस बुंदेलखंडी को मजाक में दौड़ाया था और पूछा था और जरा ऊंची आवाज में पूछा था कि, ‘सिवाय आल्हा गायन के अलावा क्या है बुंदेलखंड में?’ वह भी निरुत्तर हो गया था। पर जिस भोजपुरी की वीरगाथा उस रोज प्रेस क्लब में उन्होंने गाई थी क्या वह गाथा गलत थी? या कि लोक कवि के सवाल गलत हैं? उनके द्वारा बताए गए ब्यौरे गलत हैं?
गलत हैं या सही? कौन सही और कौन गलत में अभी बाऊ साहब सुलग ही रहे थे कि लोक कवि अंगोछा लपेट आ कर कुर्सी में धप्प से बैठ गए। बोले, ‘का बाऊ साहब आप ले क्यों नहीं रहे?’ उन्होंने ह्विस्की की ओर इशारा करते हुए कहा और अपना पेग बनाने लगे। बोले, ‘आप भी लीजिए।’
‘क्या लें आपने तो सारा नशा ही उतार दिया!’
‘क्या?’
‘क्या-क्या बताऊं?’ वह बोले, ‘मैं ऐसे कई लोगों के बारे में जानता हूं जो या तो अंगरेजी बोलते हैं या भोजपुरी। हिंदी नहीं जानते पर भोजपुरी जानते हैं। और आज आपने जो भोजपुरी का नक्शा खींचा है, मैं तो दहल गया हूं।’
‘इसमें दहलने की क्या बात है?’ वह बोले, ‘स्थिति ख़राब है तो इसे सुधारिए। सुधारने का माहौल बनाइए।’ लोक कवि बोले, ‘पर छोड़िए यह सब ई बताइए कि ऊ लोग कौन हैं जो अंगरेजी और भोजपुरी जानते हैं पर हिंदी नहीं।’
‘यहीं लखनऊ में भी दो चार लोग हैं। दिल्ली में हैं, विदेशों में भी हैं।’
‘अच्छा चहकते हुए लोक कवि बोले, ‘लखनऊ में कौन लोग हैं?’
‘साइंटिस्ट लोग हैं।’ वह बोला, ‘हिंदी टूटी फूटी बोलते हैं पर भोजपुरी सही-सही। ऐसे ही दिल्ली में जे.एन.यू. में बहुत लोग ऐसे मिलते हैं जो या तो अंगरेजी बोलते हैं या भोजपुरी। हिंदी नहीं।’
‘ई दिल्ली में जे.एन.यू. का है?’
‘यूनिवर्सिटी है।’
‘अच्छा-अच्छा।’ वह बोले, ‘हमारा पोरोगराम वहां हो सकता है?’
‘डांस वाला?’ बाबू साहब ने मजाकिया लहजे में आंख घुमा कर पूछा।
‘नहीं-नहीं। ख़ाली बिरहा वाला। शुद्ध भोजपुरी वाला पोरोगराम।’
‘आप भी लोक कवि हर बात में पोरोगराम सूंघने लगते हैं।’
‘का करें रोजी रोटी है।’ वह बोले, ‘फिर विद्वान लोगों के बीच गाने का सुख ही और है। और एहले अच्छी बात है कि ऊ लोग हिंदी नहीं जानते तो फिल्मी गाना का फरमाइश नहीं करेंगे। तो डांस वइसे ही कट हो जाएगा।’ वह बोले, ‘बात चलाइए।’
‘यह तो हमसे संभव नहीं है।’
‘तब छोड़िए जाने दीजिए।’ वह बोले, ‘कोई और बात कीजिए।’
‘क्या और बात करूं?’ वह बोला, ‘बताइए एक बहुत बड़े लेखक हैं एस.वी. नायपाल। इंगलैंड में रहते हैं और अंगरेजी में लिखते हैं।’
‘त का इहो भोजपुरी बोलते हैं?’
‘हां।’
‘अंगरेज हो कर भी?’
‘अंगरेज नहीं हैं।’
‘तो?’
‘इनके पुरखे गोरखपुर से गए थे त्रिनिदाद मजूरी करने। बताते हैं कि इनके बाबा गए थे।’
‘तो गोरखपुर में नायपाल कौन जाति होता है?’
‘नायपाल जाति नहीं है उनके बाबा दुबे थे। त्रिनिदाद से घूमते-घामते इंगलैंड पहुंच गए। पुरखे मजूरी करने गए थे पर यह लेखक हो गए। और ऐसे लेखक कि जिनकी अंगरेजी से बड़े-बड़े अंगरेज घबराएं।’
‘बहुत अशुद्ध लिखते हैं का?’ लोक कवि ने मुंह बिगाड़ कर पूछा।
‘अरे नहीं, इतनी अच्छी लिखते हैं कि उस से लोग घबराते हैं।’
‘जैसे हमारे गाने से लोग घबराते हैं?’
‘क्या? बाबू साहब लोक कवि की ही तरह मुंह बिगाड़ कर बोले, ‘बहुत ख़राब गाते हैं का?’
‘का बाऊ साहब?’ कह कर लोक कवि हो-हो कर हंसने लगे।
‘तो इन एस.वी. नायपाल की कई किताबें मशहूर हो चुकी हैं। वह ज्यादातर भारत के बारे में लिखते हैं। कई विदेशी पुरस्कार पा चुके हैं। नोबल पुरस्कार भी अभी-अभी मिला है। कुछ दिन पहले। और वह नायपाल हिंदी नहीं जानते पर भोजपुरी जानते हैं?’
‘आप को कैसे पता चला?’ चकित होते हुए लोक कवि ने पूछा।
‘अरे, अख़बारों मैंग्जीनों में पढ़ा है। क्यों?’
‘नहीं, हम सोचे कि कहूं आप मिले होंगे?’ वह बोले, ‘कब्बो भारत आए हैं?’
‘हां, आए हैं दो तीन बार। पर मैं नहीं मिला हूं। बहुत पहले आए थे। तो तब जानता भी नहीं रहा होऊंगा उन्हें।’
‘लेकिन ऊ भोजपुरी जानते हैं?’
‘हां, भई!’
‘भोजपुरी में भी एक्को किताब लिखे हैं का?’
‘नहीं, मेरी जानकारी में तो नहीं लिखे हैं।’
‘तब का ?’
‘क्या मतलब?’
‘मतलब ई कि ऊ भोजपुरी जानते हैं ख़ाली फैशन के लिए। अपना घाव देखाने के लिए। कि देखिए मजूर का बेटा केतना महान लेखक बन गया।’ लोक कवि बोले, ‘मजा तो तब था कि जब ऊ भोजपुरी में भी लिखते भोजपुरिहों के बारे में लिखते, उनका कुछ विकास करते।’ वह बोले, ‘ऐसे भोजपुरिहों से हम भी बिदेसों में मिला हूं। ऐसे ही लोग, हाई फाई लोग भोजपुरी का विनाश कर रहे हैं। का देस, का बिदेस। भोजपुरी के लिए कुछ करेंगे नहीं। ख़ाली मूड़ी गिना देंगे कि हमहूं भोजपुरिहा हूं। हूं ह, सजनी हमहूं राजकुमार! जाने दीजिए अइसे लोगों की बात मत करिए!’
लोक कवि तीसरा पेग ख़त्म कर रहे थे और साथ ही टुन्नावस्था की ओर भी उन के चरण बढ़ रहे थे। बाबू साहब की भी ज्यादा हो गई थी सो अचानक उठते हुए वह बोले, ‘चलते हैं लोक कवि जी!’
‘अच्छा तो प्रणाम!’ कह कर लोक कवि ने भी जाने का सिगनल दे दिया। फिर बोले, ‘कल दुपहरिया में चेयरमैन साहब के साथ बैठकी है। आप भी आइएगा।’
‘ठीक है।’ कह कर बाबू साहब चले गए। इस के बाद खा पीकर वह भी अकेले ही सो गए। हालांकि अकेले वह कम ही सोते थे।
अभी ठीक से सुबह भी नहीं हुई थी कि उनके फोन की घंटी बजी। फोन लोक कवि ने ही उठाया। पर उधर की बातें सुनते ही सन्न रह गए। रात का नशा उतर गया। चेयरमैन साहब को हार्ट अटैक हुआ था। भागे-भागे लोक कवि उन के घर पहुंचे तब तक चेयरमैन साहब सांस छोड़ चुके थे।
चेयरमैन साहब की अंत्येष्टि में भारी भीड़ थी। कमोवेश सभी राजनीतिक पार्टियों के लोग, हर तबके के लोग थे। अमीर, गरीब, अफसर, चपरासी, नेता, कलाकार, पत्रकार कौन नहीं था। दूसरे दिन हुई श्रद्धांजलि सभा में भी सब लोग आए। ज्यादातर लोग औपचारिक नहीं हो पाए। कमोवेश सभी ने कोई न कोई संस्मरण सुनाया जिसमें चेयरमैन साहब झांकते थे। लोक कवि ने कोई संस्मरण नहीं सुनाया। सिर्फ इतना भर बोले, ‘लखनऊ में विधायक जी हमको लाए और उनके बाद हम चेयरमैन साहब की ही शरण में रहे। गरीबी में हमको कुरता पायजामा पहनाते थे। खाना खिलाते थे। बड़ा प्यार से। ऊ हमारे अइसे गार्जियन थे जो जब चाहे हम को डांट सकते थे, दुत्कार और दुलार सकते थे। कुछ भी कह सकते थे, किसी भी समय, कहीं भी हमको बेइज्जत कर सकते थे। कहीं भी, कभी भी हमको अपने कपार पर बैठा सकते थे। हम को मान, सम्मान दे दुलरा सकते थे। उनके लिए हमारी जिंदगी में पूरी छूट थी। हमारे कई दुख बांटे, हमारे कई सुख छीने, कई सुख दिए। हरदम हर मोर्चे पर हमारी मदद करते। काहें से कि ऊ हमारे गार्जियन थे।’ कहते-कहते लोक कवि फफक कर रो पड़े। आगे नहीं बोल पाए जब कि वह बहुत कुछ बोलना चाहते थे। पर उनकी रुलाई रुक नहीं पा रही थी, वह करते भी तो क्या करते?
कुछ दिन उनके बड़े उदासी में गुजरे। रिहर्सल वगैरह भी बंद कर दिया था उन्होंने। पर जल्दी ही वह चेयरमैन साहब के गम से उबर गए। प्रोग्राम रिहर्सल सब शुरू हो गया। वह फिर से गाने लगे, ‘साड़ी बता रही है, खींची कहीं गई है / लाली बता रही है, लूटी कहीं गई है।’
हां, लेकिन वह चेयरमैन साहब को नहीं भूले। वह उनकी चर्चा जब तब चलाते रहते। खा़स कर जब कोई गलत फैसला उनसे हो जाता और कोई टोकता तो वह लगभग आह भर कर कहते, ‘का करें गलत-सही बताने वाले चेयरमैन साहब तो अब रहे नहीं। का करूं हो गया गलती!’ पर धीरे-धीरे चेयरमैन साहब की सलाहकार वाली भूमिका उस ठाकुर पत्रकार ने ले ली। लेकिन दिक्कत यह थी कि चेयरमैन साहब की तरह वह अनुभवी नहीं था। धैर्य नहीं था उसमें। कई बार रौ में बह जाता तो कई बार जिद में अड़ जाता। दूसरे, जैसे चेयरमैन साहब कलाकार लड़कियों को देखते ही बहने लगते थे उससे कहीं ज्यादा यह ठाकुर पत्रकार बहने लगता। चेयरमैन साहब लड़कियों के साथ नोचा-नोची, पकड़ा-पकड़ी, बतियाने वतियाने तक ही सीमित रहते पर यह पत्रकार हर वक्त लड़कियों को सुला लेने की जिद पर अड़ जाता। और वह निशा तिवारी की टीस में बलबलाने लगता। कहता, ‘क्या-क्या नहीं किया मैंने आप के लिए पर आप एक निशा नहीं कर सके मेरे लिए?’ इशू बना लेता। इन सब बातों को ले कर लोक कवि और उसमें अकसर ठन जाती। क्योंकि लोक कवि इस बात को पसंद नहीं करते थे। पत्रकार प्रतिवाद करता, ‘का सब सती सावित्री हैं?’
‘मैं नहीं जानता कि सब सती सावित्री हैं कि रंडी पर यहां यह सब नहीं हो पाएगा बाऊ साहब।’ लोक कवि कहते, ‘वइसे ही पीठ पीछे लोग हम को लवड़िया सप्लायर कहते रहते हैं। लेकिन मैं ई सब आंख के सामने नहीं होने दूंगा।’
‘क्या आप खुद नहीं इन लड़कियों को सुलाते हैं?’
‘सुलाता हूं।’ लोक कवि बिफरे, ‘पर जबरदस्ती नहीं जैसा कि आप चाहते हैं।’ वह जोड़ते, ‘अब जमींदारी नहीं रही बाऊ साहब। और फिर ई शहर है। बदनामी होती है!’
‘अच्छा आप सुलाएं तो बदनामी नहीं होती और हम सिर्फ सुलाने की बात करें तो बदनामी होती है?’
‘हां होती है।’ लोक कवि कहते, ‘आप में भसोट है तो जाइए लड़की को सड़क पर पटाइए फिर वह जाए तो जहां चाहिए ले जा कर सुलाइए। पर हमारे यहां बैठ कर न पटाइए, न सुलाने वुलाने की बात करिए। बतियाना है तो हमसे बतियाइए, दारू पीजिए, खाइए पीजिए मौज कीजिए पर लड़कियों वाला खेल मत करिए। दुनिया भरी पड़ी है छिनार लड़कियों से जाइए कहीं और जोर आजमाइश करिए। बकिर इहां नहीं।’
खूबसूरत डांसर्स सचमुच लोक कवि के जी का जंजाल बन चली थीं। उनके पास आने वाले अफसर, नेता या धनाढ्य किस्म के लोग आते और अक्सर बात ही बात में घुमा फिरा कर लड़कियों की चर्चा चला देते। ऐन लड़कियों के सामने लोक कवि बड़ी बेरहमी से उनके इशारों भरी बातों को दबोच लेते। कहते, ‘अब आप यहां से चलिए।’ लेकिन दारू चढ़ाए लोग लड़कियों के फेर में लगे ही रहते। एक बार हालैंड से एक आयोजक आए थे इंडिया घूमने। लखनऊ लोक कवि के पास भी आए। बात ही बात में अमरीकन लड़कियों की चर्चा चला दिए। बोले कि, ‘वहां तो पांच लाख लेती हैं।’ लोक कवि बात समझते हुए भी लगातार टालते रहे। पर हालैंड निवासी की सुई बार-बार, ‘पांच लाख लेती हैं!’ पर अटक जाती। और अंततः उन्होंने दारू की मेज पर एक लाख रुपए यों ही निकाल कर रख दिए। लोक कवि भड़के, ‘ई का है?’
‘कुछ नहीं रख लीजिए!’
‘क्यों कोई पोरोगराम का बयाना है क्या?’
‘नहीं वइसे ही रख लीजिए।’
‘का समझते हैं भाई आप?’ लोक कवि बिगड़ गए। बोले, ‘जाइए यहां से और अपना रुपया उठाइए। डालर में बदलवाइए और अमरीका चले जाइए।’
‘आप नाराज क्यों हो रहे हैं सर ?’ हालैंड निवासी बुदबुदाए।
‘बस, अब आप चले जाइए!’
‘मैंने आप को इतने प्रोग्राम दिलाए हैं और आप….!’
‘मत दिलाइए पोरोगराम अब और बस।’ लोक कवि गरजे, ‘निकल जाइए यहां से!’
ऐसे ही एक बार एक ब्लाक प्रमुख आए। ठेकेदारी करते थे। लोक कवि के जिले के थे। पैसा बहुत कमा लिए थे। लोक कवि का प्रोग्राम भी जब तब करवाते रहते थे। लखनऊ आए थे विधायकी का टिकट जुगाड़ने। लोक कवि की सिफारिश चाहते थे। लोक कवि ने सिफारिश कर भी दी और उम्मीद क्या लगभग आश्वासन मिल गया टिकट का कि चुनाव का ऐलान होने दीजिए टिकट आप का पक्का है। वह मारे खुशी के लोक कवि के घर मिठाई, फल और शराब की बोतलें लिए आ धमके। लोक कवि रिहर्सल में थे। डांसर्स थीं। पर ब्लाक प्रमुख के आते ही लोक कवि ने रिहर्सल रोक दिया। जिले के थे सो उनको अपना यह कैंप रेजीडेंस ऊपर से नीचे तक दिखाया। ख़ातिर बातिर की। फिर उनकी इच्छा पर उन की ही शराब की बोतल खोल दी। आदमी भेज कर होटल से मुर्गा, मछरी मंगवाया। लड़कियों ने परोसा। अब ब्लाक प्रमुख दो तीन पेग बाद स्टार्ट हो गए। सीधे-सीधे नहीं, जरा क्या पूरा-पूरा घुमा कर। वह चर्चा लोक कवि के इस कैंप रेजीडेंस की कर रहे थे पर आंखें लड़कियों पर गड़ी थीं। कहने लगे, ‘लगता है इस मकान को तुड़वाना पड़ेगा!’ पर लोक कवि उनकी बात अनसुनी कर गए। लेकिन वह स्टार्ट रहे, ‘लगता है इस मकान को तुड़वाना पड़ेगा!’ और जब हद हो गई, ‘तुड़वाना पड़ेगा!’ की तो लोक कवि पूछ ही बैठे, ‘क्यों तोड़वाना पड़ेगा?’
‘बड़ा बेढंगा बना है। फिर से बनवाने के लिए तुड़वाना पड़ेगा।’
‘कौन तुड़वाएगा? कौन बनवाएगा?’
‘अरे भाई मैं जिंदा हूं।’ वह एक लड़की को लगभग भर आंख ऊपर से नीचे तक घूरते हुए बोले, ‘मैं ही तुड़वाऊंगा, मैं ही बनवाऊंगा।’ वह बहके, ‘इतनी हैसियत तो है हमारी।’
‘पर कौने खुशी में?’ लोक कवि जरा मिठास घोल कर लेकिन बिफर कर बोले।
‘बस मेरा मन है।’
‘पता है केतना पइसा खर्च होगा?’
‘अरे जो भी पचीस-पचास लाख खर्च होगा मैं करूंगा।’
‘ऐसे-ऐसे जाने कितने बेढंगे मकान हैं इस मुहल्ले में किस-किस को तोड़ कर बनवाएंगे?’
‘हम तो बस आप का मकान तोड़ेंगे और आप का मकान बनवाएंगे।’ ब्लाक प्रमुख बहकते हुए एक लड़की को लगभग आंखों-आंखों में बुलाते हुए बोले।
‘तुम लोग यहां क्या कर रही हो? चलो यहां से।’ लोक कवि लड़कियों से बोले, ‘अब कल आना।’ ‘आप बहुत अच्छा गाते हैं।’ ब्लाक प्रमुख लड़कियों के जाने के बाद भी बात को लाइन पर लाते हुए पर बुझे स्वर में लोक कवि से बोले, ‘जान निकाल लेते हैं।’
‘जान मैं नहीं ये लड़कियां निकालती हैं।’ लोक कवि उन्हें टालते हुए बोले।
‘नहीं सचमुच आप बहुत सुंदर गाते हैं।’ वह बहक कर बोले, ‘कलेजा काढ़ लेते हैं।’
‘तो गाऊं अभी मैं?’ लोक कवि तंज करते हुए बोले, ‘जान निकलेगी अभी आप की?’
‘बिलकुल!’ ब्लाक प्रमुख बोले, ‘पर एक शर्त के साथ कि साथ में डांस भी हो।’
‘हां, हां डांस भी होगा।’ लोक कवि ने दो लड़कों को आवाज दे कर बुलाया और कहा कि ‘ये नाचेंगे मैं गाऊंगा। शुरू करूं?’
‘क्या लोक कवि जी आप भी मजाक करते हैं।’ वह बोले, ‘अरे सोनपरियों को नचाइए!’
‘ऊ सब तो चली गईं।’
‘चली गईं?’ ब्लाक प्रमुख ऐसे बोले जैसे उनका सब कुछ लुट गया हो, ‘सभी चली गईं सचमुच ?’
‘त और का?’ लोक कवि बोले, ‘हम गाना सुनाएं आप को?’
‘अब आपका सुनाएंगे।’ ब्लाक प्रमुख बोले, ‘सोनपरियों के डांस के साथ ही गाना सुनने का तुक था। अब तो हम आपका गाना आप के कैसेट से सुन लेंगे।’ कह कर वह उठ खड़े हुए। बिल्डिंग तुड़वा कर बनवाने की बात भी भूल गए। लोक कवि ने उन्हें आग्नेय नेत्रों से देखा और बड़े खिन्न भाव से विदा किया।
यह और ऐसे तमाम प्रसंगों को देखते झेलते लोक कवि का दिन हंसी खुशी से गुजर ही रहा था कि एक रोड ऐक्सीडेंट में वह ठाकुर पत्रकार भी चल बसा। अभी चेयरमैन साहब का गम वह भुला ही रहे थे कि यह एक और गम नत्थी हो गया। लेकिन चेयरमैन साहब जितना बड़ा गम यह नहीं था, फिर भी टीस तो थी ही। जो भी हो इधर-उधर संपर्क का एक मजबूत सूत्र उनका उनसे छिन गया। अख़बारों में पब्लिसिटी का भी वाहक था वह पत्रकार जो एक साथ कई अख़बारों में लोक कवि की ख़बरें छपवा देता था। कार्यक्रमों में भी वह मददगार होता था। लेकिन इसको भी नियति मान कर लोक कवि ख़ामोश हो गए। पर जब उनकी ख़ास मिसिराइन भी चल बसीं तो वह बिलकुल टूट गए। मिसिराइन जो उनके एक सहकर्मी की पत्नी थीं पर कहने के लिए। वास्तव में तो वह लोक कवि की जीवन संगिनी थीं। मिसिराइन ने उनके लखनऊ के शुरुआती जीवन में मिठास घोली थी। उनके संघर्ष के दिनों में वह मिसरी सी बनके उनके मन में फूटी थीं। ठीक वैसे ही जैसे गांव में किशोर उम्र में धाना ने उनके जीवन में मिठास घोली थी। पर वह तात्कालिक मिठास थी। बचपना था। लेकिन मिसिराइन की मिठास स्थाई थी। थीं तो वह चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की पत्नी लेकिन लोक कवि कहते कि वह विचारवान थीं, पढ़ी लिखी किसी बुद्धिजीवी की तरह। पर नियति ने उन्हें चपरासी की बीवी बना दिया और भाग्य ने मुझे उनका साथ दे दिया। वह कहते कि मिसिराइन ने हमें सजाया-संवारा, बिखरने से बचाया। भूखे नहीं सोने दिया। अपना परिवार तो मैं बाद में लखनऊ ले आया पर पहला परिवार लखनऊ में मेरा मिसिराइन का ही परिवार बना। आगे की बातों पर लोक कवि ख़ामोश हो जाते। पर चेयरमैन साहब जैसे लोग कभी मजाक में तो कभी आरोप लगा कर कहते कि मिसिराइन के सभी बच्चे लोक कवि के ही हैं, मिसरा के नहीं। इनमें भी दो बेटियां थीं। इनकी शादी ब्याह का खर्चा बर्चा जब लोक कवि ने खुले आम उठाया तो यह बात जो दबी ढंकी थी सबके सामने आ गई। यहां तक कि मिसरा के लड़के की शादी भी धूम धाम से लोक कवि ने करवाई। इस शादी में भी लोक कवि आगे-आगे थे और मिसिर जी पीछे-पीछे। एक बार चेयरमैन साहब से बात ही बात में किसी ने पूछा, ‘मिसरा कैसे जान समझ कर ई सब बरदाश्त करता है ?’ चेयरमैन साहब जैसा मुंहफट आदमी भी इस सवाल पर चुप रह गया। बहुत कुरेदने पर वह बोले, ‘लोक कविया का यह प्राइवेट भी नहीं पारिवारिक मामला है सो मैं कुछ नहीं बोलूंगा।’ उन्होंने एक पुराना जुमला भी ठोंका, ‘पर्सनल इज पॉलिटिक्स।’ पर सवाल पूछने वाला इस जुमले को समझ नहीं पाया। और यह सवाल बार-बार दुहराता रहा। तो चेयरमैन साहब बऊरा कर बोले, ‘तो हे गांडू ई बात बार-बार हमसे काहें पूछ रहा है? गांड़ में दम है तो जा के लोक कवि या मिसरा या मिसिराइन से पूछ। हमसे जाल बट्टा फैला रहा है।’ वह आदमी तब चुप लगा गया था।
पर मिसिराइन के निधन के बाद भी लोक कवि ने मिसिराइन के यहां आना जाना नहीं छोड़ा। जब वह लखनऊ में होते तो बिना नागा सुबह शाम मिसिराइन के बच्चों के बीच ही होते। मिसिराइन के बच्चों नातियों पोतों से भी वह उसी दुलार और प्यार से पेश आते जैसे मिसिराइन से पेश आते थे।
और मिसरा जी?
मिसरा जी को न मिसिराइन के जीते जी कोई ऐतराज था न मरने के बाद ही कोई ऐतराज हुआ। अजीब ही माटी के बने थे मिसरा जी। लोग फुसफुसाते भी पर मिसरा जी के कान पर जूं नहीं रेंगती। तो लोक कवि ने भी उनके बच्चों को पढ़ाने लिखाने, पालने पोसने, बियाहने गवनने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मिसिराइन की लड़कियों तक को उन्होंने सरकारी नौकरी दिलवा दी थी। एक दामाद को भी। मिसिराइन की एक लड़की की भी दिलचस्पी गाने बजाने में थी। नौकरी लगने से पहले एक बार दबी जबान उसने भी कलाकार बनने की बात कही तो लोक कवि आग बबूला हो गए। उससे तो वह कुछ नहीं बोले पर मिसिराइन से आहिस्ता से बोले, ‘रंडी बनाना चाहती हैं क्या बिटिया को?’
तो फिर मिसिराइन ने प्रतिवाद किया, ‘सभी कलाकार तो ऐसे नहीं होते?’ वह लता मंगेशकर तक का नाम ले बैठीं। बोलीं, ‘यह लोग तो सम्मान प्राप्त हैं।’
‘कोई नहीं है सम्मान प्राप्त।’ वह बोले, ‘और फिर लता मंगेशकर तो तपस्विनी हैं। कर पाएगी तपस्या बिटिया भला ?’ लोक कवि की मंशा देख मिसिराइन चुप लगा गईं। फिर बिटिया ने भी कभी कलाकार बनने की बात नहीं उठाई।
लेकिन लोक कवि अपनी बीवी के एक बेटे को कलाकार बनने से नहीं रोक पाए। हालांकि उन्होंने अपनी बीवी के तीनों बेटों को जो जहां तक पढ़ा पढ़ाया। दो की नौकरी भी लगवा दी क्लर्क वाली। और तीसरे को वह इंजीनियर बनवाना चाहते थे। वह बी.एस.सी. तक तो पढ़ा लेकिन कलाकार बनने की धुन उसमें बीच पढ़ाई में समा गई। बहुत रोका, बहुत समझाया लोक कवि ने उसे पर वह नहीं माना। लोक कवि ने कहा भी कि, ‘बी.एस.सी. पढ़ कर भी मेरी तरह नचनिया गवैया मत बनो। केतनो आगे बढ़ जाओगे तब भी लोग तुम्हें नचनिया पदनिया से बेसी नहीं समझेंगे!’ फिर भी वह नहीं माना। पहले चोरी छुपे, फिर खुल कर सामने आ गया।
लोक कवि हार गए।
वह अपना ही गाना कोट करते और कहते, ‘जे केहू से नाईं हारल ते हारि गइल अपने से।’ फिर वह कहते, ‘तो हमहूं हार गया हूं।’ एहतियातन उन्होंने इतना जरूर कर दिया कि इस छोटे बेटे को भी सचिवालय में चपरासी की नौकरी दिलवा दी। कि अगर गाने बजाने से इसका पेट न भरे तो नौकरिया तो रहेगी। एक आदमी ने पूछा भी कि, ‘बी.एस.सी. पास था तो चपरासी की नौकरी क्यों दिलवाई?’
‘तो का कलक्टर की नौकरी दिलवाता?’ लोक कवि बोले, ‘एह बेरोजगारी में इहो नौकरी एह नचनिया गवैया को मिल गई ई का कम है। नहीं हमारे मर जाने के बाद साला भूखों मरेगा ई चिंता तो नहीं रहेगी। इसका परिवार तो कष्ट में नहीं रहेगा!’
लोक कवि का लड़का पहले लोक कवि के ही चेलों की टीम में जब तब गाता। पर बाद में जब सब कर धर कर वह हार गए और लड़का फिर भी नहीं माना तो वह बोले, ‘हमारे चेलों की नौकरी बजाता है? चलो अपनी टीम में गाओ बजाओ।’ तो वह लोक कवि की ही टीम में गाने बजाने लगा। पर बाद में गाने बजाने में कम टीम की मैनेजरी के काम में उसका मन ज्यादा लगने लगा। लड़कियों की छांट बीन में भी वह लगा। कई बार तो क्या होने लगा कि एक ही लड़की पर बाप बेटे दोनों रियाज मारने लगते। पर दोनों एक दूसरे से छुप-छुपा कर। लड़की भी बाप से पैसे ऐंठती और बेटे की जवानी भोगती। यह चर्चा भी अब कलाकारों के बीच आम हो गई थी। पर लोक कवि और उनका बेटा इन बातों पर कान नहीं देते या जान बूझ कर शुतुरमुर्ग बन रेत में सिर छुपा लेते।
कोई भी लोक कवि या उनके बेटे पर लगाम लगाने की बात करते भी डरता था। बात करे तो टीम से बाहर। इसलिए सब चुप-चुप रहते और चेयरमैन साहब की याद करते और कहते, ‘चेयरमैन साहब जो जीते होते तो वह यह अनीति रोक सकते थे।’
अब के दिनों में होने यह भी लगा कि टीम की मैनेजरी के रुतबे में लोक कवि का लड़का कलाकारों के साथ मनमानी और बदसुलूकष्ी पर भी आ गया था। धीरे-धीरे बात इतनी विस्फोटक स्थिति में आ पहुंची कि कलाकारों ने लगभग बगशवत कर एक यूनियन बना ली। घंटे और किष्लोमीटर के हिसाब से वह मेहनताना मांगने लगे। लोक कवि का दिमाग घूम गया। वह समझ गए कि असंतोष को अगर तुरंत नहीं दबाया किसी तरकष्ीब से तो धंधा तो चौपट! ऐसे समय पर उन्हें चेयरमैन साहब की याद बहुत आई कि वह होते तो कुछ तरकष्ीब जश्रूर भिंड़ाते और कुछ नहीं होता। फिर भी लोक कवि ने हार नहीं मानी। बातचीत के लिए दो तीन कलाकारों को बुलाया। पूछा कि, ‘मेरी टीम में रह कर महीने में नहीं-नहीं तो पांच सात हजशर रुपए औसत तो कमा ही लेते हो?’
‘हां, यह तो है।’’ तीनों एक साथ बोले।
‘अभी दो महीने बाद बिदेसी दौरे पर निकलना है। वहां पोरोगराम करने, आने जाने में दस बारह दिन लगेंगे। और रुपए मिलेंगे सिर्फ बीस-बीस, पचीस-पचीस हजशर तब भी चलोगे तुम लोग?’
‘बिलकुल गुरु जी!’
‘चुप्प भोसड़ी वालों।’
‘का हुआ गुरु जी?’
‘अरे जो तुम लोगों ने किष्लोमीटर, घंटे वाला रेट लगाया है उसके हिसाब से तो एक लाख से भी ज्श्यादा रुपए तुम लोगों को मुझे देना चाहिए। और एतना तो हम दे नहीं पाऊंगा।’ वह बोले कि, ‘जहाज का टिकट भी कटाऊं, वहां रहने, खाने, घूमने का बंदोबस्त भी करूं। तब तो डेढ़ लाख दो लाख में भी एक कलाकार मैं वहां नहीं ले जा पाऊंगा!’ वह बिगड़े, ‘मतलब पोरोगराम बंद कर दूं और तुम लोगों की गांड़ पर लात मार कर भगा दूं यहां से।’
‘नहीं गुरु जी!’
‘तो?’
‘अब आप ही बताइए!’
‘मैं कुछ नहीं बताऊंगा।’ वह बोले, ‘तुम लोग खुद सोच लो! मेरा क्या मैं तो ढपली बजा कर अकेले ही बिरहा गा लूंगा। तुम लोग अपनी रोजी रोटी की सोच लो!’
‘गश्लती हो गई गुरु जी! कह कर सब लोक कवि के चरणों में गिर पड़े। लोक कवि ने तीनों की पीठ थपथपाई। बोले, ‘चलो भगवान सद्बुद्धि दे तुम लोगों को। और तुम लोगों की तरह औरों को भी!’
‘जी गुरु जी!’ वह सब विनयवत बोले।
‘तुम्हीं लोग सोचो कि मैंने कितना संघर्ष और जोड़ जोगाड़ के बाद थोड़ा सा नाम दाम कमाया है, टीम खड़ी की है।’ वह बोले, ‘हम लोग कलाकार हैं, सूदखोर नहीं कि दिन के हिसाब से, घंटा और किष्लोमीटर के हिसाब से पैसा तय करें।’ वह बोले, ‘यह तो किसी भी कला में संभव नहीं है। बड़े-बड़े भी भले पैसा ज्श्यादा लेते हैं। पर खुल्लमखुल्ला ऐसा नहीं करते !’ लोक कवि पलटते हुए बोले, ‘ई कौन तुम लोगों की बुद्धि ख़राब कर रहा है? तुम लोगों के कलाकार को मार रहा है?’ तीनों इस पर कुछ नहीं बोले। एक चुप तो हजशर चुप। अंततः लोक कवि ने ही ख़ामोशी तोड़ी। बोले, ‘घर जाओ। ठंडे दिमाग से सोचो। फिर बताओ!’
तीनों चले गए।
लोक कवि यह तो जान गए कि यूनियन की नींव में यही तीनों हैं पर चुपचाप नहीं बैठे। साम-दाम, दंड, भेद सभी उपाय लगाए और चार दिन में ही यूनियन को चित्त कर इन तीनों को टीम से बाहर कर दिया।
बात ख़त्म हो गई थी। पर लोक कवि निश्चिंत नहीं हुए। और चौकन्ने हो गए। बेटे को हालां कि टीम मैनेजरी से तुरंत नहीं हटाया। बोले, ‘गश्लत संदेश हो जाएगा। सब समझेंगे कि उन की खुराफात से डर गया हूं।’ पर धीरे-धीरे बेटे को टीम मैनेजरी से यह कहते हुए अलग किया कि, ‘नौजवान हो, कलाकारी चमकाओ अपनी। रिहर्सल रियाजश् करो। स्टेज पर आओ, गाओ बजाओ!’ लड़का बेमन से ही सही पर मान गया। उसकी बादशाही धीरे-धीरे लद गई। हालांकि लोक कवि डरे हुए थे कि कहीं बेटा ही न बगशवत कर दे। जैसे अकबर के साथ सलीम ने किया था। यह बात वह खुद कहते अपने संगी साथियों से।
बाद के दिनों में उन्हों ने साथी कलाकारों को मेढकों की तरह ऐसे तौला, ऐसे चढ़ाया उतारा, ऊपर नीचे किया, पेमेंट से ले कर प्रोग्राम तक ऐसे काटा छांटा कि सभी सामान्य बन कर रह गए। कोई स्टार कलाकार, स्टार डांसर नहीं रह गया। एकाध पुराने ‘स्टार’ लोक कवि से बुदबुदाते भी कि, ‘गुरु जी अब टीम में कोई स्टार नहीं, कोई स्टार होना चाहिए!’
‘क्यों मैं स्टार नहीं हूं?’ वह कहते, ‘अब टीम में एक ही स्टार रहेगा और वह मैं रहूंगा।’ वह जोड़ते कि, ‘क्या चाहते हो कि आज स्टार बना दूं, कल को ये यूनियन बना लंे और परसों टीम को में गोमती में बहा दूं? आखि़र सब की रोजी चलानी है, अपना नाम चलाना है। ई सब कुछ डुबोना थोड़े ही है!’
‘तो अब गुरु जी आप पहले की तरह फिर से गाना गाना शुरू कर दीजिए।’ कोई पुराना चेला यह कह कर लोक कवि को आइना दिखाते, चिकोटी काटते हुए उन्हें जैसे उन की औकात बताने की कोशिश करता।
‘हे साले मैं नहीं गाता तो तुम पैदा कैसे हुए?’ उसके तंजश् को मजशक में घोलते हुए जैसे उसे जूता मारते, ‘क्या तुम्हारे बाप ने तुम्हें पैदा किया?’ वह जश्रा रुकते उसके चेहरे का भाव पढ़ते कि जूता पूरा पड़ा है कि नहीं? फिर आहिस्ता से बोलते, ‘गायकी में किसने पैदा किया है तुम्हें?’
‘आप ने गुरु जी।’ चेला हार कर अपमान पीता हुआ बोलता।
‘तो अब हम को गाना गाना चाहिए तुम बताओगे ?’
‘नहीं, गुरु जी!’
‘अरे, अब पोरोगराम में सब भड़ुवे लौंडियों की कुल्हा मटकाई और छातियों के उभार को देखने आते हैं तो वहां मैं का गाना गाऊं? कोई सुनेगा भला?’ वह बोलते, ‘लेकिन साल मंे चार-छ ठो कैसेट आते हैं उनमें तो गाता हूं। उन्हीं गानों को किसी और से हिंदी में लिखवा कर गोविंदा जैसा हीरो सुन कर नाचता है तो ई का है? अरे ससुरे समझो कि मैं ही गाता हूं। पर तुम लोग साले शोर मचा दिए हो कि गुरु जी अब नहीं गाते!’ वह दहाड़े, ‘कैसे नहीं गाता हूं!’
‘तो गुरु जी आप का वीडियो एलबम या सीडी क्यों नहीं है मार्केट में?’ सुन कर क्षण भर के लिए निरुत्तर हो जाते लोक कवि। लेकिन दूसरे ही क्षण बोलते, ‘इस लिए कि हम अमीरों के लिए नहीं, गश्रीबों के लिए गाता हूं। क्यों कि भोजपुरी गश्रीबों की भाषा है। और गश्रीब सी.डी., वीडियो नहीं देखता, सुनता।’ फिर वह धीरे से कहते, ‘लेकिन घबराओ नहीं अनुपवा लगा है। कुछ करेगा।’
‘लेकिन कब?’
‘अब देखो कब करता है?’ कहते हुए लोक कवि लगभग हताश हो जाते।
‘ऊ अनुपवा चार सौ बीस के चक्कर से छुट्टी ले लीजिए गुरु जी!’
‘काहें?’
‘आप को बिकवा देगा।’ कोई चेला बोलता, ‘ऊ आप को बेच रहा है।’
‘बहुत लोग बेच चुके हम को। लेकिन हम नहीं बिके।’ वह कहते, ‘थोड़ा उसको भी बेच लेने दो।’ कह कर वह बइठकी बर्खास्त कर देते।
पर उन की चिंताएं बर्खास्त नहीं होतीं। सच यही था कि उन का नाम भोजपुरी गायकी में अभी भी शिखर पर था। आस पास तो छोड़िए कोई दूर दराज तक उन की लोकप्रियता को छूता दिखाई नहीं देता था। तो भी उन की गायकी पर अब पूर्ण विराम न सही, विराम तो लग ही गया था। यह सचाई वह भी महसूस करने लगे थे। फिर बिहार में पैदा हुआ बनारस में पढ़ा लिखा एक ब्राह्मण गायक बड़ी तेजश्ी से भोजपुरी गायकी में बढ़त ले रहा था। वह लड़कियों को अपने कार्यक्रम में नहीं नचाता था और अकेले ही गाता था, उसकी आवाजश् में भी भोजपुरी वाली मिठास बसी थी, पर वह देवी गीतों, फिष्ल्मी पैरोडियों पर जश्रा ज्श्यादा ही आश्रित था सो लोक कवि उस से ज्श्यादा ¯चतित नहीं रहते पर निश्चिंत भी नहीं थे। कोई इस बात को छेड़ता तो लोक कवि कहते, ‘बहुत भंवर हमारी राह में आए और देखते-देखते नदी में विलीन हो गए। कुछ नहीं हुआ हमारा।’ वह कहते, ‘ई नहीं कि भोजपुरी गाना हम से अच्छा गाने वाले लोग नहीं हैं, हम से बहुत अच्छा गाने वाले भी थे, अभी भी कुछ जिंश्दा हैं, पर मार्केट ने उन को रिजश्ेक्ट कर दिया। पर हम बरसों से मार्केट में हूं। तो ई भगवान की बड़ी कृपा है। बाकी भोजपुरिहों का प्रेम है। जो हमारा गाया गाना सुनते हैं।’ वह ‘नथुनिया पे गोली मारे’ गीत का जिश्क्र करते। कहते, ‘जवानी में हमने ई गाना गाया था, हमारे एक पुराने कैसेट में मिल भी जाएगा। लेकिन पटना के एक गायक ने कुछ साल पहले यही गाना चोरी करके ‘फास्ट’ करके गा दिया। मार्केट में उठ गया ई गाना। हमारी तो नींद हराम हो गई। एतना उठा ई गाना कि हमरै गाना, हमारी नींद उड़ा गया। लगा कि अब मैं मार्केट से आउट हो गया। पर लाज बच गई ऐसा नहीं हुआ। भगवान की कृपा। पर एही गाना ‘अंखियों से गोली मारे’ बनि के गोविंदा पर नाच गया। अब कहां है ऊ पटना वाला गायक कोई जानता है?’ लोक कवि कहते, ‘पर मैं तो कहीं नहीं गया। खड़ा हूं आप के सामने।’ हां, लोक कवि को इस बात पर मलाल जश्रूर बना रहता कि वह मार्केट में तो हैं पर गाने में नहीं।
दिल्ली में एक पत्राकार उन से पूछ भी रहा है कि, ‘आप अब गाते क्यों नहीं?’
‘गाता तो हूं?’ लोक कवि जवाब देते हैं, ‘अभी इसी रात आप के सामने गाया हूं।’
‘वह तो पुराना गाना गाया आप ने। और आप ने कम आप की टीम के लोगों ने ज्श्यादा गाया।’
‘तो आप इंटरव्यू हम से क्यों ले रहे हैं ? टीम से लीजिए न।’
‘इस लिए इंटरव्यू ले रहा हूं कि आप अपनी टीम में भी बड़े गायक हैं।’
‘मानते हैं आप बड़ा गायक?’ लोक कवि हाथ जोड़ कर प्रति प्रश्न करते हुए कहते हैं, ‘चलिए आप की बड़ी कृपा!’
‘हां, तो आप से मैं पूछ रहा था कि अब आप गाते क्यों नहीं हैं?’
‘गाता हूं!’ लोक कवि गंभीर हुए हैं और बोले हैं, ‘गाता हूं पर वहां जहां हमें ठीक से सुना जाता है।’
‘कहां ठीक से सुना जाता है आप को?’
‘बिदेस में, कैसेटों में, आकाशवाणी, दूरदर्शन और सरकारी पोरोगरामों में। जहां दो चार गाने ही गाने होते हैं।’ लोक कवि हताश मन से लेकिन उत्साहित स्वर में कहते हैं। फिर थोड़ी तल्ख़ी घोलते हुए कहते हैं, ‘लेकिन वीडियो अलबम और सीडी में नहीं गाता!’ और जैसे जोड़ते हैं, ‘गरीब मजूर की भाषा का गायक हूं न!’
‘ख़ैर बात मैं मंचों की कर रहा था कि पहले तो आप ऐसे मंचों पर भी बहुत गाते थे। जनता जनार्दन के गायक आप हैं ही। शायद इसीलिए आपको लोक कवि नाम भी दिया गया।’
‘ठीक कह रहे हैं।’ लोक कवि बोले, ‘आप विद्वान आदमी हैं, सब जानते हैं।’
‘लेकिन यह मैं नहीं जान पा रहा हूं कि आप अब जनता जनार्दन के मंचों पर क्यों नहीं गाते ? आप खुद बताएंगे ?’
‘जवाब बहुत मुश्किल है।’ लोक कवि कहते हैं, ‘जवाब दे सकता हूं पर माफ कीजिए मेरा जवाब देना इस मसले पर ठीक नहीं होगा!’ वह कहने लगे, ‘भोजपुरी समाज को ही यह जवाब ढूंढ़ने दीजिए।’ फिर वह जोड़ते हैं, ‘हालांकि इसकी भी किसे फुर्सत है?’
इंटरव्यू ख़त्म कर लखनऊ वापस जाने के लिए लोक कवि मय अपनी टीम के नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हैं। वह सोच रहे हैं कि लड़कियों का डांस कितना भारी पड़ रहा है उनको? पहले तो पोरोगरामों में लड़कियों का डांस दो वजहों से रखते थे। एक तो खुद को सुस्ताने के लिए दूसरे, पोरोगराम को थोड़ा ग्लैमर देने के लिए। पर अब? अब तो लड़कियां जब सुस्ताती हैं तो लोक कवि को गा लेने का मौका मिलता है। पहले लड़कियां फिलर थीं, अब वह खुद फिलर हो गए हैं। उनका मन होता है कि गाएं, ‘आव चलीं, ददरी क मेला आ हो धाना!’ और उन्हें बरबस धाना की याद आ जाती है। पर आयोजक बब्बन यादव जो लोक कवि के जनपद के ही हैं दिल्ली में ठेकेदारी और लीडरी दोनों करते हैं साथ ही खड़े हैं। कार्यक्रम की सफलता से पागल हैं। स्टेशन पर वह भी हैं। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं है। चार छ पेग दारू भी उनकी देह में है। सो सफलता का उत्साह पूरे ज्वार में है। वह भीड़ भरे स्टेशन पर अकेले चिल्ला कर अचानक उदघोष करते हैं, ‘लोक कवि जिंदाबाद !’ वह दो चार बार ऐसे ही जिदाबाद चिल्लाने के तुरंत बाद लोक कवि के कान में फुसफुसाते हैं, ‘लेकिन पिंकी कहां है?’ लोक कवि बब्बन यादव का फुसफुसाना पी जाते हैं और साथी कलाकारों को आंखों-आंखों में इशारा करते हैं कि पिंकी को ट्रेन में कहीं, या भीड़ में कहीं छुपा दिया जाए। ट्रेन प्लेटफार्म पर आ कर लग भी गई है। लेकिन लोक कवि विचलित से प्लेटफार्म पर खड़े हैं कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाए। पिंकी को ले कर।
पिंकी लोक कवि के टीम की नई डांसर है। युवा है, कमसिन है और सेक्सी डांस में निपुण। उसकी इसी निपुणता से बब्बन यादव घायल हैं और बउराए हुए हैं। वह एक साथ दहाड़ और फुसफुसा दोनों रहे हैं, ‘लोक कवि की जय हो ! लेकिन पिंकी कहां है?’
लोक कवि स्तब्ध हैं, क्षुब्ध भी। साथ ही शर्म में डुबे हुए भी। सोचते हैं कि जो वह पत्रकार यहां इस नई दिल्ली स्टेशन पर मिल जाता तो उसे बुला कर वह यह मंजर दिखाते कि, ‘लोक कवि जिंदाबाद ! लेकिन पिंकी कहां है ?’ और बताते कि वह अब क्यों नहीं गाते हैं?
बब्बन यादव जैसे लोग उन्हें गाने देते हैं कहीं ?
यह सोच कर वह शर्म से सिर और नीचे कर लेते हैं। लेकिन बब्बन यादव का नारा और फुसफुसाना चालू है, ‘लोक कवि जिंश्दाबाद! लेकिन पिंकी कहां है?’
लोग आते जाते चौंक कर बब्बन यादव और लोक कवि को देख भी लेते हैं। लेकिन लोक कवि खुद से ही यह सवाल करते हैं कि भोजपुरी बिरहा में यह लड़कियों की फसल मैंने ही बोई है तो काटेगा कौन? वह जवाब भी देते हैं खुद ही को कि, मैं ही काटूंगा। हालां कि बब्बन यादव रह-रह फिर भी चिल्लाए जा रहे हैं, ‘लोक कवि की जय!’ और पलट कर लोक कवि के कान में फुसफुसा रहे हैं, ‘लेकिन पिंकी कहां है?’
तो क्या यह सिर्फ बब्बन यादव का शराब पी कर बहकने का अंदाज भर है? या लोक कवि के येन-केन-प्रकारेण मार्केट में बने रहने का दंश है?
लोक कवि अपनी सफलता की, इस मार्केट रूपी द्रौपदी को जीत कर भी हारा हुआ सा, ठगा हुआ सा महसूस करते हैं। प्लेटफार्म पर खड़े हैं ऐसे गोया उन्हें काठ मार गया हो। यह विचारते हुए कि क्या वह सचमुच ही अब नहीं गाते? मार्केट की द्रौपदी ने उनकी गायकी को दूह लिया है? नई दिल्ली स्टेशन के इस प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े लोक कवि को लगता है कि अब वह द्रौपदी को जीतने वाले अर्जुन की भूमिका छोड़ द्रौपदी को जुए में हार जाने वाले युधिष्ठिर की भूमिका में आ गए हैं। लोक कवि यह सब अभी सोच ही रहे हैं कि उनका एक चेला उन्हें लगभग झिंझोड़ते हुए कहता है, ‘गुरु जी डब्बे में चलिए, ट्रेन अब खुलने ही वाली है!’
वह चिहुंकते हुए ट्रेन में चढ़ जाते हैं। ट्रेन सचमुच खुल गई है।
वह अपनी बर्थ पर जा कर लेटे हैं। ऊपर की बर्थ पर पिंकी उन्हें सुरक्षित दिख गई है। वह लगभग निश्चिंत हो गए हैं। क्योंकि बब्बन यादव तो प्लेटफार्म पर ही खड़े थे, जब ट्रेन चलने लगी थी।
लोक कवि ने आंखें बंद कर लीं हैं और निष्चेष्ट लेटे अपने ही से भीतर-भीतर पूछ रहे हैं, ‘भोजपुरी कहां है?’ ठीक वैसे ही जैसे बब्बन यादव पूछ रहे थे, ‘पिंकी कहां है?’ वह अपने आप से ही पूछ रहे हैं, ‘भोजपुरी कहां है?’ वह देख रहे हैं कि पिंकी तो सुरक्षित है पर क्या भोजपुरी भी सुरक्षित है? वह अपने आप से ही फिर पूछते हैं। पर तुरंत कोई जवाब नहीं दे पाते अपने आप को भी। वह बर्थ पर लेटे-लेटे ही करवट बदल लेते हैं। और अपने ही पुराने गाने को लगभग बुदबुदाते हैं, ‘जे केहू से नाई हारल, ते हारि गइल अपने से।’
लोक कवि सचमुच अपने आप से ही हार गए हैं।
लेकिन ट्रेन है कि चलती जा रही है बिना किसी से हारे धड़धड़–धड़धड़!
….समाप्त….
उपन्यासकार दयानंद पांडेय से संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
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पंकज झा.
March 10, 2011 at 7:04 pm
अद्भुत शिल्प और शैली के मालिक हैं दयानंद जी. गज़ब सुन्दर और प्रवाहमय भाषा. हालांकि सही है या गलत यह कहना मुश्किल है लेकिन लोककवि की तरह ही दयानंद जी को भी मालूम है कि सेक्स की जीवंत विवरण किये बिना इनका ‘पोरोगराम’ भी चलने वाला नहीं. फ़िर ये भी सोचता हूं कि इसमें उनको दोष क्या दिया जाय? शायद ही यह टिप्पणीकार भी समूचा उपन्यास एक सांस में पढ़ पाता अगर इसमें इस तरह सेक्स की छौंक नहीं होती तो. बहरहाल लोककवि के दुखद पीड़ा पर नज़र डालते हुए पांडे जी आप्नेअगले कृति में सेक्स को फीलर की तरह ही इस्तेमाल करें और विषय वस्तु ही फीलर न बन जाय इसका ध्यान रखेंगे तो इनके सृजन की यात्रा भी ट्रेन की तरह ही चलती रहेगी धरा-धर, धरा-धर…बधाई एवं साधुवाद एक अच्छी रचना के लिए.
सत्यप्रकाश "आजाद"
March 11, 2011 at 4:07 am
ये बार-बार ठाकुर पत्रकार लिखना जरूरी था??….ये ठाकुर कब तक यूँ ही बदनाम होते रहेंगे………..
Rajesh Rai Kushinagar
March 11, 2011 at 12:00 pm
आप नॆ जॊ भी लिखा बहुत आनन्द् आया पर सॆक्स कॆ बारॆ मे कुछ ज्यादा लिख दिया, आप नॆ इतना सब कैसॆ जाना, और चॆयरमैन साहब तथा पत्रकार जी कौन है जरा इनका परिचय दीजीयॆ.
Pankaj Sangwan
November 16, 2011 at 9:07 pm
Mast likha hai pandey ji, ati sundar