: एक पुराना इंटरव्यू : 27 जून को महान पत्रकार एसपी सिंह की 14वीं पुण्यतिथि है. कुछ ही दिनों में 27 जून आ जाएगा. एसपी की याद में हम यहां उनसे लिया गया आखिरी इंटरव्यू प्रकाशित कर रहे हैं. यह इंटरव्यू अजीत राय ने लिया. इसका प्रकाशन 15 जून 1997 को जनसत्ता में हुआ था.
इस इंटरव्यू में एक सवाल के जवाब में एसपी सिंह ने टीवी के बारे में कहा है कि यहां लफ्फाजी और छल की गुंजाइश नहीं. आलस्य व मिथ्या पत्रकारिता यहां नहीं चल सकती जैसा कि कुछ लोग अनजान सूत्रों के हवाले से कुछ भी लिखते रहे हैं… एसपी के इस कथन को टीवी ने झुठला दिया है और दिखा दिया है कि टीवी में भी लफ्फाजी और छल की गुंजाइश है. यहां भी आलस्य व मिथ्या पत्रकारिता धड़ल्ले से चल रही है. लोग अनजान सूत्रों की जगह यूट्यूब के हवाले से कुछ भी दिखा दे रहे हैं. पर एसपी का कथन उस दौर के लिए जरूर प्रासंगिक था जब टीवी न्यूज की शुरुआत हुई और उस शुरुआती दौर में आदर्श व सरोकार पूरी तरह टीवी पर तारी था. एसपी के चेलों ने एसपी के गुजरने के बाद आदर्श व सरोकार के झीने आवरण को फाड़ डाला और शुरू कर दिया नंगा ब्रेक डांस. एसपी को याद करने के बहाने अगर टीवी न्यूज पर एक सार्थक बहस की शुरुआत हो सके तो हम सभी के सेहत के लिए फलदायी होगा. -यशवंत, एडिटर, भड़ास4मीडिया
- आप प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्राँनिक मीडिया में आ गए हैं। अपनी उपस्थिति में कैसा अंतर पाते हैं?
किसी माध्यम या संस्थान में निजी उपस्थिति का कायल मैं कभी नहीं रहा। मैंने जहां भी काम किया, टीम वर्क की तरह काम किया। अखबार में भी जब मैं था तो पहले पन्ने पर दस्तखत करके कुछ भी लिखकर छपने की वासना मुझमें नहीं रही। हिंदी में तो इसकी परंपरा ही रही है। मैं भी चाहता तो ऐसा अक्सर कर सकता था। अब टेलीविज़न के लिए काम करना मुझे रास आ रहा है। बतौर प्रोफेशन मैं यहां पहले से ज्यादा संतुष्ट हूं क्योंकि यहां लफ्फाजी और छल की गुंजाइश नहीं है। आलस्य और मिथ्या पत्रकारिता यहां नही चल सकती। जैसा कि कुछ लोग अनजान सूत्रों के हवाले से कुछ भी लिखते रहे हैं। यहां तो आप जो कुछ भी टिप्पणी करते हैं, उसे दिखाना पड़ता है। ये बात अलग है कि यहां ग्लैमर ज्यादा है।
- आजकल हिंदी अखबारों पर संकट की हर जगह चर्चा हो रही है। आपको क्या लगता है ?
ये उनके घोर अज्ञान की अभिव्यक्ति है। हिंदी पत्रकारिता का स्वर्ण युग चल रहा है। हिंदी और भाषाई अखबारों की पाठक संख्या, पूंजी, विज्ञापन और मुनाफा लगातार बढ़ रहा है। हां, इस वृद्धि के बरबस उनके समाचार – विचार के स्तर को लेकर आप चिंतित हो सकते हैं। पर ये सब समय के साथ ठीक हो जाएगा। दूसरी ओर आज, दैनिक जागरण, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर सहित अनेक क्षेत्रीय अखबार अपना विकास कर रहे हैं। जयपुर में भास्कर और पत्रिका की प्रतियोगिता से कीमतें नियंत्रित हुई हैं। गुणवत्ता भी सुधर जाएगी। सच तो ये है कि हिंदी पत्रकारिता अपने पैरों पर खड़ी हो रही है। हालांकि पेशे के रूप में अभूतपूर्व वृद्धि के कारण हिंदी पत्रकारिता में बड़ी मात्रा में खर – पतवार आ रहे हैं। लेकिन ये स्थिति स्थाई नहीं होगी।
- इसी संदर्भ में कहा जा रहा है कि हिंदी अखबारों की विश्वसनीयता घट रही है।
भारतीय समाज में तुलसीदास के समय से ही त्राहि-त्राहि का भाव व्याप्त रहा है। पिछले 150 सालों से तो ये रोना और तेज हुआ है। हर आदमी बताता फिर रहा है कि संकट काल है। कम – से – कम मैं इस सामूहिक विलाप में शामिल नहीं हूं। भारतीय संस्कृति मूलत विलाप की संस्कृति रही है। नरेंद्र मोहन अखबार की बदौलत राज्यसभा पहुंच गए तो बड़ा शोर हो रहा है। 1952 से ही ये सब हो रहा है।
- पत्रकारिता के मिशन बनाम प्रोफेशन होने पर भी बहस हो रही है। आप क्या सोचते हैं?
सरकारी सुविधाएं और पैसे लेकर निकलनेवाले अखबारों की सामाजिक प्रतिबद्धता क्या है? ये एक फरेब है, जो हिंदी में ज्यादा चल रहा है। पत्रकारिता कस्बे से लेकर राजधानी तक दलाली और ठेकेदारी का लाइसेंस देती है। मैंने किसी मिशन के तहत पत्रकारिता नहीं की। मेरी प्रतिबद्धिता अपने पेशे यानी पत्रकारिता के प्रति है। आजादी की लड़ाई के दौरान पत्रकारिता मिशन थी। इसलिए वस्तुपरक भी नहीं थी। मिशन की पत्रकारिता हमेशा सब्जेक्टिव होती है। यदि कोई पार्टी, संस्थान, आंदोलन मिशन की पत्रकारिता करे तो समझ में आती है। लेकिन नवभारत टाइम्स, जनसत्ता या हिंदुस्तान क्यों मिशन की पत्रकारिता करे?
- मीडिया में वर्चस्व की संस्कृति को लेकर कुछ राजनेताओं ने अच्छा खासा विवाद खड़ा कर दिया है। कांशीराम द्वारा पत्रकारों की पिटाई का मामला ताजा उदाहरण है। आपने इससे अपने आपको अलग क्यों कर लिया?
उसमें जातिवादी ओवरटोन ज्यादा था। इसलिए मैं अलग हो गया। यदि आप इस पेशे में आए हैं, तो इसकी पेशागत परेशानियों का सामना करें। वरना कोई अतिसुरक्षित पेशा चुन लें। कल्पना कीजिए यही काम किसी सवर्ण ने किया होता तो क्या ऐसा ही विरोध होता? सवर्ण पत्रकारों ने इस घटना को दलित नेता को जलील करने के एक अवसर के रूप में इस्तेमाल किया। मीडिया में प्रच्छन्न सवर्ण जातिवादी वर्चस्व है। उत्तर भारत में तो अधिकतर अखबारों में सांप्रदायिक शक्तियां ही हावी हैं। पिछड़ों को सबक सिखाने का भाव आज भी ज्यादातर महान किस्म के पत्रकारों की प्रेरणा बना हुआ है। ये वर्चस्व चूंकि समस्त भारतीय समाज में है, इसलिए मीडिया में भी है।
- साहित्य और पत्रकारिता के रिश्तों पर आपकी टिप्पणियां खासा विवाद पैदा करती रही हैं। क्या आप अब भी ऐसा मानते हैं कि साहित्यकारों ने पत्रकारिता में घालमेल कर रखा है?
भाषा की बात छोड़ दें तो विषयवस्तु या विचार के स्तर पर किसी भी साहित्यकार संपादक ने हिंदी पत्रकारिता को कोई ज्यादा मजबूत किया , ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन ये भी सच है कि आज हिंदी पत्रकारिता की अपनी भाषा बन रही है। सारी दुनिया में पत्रकारिता की भाषा को साहित्य ने अपनाया है। हमारे यहां उलटी गंगा बहाने की कोशिश होती रही। इसे दुराग्रह नहीं तो क्या कहेंगे कि पत्रकारिता की भाषा को साहित्यिक बना दिया जाए। आप बेशक जैसी मर्जी वैसी साहित्यिक पत्रकारिता करें। लेकिन बजट और विदेश नीति पर पत्रकारीय लेखन में आपकी दखलअंदाजी क्यों ? प्रिंट मीडिया के लिए भाषा और शैली की जरूरत है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि किसी बड़े विद्वान पंडित या साहित्यकार को संपादक बना दें। हिंदी में अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि पत्रकारिता में साहित्य को तरजीह नहीं दी जाती। आप बताइए कि संसार के किस भाषा की पत्रकारिता में साहित्यिक खबरें प्रमुख रहती हैं। खबरों में बने रहने की ईच्छा वैसी ही वासना है , जैसा कि राजनेता पाले रखते हैं।
- ऐसा कह कर आप पत्रकारिता के लिए साहित्य के महत्व को रद्द तो नहीं कर रहे हैं? क्या आप रघुवीर सहाय, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा और अन्य अनेक साहित्यकारों के पत्रकारीय योगदानों को स्वीकार नहीं करते?
देखिए, एक बात साफ कर दूं कि मैं इन लोगों के प्रति बहुत श्रद्धा रखता हूं। साहित्य पढ़ना मेरी आदत है। जो लोग कविता लिखते हैं, वो बहुत कठिन और बड़ा काम करते हैं। मुझे खुद इस बात का अफसोस रहता है कि मैं कविताएं नहीं लिख पाता। ये मेरी असमर्थता है। लेकिन ये लोग सिर्फ अच्छे साहित्यकार होने की वजह से संपादक नहीं बने। ये लोग अपने समय के श्रेष्ठ पत्रकार थे। ये उस दौर में सामने आए, जब हिंदी पत्रकारिता दोयम दर्जे के हाथों में था। इन लोगों ने इसे नया चमकदार चेहरा दिया। साहित्य सृजन की एक श्रेष्ठ विद्या है। जैसे चित्रकला, अभिनय, गायन, नृत्य आदि। फिर आप बहुत बड़े डॉक्टर, इंजीनियर, नेता, वकील या कुछ भी हों पर इसका मतलब ये नहीं कि आपको संपादक बना दिया जाए। महज इसलिए कि आप उस भाषा में लिखते हैं, जिसमें अखबार निकलता है।
इस इंटरव्यू को भड़ास4मीडिया तक पहुंचाने के लिए हम अजीत राय के आभारी हैं. अगर आपके पास भी एसपी से जुड़ी कोई याद, तस्वीर, रचना हो तो हम तक [email protected] के जरिए पहुंचा सकते हैं.
PUSHPENDRA MISHRA
June 24, 2011 at 1:53 pm
Yashwant ji thik kaha aapne. nae avishkaro me sada hi ham sakaratmak paksh ko sarahte hai per durgami dushparinam nahi sochate,,, jo ki aap telivision patrakarita me espast roop se charitarth hota hai…….khoob kaha aapne ……..puri tarah se sahmat hu mai aapse……………………..
rajkumar sahu, janjgir chhattisgarh
June 24, 2011 at 7:04 pm
rochak interview. sansmaran, sp singh ji ko shraddhanjali.
santosh kumar
July 19, 2011 at 1:13 pm
yaswant ji,mai inki patrakarita me uthe sawal se mai sahmat hu.,kyuki mai muzaffarpur me 10 years se electronic media me patrakarita kar raha hu,or higher digree bhi hasil kar rakhi hai,lakin yaha patrakarita me chand aise log hai jo jatiwad ki mansikta se ubrna chahte hi nahi.unki soch samajhit or deshhit ki patrakarta dikhti hi nahi.sirf apne swarth ki patrakarita karte hai.or aise log is profession se jude hue hai jinper murder,rape,harijan act hai.aise logo ko benakab karne ka abhiyan chalaye.mai too laga hua hu. bahut bahut dhanyawad. santosh
satyavart
August 22, 2011 at 7:50 am
aaj samachar patro kay andar jati vad ek dimak ki tarh panap chuka hai may swyam isae bugat chuka ho rohtak office may danik jagran karyalya may kuch dino pehalay mere sang bhi aisa hi hua jaha mujay nukari chodnay kay liae vivas kiya gaya or wo log kamyab bhi hoae
satyavart
reporter aaj samaj danik jagran