सूचना अधिकार कार्यकर्ता मनीष सिसोदिया ने ‘अपना पन्ना’ (सूचना अधिकार की मासिक पत्रिका) के माध्यम से सूचना अधिकार की लोकप्रियता और इसके मार्ग में बाधा को लेकर एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण से यह बात सामने आई कि देश भर में सूचना के अधिकार की शक्ति से जन-जन को परिचित कराने में मीडिया ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सर्वेक्षण में 54 फीसदी लोगों ने माना कि उन्हें सूचना अधिकार कानून की जानकारी प्रिंट मीडिया से हुई। अर्थात अखबार और पत्रिकाओं ने उन्हें इस कानून से परिचित कराया। 09 फीसदी लोगों को इस कानून के संबंध में पहली जानकारी टीवी से प्राप्त हुई। 09 फीसदी लोग ऐसे भी थे, जिन्हें रेडियो ने बताया कि सूचना का अधिकार है क्या? 13 फीसदी लोगों को इसकी जानकारी किसी स्वयं सेवी संस्थान और 13 फीसदी लोगों को यह जानकारी मित्रों और सगे संबंधियों से मिली।
सिसोदिया के अनुसार सर्वे के परिणाम से दो बातें बिल्कुल साफ होती हैं। एक तरफ जहां आम जनता आरटीआई कानून की मदद से भ्रष्टाचार पर कारगर तरीके से नकेल कसने का प्रयास कर रही है तो दूसरी तरफ सरकार में बैठे भ्रष्ट अधिकारी, नेता, ठेकेदार मिल कर कानून की धार को कुन्द करने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। अब देखना यह है कि जीत किसकी होती है? पारदर्शिता के जुड़ा हुआ ही एक दूसरा प्रश्न भी है, जो आजकल सूचना अधिकार के कानून के साथ काम कर रहे कार्यकर्ताओं और संगठनों के लिए बड़ा सवाल होगा। जिस पारदर्शिता की उम्मीद हम सरकार से करते हैं, वह पारदर्शिता उन संगठनों और व्यक्तियों को भी अपने जीवन, व्यवहार और काम काज में लाना चाहिए। इससे वे आम जन का विश्वास जीत पाएंगे। यह विश्वास उस समय बहुत काम आएगा, जब कोई सरकारी अधिकारी किसी सूचना अधिकार कार्यकर्ता को झूठे मुकदमे में फंसाने की कोशिश करेगा।
इसी वजह से सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल कर, सूचना निकालना मानो जंग लड़कर, जंग जीतने के बराबर है। ऐसी ही एक जंग बिहार, बक्सर के भाई शिवप्रकाश राय ने जीती। उन्होंने जिले के करीब 70 बैंकों से प्रधानमंत्री रोजगार योजना के अन्तर्गत कृषि उपकरणों पर अनुदान संबंधी सूचना मांगी थी। बदले में जिलाधिकारी ने उनपर झूठा मुकदमा चलाया। जिसकी पुष्टि एसपी, बक्सर की जांच रिपोर्ट से होती है। जिसमें उन्होंने राय को बेकसूर पाया। जिसकी वजह से 29 दिन जेल की सजा काटने के बाद वे बाइज्जत बरी कर दिए गए। शिवप्रकाश राय ने अपने काम काज और जीवन में जो पारदर्शिता बरती है, उसी की वजह से यह फैसला उनके हक में आया। शिवप्रकाश राय के मामले में बिहार सूचना आयोग की पूर्ण पीठ ने बक्सर के जिलाधिकारी को 15,400 रुपए उन्हें यात्रा व्यय के एवज में देने का आदेश दिया। शिवप्रकाश राय सिर्फ एक व्यक्ति का नाम है, जो बक्सर में एक संस्था की तरह काम कर रहे हैं। आज भी वे लगातार सूचना अधिकार को लेकर सक्रिय हैं।
बात को आगे बढ़ाने से पहले एक कहानी। यह कहानी हो सकता है, आपने पहले कहीं सुनी होगी, जिसमें एक बच्चे को सात दिनों बाद बुलाकर महात्मा गांधीजी सिर्फ ईमली ना खाने का आग्रह इसलिए करते हैं, क्योकि जब वह पहली बार आया था उस वक्त तक वे खुद भी ईमली बड़े चाव से खाते थे। गांधीजी का मानना था यदि किसी को संयम की सीख देनी है तो यह संयम पहले खुद से ही शुरू होना चाहिए। यही बात सूचना के अधिकार कानून पर भी लागू होनी चाहिए। हाल में ही एक सूचना अधिकार कार्यकर्ता अफरोज आलम ने आधे दर्जन से अधिक सूचना अधिकार पर काम करने वाले संगठनों को एक पत्र लिखा, जिसमें उसने अपने कुछ सवाल दर्ज किए और साथ में दस रुपए का पोस्टल ऑर्डर भी लगाया। मतलब साफ था, वह उन लोगों से सूचना के अधिकार के अन्तर्गत सवाल पूछना चाहता था, जिनपर सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 लागू नहीं होता। तर्क स्पष्ट था, यदि कोई संगठन सूचना के अधिकार और पारदर्शिता की बात करता है तो उसे यह पारदर्शिता अपने संगठन से शुरू करनी चाहिए। हर बात के लिए यह जरूरी तो नहीं कि कानून का पेंच मौजूद ही हो। कुछ बातें नैतिकता के मानदंड पर भी तो तय होनी चाहिए।
वैसे सवाल का जवाब उन सभी संगठनों की तरफ से आया, जिनसे सवाल पूछे गए थे। दिलचस्प यह था कि सवाल जितने बेबाक और बेलाग थे, जवाब उतने ही गोलमोल तरीके से लिखे गए थे। मसलन अधिकांश संस्थानों से आए जवाबों का सार यही था कि हम आपके सूचना के अधिकार की अर्जी का हार्दिक स्वागत तो करते हैं, लेकिन हम पर सूचना अधिकार अधिनियम 2005 लागू नहीं होता। दो-तीन संगठनों ने जवाब के लिए अपनी वेबसाईट देखने की बात की लेकिन सवाल के बावत वहां कोई जानकारी नहीं मिली।
अफरोज द्वारा संगठनों से कुल आठ से दस सवाल पूछे गए थे। मसलन संस्था की स्थापना कब और क्यों की गई? स्थापना का उद्देश्य क्या था? पिछले तीन वर्षों में संस्था द्वारा कितने और कब कब कार्यक्रम आयोजित किए गए, पिछले तीन वर्षों में संस्था को कहां-कहां से कितनी राशि फंड के रुप में मिली है? पिछले तीन वर्षों में संस्था के लोगों ने कहां-कहां की यात्राएं की और इस पर आने वाले खर्च का ब्योरा क्या है? इस तरह के सवाल का जवाब देना एक दो संस्थाओं को छोड़कर लगभग सभी के लिए मुश्किल हो रहा था। इसलिए उन्होंने जवाब देना मुनासिब नहीं समझा।
जिन संगठनों से सवाल पूछे गए थे, उस सूची में राजस्थान के राजसमन्द जिले के देवडूंगरी की भी एक संस्था थी, ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन।’ इस संगठन द्वारा जो जवाब दिया गया, वह वास्तव में काबिले तारीफ ही नहीं काबिले गौर भी है। यहां उल्लेखनीय यह भी है कि संस्था ने दस रुपए का पोस्टल ऑर्डर वापस नहीं किया और सभी सवालों का विस्तार से जवाब दिया। उन्होंने जवाब में यह दलील भी नहीं दी कि वे सूचना के अधिकार कानून के अंदर नहीं आते। संगठन से आए पत्र की शुरुआत कुछ इन शब्दों में थी-
‘ आपका आवेदन हमें प्राप्त हुआ। पत्र पढ़ते ही हमें बहुत अच्छा लगा कि आपने संगठन से सूचनाएं मांगी हैं। आपके पत्र का हम स्वागत करते हैं और निम्नलिखित सूचनाएं बिन्दुवार भिजवा रहे हैं।’ उसके बाद एक एक करके मांगी गई सभी सूचनाओं के जवाब विस्तार से दिए गए हैं। सूचना के अधिकार पर काम करने वाले संगठनों के लिए ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ एक आदर्श संगठन हो सकता है। वास्तव में यदि कोई संगठन व्यवस्था में पारदर्शिता की मांग करता है, तो यह बेहद जरुरी है कि वह सबसे पहले अपने काम काज के तरीके में पारदर्शिता लाए। वह खुद को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर नहीं बल्कि अंदर माने।
लेखक आशीष कुमार अंशु इंडिया फाउंडेशन फॉर रूरल डेवलपमेंट स्टडीज से जुड़े हुए हैं.
Dr Sunil
December 25, 2010 at 9:30 am
ASHISH ne achha vishleshan kiya hai… Badhaai…