: कुबराडीह की चिट्ठी गणतंत्र के नाम : हां, प्यारे गणतंत्र, तुम्हारे समृद्धि के ये वाहक विश्वनाथ, सिंगारी और गंगिया पिछले कुछ सालों में बेकारी और भूख से मर गये : मेरे प्यारे गणतंत्र, एक बात जरूर याद रखना… गांवों से अगर तुमने रिश्ता तोड़ा है तो सूट तुम भले ही जितने अच्छे पहन लो लेकिन तुम्हारी पीठ पर कुबराडीह का कूबड़ हमेशा दिखाई देता रहेगागा, वैसे, सालगिरह की फिर बधाई… :
प्यारे गणतंत्र, सालगिरह मुबारक। वैसे तो यह दिन तुम्हें दूसरी दुनिया में ले जाता है। चांद सितारों की दुनिया में खूब सारे बैंड, ढोल ताशे, नृत्य गीत, बड़ी तोपों की सलामी और हवाई जहाज पर जांबाजों के करतब। राष्टपति का संदेश। नए हथियारो की प्रदर्शनी। खूब गुब्बारे और राजपथ की गहमागहमी में तुम्हारे आनन्द में खलल नहीं डालना चाहता सो उत्तर प्रदेश के एक अनजान से गांव कुबराडीह की तरफ से मैं भी तुम्हें सालगिरह की बधाई देना चाहता हूं बधाई स्वीकार हो।
बधाई तो मेरे साथ के, मेरे गांव के कुछ और भी लोग देना चाहते थे मसलन विश्वनाथ, सिंगारी और गंगिया। ये सब खेतिहर मजदूर है इनको बताया गया था कि भारत किसानों का देश है। ये खुश भी थे अपने महत्व को समझकर। कड़ी मेहनत करते और बदले में थोड़ा खाना मांगते थे हक समझकर। पर विश्वनाथ, सिंगारी और गंगिया तुम्हें बधाई देने का अरमान लिए ही रह गये। हां, प्यारे गणतंत्र, तुम्हारे समृद्धि के ये वाहक पिछले कुछ सालो में बेकारी और भूख से मर गये।
क्या कहा? भूख से मौत नहीं होती। तुम भी उसी जुबान में बोलने लगे जिसमें तुम्हारा तंत्र बोलता है। उपजिलाधिकारी ने भी कहा था कि विश्वनाथ लकवे से मरा था, जिलाधिकारी ने भी कहा था कि जो मरा वो तो समृद्ध था और मंत्री जी ने भी कहा था कि गंगिया और विश्वनाथ की मृत्यु बीमारी से हुई है न कि भूख से। सच है बेचारे करते भी क्या? सच्चाई का सामना करना इतना आसान थोड़े ही है। तुम्हारी जिन्दगी के 60 सालों में तुमने भी देखा होगा कि सच बोलने वाले तुम्हारे पास ही प्रश्रय नहीं पाते हैं। ‘झूठे का बोलबाला, सच्चे का मुंह काला’ ये तो तुम्हारे समय काल की सबसे प्रचलित और सत्यापित उक्ति है। अब तुम कहोगे कि भूख से मौतों को रोकने के लिए तुमने ढेरो योजनाए चला रखी हैं फिर यह आरोप क्यों? हां यह सच है की योजनाए होंगी पर तुम्हारे वे चाकर यहां भी मौजूद हैं जिनकी परछाईं का नाम भ्रष्टाचार है। हमारे गांव में एक कटरी टोला है जिसमें 150 लोग रहते हैं। ये सभी उस जाति के हैं जिन्हें तुम्हारी किताब में अनुसूचित जाति कहते हैं। ये टोला भूमिहीनों का है। पहले तो सिर्फ रूपन और कल्लू को ही अन्त्योदय का लाल कार्ड मिला। ये सब वर्ष 2001 के बने थे, लेकिन इसके जरिए अनाज मिलता नहीं था। तुम्हारी व्यवस्था ने तो कहा था कि गेहूं और चावल मिलेगा, पर इन बेचारों के पास तो खरीदने का पैसा भी नहीं और कोटेदार दो गुना पैसे मांगता है।
प्यारे गणतंत्र! तुम्हारे किताब में तो बहुत बड़ी-बड़ी बात लिखी हैं तमाम अनुच्छेद लिखे हैं जीने के अधिकार पर और बाज लोग उसकी व्याख्याएं भी करते रहते हैं पर देख रहा हूं कि तुम्हारा लोक कल्याणकारी चरित्र लुप्त होता जा रहा है। तुम व्यापारी बनते जा रहे हो। गरीबों को भी बिना पैसे कुछ नहीं देते हो। पर विश्वनाथ और सिंगारी का पेट न तो घोषणाओं से भरता, नहीं आंकड़ों से। अनाज कहां था, ये नहीं मालूम, पर उनके पेट में तो नहीं था।
अब तुम कहोगे कि भूख से मौत होती हैं तो साबित क्यों नहीं करते। बिलावजह बदनाम करते है शासन-प्रशासन को। तो सुनों किशन पटनायक जब कालाहांडी की दुर्दशा के बाद व्यथित थे तो उन्होंने लिखा था ‘भूख से अधमरे शरीर का कब क्या बिगड़ जाता है, उसका बीमारी के रूप में निरूपण करना डाक्टरों के लिए भी मुश्किल काम है। अभी तक भुखमरी की मौतों के बारे में सरकार का बयान होता था कि मृत्यु के पहले कोई बीमारी थी। अतः मौत का कारण भुखमरी नहीं है। विशुद्ध भूख से मौत तो अनशन सत्याग्रह करने वालों की ही होगी जिनका पेट खाली पाया जाएगा। भुखमरी से त्रस्त आदमी कभी पेट खाली नहीं रखना चाहता है। वह अखाद्य, कुखाद्य खाकर बीमार होता है। भुखमरी का प्रमाणपत्र कोई डाक्टर नहीं दे सकता। भुखमरी का पता तो चलेगा जब मृतक के मृत्यु पूर्व 6 माह के भोजन और रोजगार की समीक्षा होगी।’
तो भोजन की उपलब्धता की बात तो पहले हो चुकी अब रोजगार की सुनो। हमारी पूरी आबादी में बीस प्रतिशत लोगों के पास जमीन बिल्कुल नहीं है। मजदूरी से ही जीवन यापन होता है। चालीस प्रतिशत के पास जमीन तो थोड़ी है लेकिन खेती से साल भर गुजर बसर नहीं हो पाता है। मजदूरी पर निर्भर खेतिहर मजदूरों को साल के तीन सौ पैंसठ दिनों में से मात्र 100 दिन ही रोजगार की घोषणा है। बाकी वक्त राम भरोसे।
तुम्हें आश्चर्य भी होगा कि अखबारों और दूरदर्शन पर रोज नई-नई कारों, नये-नये होटलों के विज्ञापन आ रहे हैं देश की बड़ी पत्र-पत्रिकाएं जीवन शैली में आ रहे बदलावों को देख रहीं हैं – दिखा रही हैं तो फिर ऐसे में कुबराडीह कहां है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थकों और विरोधियों दोनों की निगाहों में अयोध्या, मथुरा, गोधरा है पर कुबराडीह क्यों नहीं है? यही तो सवाल है।
गांव याद है तुम्हें? अब तो सूट बूट का जमाना है। धोती कुर्ता भी अब डिजाइनर हो गए हैं। समारोहों में ही इनकी वकत पता चलती है। प्रधानमंत्री भी कहते हैं कि रूढ़िवादिता पुरातनपंथी सोच को छोड़ो। पर हिन्दुस्तान को छोड़कर इंडिया क्या आगे निकल पायेगा? तुम्हारे अभिभावकों ने तो हिन्दुस्तान और इंडिया के बीच की खाई को लगातार चौड़ा किया है। संविधान तो हम जैसे प्रलापियों के लिए ही संदर्भ पुस्तक हैं। दरअसल यह अबरा की जोरू हो गया है। हर सक्षम व्यक्ति अपने तरह से प्रयोग कर रहा है। जनता के बीच से चुने जनप्रतिनिधियों को अपनी ही जनता से इतना खतरा हो गया है कि वे सुरक्षा आवरण को लगातार मोटा करने में लगे हुए हैं। ऐसे में अपनापन तो टूटेगा ही और हालात तो ऐसे हो रहे हैं कि तुम भी सूट-बूट में सजने में ही गर्व कर रहे हो। पर एक बात याद रखना गांवों से अगर तुमने रिश्ता तोड़ा तो सूट तुम जितने अच्छे पहनों तुम्हारी पीठ पर कुबराडीह का कूबड़ हमेशा दिखाई देगा। सालगिरह की फिर बधाई…….।
तुम्हारा
कुबराडीह
भारत का एक गांव
इस पत्र को भड़ास4मीडिया तक पहुंचाया है लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार व सोशल-पोलिटिकल एक्टिविस्ट उत्कर्ष सिन्हा ने. उत्कर्ष का दिल गांवों में बसता है. उन्हें किसानों-मजदूरों की चिंता रहती है. उनके बीच में काम करना पसंद करते हैं ये. फितरत से यायावर उत्कर्ष वर्तमान में दैनिक लोकमत, लखनऊ के प्रमुख संवाददाता हैं. किसान आन्दोलन सहित लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए चल रहे जन आन्दोलनों में शिरकत करते रहते हैं. एमिटी यूनिवर्सिटी में अतिथि प्रोफ़ेसर के तौर पर छात्रों को मानवाधिकार का पाठ पढ़ाते हैं. उत्कर्ष से 09935736877 के जरिए संपर्क किया जा सकता है.
Comments on “सूटेड-बूटेड गणतंत्र की पीठ पर कुबराडीह का कूबड़”
Bahut Khoob bhaiya……kubradeeh ke hi bahane sahi kya sateek nishana lagaya hai aaj ke bharat par aur infact kahin na kahin us oor jiski taraf nigahein jate hi hum use fer lene ki koshish karne lagte hain…..suit biit mein aate hi hamari soch baltani ho jati hai aur humein Vishwanath aur Singari achhot se lagne lagte hain itne ki unki tarf dekh kar hum yeh sochte hain ki humne unki taraf ehsaan sa kar diya ho…..aur netagand to gantantra kahkar dhero talliyan aur wahwahiyan loot le jate hain……..main wahi sochta hun gantantra kya hum sirf nam matra ke hain? agar aisa nahi hai to hamare adhikaron mein itni asamanta kyun akhir…..kubradeeh hi nahi bahut se aise gaon hain jahan in kutil gidhhon ki nigahein sirf chunav ke hi samay jati hain anyatha yeh sochte bhi nahi unki aur rah rahkar news channels ko agar koi trp chahiye to wo jara sa rukh kar lete hain nahi to bichhi rahti hain ek khamosh hawa jiski saanya saanya sunne ke liye koi thaharta hi nahi……….aur ye bechare apni jindagi tarap tarap kar tod dete hain aur gumnami ke kishe vishal black hole mein bileen ho jate hain……..sach hai gandtantra hai kahan…..aiye hamare ganatantra ke wahakon jara batao yeh prashna lekar aaj India nahi Hindustan khada hai,,,,,,kya hai koi uttar tumhare paas?
shayad bahut khub kahna thik nahi hoga ,
abut dukahad hai ye sab ajj ke samay me …
ham to dunia ke sath chalte chale gaye ..
piche mud kar dekne ke himmat rakne ke liye mera sadhuwad sweekar karen ….
rajesh Pandey
Thank u Utkarsh Sb.
This is one of the finest satirical pieces highlighting agony of poor. Well written article that, in the words of Wordsworth, reflects “spontaneous overflow of powerful feelings”.
But we shouldn’t blame the Republic Day because Indian people’s hope still lies in it. And the same R-Day will one day give strength to the likes of Vishwanath, Singri & Gangia to stand up and sing Kranti…Kranti. And then these suited-booted rulers will be thrown into the dustbin of history.
Farzand
bahut acche utkarsh ji … purva sandhya pe iss rochak -marmic lekh ko padne ke baad sawal yeh bhi uthta hai ki purva mein bhook se hue mauton pe kis tarah hamare janpratinidiyon ka sur badla hai .. ab to woh khul ke kehte hai ki ya to yeh purva janmo ka paap hai ya phir maut ki wajah koi aur – jo ki unke charan(administration ke log samjhate hai )… khair bhadas pe phir roz ki bhaati kuch intellectual orgasm ka anand liya … aur likiye aur roz likiye taaki hum sab pad sake .. aur is pey nosh pharmayein
zindagani dushwaar hai uff yeh garani dekhiye ..
aur phir netaon ki shola bayaani dekhiye …
bheekh ka lekar katora chand pe jaane ki zidd …
yeh ada yeh baakpaan yeh lantraani dekhiye …
mulk jaye bhaad mein isse unhe matlab nahi .,…
kursi se chipte hue hai jaanfishani dekhiye …Adam Gondwi !!!!