: आजकल के हिंदी अखबारों में तीन बातें प्राथमिकता से बाहर हो गयी हैं… मेहनत व काबलियत की सही पूछ और आकलन, उपयोगिता के अनुसार प्रतिभा का सही सदुपयोग और काम के मुताबिक़ बिना किसी भेदभाव के उपयुक्त भुगतान. इन तीन चीज़ों का अभाव ही हिंदी पत्रकारिता का मटियामेट कर रहा है :
अपने देश में भड़ास4मीडिया की कामयाबी का राज मेरी समझ में बहुत अच्छी तरह से आ गया है. इसे देखते हुए हिंदी दिवस पर हिंदी पत्रकारिता पर कुछ लिखने के बारे में सोच ही रहा था आज मेरी नज़र नोर्वे की एक ख़ास खबर पर चली गयी. खबर तो यह भी मीडिया से ही जुडी है. एक रेडियो पत्रकार पिया बीटे एंडरसन अपने नियोक्ताओं से तंग आकर एनारके प्रसारण केंद्र से सीधे प्रसारण में अपने इस्तीफे का ऐलान किया. क्या हिंदुस्तान में भड़ास4मीडिया की कामयाबी से इस इस्तीफे का कोई सम्बन्ध हो सकता है?
दरअसल मैं जो हिंदी दिवस पर अपने पत्रकार भाइयों से बात करना चाहता था वह तो इन्ही दोनों बातों से सीधी जुडती है. ज़ाहिर सी बात है कि एंडरसन ने ख़ुशी से तो अपने चलते काम से इस्तीफ़ा दिया नहीं होगा एक बड़ी मजबूरी ही ऐसा करने को मजबूर कर सकती है. और हिंदी पत्रकारिता में ऐसी मजबूरी तकरीबन हर जगह देखने में आ रही है जो हिंदुस्तान में भड़ास4मीडिया की कामयाबी की सबसे बड़ी वजह भी है. अब आपको भी ये बातें आपस में तालमेल करती लग सकती हैं यदि नहीं इसे में आज और खुलकर कहना ज़रूरी समझूंगा.
दरअसल आजकल के हिंदी अखबारों में पहले की तरह तीन बातें प्राथमिकता से बाहर हो गयी हैं – मेहनत और काबलियत की सही पूछ और आकलन, उपयोगिता के अनुसार प्रतिभा का सही सदुपयोग और काम के मुताबिक़ बिना किसी भेदभाव के उपयुक्त भुगतान. इन तीन चीज़ों का अभाव ही हिंदी पत्रकारिता का मटियामेट कर रहा है. ये उन हालात में हो रहा है जब हिंदी मुक्त भाव से पूरी दुनिया में तेजी से कदम बढ़ा रही है. हिंदी की बाज़ार में मांग असलियत में बहुत ज्यादा हो रही है. जो अंग्रेजीदां यहाँ बाज़ार लपकने आये थे उनमें स्टार से लेकर सोनी तक को हिंदी को पहले सलाम ठोकना पड़ा, तब जाकर कुछ रेटिंग हाथ लगी.
बहरहाल बात हम हिंदुस्तान में भड़ास4मीडिया की कामयाबी की कर रहे थे तो जनाब उसने हिंदी पत्रकारिता के असली दर्द को उभारा है. कहीं इससे कोई समाधान मिले हों या नहीं पर इतना ज़रूर हुआ है कि तमाम तरह के भेदभाव व्यवहारगत विसंगतियों और कलमकारों की पीडाओं को अपनी आवाज़ उठाने का खुला मंच मिला है. अगर हिंदी पत्रकारिता में हम सम्मान की स्थिति वापस लाना चाहते हैं तो इस बारे में निश्चित तौर पर विचारने की ज़रुरत है कि हम जैसे 30 – 30 वर्षों से सक्रिय वरिष्ठ साथी राजनीति से भी ज्यादा पत्रकारिता में धर्म, क्षेत्र और बोलियों से जुड़े अपने लगाव को नियंत्रित क्यों नहीं करते? जो तनाव, नाजायज़ दबाव अन्याय, हम झेलते हैं उसका खुलकर मुकाबला क्यों नहीं करते? कौन हमें रोक सकता है, यदि हम सही हैं? हम जैसे लोग जो दिन-रात सूचना के अधिकार सहित दूसरों को इन्साफ दिलाने की ताल ठोकते फिरते हैं खुद अपने हितों की जायज़ सुरक्षा के लिए कब जागेंगे? आखिर हममें से ही किसी को गणेश शंकर विद्यार्थी, राजेंद्र माथुर, मनोहर श्याम जोशी जैसी मिसाल बनना है.
स्व. प्रदीप संगम ने यह लेख अपने ब्लाग आकाशभारती पर 12 सितंबर 2010 को लिखा. यह उनके ब्लाग से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है. प्रदीप संगम का एकाउंट ट्विटर पर है, जिसे आप यहां क्लिक करके देख सकते हैं- ट्विटर पर प्रदीप प्रदीप जी फेसबुक पर भी उपस्थित हैं, उन्हें आप फेसबुक पर यहां क्लिक करके पा सकते हैं- फेसबुक पर प्रदीप बज पर प्रदीप संगम के चैट देख सकते हैं, क्लिक करें- बज पर प्रदीप संगम पिकासा वेब पर प्रदीप संगम की कई तस्वीरें देख सकते हैं, क्लिक करें- पिकासा वेब पर प्रदीप संगम
pankaj singh
June 8, 2011 at 6:17 am
yashwantji,
lagata hai pradeepji ke samay se pahale jane me bhi kinhi tanawon aur dabawon ki bhumika rahi hogi, tabhi unhonen B4M ki aisi suchhm vivechana ki aur siddat se vidyarthi aur mathur ko yaad kiya.kahana na hoga ki bhadas ki kisi bhi pramparagat patrkarita se tulna aur mukabala nahin hai.Bhadas ke madhyam se yashwantji aap har pal khud ki khichi
rekha ko mita aur gahara karte hain, aur wo bhi dhul se bhi aadhik vinamra banke. pradeepji ne jo baat esaron me kahi unhe hum bhawisya ke liye hi chhod dete hain.quakt khud sthan tay karega.