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मैं अमर सिंह बनना चाहता हूं!

: इतनी उम्र जी लेने के बाद फिर से ज़िंदगी जीना सीख रहे हैं अमर सिंह : परिवार की खातिर बीते हुए दिन लौटाने की अपील कर रहे हैं : होटल ली मेरीडियन में आयोजित रोजा इफ्तार पार्टी में नहीं दिखे अमर सिंह के बड़े-बड़े दोस्त : अकेलेपन और मुश्किल के इस दौर में मन की हलचल को बयान करने का जरिया अपने ब्लाग को बना रहे हैं :

: इतनी उम्र जी लेने के बाद फिर से ज़िंदगी जीना सीख रहे हैं अमर सिंह : परिवार की खातिर बीते हुए दिन लौटाने की अपील कर रहे हैं : होटल ली मेरीडियन में आयोजित रोजा इफ्तार पार्टी में नहीं दिखे अमर सिंह के बड़े-बड़े दोस्त : अकेलेपन और मुश्किल के इस दौर में मन की हलचल को बयान करने का जरिया अपने ब्लाग को बना रहे हैं :

ऐसा नहीं कि सिर्फ हमारे आप जैसे निम्न मध्यम वर्गीय व मध्य वर्गीय परिवारों से निकले हुए देहाती युवाओं के सामने बुरे दिन आते हैं. ये बुरे दिन बड़े लोगों के सामने भी आते हैं. कुछ ऐसे दिन सामने होते हैं जब हमें-उन्हें एहसास होता है कि उन्होंने अब तक जिनके लिए जिया, दरअसल वे अपने थे ही नहीं. अपना होने का छलावा था, जिसे साफ दिल होने के कारण हम-आप समझ न सके. अमर सिंह से हमारी-आपकी चाहे जो वैचारिक दूरी हो, एका हो या मतभेद हो, पर एक मनुष्य के बतौर मैं निजी तौर पर अमर सिंह के कुछ गुणों का कायल हूं.

वे मुंहफट हैं. बेबाक हैं. आधुनिक सत्तावादी राजनीति के सर्वाधिक उर्जावान लोगों में से हैं. वे जो महसूस करते हैं, उसे कहने-लिखने-बोलने का साहस रखते हैं. अपनी पसंद-नापसंद का बार-बार इजहार करते हैं. जो पसंद नहीं, उसके पीछे पड़ जाते हैं. जो भा गए उसके लिए मरने-जीने के लिए तैयार हो जाते हैं. ये गुण शायद किन्हीं संदर्भों, खासकर राजनीति के लिहाज से अवगुण माने जाते हैं. मुलायम और सोनिया को देखिए, इन्हें चुप रहने की आदत है. उतना ही बोलते हैं, जितने भर से काम चल जाए, बात बन जाए, संदेश पहुंच जाए. उससे न ज्यादा और न कम. लेकिन अमर सिंह जैसे लोग जिन्होंने जीवन को बेलौस तरीके से जिया और इसी बेलौस अंदाज में बिजनेस से लेकर राजनीति तक में सक्रिय रहे, दोस्ती से लेकर दुश्मनी तक निभाई, जब अकेले होते हैं तो उन्हें कहीं बहुत गहरे महसूस होता है कि उनका भयंकर इस्तेमाल कर लिया गया है. उनके पास वही बचा रह गया है जो उनका बिलकुल अपना था, जो बिलकुल अपने थे, परिवार, बच्चे, बेहद करीबी दोस्त. बेहद करीबी दोस्तों में भी गिने-चुने.

अमिताभ और जया बच्चन भी तो उनके बेहद करीबी थे. लेकिन अमर सिंह के राजनीति में मुश्किल दिन आते ही चुपचाप खिसक लिए. उन्हें लगने लगा कि अमर सिंह का साथ देना अब खतरे से खाली नहीं क्योंकि अमर किसी सत्ताधारी पार्टी में या किसी मजबूत पार्टी में, जिसके सत्ता में आने की संभावना हो, नहीं हैं. जिस अमिताभ के बुरे दिनों में अमर सिंह साये की तरह साथ खड़े रहे, उसी अमिताभ की पत्नी जया बच्चन का मुंह खुलने लगा है. उन्हें अमर सिंह में कमियां दिखाई देने लगी है. बात जब अमर सिंह तक पहुंची तो अपने स्वभाव के अनुरूप दो-दो हाथ करने से चूके नहीं.

दो-दो हाथ उन्होंने अखाड़े में नहीं, ब्लाग के जरिए शुरू किया है. ब्लाग का इस्तेमाल अपने गले व दिल में अटकी हुई भड़ास को बाहर निकालने के लिए किया. यह  भड़ास, कचोट अपनी बिटिया के प्रति खुद के द्वारा किए गए अन्याय को लेकर था. बहाने से इस बार जया बच्चन थीं. कुछ दिनों पहले तक समाजवादी पार्टी और मुलायम सिंह एंड कंपनी थी.  जिन लोगों के लिए अमर सिंह दिन को दिन और रात को रात नहीं समझते थे, परिवार के किसी सदस्य का कोई विशेष ध्यान नहीं रखते थे, उन लोगों ने जब पूरी तरह किनारा कर लिया तो उन्हें अपनी नन्ही बिटिया की बात समझ में आ रही है. उन्हें महसूस हो रहा है कि आखिर उन्होंने बिटिया के साथ खेलने-बतियाने के दिनों को क्यों ऐसे लोगों के लिए होम कर दिया जो दरअसल दोस्त के काबिल थे ही नहीं. अमर सिंह की पीड़ा को उनके शब्दों में सुनिए-

”बड़े लोगों से रिश्ते की कीमत की अदायगी तो करनी ही होगी. बड़े आपको कालीन समझ आप पर चहलकदमी करें तो इसे भी आप अपना सौभाग्य समझे कि उनके चरण आप पर कम से कम गिरे तो. आप भी अगर वही करना चाहे जो वह आपसे करने के आदी हैं तो साहब आप औंधे गिरे पड़े मिलेंगे, यानी कि आप अमर सिंह हो जाएंगे. गुरबत के मारों को आप रोटी दोगे तो दुआ मिलेगी और भरे पेट वालों को पकवान भी दिया तो नमक और चीनी का हिसाब भी देना पड़ेगा. बीता दिन और अतीत तो नहीं लौटता लेकिन उसके खट्टे मीठे अनुभव से आने वाले कल का मुस्तकबिल और तकदीर जरूर संवारी जा सकती है. हाँ, छोटों में भावनाओं का अहसासे दर्द और बड़ों में इस अहसासे दर्द की मौत की दस्तक होती है. मै तो इतना ही कहूँगा. हमें इस जिंदगी पर इसलिए भी शर्म आती है, कि हम मरते हुए लोगों को तन्हा छोड़ आए है.”

कई तरह के आरोपों से घिरे रहने के बावजूद कभी पीछे मुड़कर न देखने वाले अमर सिंह आजकल पीछे मुड़-मुड़ कर देख रहे हैं. अपने दिनों को याद कर रहे हैं. अतीत के आइने में खुद को देखते हुए भविष्य के लिए अपने को मानसिक रूप से तैयार कर रहे हैं. दिल्ली के होटल ली मेरीडियन में रोजा इफ्तार पार्टी में अमर सिंह के साथ कुछ ही कथित नामचीन लोग दिखे. वे कथित बड़े-बड़े नाम गायब थे जिनके लिए तन, मन और धन, सब अमर सिंह ने स्वाहा किया. इस रोजा इफ्तार पार्टी में जाने वालों में मैं भी था. अमर सिंह न मुझे जानते हैं और न अमर सिंह को करीब से जानने की मैंने कभी कोशिश की. उन्हें राजनीति के कुछ नाटकीय खिलाड़ियों में से एक मानता रहा हूं. हां, उनकी बेबाकी और उनकी ऊर्जा से जरूर प्रभावित रहा कि यह शख्स बेहद सक्रियता के साथ बहुत कुछ उलटफेर कर डालने की क्षमता भारतीय राजनीति में रखता रहा है.

एक मित्र और शुभचिंतक के मार्फत न्योता मिलने पर आयोजन में चला गया. वैसे भी, हम जैसे देहातियों के मन के किसी न किसी कोने में यह चाह तो रहती है कि उन लोगों का करीबी होने का सुख मिले जिन्हें हम बचपन से अखबारों में पढ़ते आए हैं, टीवी पर देखते रहे हैं, भले ही मन में बहुत श्रद्धा हो, न हो. अमर सिंह खुद को ठाकुर अमर सिंह लिखते हैं और मैं भी क्षत्रिय हूं, लेकिन जातीय बोध वाला भाव कभी किसी के प्रति नहीं आया क्योंकि मैंने समाज को देखने का नजरिया और राजनीति का ककहरा वामपंथ की पाठशाला से पाया. और, यों भी अमर सिंह ने अपने राजनीतिक जीवन का सर्वाधिक समय उस समाजवादी पार्टी को दिया जिसका सबसे प्रबल वोट बैंक पिछड़े वर्ग के लोग हैं. भले ही वहां अमर सिंह ने खुद को ठाकुर दिखाकर यादवों के साथ ठाकुरों के राजनीतिक-सामाजिक समीकरण को चुनाव के लिहाज से सेट करने की कोशिश की हो, लेकिन कोशिश पूरी तरह सियासी ही रही. उन्होंने सपा के अपने कार्यकाल के दौरान जो कुछ किया, कहा, जिया वह मुलायम की लाइन-लेंथ के इर्द-गिर्द मुलायम की सहमति के साथ हुआ, या फिर उन प्रयोगों को मुलायम आजमा कर उसके नतीजे देखना चाहते थे, नतीजे न आने पर ठीकरा अमर सिंह के सर मढने का विकल्प रखते हुए.

अमर सिंह के साथ सबसे दाहिने मेरा दोस्त राकेश डुमरा

अमर सिंह के साथ सबसे दाहिने मेरा दोस्त राकेश डुमरा

अमर सिंह की तरफ से आयोजित रोजा इफ्तार पार्टी में प्रभु चावला, रजत शर्मा, सलमान खुर्शीद, जया प्रदा जैसे सत्ता-मीडिया के मिडिलमैन दिखे, जिन्हें मैं पहचान सकता था. इनके स्तर में इनसे बेहतर-बड़ा और कोई नामचीन चेहरा नहीं दिखा. आलम यह था कि किसी और बड़े आदमी को न आते देख अमर सिंह ने रजत शर्मा (इंडिया टीवी के मालिक) व जहीर अहमद (चैनल वन के मालिक) के साथ बैठकर खाना-बतियाना शुरू कर दिया. सात बजे से शुरू हुआ कार्यक्रम नौ बजने से पहले ही खत्म हो गया. जिस हाल में कार्यक्रम आयोजित था, वहां की ज्यादातर कुर्सियां-टेबल खाली थे, जैसे, किसी बड़े के इंतजार में रिजर्व / सैल्यूट की मुद्रा में तैनात हों. मेरे साथ भड़ास4मीडिया.काम को तकनीकी रूप से डेवलप करने वाले व सजाने-संवारने वाले एस्सार ग्राफिक्स के निदेशक राकेश डुमरा भी थे. उनकी इच्छा हो गई अमर सिंह के साथ फोटो खिंचवाने की. मैंने उन्हें अमर सिंह के करीब खड़ाकर अपने मोबाइल से तस्वीर ली.

चैनल वन की तरफ से चेयरमैन जहीर अहमद के अलावा बृजमोहन, नवीन कुमार आदि आगंतुकों का स्वागत कर रहे थे. इस आयोजन के कार्ड में चैनल वन व लेमन न्यूज का जिक्र था. लजीज व्यंजनों से फुर्सत पाकर और कुछ मीडिया के दोस्तों से दो-चार बोल बोल-बतियाकर ली मेरीडियन होटल से चलने लगा तो अमर सिंह के बारे में सोचना शुरू किया.  सोचने लगा कि मैं, मेरे जैसे हिंदी पट्टी के देहातों से आए युवा राजनीति, मीडिया और बालीवुड जैसे क्षेत्रों में कहीं न कहीं किसी दिल के कोने में अमर सिंह जैसा बनने का भाव रखते हैं, ऐसा ही कुछ रुतबा हासिल करना चाहते हैं. चाहते हैं कि उनके साथ अमिताभ चलें, ऐश्वर्या राय दिखें, अनिल अंबानी टहलें, मुलायम सिंह अनुकरण करें, मीडिया पयलग्गी करने को झुके. लेकिन हम और हमारे जैसे लोग अमर सिंह होने का अभिशाप कतई नहीं झेलना चाहते. यह अभिशाप सत्ता व संबंधों से बेदखल होने का है.

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बाजार को उन्मुक्त बना देने और सत्ता-सिस्टम को बेहद भ्रष्ट व अराजक बना देने में अमर सिंह व प्रमोद महाजन जैसों का महान योगदान है. पर ये वाला पक्ष मैं नहीं चाहता. मैं चाहता हूं जनता के पक्ष में खड़ा होना. यह उलटबांसी कैसे संभव है? सच तो यही है कि अगर आप अमर सिंह होंगे तो आपको सत्ता में बने रहने के लिए, ताकतवर बने रहने के लिए उन सभी लोगों के काम आना पड़ेगा जिनके काम अमर सिंह आते रहे हैं और आज जब उन लोगों ने अपना काम निकाल कर अमर सिंह से पल्ला झाड़ लिया तो अमर सिंह दुखी हो गए. अकेलेपन के एहसास के साथ जीने लगे. जितना उन्होंने कथित ताकतवर लोगों के साथ किया, उतना वे जमीन से जुड़कर किसी एक हिस्से की जनता के लिए करते तो वो जनता ट्रैक्टर-ट्रेन से अपना पैसा लगाकर उनके लिए जीने-मरने आती. पर जनता के भरोसे राजनीति करने का दौर अब कहां है. जो जनता के भरोसे राजनीति करते हैं वे माओवादी कहकर मार दिए जाने के लिए अभिशप्त हैं या फिर चुनावी राजनीति में कहीं किसी कोने में बौने कद के सत्ताधारी नेताओं की चरण वंदना में मशगूल दिखते हैं.

मैं सोचत रहा कि कभी राजनीति और सत्ता के लिए अपरिहार्य चीज हुआ करते थे अमर सिंह और आज उनके कथित अपने उनसे किनारे हो गए हैं. साथ देना तो छोड़िए, उनके आयोजनों में आने को तैयार नहीं हैं. यह स्थिति उसी बाजार ने पैदा की है, जिस बाजार को जन्माने में अमर सिंह जैसों का बड़ा रोल रहा है. इसी बाजार का नियम है कि जो काम लायक हो, वह बहुत अच्छा. जिसका कोई इस्तेमाल न हो, उसे नमस्कार कहिए. अमिताभ-मुलायम-जया बच्चन के लिए जब तक बहुत काम के लग रहे थे अमर सिंह, सबने उनको सिर-आंखों पर बिठाया लेकिन अब जब अमर सिंह अकेले योद्धा की तरह नजर आ रहे हैं तो अमिताभ और जया बच्चन को उनमें भला क्या फायदा दिखेगा. पर शायद अमिताभ और मुलायम नहीं जानते कि बुरे दिन सिर्फ किसी अमर सिंह के नाम की बपौती नहीं है.

रोजा इफ्तार पार्टी में अमर सिंह के साथ बाएं जया प्रदा

रोजा इफ्तार पार्टी में अमर सिंह के साथ बाएं जया प्रदा

अच्छे दिन-बुरे दिन का पहिया दिन-रात की बेला की माफिक घूमता, आता-जाता रहता है. आज बुरे दिन वाले पहिये के चपेटे में अमर हैं और मुलायम-अमिताभ खुद को सेफ महसूस कर रहे हैं तो यह पहिया फिर घूमेगा तो शायद कल अमर राजनीति-बाजार के खेल में चमकते सितारे की तरह फायदेमंद दिखने लगें, और मुलायम-अमिताभ अपने बुरे दिनों की कैद में होकर अच्छे दोस्तों की तलाश में टार्च लेकर घूमते फिरें. पर शायद तब भी अमर सिंह उन लोगों का साथ देने आ जाएं क्योंकि जिनमें दूसरों के दुखों को कंधा देना का माद्दा होता है, वे निजी दुखों, अकेलापनों, अवसादों से ग्रस्त होकर भी, जूझते हुए भी, दूसरों की मदद के लिए खड़े हो जाते हैं. कुछ लोगों की नियति यही होती है.

अमर सिंह के पास राजनीति में आने से पहले न पैसे की कमी थी और न राजनीति छोड़ेने के बाद कमी रहेगी. लेकिन उनके अंदर का जो बेलौस आदमी है, वह उन्हें उकसाता रहेगा, चुनौती स्वीकारने के लिए, वह चाहे राजनीति की चुनौती हो या निजी दुखों व अवसादों से पार पाने की. उम्मीद करते हैं, अमर सिंह जिस आत्ममंथन में लगे हैं इन दिनों, और रोज जिस तरह नए-नए सबक सीख रहे हैं, तीसरी कसम टाइप की कसमें-वादे खा रहे हैं, उनसे वह कुछ ऐसी सीख लेकर आगे बढ़ेंगे जिससे प्रचंड बाजारवादी व्यवस्था के चलते खत्म हो रहे बुनियादी मानवीय मूल्यों की वापसी में मदद मिल सके. पर आज की तारीख में यह काम समुद्र के पानी को बांध बनाकर रोकने जैसा ही है. अच्छा हो कि अमर सिंह नेताओं-अभिनेताओं के साथ बिताए गए अपने कथित अच्छे दिनों के गूढ़ रहस्यों का पर्दाफाश करना शुरू दें जिससे दुनिया को पता चल सके कि बड़े दिखने वाले कथित बड़े लोगों के बड़े बनने में उनकी नैतिकताओं-अनैतिकताओं का कितना रोल है.

हालांकि नैतिकता वर्ग सापेक्ष शब्द है. अगर आप अमीर हैं तो आपकी नैतिकता शोषण करने, पैसे बटोरने, भ्रष्ट होने की होती है, जिसे कोई अमीर बुरा नहीं मानता. और आप गरीब होते हैं तो आपकी नैतिकता सत्यम शिवम सुंदरम की होती है जिसे जीना इस बाजारू व्यवस्था में अपनी मौत को बुलावा देने जैसा है. ऐसा क्यों है, यह सभी को पता है. लेकिन अगर दुनिया के एलीट लोग नैतिकताओं का ये विभाजन न रखें तो एक दिन सारे गरीब लोग अमीर बनने के रहस्य जान जाएंगे और दुनिया से बाजार का कब्जा पूरी तरह खत्म हो जाएगा क्योंकि तब बाजार संचालन के आधुनिक पूंजीवादी नियमों का बंटाधार हो जाएगा. तो इसीलिए, ये अलग-अलग नैतिकताएं बहुत शातिराना तरीके से गढ़ी जाती हैं ताकि एक विक्रेता और दूसरा खरीदार बना रहे, एक मालिक और दूसरा नौकर बना रहे, एक राजा और दूसरा रंक बना रहे.

कैसा दौर है जिसमें सत्यम शिवम सुंदरम वाली नैतिकता मानने वाले लोग मजदूर बने रहने, नौकर बने रहने, ठोकर खाते रहने को अभिशप्त हैं. प्रभु नैतिकता (क्रूरता, अमानवीयता, संवेदनहीनता, छल-कपट, ताकत, रफ्तार, यांत्रिकता, सिस्टम की नियोजित हिंसा) जीने वाले एलीट लोगों के बच्चे पैदा होते ही लाखों-करोड़ों-अरबों-खरबों की कंपनियों के शेयरहोल्डर / डायरेक्टर / मालिक / प्रवर्तक बन जाते हैं क्योंकि लाख प्रगतिशीलता / डेमोक्रेसी के बावजूद राजनीति और पूंजी पर कुछ लोगों का खानदानी कब्जा चला आ रहा है और यह परंपरा जारी है. बहुत मुश्किल से कोई घुरहू अपना क्लास बदल पाता है, प्रभु वर्ग में शामिल हो पाता है पर दुर्भाग्य यह कि क्लास बदलते-बदलते उसका क्लास कैरेक्टर भी चेंज हो जाता है और यह बदलाव होते ही वह भी उस क्लास व उनकी नैतिकताओं को भूल जाता है, जहां से वह उठकर आया होता है. अमर सिंह जैसा बनने की तमन्ना रखने वालों की इस सिस्टम में यही नियति है.

अमर सिंह नजीर हैं इस बात की कि इस बाजारू व्यवस्था में आप अगर संवेदनशील व सक्षम हैं, किसी भी लेवल पर, तो आपकी सक्षमता का उपयोग कर लिए जाने के बाद आपकी संवेदनशीलता को झटक कर फेंक दिए जाने की भरपूर व्यवस्था है. फिर आप रोते रहिए, कोसते रहिए. मानना पड़ेगा, मुलायम और अमिताभ की अपनी अपनी पारिवारिक कंपनियां बाजारू व्यवस्था के अनुरूप बेहद माडर्न कथित प्रोफेशनल तरीके से संचालित हो रही हैं. लेकिन इन्हें यह मुगालता कतई नहीं रखना चाहिए कि उनकी चालाकी को लोग समझ नहीं रहे हैं. बस, वक्त अपने तरीके से करवट बदलता है और अपने तरीके से हिसाब लेता है. छत्तीसगढ़ और बिहार के जंगलों में तेजी से पनप रहा हिंसक आंदोलन बताता है कि बहुत ज्यादा चालाक लोगों द्वारा संचालित व्यवस्था के वंचित देर-सबरे अपने तरीके से अपना रास्ता बनाते हैं, अपना हिस्सा पाने के लिए. ये अलग बात है कि वंचितों का वक्त आते-आते मुलायम-अमिताभ की दूसरी-तीसरी-चौथी पीढ़ियां मैदान में मुकाबिल हों और अतीत के पापों की सजा भुगत रही हों.

अमर सिंह से हम यह कतई उम्मीद नहीं कर सकते कि वे शान-ओ-शौकत व राजनीति-बालीवुड के ग्लैमर को छोड़कर संत बन जाएंगे लेकिन यह जरूर उम्मीद कर सकते हैं कि इतने बड़े पदों, बड़े लोगों के बेहद करीब रहने के बाद वे अपने मुश्किल दिनों में किस तरह सोचते हैं, उसकी जानकारी हर एक पढ़े-लिखे को हो सके.  ऐसा इसलिए भी है कि आज जो इस सिस्टम में सिस्टम के मुताबिक सफल होना चाहता है, वो शायद अमर सिंह या राजीव शुक्ला बन जाना चाहता है. अमर सिंह इसलिए क्योंकि वे राजनीति, मीडिया, इंडस्ट्री और बालीवुड समेत ज्यादातर क्षेत्रों के प्रिय पुरुष रहे हैं. उनके यहां मीडिया वाले आशीष लेने जाते हैं, लाभ की उम्मीद में पहुंचते हैं. राजीव शुक्ला इसलिए कि एक पत्रकार के रूप में करियर शुरू करने वाला यह शख्स आज मीडिया कंपनी का मालिक है और राजनीति व क्रिकेट में अच्छा खासा दखल रखता है.

मीडिया व राजनीति के बौद्धिक हिप्पोक्रेट भले न अपनी जुबान खोलें, भले कुछ न कहें, लेकिन उनके दिल में तमन्ना यही होती है कि वे विरोध के स्वर व आलाप को बयां करते हुए वहां पहुंच जाएं जहां उनके सामने दुनिया नतमस्तक हो, चमत्कृत हो, भौचक हो, हिप्पोनेटाइज हो जाए.  जाने-अनजाने में अमर सिंह जैसे लोग ऐसे हैं. हिंदी समाज में बौद्धिक हिप्पोक्रेसी और नकलीपन के चरम दौर में अमर सिंह की साफ बयानी स्वागत योग्य हैं. उनके अंदर अपने अतीत के रिश्तों के बुरे-भले के बारे में साफ बोलने की क्षमता है, यह बड़ी बात है. हालांकि आज के नकलीपन के दौर में अमर सिंह सरीखे किसी शख्स की किसी भी चीज की तारीफ ढेर सारे विवादों का द्वार खोलने के लिए पर्याप्त है लेकिन अब वह समय है जब राहुल गांधी हों या सचिन पायलट या जितिन प्रसाद या नवीन जिंदल या अमर सिंह, सबकी सीमाओं, अच्छाइयों का विश्लेषण जरूरी है ताकि देश के युवा अपने पैमाने पर सबके गुण-दोषों का आकलन कर सकें. ऐसे में अगर साफ-साफ बोलने और दिल की बात बयां कर देने का काम अमर सिंह शुरू कर चुके हैं तो उनका स्वागत किया जाना चाहिए. राहुल गांधी अगर कुछ सच्चाइयों को साहस के साथ बोल पाते हैं तो उनकी चहुंआर प्रशंसा होने लगती है क्योंकि वे राजनीति में बिलकुल नए हैं और खानदानी होने का आभामंडल उनके सिर के पीछे है. पर यही काम अगर कोई अमर सिंह कर रहा हो तो उसके भी साहस की तारीफ होनी चाहिए.

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अमर सिंह से हम जैसे लोग अपेक्षा रखते हैं कि जिस तरह वे जया बच्चन के प्रति अपनी भावनाओं का इजहार सरेआम कर चुके हैं, उसी तरह वे कई उन लोगों के बारे में लिखेंगे, बोलेंगे जिन लोगों ने उनके करीब आकर बहुत कुछ हासिल किया लेकिन आज वे चुप हैं क्योंकि आज अमर सिंह अकेले हैं. आज अमर सिंह की हालत देखकर मैं व मेरे जैसे लोग भले ही अमर सिंह नहीं बनना चाहते लेकिन वे सबक तो ले ही सकते हैं. यह उन लोगों के लिए भी सबक है जो अपनी ताकत छोड़कर, अपनी जनता छोड़कर, अपना परिवार छोड़कर सिस्टम पर जोंक की तरह काबिज लोगों के लिए जीने-मरने लगते हैं और बदले में अंततः तमाम समृद्धियों के बावजूद गहरा अकेलापन व डिप्रेसन पाते हैं. अमर सिंह साहसी हैं, सो सब कुछ बोल पा रहे हैं लेकिन जाने कितने लोग अमर सिंह जैसे हैं जो घुट-घुट कर चुपचाप जिए जा रहे हैं. कई लोग तो सच बोलने के एवज में मौत का प्रसाद पा लेते हैं क्योंकि उनके पास व अगल-बगल कलुवे एसपीजी कमांडो नहीं होते. अमर सिंह के ब्लाग की ताजातरीन पोस्ट को आप पढ़ेंगे तो बहुत कुछ समझ में आ जाएगा. उनकी पोस्ट को आधार बनाकर समाचार एजेंसी भाषा ने भी आज खबर रिलीज की है जो कई अखबारों में छपी है. उसी ओरीजनल पोस्ट को हम यहां नीचे प्रकाशित कर रहे हैं.

-यशवंत

एडिटर, भड़ास4मीडिया

संपर्क : [email protected], 09999330099


कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन

Posted by Amar Singh

आज सुबह-सुबह मेरी छोटी सी नन्ही सी बेटी दिशा ने पूछा “पापा दूसरे पापाओं की तरह आप हमारे साथ रहते औए खेलते क्यों नहीं है?” मै स्तब्ध रह गया और अपने बीते दिनों के आंकलन में लग गया. समाजवादी पार्टी के साथ बिताए चौदह वर्ष, वहाँ पर दल के अंदर और नेता की वजह से अदालत से ले राजनेताओं तक के विवाद, फूले हुए हाँथ-पाँव और काँपते हांथो से गुर्दाविहीन शरीर द्वारा भरी गर्मी में पार्टी का प्रचार, जया बच्चन जी के लिए “आफिस आफ प्राफिट” की लड़ाई, फोन टेपिंग के विरुद्ध देश से अदालत तक किया गया युद्ध और “प्राइवेसी ला” की निर्मती, परमाणु करार के लिए और यूपीए सरकार के संक्रमण काल में मायावती जी, अडवाणी जी और प्रकाश कारत जी के संयुक्त मिशन के सामने अपने ही खास दोस्त भाई राजदीप सरदेसाई का स्टिंग, कैश फार वोट के आरोप की संवेदनशीलता के अवसर पर व्याप्त राजनैतिक और सामाजिक अकेलापन.

पिछले दिनों अपनी मर्जी से एक विधायक मेरे समर्थन में आए, फिर उनपर कुछ साथियों ने आर्थिक अनियमितताओं का आरोप लगाया और उन्होंने अपने प्राणों का खतरा बताते हुए मुझसे किनाराकशी करते हुए बसपा का दामन थामा. मैने बुरा नहीं माना क्योंकि सचमुच उनकी जान को खतरा है. बसपा में शामिल यह विधायक महोदय पिछले दिनों जया बच्चन जी से उनके घर पर घंटों बतियाते रहे, अभिषेक और ऐश्वार्या से भी मिले. इसी मीटिंग में जया जी ने कहा कि लगता है अमर सिंह जी कांग्रेस में जा रहे है लेकिन मै जितना सोनिया को जानती हूँ वह उन्हें कांग्रेस में नहीं लेंगी.

यह सूचना मिलने पर मै स्तब्ध रह गया. सोनिया जी से राजनैतिक विरोध तो शरद पवार जी का कांग्रेस के अंदर से शुरू हुआ और वह मंत्रिमंडल में है. जया जी की और मेरी भी कुलवधू सोनिया जी के नेतृत्व की सरकार द्वारा ही पदमश्री से अभी-अभी अलंकृत हुई है. जहा तक मेरा अपना प्रश्न है आदरणीया जया जी समाजवादी दल में है और मै कही भी रहूँ मुझे समाजवादी दल में नहीं रहना है. मुझे विचित्र यह बात लगी कि व्यक्तिगत और तल्ख़ लड़ाई “आफिस आफ प्राफिट” के दौरान ही मेरी कांग्रेस नेतृत्व से हुई.

यह तो वही बात हुई कि “जाके लिए चोरी की वही कहे मोहे चोरा”. ख़ैर, यह मेरी भूल थी, दूसरों की लड़ाई का बोझ अपने कन्धों पर ढोने वाले कहार को भी दुल्हनिया कहाँ याद रखती है जो जया जी मुझे याद रखे. होम अगर करना हो तो अपने लिए करे, दूसरों के लिए होम करते अगर आपके हाँथ जले तो किसी का क्या दोष? अपने निकट के अनन्य स्वजनों का होम अब मै कभी ना करूँ पर जो हो चुका उस पर तो बस इतना ही कह सकता हूँ कि “कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन” ताकि मै अपनी नन्ही दिशा के बचपन को फिर से जी सकूं.

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बड़े लोगों से रिश्ते की कीमत की अदायगी तो करनी ही होगी. बड़े आपको कालीन समझ आप पर चहलकदमी करें तो इसे भी आप अपना सौभाग्य समझे कि उनके चरण आप पर कम से कम गिरे तो. आप भी अगर वही करना चाहे जो वह आपसे करने के आदी है तो साहब आप औंधे गिरे पड़े मिलेंगे, यानी कि आप अमर सिंह हो जाएंगे. गुरबत के मारों को आप रोटी दोगे तो दुआ मिलेगी और भरे पेट वालों को पकवान भी दिया तो नमक और चीनी का हिसाब भी देना पडेगा. बीता दिन और अतीत तो नहीं लौटता लेकिन उसके खट्टे मीठे अनुभव से आने वाले कल का मुस्तकबिल और तकदीर जरूर संवारी जा सकती है. हाँ, छोटों में भावनाओं का अहसासे दर्द और बड़ों में इस अहसासे दर्द की मौत की दस्तक होती है. मै तो इतना ही कहूँगा, हमें इस जिंदगी पर इसलिए भी शर्म आती है, कि हम मरते हुए लोगों को तन्हा छोड़ आए है.

(अमर सिंह के ब्लाग से साभार)

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0 Comments

  1. विनीत कुमार

    September 8, 2010 at 7:08 pm

    आपने जिस तरह से अमर सिंह को लेकर लिखा है, बेहतर हो भड़ास4मीडिया पर एक सीरिज ही चलाएं,जिसमें उनलोगों की चर्चा रहे जो किसी जमाने में,किसी दौर में चमकीले चेहरे हुआ करते थे। ये शख्सियत मीडिया, सिनेमा, राजनीति, खेल, विज्ञापन, कार्पोरेट किसी भी क्षेत्र से जुड़े हो सकते हैं। सिर्फ मीडिया, सिनेमा के लोग भी हों तो काम चल जाएगा।

  2. Anurag pathak

    September 8, 2010 at 7:28 pm

    Amar ji jaise log agar apni urja ko in netao ko chamkane k bjaye desh ko swarne m lgate to hm bhi unhe salam krte chalo der aye pr shi aye best of luck

  3. Harendra narayan

    September 9, 2010 at 1:17 am

    Amar leader se jyada dealer the,isliye akele hai.begar sidhe chunar lare 15 saal se Rajyasabha me rahna kya kam hai.

  4. prashant kumaar

    September 9, 2010 at 7:35 am

    Hello Comrade Yaswant Bhai Saab, Jab bhi apka likha padhta hun aisa lagta hai main kuch NAAYAB padh raha hun. Ek baar nahi, baar baar padhne ka dil karta hai.Itni bebaki aur philosphy ka maada sirf Yashwan Bhai mein hi ho sakta hai.Kaash saare patrakaar is philosphy ko samajh pate aur apne liye ek naya mukaam banate.Is Amar Vichitra Katha ko koi agar Likh sakta hai to woh hai sirf aap.
    Plz accept my countless salutes.

  5. dhirendra prata singh

    September 9, 2010 at 2:24 pm

    vah bhai yashvant ji vakai kal maine apse likhane ki gujarish ki aur aaj hi apne apni lekhani se 1 bar fir sabit kar diya ki aap likhane ke mamle me bemishal h.vakai apne jis andaj me amar katha likhi h usase bahut kuch dhvnit hota h. spacial thanks ke sath ummeed karta hu ki ye tever aise hi bane rahenge aur aage bhi aise hi lekh padne ko milenge…thanku dhirendra pratap singh dehradun

  6. rahul kumar

    September 9, 2010 at 2:43 pm

    amar singh jaise shaandaar aadmi ko koi amitabh ya jaya ki jaroorat nahi. definetly amar ki kahani amar rahegi.

  7. rahul kumar

    September 9, 2010 at 2:47 pm

    amar ki kahani amar rahegi. koi mulayam, amitabh ya jaya unke aaspass khara nahi ho sakta. ……dharti ki bechaini ko koi baadal samajhta hai……..

  8. pk singh

    September 10, 2010 at 2:55 pm

    बुरा जो देखन मैं चला बुरा ना मिलिया कोय जो दिल ढ़ूंढ़ा आपनो खुद सा बुरा ना कोय
    वाह यशवंत जी आपकी महान लेखनी को प्रणाम करता हू शीर्षक आपका उन स्टेशनों और फुटपाथों पर विकने वाले अश्लील साहित्य के कवर पेज की तरह जो बड़ा ही आकर्षक दिखता है लेकिन उसके अंदर सिर्फ़ चंद बाकयो के अलावा कुछ नहीं होता..मै तो समझता था कि आप ख़बरो का संपादक है लेकिन इस लेख को पढ़ने के बाद मुझे आप के एक विशेष गुण का पता चला कि आप व्यक्ति के चरित्र के समपादकत्व का भी गुण है..आप अमर सिहं बनने की ख्वाहिस रखते हैं लेकिन आप का उद्देश्य पवित्र नहीं हे आप कभी उनकी परक्षायी भी नहीं बन पाएंगे..

  9. vijai

    September 10, 2010 at 8:11 pm

    Yaswant Bhai, App amar singh ki ek visheshta batana to bhool hi gaye, Are sabase badi bat to ye hai ki vo bhi singh (Thakur) hain.

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