अंबरीश कुमार जनसत्ता के यूपी ब्यूरो चीफ हैं. लंबे समय से जनसत्ता में हैं. प्रभाष जोशी के जमाने से. रामबहादुर राय से अंबरीश कुमार की अदावत काफी पुरानी है. रामबहादुर राय बहुत चिढ़ते हैं अंबरीश से. अंबरीश भी खूब भड़कते हैं रामबहादुर राय के नाम से. प्रभाष जोशी के जन्मदिन पर प्रभाष परंपरा न्यास के बैनर तले रामबहादुर राय के नेतृत्व में जो कार्यक्रम हुआ उसमें कई लोग नहीं बुलाए गए. खफा अंबरीश ने भड़ास अपने ब्लाग ‘विरोध’ पर निकाली है, जो यूं है. -एडिटर
प्रभाष जोशी परंपरा क्या है?
-अंबरीश कुमार-
आज पंद्रह जुलाई को हमारे संपादक प्रभाष जोशी का जन्मदिन है जिनकी परंपरा का निर्वाह करते हुए आज भी जनसत्ता के हम पत्रकार राज्य सत्ता की अंधेरगर्दी के खिलाफ डटे हुए है. पिछली बार अपने जन्मदिन पर होने वाले कार्यक्रम में उन्होंने दिल्ली आने को कहा पर नही आ पाया. इस बार उनकी परम्परा की मार्केटिंग करने वालों ने हम जैसे तमाम पत्रकारों को पूछा भी नही जो तमाम लोगो के पलायन के बाद इस अखबार को छोड़ नहीं पा रहे है क्योकि जीवन का एक बड़ा हिस्सा इस अखबार के लिए समर्पित किया है.
प्रभाष परंपरा के तहत न कोई श्रीश चन्द्र मिश्र , सुशील कुमार सिंह, सुरेंद्र किशोर, कुमार आनंद, देवप्रिय अवस्थी, सत्य प्रकाश त्रिपाठी, शम्भू नाथ शुक्ल, उमेश जोशी, मनोहर नायक, मंगलेश डबराल, अरविन्द उप्रेती, पारुल शर्मा, अनिल बंसल, हरिशंकर व्यास, संजय सिंह, अमित प्रकाश सिंह आदि को याद कर रहा है और न ही जय प्रकाश साही को. जनसत्ता की बुनियादी टीम के पत्रकार आलोक तोमर का आज ही कैंसर से इलाज शुरू हुआ और वे कई घंटे अस्पताल में कीमो कराते रहे पर प्रभाष जोशी की इस नई परंपरा के कोई झंडाबरदार इस पत्रकार को देखने तक नही पहुंचे.
मुझे याद है जब आलोक तोमर के विवाह का भोज दिल्ली में हुआ था तो दिल्ली का मीडिया उमड़ पड़ा था. और अब जिन रामनाथ गोयनका के नाम पुरस्कार पाकर लोग धन्य महसूस करे है, वे खुद आलोक तोमर और सुप्रिया राय को आशीर्वाद देने आये और घंटों रहे. पर आज आलोक तोमर के पास कोई नही था. अपवाद भाभी उषा जोशी रही जिहोने आलोक की सुध ली.
मुझे तभी याद आया कि प्रभाष जोशी निधन से ठीक एक दिन पहले लखनऊ में एक कार्यक्रम के बाद मुझसे मिलने सिर्फ इसलिए आये क्योकि मेरी तबियत खराब थी. करीब ढाई घंटा साथ रहे और एयरपोर्ट जाने से पहले जब पैर छूने झुका तो कंधे पर हाथ रखकर बोले- पंडित सेहत का ध्यान रखो बहुत कुछ करना है. यह प्रभाष जोशी परंपरा थी.
मुझे याद आया जब जयप्रकाश नारायण के सहयोगी शोभाकांत जी के कहने पर मैं रामनाथ गोयनका से मिला और उन्होंने प्रभाष जोशी से मिलने भेजा था. १९८७ की बात है. प्रभाष जोशी के कार्यालय सचिव राम बाबू से मैंने बताया- रामनाथ गोयनका जी ने भेजा है प्रभाष जी से मिलना चाहता हूँ. राम बाबू ने प्रभाष जोशी से बात कर कहा- तीन महीने तक मिलने का कोई समय नही है. यह संपादक प्रभाष जोशी ही हो सकते थे जो अपने मालिकों से भी अलग सम्बन्ध रखते थे. वे ही प्रभाष जी सीढी चढ़ कर मिलने आए थे. अगर आज वे रहते तो आलोक तोमर की क्या ऐसी अनदेखी होती जिसे वे अपने पुत्र की तरह मानते थे.
आज प्रभाष परंपरा के वाहक वे बहादुर पत्रकार भी है जो धंधे में मालिक का काम होने के बाद मिठाई का डिब्बा लेकर माफिया डीपी यादव की चौखट पर शीश नवाते है और वे पत्रकार भी है जो एक्सप्रेस प्रबंधन से साजिश कर प्रभाष जोशी को संपादक पद हटवाते है .वे भी है जो १९९५ के दौर में प्रभाष जोशी को पानी पी पी कर कोसते थे और हमारे खिलाफ एक संघी संपादक के निर्देश पर चुनाव भी लड़े और हारे भी. जिन ताकतों को हमने कई बार हराया वे सभी अब प्रभाष परम्परा वाले हो गए है. न्यास में बाकि धंधेबाज लोगों की की सूची देखकर उत्तर प्रदेश के किसी पुराने पत्रकार से बात कर ले ट्रांसफर पोस्टिंग से करोड़ों का वारा न्यारा करने वालो का भी पता चल जायेगा.
भाजपा के दो पूर्व अध्यक्ष भी प्रभाष परम्परा वाली टीम में है. बाबरी ध्वंश के बाद प्रभाष जोशी ने जिन कट्टरपंथी ताकतों से मुकाबला किया आज उन्ही ताकतों का जमावड़ा उनकी परंपरा के नाम पर उनकी साख ख़त्म करने पर आमादा है. चंद्रशेखर जी के ट्रस्ट पर कब्ज़ा करने वाले अब प्रभाष जोशी के साथ भी वही व्यवहार करना चाहते है.
तभी तो पत्रकार कृष्ण मोहन सिंह ने पूछा- ये ओझा और गाड़िया किस प्रभाष परम्परा से आते है. इस पर मेरा जवाब था- गनीमत है उन रिश्तेदार पुलिस अफसरों को नहीं रखा जो विवाद होने के बाद फर्जी मुकदमा दर्ज करने से लेकर चार्जशीट तक लगवाते है. कुल मिलकर नैतिकता का लबादा ओढ़कर अपनी मार्केटिंग के लिए प्रभाष जोशी परंपरा का यह ढोंग अपन के गले नही उतरने वाला. इलाहाबाद में जो ये कर चुके है उससे वहा के छात्र पहले से ही आहत है. इलाहाबाद में ही पत्रकारिता के छात्रों के संघर्ष का नेतृत्व करते हुए प्रभाष जोशी ने कहा था- अगर सर कटाने की नौबत आई तो प्रभाष जोशी सबसे आगे होगा.
प्रभाष जोशी को सही मायने भी तभी याद किया जा सकता है जब दिल्ली से लेकर दूर दराज के इलाकों में मीडिया को बाजार की ताकत से मुक्त करते हुए वैकल्पिक मीडिया के लिए ठोस और नया प्रयास हो .भाषा के नए प्रयोग की दिशा में पहल हो और प्रभाष जोशी के अधूरे काम को पूरा किया जाए. पर यह सब काम उस गिरोहबंदी और खेमेबंदी से नही होने वाला जिसकी शुरुवात दिल्ली में कुछ पेशेवर लोगो ने की है की है. प्रभाष जोशी देश के अकेले पत्रकार थे जिन्होंने देश के कोने कोने में काम करने वाले पत्रकारों से सम्बन्ध बनाया और निभाया.
Tej Bahadur Yadav
July 18, 2010 at 8:33 pm
प्रभाष परंपरा के नाम पर अब कुछ और लुटेरे सक्रिय हो गए। अच्छी जानकारी दी है आपने। देवप्रिय अवस्थी प्रभाष जोशी परंपरा के निश्चित ही समुचित वाहक हैं। लबादों से दूर, सादगी एवं आम आदमी के साथ। बनवाटीपन नहीं। बाजार से दूरी दिखाने के लिए दिखावे का नाटक नहीं। हम तो उस पीढ़ी के पत्रकार हैं, जिसे प्रभाष जैसे पत्रकार का चरण स्पर्श का मौका भी सिर्फ एक बार भोपाल में ही मिल सका था। सप्रे संग्रहायल को कोई सेमीनार था। राम बहादुर राय भी आए हुए थे, लेकिन प्रभाष जैसा जनवादी सत्ता उनमें कहां। खैर…….
Tej Bahadur Yadav
Sadashiv Tripathi
July 19, 2010 at 5:54 am
Thanks Ambrish!
Well Done
Mohammad Shaquib
July 19, 2010 at 7:08 am
सच्चाई की मौत पर अर्थी को कांधा देने सबसे पहले झूठ खड़ा होता है। अंबरीष जी को जानता नही पर इतना मालूम है कि नेकरधारी राम बहादुर राय जैसे प्रभाष जी की आत्मा को एसे न्यास के जरिए कष्ट दे रहे हैं। आलोक जी के साथ हमारी दुआएं हैं। आप जन पक्षधरता के हामी रहे हैं सो दलालों की मिजाजपुरसी न मिलने का काहे का गम। अंबरीष भाई डटे रहो हम जैसे नौजवान आपके साथ हैं।
Siddharth Kalhans
July 19, 2010 at 7:11 am
अंबरीष जी, प्रभाष के नाम पर जो स्याह सफेद हो रहा है वो दुखद है। नही होना था। जिनके नाम आपने गिनाए उन्हें न बुला कैसा आयोजना हुआ होगा उसे बताने की जरूरत नही। आलोक जी के स्वास्थ की चिंता हम सभी को है। भगवान उन्हें जल्दी से ठीक कर फिर से मुकाबले को तैयार करे। मालूम नही रोज अपने यहां जगह देने के बाद यशवंत ने कुछ नही लिखा आलोक जी की बीमारी के बारे में
ramesh singh
July 19, 2010 at 10:07 am
arai bhai sanghi to Gandhi ( BJP ka gandhiwadi samajwad yad hai) aur Patel (jinhone RSS par ban lagaya tha) tak ka nam bhunanai lagai hain to bechare Prabhash ji ki kya bisat…kuch din bad aap aik tasweer daikhangai jisme Prabhash ji ko half paint pahan kar dwaj pranam kartai huai dikhaya jayega…intzar keejiye
संजय तिवारी
July 19, 2010 at 10:52 am
आपको यह किसने बताया कि अंबरीश के नाम से रामबहादुर राय चिढ़ते हैं?
shruti awasthi
July 19, 2010 at 4:00 pm
yeh jankari hai ya jankari ke naam par apni bhadas nikali gai hai. kaun se sabut yeh batate hai ki in baton mein koi sachhai bhi hai. bakwaas aur apni ghij nikali gai hai yaha par. apna kuda karkat fekne ka madhyam bna diya gaya hai patrakarita ki is website ko
prashant
July 19, 2010 at 5:42 pm
यार अंबरीष, बकैती करने की तुहारी आदत नहीं गई। आज प्रभाष जी नहीं है तो उनके करीबी होने का खाका खींच रहे हो। यदि प्रभाष जी आज ज़िन्दा होते और तुम ऐसी बकैती तब भी लिखते तब समझा जा सकता था कि उनके लिए तुहारे मन में कितना आदर-समान था। उनके बताए हुए रास्तों पर तुहारे पद चिन्ह तब हम भी खोजते। लेकिन आज जब वे नहीं है तो जो मन में आता है लिख देते हो। यशवन्त भी पीआर बढ़ाने के लिए पता नहीं कैसे-कैसे लोगों को जगह देता फिर रहा है। रही बात आलोक तोमर को यदि वे प्रभाष जी के इतने ही करीब थे तो उनके निधन पर इन्दौर क्यों नहीं आए? तुम भी तो नहीं आए थे। यह राम बहादुर राय ही थे जो शुरू से अन्त तक यानी मृत देह के खाक होने के लगभग पांच घंटे बाद भी गाजियाबाद से लगभग हजार किमी दूर इन्दौर मंे थे। इसके बाद उनकी तेरहवीं में भी वे शामिल हुए। तुम आए थे?????