एक कहानी (3) : डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी के भव्य, फोटोजेनिक, रिटायर्ड आईएएस पिता परिवार की प्रतिष्ठा, बेटे के कैरियर की चिंता के आवेग से मठों, अन्नक्षेत्रों और आश्रमों की परिक्रमा करने लगे। बनारस में ब्रिटिश जमाने के भी पहले से अफसरों और मठों का रिश्ता टिकाऊ, उपयोगी और विलक्षण रहा है। कमिश्नर, कलेक्टर, कप्तान आदि पोस्टिंग के पहले दिन काशी के कोतवाल कालभैरव के आगे माथा नवाकर मदिरा से उनका अभिषेक करते हैं। जो दुनियादार, चतुर होते हैं वे तुरंत किसी न किसी शक्तिपीठ में अपनी आस्था का लंगर डाल देते हैं, क्योंकि वहां अहर्निश परस्पर शक्तिपात होता रहता है। इन शक्तिपीठों में देश भर के ‘हू इज हू’ नेता, उद्योगपति, व्यापारी, माफिया, मंत्री भक्त या शिष्य के रूप में आते हैं।
वे अपने गुरुओं के लिए कुछ भी करने को आतुर रहते हैं। अफसरो की तरक्की, तबादला, विरोधियों का सफाया, खुफिया जांच रपटों का निपटारा सारे काम गुरुओं के एक संकेत से हो जाते हैं। इसके बदले वे महंतों, ज्योतिषाचार्यों, तांत्रिकों, वास्तुशास्त्रियों और प्राच्यविद्या के ज्ञाताओं की इच्छाओं को आदेश मानकर पालन करते हैं क्योकि वह प्राणिमात्र के कल्याण के लिए किया गया धार्मिक कार्य होता है। नौकरशाही और धर्म का यह संबंध अरहर और चने के पौधों जैसा अन्योनाश्रित है। दोनों एक दूसरे को पोषण, समृद्धि और जीवन देते हैं। छोटे-मोटे संत की मान्यता पा चुके उस वक्त के कमिश्नर ने एक मठ को अपना कैंप कार्यालय बना लिया था और सरकारी ओदश के अनुपालन में बनारस को विश्व धरोहर घोषित करने की अर्जी यूनेस्को में डाल रखी थी जिसकी पैरवी के लिए वे हर महीने अमेरिका जाते थे। मठ में आने वाले विदेशियों, प्रवासी भारतीयों, उद्योगपतियों और सेठों को व महंत की कृपा से काशी के विकास में धन लगाने के लिए प्रेरित कर एक अरब से अधिक रुपया इकट्ठा कर चुके थे। यह काम आज तक कोई अधिकारी नहीं कर पाया था।
जिनसे मान्यता, गरिमा और शक्ति मिलती है, शक्तिपीठें उन्हें अपने करीब और करीब बुलाती हैं। धर्म की छतरी के नीचे यहां, आधुनिक और पुरातन, वैराग्य और ऐश्वर्य, धंधे और अध्यात्म, सहजता और तिकड़म ईश्वर की उपस्थिति में इस कौशल से आपस में घुल मिल जाते हैं कि कहीं कोई जोड़ नजर नहीं आता। जो जितने शक्तिशाली और संपन्न दिखते हैं उनकी आत्मा उतनी ही खोखली और असुरक्षित होती जाती है। ऐसे लोगों को अभय और आश्वस्ति का नैतिक संबल देने वाला यह शहर बनारस चुंबक की तरह खींचता है। भौतिक चीजों की कामना करते, दुखी साधारण लोग इन शक्तिपीठों को आस्था देते हैं और बदले में सूखा आशीर्वाद पाते हैं। यह खांटी आध्यात्मिक लेन-देन होता है। शक्तिशाली लोगों के आस्था निवेदित करते ही यह लेन-देन भौतिक हो जाता है और वे इन शक्तिपीठों के सबसे सुरक्षित गोपन रहस्यों में बराबर के साझीदार हो जाते हैं।
यूं ही ईश्वर ने फुर्सत के एक दिन डीआईजी के भव्य फोटोजेनिक, बूढ़े बाप की आर्त पुकार सुन ली। अक्टूबर के महीने में अचानक खंजन चिड़ियां छतों पर फुदकने लगीं और अखबार के चितकबरे पन्नों पर स्टोरी सीरिज ‘कहानी बदनाम बस्ती की’ नाचने लगी।
नैतिकता के सन्निपात में डूबते-उतराते दो रिपोर्टर, गाईड सी. अंतरात्मा के पीछे-पीछे घूमते हुए मड़ुवाडीह, शिवदासपुर के मोहल्लों और गांवों को खंगालने लगे। खबरें छपने लगीं कि नगर वधुओं के कारण आसपास के मोहल्लों की लड़कियों की शादियां नहीं हो या रही हैं, कईयों के तलाक हो चुके हैं, कई मायके आने को तरस रही हैं, भाइयों की कलाईयां और सावन के झूले सूने पड़े हैं। लोग गांव, मोहल्ले का नाम छिपाकर रिश्ते जोड़ने की चालाकी करते हैं लेकिन असलियत पता चल ही जाती है। तब मंडप उखड़ते हैं, बारात लौटती है। बत्तीस साल की बीए पास सरला को शादी के नाम से नफरत हो गई है और अब उसे द्वाराचार के गीत सुनकर हिस्टीरिया के दौरे पड़ते हैं।
शिवदासपुर में पान की दुकान लगाने वाले राजेश भारद्वाज की शादी पांच बार टूटी, छठी बार जौनपुर के त्रिलोचन महादेव मंदिर में चोरी से विवाह हुआ, पोल खुल गई। लड़की की विदाई रोककर, कहीं और शादी कर दी गई। नाते-रिश्तेदार हालचाल लेने तक गांव में नहीं आ सकते, उन्हें दलाल जबरन कोठों में खींच ले जाते हैं, वेश्याएं-भडुए-गुंडे उनका मालमत्ता छीन लेते हैं। जान बचा कर निकले तो पुलिस घड़ी-अंगूठी बटुआ छीन लेती है। शर्म के मारे किसी से कुछ कह भी नहीं सकते। शाम ढलते ही शराबी घरों में घुसकर बहू बेटियों के हाथ पकड़कर खींचने लगते हैं। यह कि जलालत से बचने के लिए लोग अपने मकान औने-पौने बेचकर भाग रहे हैं। कई तो अपने घर वैसे ही खाली छोड़कर शहर के दूसरे इलाकों में किराए के मकानों में रहने लगे हैं। अखबार के पन्नों पर काले अक्षरों में इन लाचार लोगों की पीड़ा और उनके बीच की खाली सफेद जगह में वेश्याओं के प्रति नफरत छलछला रही थी। खबरों को विश्वसनीय बनाने के लिए प्रकाश को ढेरों ढहती खपरैल वाले, भुतहे मकानों की फोटों खींचनी पड़ी जो वैसे भी रहने के लायक नहीं रह गए थे। …जारी…
KB
March 6, 2010 at 2:10 am
चेहरा बदल चुका है फिर भी मुझे लगाता है कि आप वही हैं।
बहुत पहले करीब दस साल या ज्यादा हो रहे हैं आपकी एक कहानी कथादेश पत्रिका में लोक कवि का बिरहा पढ़ी थीं। बिल्कुळ अछूती नए उठान की कहानी थी।
इस बीच के लंबे समय में आपकी दो और कहानी एक वागर्थ पत्रिका में आर जे साहब का रेडियो और एक कहीं और दंगा भेजिए मौला पढ़ी थी। आप कहां गायब हो जाते हैं और इतना कम क्यों लिखते हैं। आशा करता हूं कि इस बार ऐसा नहीं होगा। यकीन कीजिए कि आपकी कहानियों की जरूरत है लिखा कीजिए।
Tau
March 5, 2010 at 4:03 am
Wonderful!
Anil Bhai, Return to your mainstream. I salute you for writing such a flawless Hindi. You are a great writer.
kamta prasad
March 4, 2010 at 6:13 am
पाठक गण रसास्वादन पा रहे हैं लेकिन यशवंत भाई एक बात कचोटती है कि हिंदी ऐसे शानदार लेखक को भी आजीविका के लिए नौकरी करनी पड़ती है और दीगर दुनियावी खर्चों की चिंता करनी पड़ती है।
क्यों क्या सोचते हैं इस मसले पर आप लोग।