आदरणीय यशवंत जी, नमस्कार। राजमणि सिंह जी और श्वेता रश्मि जी की आपत्तियां पढीं। पढ़ कर अफ़सोस ही हुआ। साहित्य में या जीवन में क्या श्लील है और क्या अश्लील, यह बहस बहुत पुरानी है। लगता है इन मित्रों ने सेक्स जीवन को ही अश्लील मान लिया है। कृष्ण बलदेव वैद्य का विवाद अभी ठंडा भी नहीं पड़ा है, हिंदी अकादमी के शलाका सम्मान के बाबत। खैर, ऐसे तो समूचा साहित्य ही अश्लील हो जाएगा जो इस पैमाने पर चलें तो। कालिदास ने शंकर जी की पूजा में लीन पार्वती जी का वर्णन किया है। वह लिखते हैं कि पार्वती जी पूजा में लीन हैं, कि अचानक ओस की एक बूंद उन के सिर पर आ कर गिरती है। लेकिन उन के केश इतने कोमल हैं कि ओस की बूंद उनके कपोल पर आ गिरती है। और कपोल भी इतने सुकोमल हैं कि ओस की बूंद छटक कर वक्ष पर आ गिरती है। पर वक्ष इतने कठोर हैं कि ओस की बूंद टूट कर धराशाई हो जाती है।
एक मुहावरा हमारे यहां खूब चलता है- का वर्षा जब कृषि सुखाने ! वास्तव में यह तुलसीदास रचित रामचरित मानस की एक चौपाई का अंश है। प्रसंग बालकांड में धनुश यज्ञ के समय का है। एक वाटिका में राम और लक्ष्मण घूम रहे हैं। उधर सीता भी अपनी सखियों के साथ उसी वाटिका में घूम रही हैं, खूब बन-ठन कर। वह चाहती हैं कि राम उन के रूप को देखें और सराहें। वह इसके लिए आकुल और लगभग व्याकुल हैं। पर राम हैं कि देख ही नहीं रहे हैं। सीता की तमाम चेष्टा के बावजूद। वह इसकी शिकायत और रोना अपनी सखियों से करती भी हैं, आजिज आकर। तो सखियां समझाती हुई उन्हें जैसे तसल्ली देती हैं कि अब तो राम तुम्हारे हैं ही, जीवन भर के लिए। जीवन भर देखेंगे ही, इसमें इतना परेशान होने की क्या ज़रूरत है? तो सीता सखियों से अपना भड़ास निकालती हुई कहती हैं- का वर्षा जब कृषि सुखाने!
यह तब है जब तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। और फिर मानस में श्रृंगार के एक से एक वर्णन हैं। केशव, बिहारी आदि की तो बात ही और है। वाणभट्ट की कादंबरी में कटि प्रदेश का जैसा वर्णन है कि पूछिए मत। भवभूति के यहां भी एक से एक वर्णन है ही।
छोडि़ए, अब अपनी अंग्रेजी मतलब हिंदुस्तानी अंग्रेजी में भी आ जाइए। अरूंधती राय से ले कर पंकज मिश्रा, राजकमल झा वगैरह को भी पढ़ लीजिए। हिंदी में भी मनोहर श्याम जोशी को पढ़ लीजिए, कृष्ण बलदेव वैद्य आदि तमाम लेखकों को पढ़ लीजिए। एक नहीं, अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। अपने समाज में आइए। महुवा वाली श्वेता जी कभी अपना भौजी नंबर वन देखती हैं? भौजियों की कुल्हा मटकाई और स्तन उछलाई पर कैमरा क्या-क्या दिखाता है, कभी गौर किया है? यही हाल बाकी कार्यक्रमों में भी है। अपने चैनलों में एंकरों की देह दिखाऊ मनोवृत्ति पर कभी गौर किया है? अच्छे एंकरों द्वारा प्राइम टाइम पाने के जुगाड़ और लटकों-झटकों को जब कभी लिखा जाएगा तब क्या होगा? ऐसे तमाम मसले हमारे समाज में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे पड़े हैं।
जब इस उपन्यास पर मुकदमा हुआ था, तब प्रकाशक लखनऊ आता था। होटल के कमरे में टीवी खोलने पर एक से एक दृश्य दिखते थे। उन्हीं दिनों पूजा भट्ट की फ़िल्म ज़िस्म का प्रोमो चल रहा था। बिपाशा वसु समुद्र के किनारे के एक दृश्य में जान अब्राहम पर जब कूद कर चढ़ बैठती थी तो प्रकाशक कसमसा कर रह जाता। किचकिचा कर कहता- बताइए एक से एक युद्ध खुलेआम हो रहे हैं पर मुकदमा हो रहा है ‘अपने-अपने युद्ध’ पर!
तो यही हाल यहां भी है।
मित्रों, अश्लीलता देखनी हो तो अपने चैनल और अखबार से ही शुरू कीजिए। पचास-पचीस आदमी बिना कारण नौकरी से निकाल दिया जाता है। कोई साथ नहीं आता। सिस्टम साथ नहीं देता। पूंजीपति जैसे चाह रहे हैं, आप को लूट रहे हैं। आप चुप हैं। हर जगह एमआरपी है। किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य है। क्यों भाई? कार के दाम गिर रहे हैं, ट्रैक्टर के बढ़ रहे हैं, मोबाइल सस्ता हो रहा है, खाद बीज महंगे हो रहे हैं। यह क्या है? एक प्रधानमंत्री जब पहली बार शपथ लेता है तो भूसा आंटे के दाम बिकने लगता है। वही जब दूसरी बार शपथ लेता है तो दाल काजू-बादाम के भाव बिकने लगती है।
मित्रो अश्लीलता यहां है, ‘अपने-अपने युद्ध’ में नहीं। वैसे भी, अभी आप इसके छोटे- छोटे हिस्से पढ़ रहे हैं। जब इसको पूरा पढेंगे, समग्रता में, तो यह अश्लील नहीं, जीवन लगेगा। फिर अगर हमारा जीवन ही जब अश्लील हो गया हो तो समाज का दर्पण कहे जाने वाले साहित्य में आप देखेंगे क्या?
आपका,
दयनंद पांडेय
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