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साहित्य

एक नक्सली की डायरी (2)

: सुख-दुख की साझेदारी का रिश्ता : इलाहाबाद में कई लोगों से मेरी गहरी दोस्तियां भी हुईं लेकिन उन्हें पारंपरिक अर्थों में दोस्ती कहना शायद ठीक नहीं रहेगा। यह कॉमरेडशिप थी- दोस्ती से कहीं ज्यादा गहरी लगने वाली चीज लेकिन दिली मामलों में उतनी ही दूर की। इसका अंदाजा इस बात से मिलता है कि इलाहाबाद में जिन लोगों के साथ दिन-रात रहना होता था उनमें एक भी दोस्त की अब मुझे याद नहीं आती।

: सुख-दुख की साझेदारी का रिश्ता : इलाहाबाद में कई लोगों से मेरी गहरी दोस्तियां भी हुईं लेकिन उन्हें पारंपरिक अर्थों में दोस्ती कहना शायद ठीक नहीं रहेगा। यह कॉमरेडशिप थी- दोस्ती से कहीं ज्यादा गहरी लगने वाली चीज लेकिन दिली मामलों में उतनी ही दूर की। इसका अंदाजा इस बात से मिलता है कि इलाहाबाद में जिन लोगों के साथ दिन-रात रहना होता था उनमें एक भी दोस्त की अब मुझे याद नहीं आती।

कभी बातचीत का मौका आता है तो एकता और लगाव के हजारों बिंदु निकल आते हैं, लेकिन उनकी याद न तो खुशी के मौकों पर आती है, न तकलीफ के। याद आते हैं तो हरिशंकर निषाद, राम किशोर वर्मा और सुनील द्विवेदी, जिनसे इलाहाबाद में रहते मुलाकात कभी-कभी ही हो पाती थी, लेकिन जो अपनी तरफ से हाल-चाल जानने का कोई मौका आज भी नहीं चूकते। इसकी वजह शायद यह है कि इनसे मेरा लगाव संगठन या राजनीति से ज्यादा दुख-सुख के साझे का था। अब लगता है कि नितांत सहज जान पड़ने के बावजूद कॉमरेडशिप एक तरह की शर्त पर टिका हुआ संबंध है- विचारधारा की शर्त, जिसके मायने और खास तौर पर आग्रह-दुराग्रह लगातार बदलते रहते हैं। इसके बरक्स दोस्ती अपनी बुनियाद में ही बिना शर्त का रिश्ता है। एक-दो देर तक चली दोस्तियां बताती हैं कि इन्हें शर्तों से बांधना इन्हें किस कदर बोझिल बना देता है और शर्तें हटते ही ये कैसी खिल उठती हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि कॉमरेडशिप कोई कम मानीखेज चीज है। उम्र के एक खास मुकाम पर बना यह रिश्ता हममें से हर किसी के लिए एक तरह का नोडल पॉइंट है, जिसे एक्सप्लोर करने का काम ब्लॉग के जरिए या दूसरे तरीकों से जीवन भर किया जा सकता है। अपने कॉमरेडों में से ज्यादातर जिंदगी को सचेत ढंग से जीने वाले लोग हैं और उनसे इंटरैक्शन में इस अबूझ पहेली के मायने पता चलते हैं।

1987 के बीच में राजीव हटाओ आंदोलन के क्रम में लखनऊ में होने जा रही रैली के अग्रिम दस्ते के रूप में इलाहाबाद से प्रतापगढ़, अमेठी और रायबरेली होते हुए लखनऊ तक एक साइकिल यात्रा निकालने का फैसला हुआ। शुरू में उत्साहजनक बातें कई लोगों ने कीं लेकिन जब चलने की बात हुई तो ले-देकर पांच लोग इसके लिए तैयार हुए। करमचंद, विक्रम, अजय राय और उनके एक साथी, जिनका नाम मैं भूल गया हूं। अपेक्षाकृत लंबे रास्ते से करीब तीन सौ किलोमीटर लंबी यह यात्रा कई मायनों में अद्भुत थी। इसके अंतिम दिन हमें अस्सी किलोमीटर साइकिल चलानी पड़ी क्योंकि रायबरेली से लखनऊ के बीच हमारे पास खाने और ठहरने के लिए कहीं कोई संपर्क नहीं था। बछरावां बाजार में हम लोगों ने एक सभा को संबोधित किया, लेकिन वहां से निकलते-निकलते रात हो गई थी। अंधेरी सड़कों पर सामने से आती गाड़ियों की हेडलाइटें जानलेवा मालूम पड़ती थीं।

हम लोगों ने एक गांव में रुकने की कोशिश की तो पता चला, वहां दो रात पहले ही डकैती पड़ी है और सारी सदिच्छाओं के बावजूद वहां कोई हमें अपने यहां ठहराने की हिम्मत नहीं कर सकता था। बहरहाल, उन लोगों ने थोड़ी देर सुस्ताने का मौका दिया और गुड़ की डली के साथ एक-एक लोटा पानी भी पिला दिया। हिम्मत करके हम लोगों ने साइकिल भगाई। रात में डेढ़ बजे के आसपास हम लखनऊ से थोड़ा पहले पड़ने वाले संजय गांधी पीजी मेडिकल कॉलेज पहुंचे और वहां पहुंचकर हमें चांद निकलता दिखाई पड़ा। यह एक तेज भागती रेलगाड़ी के पीछे से उग रहा था। हमें शुरू में लगा जैसे गाड़ी के पीछे आग लगी है। गाड़ी पार होने पर चांद दिखा तो हम लोगों ने उसे भयंकर तरीके से गालियां दीं और जैसे-तैसे लखनऊ कैंट इलाके में प्रवेश कर गए।

इस यात्रा के साथ कई दिलचस्प बातें जुड़ी थीं, लेकिन इसकी सबसे खास बात यह थी कि इसका अंत इंदिरा राठौर उर्फ इंदु जी से मुलाकात में हुआ। तीन साल बाद अचानक यूं मिलना होगा, सोचा न था। 1984 में जीजी के यहां गया था तो उनके पड़ोस से बहुत प्यारी आवाज में रेशमा का गाना सुनाई पड़ा…लंबी जुदाई…। कहीं रेडियो तो नहीं। लेकिन आवाज रेशमा जितनी भारी नहीं थी। कैप्टन श्याम सिंह राठौर सिक्यूरिटी ऑफिसर की छोटी बेटी हर चीज में अव्वल। पढ़ाई, गाना, डिबेट…अक्ल से लेकर शक्ल तक हर चीज में। और कविता भी लिखती है। तो क्या हुआ, ये सारी चीजें थोड़ा-बहुत हम भी कर सकते हैं….कविता लिखती है तो….क्यों नहीं, कविता भी लिख सकते हैं। कुल दो शेर लिखे- एक जाहिर और एक बातिन। जाहिर सबने पढ़ा- आप भी पढ़ें। समां अजनबी सा नजर आ रहा है, हर इक पल ठिठक कर गुजर जा रहा है। थकी शाम है कुछ रुआंसी-रुआंसी, न घबरा मुसाफिर शहर आ रहा है। बातिन भी सबने पढ़ा, सिर्फ जिसके लिए लिखकर रखा गया था, उसे ही छोड़कर। मौका है, आप भी पढ़ें- जितने नजरों से दूर रहते हैं, उतने ही दिल के पास रहते हैं। जबसे बिछड़े हैं आप हमसे, हम इस कदर क्यूं उदास रहते हैं।

हुआ यह कि हमारे भानजे गुड्डू ने कागज का चुटका उड़ा लिया और जीजाजी के हवाले कर करके मुझे अगले बारह साल रेतने का मौका उन्हें हाथोंहाथ दे दिया। इंदुजी अगली सुबह ही पिथौरागढ़ चली गईं और मुझे मेरी मूर्खता के चहबच्चे में लंबे समय के लिए कैद हो जाना पड़ा- ये हैं मिस्टर फलाना, चिट्ठियां लिखते हैं लेकिन ध्यान नहीं रखते कि लिख किसे रहे हैं… और ध्यान आ भी जाए तो गलत पते पर पोस्ट कर देते हैं। लखनऊ में उनके भाई जगमोहन सिंह राठौर मिले, जिन्हें मैं नाम से जानता था, लेकिन शक्ल पहली बार ही देखी, और फिर अगले दिन इंदिरा राठौर, जिन्हें चलते-चलते मैं किसी तरह अपना पता दे ही आया था। और पता भी तो अपना कोई था नहीं। इरफान का था- 7, मुस्लिम बोर्डिंग हाउस, इलाहाबाद युनिवर्सिटी, इलाहाबाद।

: अमिताभ का खेतैखेत भागना : जैसे कोई पेड़ अपने बीज को याद करता हो, इलाहाबाद में अपने समय को याद करना मेरे लिए कुछ वैसा ही है। क्या यह किसी कविता की पंक्ति है? शायद हो, लेकिन इस रूप में तो यह शहर हमेशा मेरी नसों में बहता रहा है। आज मैं इस समय को ठेठ गद्य के ढंग से याद करना चाहता हूं। यानी जैसा वह था, उस तरह। उस तरह नहीं, जैसा वह हमें लगता था। इस शहर में मैंने दिल टूटने की तकलीफ सही तो प्यार करने की तमीज भी सीखी। कविता लिखना जाना तो संगठन और आंदोलन का ककहरा भी सीखा। अपने खोल से बाहर निकल कर दूसरे लोगों के दुखों की टोह लेना, महसूस करना कि अपनी खाल के भीतर जीना खुद को चाहे जितनी भी बड़ी बात लगे, लेकिन दुनिया में इससे कहीं ज्यादा बड़ी बातें भी होती हैं, ये सारे संदर्भ मेरे लिए इलाहाबाद से ही जुड़ते हैं। लेकिन अंततः हैं ये निजी संदर्भ ही। बाहरी दुनिया की गति इससे बहुत अलग थी और वहां कई दिशाओं से आदर्शवाद के विनाश का रास्ता तैयार हो रहा था।

सन 90 के बाद के समय को हम मंडल-मंदिर दौर के रूप में जानते हैं, लेकिन मुझे आज भी लगता है कि अपनी दीर्घकालिकता के बावजूद ये दोनों मुद्दे तात्कालिक राजनीति से उपजे थे। इनका बड़ा फलक शीतयुद्ध के पराभव में मौजूद था, जिसकी पटकथा का एक हिस्सा हमें गोर्बाचोव के ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका में सुनाई पड़ रहा था। इसकी अनुगूंज हमारी पार्टी के भीतर मौजूद थी, लेकिन आम तौर पर हम इसे कुछ खास तवज्जो नहीं देते थे। जमीन पर  कांशीराम का संगठन अभियान काफी जोरशोर से चल रहा था। इलाहाबाद में उनकी कई बैठकें हो चुकी थीं और खास तौर पर शहर में नया-नया बसा ताकतवर कुर्मी समुदाय गहरी सवर्ण विरोधी जाति-चेतना से लैस हो रहा था। इसकी आहटें भी हमें अपने संगठन में सुनाई दे रही थीं, लेकिन हम या तो इसे अनसुना कर रहे थे, या इस उम्मीद में जी रहे थे कि अपनी क्रांतिकारिता के जरिए हम इसका मुकाबला कर ले जाएंगे। बस तरह की एक खुशफहमी देश के सत्ता शिखर पर भी मौजूद थी। 1984 में राजीव गांधी को मिले 412 सांसदों के ऐतिहासिक बहुमत ने उस नाजुक संतुलन के खतरों को नजरों से ओझल कर दिया था, जिसे इंदिरा गांधी ने 1980 में अपनी वापसी के साथ ही रच डाला था।

राजीव ने ऐसे कई खतरों में टांग फंसा रखी थी, जिनसे निपटने की उम्मीद महज छह-सात साल के राजनीतिक करियर वाले किसी व्यक्ति से की ही नहीं जा सकती थी। उन्होंने श्रीलंका में फौज भेज दी थी, लोंगोवाल से समझौता कर आए थे और एक सुहानी सुबह अयोध्या के विवादित स्थल का ताला भी खुलवा दिया था। इसके समानांतर रेलवे के कंप्यूटरीकरण और निजीकरण पर आधारित करियर-ओरिएंटेड शिक्षा नीति जैसी पहलकदमी भी उन्होंने ले रखी थी। समाज में इन कदमों को लेकर गहरी प्रतिक्रिया देखी जा रही थी। लग रहा था कि कंप्यूटर लोगों की नौकरियां खा जाएंगे, फीसें बढ़ जाएंगी और पहले से ही उच्च वर्ग की ओर उन्मुख शिक्षा अमीरों की जागीर बनकर रह जाएगी। इसके खिलाफ उत्तर प्रदेश में छात्रों के भयंकर आंदोलन हुए, जिनमें बीएचयू और इलाहाबाद युनिवर्सिटी ने केंद्रीय भूमिका निभाई। दुर्भाग्यवश, राजनीतिक स्तर पर इन विरोधों का फायदा ऐसी शक्तियां उठाने वाली थीं, जिनके पास भविष्य के लिए अपना कोई अजेंडा ही नहीं था। उधर मॉस्को से गोर्बाचोव के संकेत आ रहे थे कि कम्युनिज्म ने रूस में एक तानाशाही ठहराव वाली विचारधारा की भूमिका निभाई है, इधर दिल्ली से निकलने वाली इंडिया टु़डे में विचारधारा आधारित छात्र संगठनों का मजाक उन्हें झोला वाले बता कर उड़ाया जा रहा था।

जमीन पर अपने जनाधार वाले छात्र एक तरफ करियर दूसरी तरफ जाति की जहनियत के आदी हो रहे थे। ऐसे ही समय में अपने एक समर्थक साथी के यहां एक रात मुझे उनके एक समझदार से दिखने वाले रिश्तेदार की गालियां सुननी पड़ीं। उन्होंने कहा, तुम लोगों के पास कोई कामधंधा नहीं है, पेट चलाने के लिए झोला टांगे घूमते रहते हो कि दलित-पिछड़े लड़कों के यहां दो रोटी तो किसी न किसी तरह मिल ही जाएगी, उनका करियर बर्बाद करते हो और खुद बड़े लोगों के साथ मजे करते हो। बहरहाल, तीन-चार साल की कोशिशों का नतीजा यह तो निकला कि महज इलाहाबाद युनिवर्सिटी तक सिमटा हुआ पीएसओ शहर के सारे कॉलेजों में फैल गया। दूर कीडगंज, अतरसुइया, गोविंदपुर और करेली तक हर गली-मोहल्ले में संगठन का संपर्क बन गया। पढ़े-लिखे लड़कों के एक समूह से आगे बढ़कर लोग इसे जुझारू संगठन की तरह पहचानने लगे, जो गुंड़ों के खिलाफ भाषण ही नहीं देता था, उनके घरों में घुस-घुस कर, दौड़ा-दौड़ाकर उनकी पिटाई भी करता था। लेकिन अब इसका क्या करें कि 1988 आते-आते इलाहाबाद से मेरा मन थकने लगा। इसके कुछ बाहरी कारण जरूर थे, लेकिन इससे कहीं ज्यादा इसके भीतरी कारण थे। भीतरी, यानी आत्मगत नहीं, संगठन से जुड़े। मेरे लिए इससे आगे का रास्ता चुनावी राजनीति का हो सकता था। इसमें मेरी कोई विशेष रुचि तो नहीं थी, लेकिन संगठन इस तरह का फैसला ले लेता तो शायद मैं इनकार भी नहीं करता।

पीएसओ को राज्य स्तरीय रूप दिया जा रहा था। अरुण पांडे को लखनऊ भेजा गया। लालबहादुर माले के छात्र संगठनों के राष्ट्रीय संयोजन में लग गए थे। कमल कृष्ण राय युनिवर्सिटी में प्रेजिडेंशल कैंडिडेट थे।  अनिल सिंह के बाद विपिन बिहारी शुक्ल जनता के बीच काम करने के लिए गांव की ओर रवाना हो रहे थे। ज्ञानवंत भूमिगत काम संभाल रहे थे। युनिवर्सिटी में संगठन का नेतृत्व अमरेश मिश्र, सेवाराम चौधरी और मुझ में से किसी एक को संभालना था। अखिलेंद्र जी की प्राथमिकता अमरेश थे और टेक्निकली वे इसके लिए ठीक भी थे। लेकिन आम छात्रों के बीच उनकी कोई गति नहीं थी। लगता था, यह गलत हो रहा है लेकिन इसमें ज्यादा कुछ किया नहीं जा सकता था। संगठन में बात-बात पर झगड़े होने लगे थे। यहां अब काम तो नहीं हो पाएगा। मन बहुत दुखी रहने लगा। बीच-बीच में एक ख्याल यह आता था कि कंपटीशन निकाल कर कोई नौकरी पकड़ लूं। लेकिन यह कपोल कल्पना थी कि क्योंकि इसके लिए तो पढ़ाई से भी ज्यादा पैसों की जरूरत थी। जून 1988 में इलाहाबाद के संसदीय उपचुनाव हुए।

इलाहाबाद की सीट अमिताभ बच्चन के इस्तीफा देने से खाली हुई थी। सिर्फ याद दिलाने के लिए बताना जरूरी है कि अमिताभ बच्चन के इस फैसले में कुछ भूमिका हमारी-बल्कि व्यक्तिगत रूप से मेरी- भी थी। यह बुजुर्ग अभिनेता अभी काफी विनम्र जान पड़ता है, लेकिन जिस दौर में रूबरू मैंने उसके दर्शन किए, उस वक्त ऐसा नहीं था। रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं, और हम तो तंबू में बंबू लगाए बैठे जैसे डायलॉगों और गानों से ही उस समय उनकी पहचान बनती थी। असम में कहीं अमिताभ बच्चन एक ऐसा बयान देकर आए थे कि इलाहाबाद में लड़कियां उनके आगे अपने दुपट्टे बिछा देती हैं। 10 जनवरी 1987 को वे सीएमपी कॉलेज में भगत सिंह की मूर्ति का अनावरण करने आए थे और इस आयोजन में उन्हें छात्रों के जबर्दस्त आक्रोश का, यूं कहें कि गंभीर मार-पिटाई का सामना करना पड़ा था। इसके कुछ ही समय बाद बोफोर्स का मामला सामने आया, जिसकी दलाली के तार अजिताभ से होते हुए कहीं न कहीं अमिताभ बच्चन से भी जुड़ते थे। संसद की सदस्यता से इस्तीफा देने का उनका फैसला अभी चाहे जितना भी बहादुराना लगे, लेकिन उस समय इलाहाबाद में इसे खेतैखेत भागना ही कहा गया था।

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बहरहाल, 1988 के उपचुनाव में हमारी राजनीतिक पार्टी आईपीएफ ने शुरू में अपना उम्मीदवार देने का फैसला किया, फिर बीच अभियान में ही इसे बदल कर वीपी सिंह को समर्थन देने का निर्णय ले लिया। इससे संगठन के शीर्ष नेतृत्व की वर्गीय सीमाओं का पता चलता था, साथ ही हमसे जुड़े दलित-पिछड़े समुदाय के लोगों में इसके खिलाफ एक प्रतिक्रिया भी देखने को मिल रही थी। एक दिन वीपी सिंह के समर्थन में निकाले गए ऐसे ही एक जुलूस में कचहरी पर कुछ लोगों से मेरी भयंकर लड़ाई हो गई। बाद में पता चला कि वे लोग गद्दी नाम के एक स्थानीय अपराधी से आते हैं। अपने बाप की तरह लड़ाई में मुझे भी ज्यादा आगा-पीछा नहीं सूझता। हरिशंकर निषाद के साथ मेरी दोस्ती पुरानी थी, लेकिन उस दिन उनका अपने साथ लड़ाई में जूझना मुझे अभी तक याद है। संगठन में खौफ था कि गद्दी आकर सब कुछ तहस-नहस कर देंगे लेकिन हरिशंकर बिल्कुल निर्भय थे। मार-पीट कर निकल लेने की घटनाएं संगठन में अक्सर होती थीं, लेकिन संगठित विरोधी को मार कर एक जगह जमे रहना नई बात थी। यह एक नई किस्म की दोस्ती भी थी, जो बाद में मेरी कई दोस्तियों की पहचान बनी। ऐसे लोग, जो साथ लड़ते हुए जान दे देंगे लेकिन लड़ाई के बाद ही पूछेंगे कि मामला क्या था।

: जुड़ना जनमत से : इलाहाबाद के ऐसे ही खट्टे और डेस्परेट माहौल में पटना से रामजी राय आए और जनमत पत्रिका में सहयोग देने के लिए मुझसे अपने साथ चलने को कहा। यह इलाहाबाद पार्टी इकाई का फैसला भी था, बशर्ते मुझे इस पर कोई एतराज न हो। ज्ञानवंत उस समय पार्टी प्रभारी थे और उन्होंने कहा कि तुम अगर अपना भविष्य पार्टी होलटाइमर के रूप में देखते हो तो अब तुम्हें किसी दुविधा में नहीं रहना चाहिए। ज्ञानवंत खुद उस वक्त पूरे मनोयोग से एम.ए. फिलॉसफी फाइनल के इम्तहान की तैयारी में लगे हुए थे (जो शायद उनकी आईएएस की तैयारी का हिस्सा भी रही हो। मुझे आज भी यह सोचकर आश्चर्य होता है कि सत्ता ढांचे में शामिल होने की तैयारी होने की तैयारी करते हुए कोई उसका विरोध कैसे करता रह सकता है), क्योंकि उनके मन में अपने भविष्य को लेकर कोई दुविधा नहीं थी।

इलाहाबाद युनिवर्सिटी में आगे मेरे लिए कोई स्कोप न देखकर उस समय तक मुझे एक राज्यव्यापी युवा संगठन बनाने की संभावना टटोलने के लिए कहा जा चुका था। इस सिलसिले में मैं एक बार मैं गाजीपुर गया था और कुछ दिन इलाहाबाद के मांडा-कोरांव इलाके में भी घूम कर आया था। बीएसपी का असर जमीन पर कितना गहरा है, इसका ठीक-ठीक अंदाजा मुझे अपनी कोरांव यात्रा में ही हुआ था। एक छोटी सी दुविधा पढ़ाई को लेकर भी थी। 1987 में ऐसे ही खेल-खेल में एलएल.बी. के पहले साल का इम्तहान दे दिया था। फॉर्म भरने की व्यवस्था संगठन ने की थी और इम्तहान भर मुझे अपने कमरे में ठहराने के लिए उमेश ने अपने रूम पार्टनर जेपी को मना लिया था। किताबें किससे मांगी थीं, अब याद नहीं आता। लेकिन इम्तहान में नंबर इतने अच्छे आ गए कि कुछ दिन के लिए लगने लगा, जैसे वकालत के पेशे में भी अपने लिए कुछ जगह हो सकती है।

नतीजे आए तो एक शाम शिवसेवक सिंह ने मुझे बताए बगैर सोहबतियाबाग की एक आम सभा में ही घोषणा की कि लॉ फस्टियर के टॉपर साथी चंद्रभूषण अब सभा को संबोधित करेंगे। मार्कशीट देखने पर ही यकीन हुआ कि खिंचाई नहीं कर रहे थे। कोई गलतफहमी न रहे इसलिए साफ कर देना जरूरी है कि यह नतीजा इलाहाबाद युनिवर्सिटी से नहीं, इससे अफिलिएटेड एडीसी कॉलेज से जुड़ा हुआ था, जिसके बारे में मेरे एक राजनीतिक विरोधी का कहना था कि वहां तो कोई थर्ड डिविजनर भी टॉप कर सकता है।

रामजी राय जब मुझे जनमत के लिए लिवाने आए थे, तब सेकंड ईयर के फॉर्म भरे जा रहे थे। वजह जो भी रही हो, लेकिन संगठन की ओर से इस बार पैसों की व्यवस्था नहीं हो पाई थी। इलाहाबाद के अपने समूचे प्रवास में मैंने घर से सिर्फ एक बार, इस फॉर्म के लिए ही पैसा मंगाया था। जिस वक्त तय हुआ कि पटना जाना है, उसके घंटे भर के भीतर ही साथी कमलेश बहादुर सिंह ने वह पैसा (करीब दो सौ रुपया) मुझसे उधार मांग लिया और फिर कभी उसे वापस नहीं किया। रामजी राय से तब तक मेरी कुछ खास नजदीकी नहीं थी। वे जनमत के संपादक होने से पहले कानपुर में पार्टी का काम करते थे।

कानपुर में हमारा काम मुख्य रूप से वहां के कारखाना मजदूरों के बीच था। पार्टी अंडरग्राउंड होते हुए भी पार्टी संगठकों को शहरी इलाकों में छिप कर रहने की जरूरत नहीं थी। लेकिन काम का नेचर ऐसा हो गया था कि रामजी राय जब इलाहाबाद में होते तो भी शाम के वक्त झुटपुटे अंधेरों में ही नजर आते थे। मुलाकातें दो-चार ही हुई थीं लेकिन जब भी मिलते थे, मन भरा-भरा सा लगता था। ठठाकर हंसने वाले, बातों में ईर से बीर तक का ताल मिलाने वाले, जिंदादिल और मूंज जैसे चीमड़ तीखे आदमी का फील देते थे। उनकी पत्नी मीना भाभी, बेटी समता और बेटा अंकुर, यानी उनकी पूरी गृहस्थी इलाहाबाद में थी, जिसे मीना भाभी एक स्कूल की नौकरी के जरिए चलाती थीं। पीएसओ के भीतर रामजी राय की गिनती उसके दो-तीन संस्थापक सदस्यों में होती थी, जिनमें सिर्फ दो- अखिलेंद्र सिंह और वे खुद उस समय तक सक्रिय राजनीति में थे।

जनमत का निकलना एक टैब्लॉयड अखबार की शक्ल में 1986 से शुरू हुआ था और फिर पटना के कई बौद्धिक और रचनाशील लोगों के सहयोग से इसे ए-4 साइज में निकाला गया। यह सीपीआई-एमएल लिबरेशन में जारी बदलाव की एक बहुत बड़ी प्रक्रिया का नतीजा थी। पार्टी कुछ जिलों में सिमटी अंडरग्राउंड नक्सलवादी धारा से पूरे हिंदीभाषी क्षेत्र में कम्युनिस्ट आंदोलन की सबसे बड़े मास बेस वाली, सबसे तेजस्वी और उग्र धारा में तब्दील हो रही थी। वह कई छात्र संगठनों के संपर्क में थी, उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के साथ उसकी नजदीकी बनी हुई थी, जनमोर्चा जैसे उसके बड़े प्रयोग आईपीएफ के साथ देश भर के नागरिक अधिकार आंदोलनकारियों का जुड़ाव बना हुआ था। फांसी की सजा से बगैर किसी माफीनामे के रिहा हुए नागभूषण पटनायक जैसे प्रतिबद्ध वाम जननेता उसके साथ थे, जिन पर लिखा गया नाटक थैंक यू मिस्टर ग्लाड देश भर में चर्चित हुआ था। जनमत को इस बड़े वैचारिक आलोड़न का आईना बनना था, और यह काम उसने काफी-कुछ किया भी। थोड़े-थोड़े गैप के साथ करीब दस साल निकली जनमत को उत्तर भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास की एक महत्वपूर्ण रचनात्मक पहल माना जा सकता है। यह बात और है कि इसे लंबे समय तक निकालने के लिए सोच और ढांचे की जो स्थिरता जरूरी थी, उसे निभा पाना लिबरेशन के बूते से बाहर साबित हुआ।

बहरहाल, गोर्बाचेव की पेरेस्त्रोइका के असर में सीपीआईएमएल-लिबरेशन के भीतर शुरू हुई एक बहस का नतीजा यह निकला कि 1988 के अप्रैल-मई में वहां जनमत से एक साथ कई लोग- उसका इंजन समझे जाने वाले पार्टी पॉलिट ब्यूरो मेंबर प्रसन्न कुमार चौधरी, बोकारो की मजदूर पृष्ठभूमि से आए पत्रकार जगदीश और इलाहाबाद से ही गए कला संपादक प्रमोद सिंह (फिलहाल अजदक) एक साथ पत्रिका छोड़कर चले गए थे। उनकी जगह भरने के लिए तीन नए रंगरूट- इलाहाबाद से आगे-पीछे मैं और इरफान, और हजारीबाग से विष्णु राजगढ़िया पटना पहुंचे।

इलाहाबाद से पटना की यात्रा में रामजी राय ने मुझे मेरा काम समझाने का प्रयास किया। ज्यादा नहीं, सिर्फ मुझे अच्छे से पत्रिका का प्रूफ पढ़ देना था, पाठकों के पत्र ठीकठाक कर देने थे और नए-नए आए ऐपल के मैकिंटोश कंप्यूटर में ड़ और ढ़ की बिंदियां नहीं लग पाती थीं, उन्हें फाइनल प्रिंट में ब्लैक टिप पेन से सुधार देना था। पटना में उमा टाकीज के पीछे जनमत के लिए जो अर्ध भूमिगत डेरा लिया गया था, वह सड़क से थोड़ा गहरा, अंधेरा और सीलन भरा था। लेकिन पार्टी की सूचनाओं के मुताबिक कई लोगों के जनमत छोड़कर चले जाने के बाद उस डेरे को सुरक्षित नहीं माना जा सकता था, लिहाजा जल्द ही हम लोग शहर की एक अपेक्षाकृत पॉश कॉलोनी राजेंद्र नगर (पॉकेट-5) में रहने चले गए। इसके ठीक पहले एक दिन रामजी राय और महेश्वर के साथ स्त्री प्रश्न पर मेरी बड़ी जबर्दस्त बहस हो गई।

महेश्वर एक अलग ही मिजाज के वाम बुद्धिजीवी थे और जनमत के प्रधान संपादक होने के अलावा पटना के एक डिग्री कॉलेज में पढ़ाते भी थे। उनसे मेरी मुलाकात पटना पहुंचने से पहले कभी नहीं हुई थी, हालांकि इलाहाबाद में उनका जिक्र गोरख पांडे या विनोद मिश्र जैसे ही मिथकीय अंदाज में होता रहता था। बहस का मुद्दा यह बना कि पुरुष कर्मचारी की तनख्वाह में उसकी पत्नी का हिस्सा औपचारिक रूप से होना चाहिए या नहीं। मेरा कहना था कि घरेलू स्त्री का भी पुरुष के श्रम की रचना में बराबर का योगदान होता है, लिहाजा उत्पादन के एवज में पुरुष को मिलने वाली तनख्वाह में से आधा कानूनी तौर पर उसकी पत्नी के पास जाना चाहिए। इसके जवाब में एक स्वर से (रामजी राय और महेश्वर को मैंने कभी दो स्वरों में बोलते सुना ही नहीं) उन दोनों जनों का कहना था कि ऐसा तो समाजवाद और साम्यवाद में भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि पुरुष की तनख्वाह के कानूनी तौर पर दो हिस्से हो जाने के बाद वह विश्वास ही समाप्त हो जाएगा, जिसकी बुनियाद पर कोई परिवार टिका होता है। ऐसी अमूर्त बहसों का कोई ठोस नतीजा तो निकलता नहीं, लेकिन उस रात मैंने सपना देखा (और अगले दिन प्रेस जाते हुए विष्णु राजगढ़िया को बताया) कि बिल्कुल खुले निचाट मैदान में दो जंगली भैंसों ने मुझे घेर लिया है। भागता हुआ मैं कोई पेड़ खोज रहा हूं, जिस पर चढ़ कर अपनी जान बचा लूं, लेकिन वहां सिर्फ मैदान है, पेड़ कोई नहीं है।

: बिहार शोज़ द वे : बिहार की राजनीति उन दिनों अपने सर्वाधिक वीभत्स दौर से गुजर रही थी। म्यूजिकल चेयर की तरह कांग्रेस पार्टी छह महीने के लिए वहां किसी ब्राह्मण को मुख्यमंत्री बनाती और फिर छह महीने किसी ठाकुर को। समाज के बाकी हिस्सों में इस खेल से कांग्रेसी राज के खिलाफ कितनी नफरत पैदा हो रही है, इसका अंदाजा राजीव गांधी को बिल्कुल नहीं था। राज्य के इन्फ्रास्ट्रक्चर और उसकी शिक्षा का कबाड़ा काफी कुछ उन्हीं दिनों हो गया था। बारिश के पूरे मौसम में बजबजाते रहना पटना की नियति तभी बन चुकी थी, लेकिन हमारे मन में बिहार की छवि उन दिनों बड़ी रूमानी हुआ करती थी। इतनी कि इलाहाबाद जैसे साफ-सुथरे शहर से आने के बावजूद पटना की अराजकता और दुर्दशा तब हमें कभी नजर ही नहीं आई।

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बिहार- एक ऐसा प्रांत, जो खुद वर्गयुद्ध की ज्वाला में धधकते हुए भारत को नव जनवादी क्रांति का रास्ता दिखा रहा है। बिहार शोज द वे। सत्ता बंदूक की नली से निकलती है और दिल्ली का रास्ता जहानाबाद से होकर गुजरता है। बिहार के धधकते खेत-खलिहानों की दास्तान (फ्लेमिंग फील्ड्स ऑफ बिहार) शीर्षक से लगभग अकादमिक मिजाज की, लेकिन बहुत ही प्यार, लगाव और सामूहिक मनोयोग से तैयार की गई एक किताब सीपीआई-एमएल लिबरेशन ने कुछ ही समय पहले प्रकाशित की थी, जिसे न्यू लेफ्ट रिव्यू ने 1986 में आई संसार की दस सबसे महत्वपूर्ण किताबों में से एक का दर्जा दिया था। लगभग इसी समय अरवल जनसंहार के साथ बिहार में जनसंहारों का एक सिलसिला शुरू हुआ था, जो अगले बीस वर्षों तक जोरशोर से जारी रहा। उसकी अनुगूंजें आज भी जब-तब सुनाई दे जाती हैं।

ऐसी दो-तीन घटनाएं मेरे पटना पहुंचने के तुरंत बाद हुई थीं और हमारे डेरा शिफ्ट करने की मुख्य वजह भी वे ही बनी थीं। सशस्त्र संघर्ष की लाइन होने के बावजूद हमारी पार्टी की भूमिका इन जनसंहारों में अक्सर रिसीविंग एंड पर ही हुआ करती थी। हमारे जनाधार पर हमला होने पर जवाब में विरोधी पक्ष पर हमला बोल कर एक और जनसंहार कर देने की लाइन हमारी कभी नहीं  रही। हमारा मानना था कि जवाबी जनसंहार से जनता का राजनीतिकरण नहीं होगा और इससे वर्ग संघर्ष को नहीं बल्कि जाति संघर्ष को बढ़ावा मिलेगा। प्रतिक्रिया में छोटे पैमाने पर ऐसी एक-दो घटनाएं हुईं भी तो पार्टी के भीतर इस पर गहरी बहस चली, दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की गई, और यहां तक कि उन्हें पार्टी से निकाला भी गया।

जवाबी जनसंहार की लाइन पर पार्टी यूनिटी और एमसीसी जैसे ग्रुप काम करते थे, जो लिबरेशन को अपना सबसे बड़ा शायद वर्गशत्रुओं से भी बड़ा दुश्मन मानते थे। अब ये दोनों ग्रुप सीपीआई-माओवादी में शामिल हो चुके हैं। सामंतवाद विरोधी संघर्ष की हमारी परिभाषा बड़ी थी और इसमें जनसंहारों के जवाब में जनता का प्रतिरोध खड़ा करने और चुनिंदा दुश्मनों को अलग-थलग करके मारने की बात शामिल थी।

बहरहाल, हम जनमत में बैठे लोगों के लिए काफी समय तक यह सब दूर के ढोल जैसी सुहावनी चीज ही बना रहा। शहर पटना का सांस्कृतिक माहौल उन दिनों बहुत सरगर्म था। भागी हुई लड़कियां, ब्रूनो की बेटियां और पतंग जैसी आलोक धन्वा की नई कविताओं ने देश भर में तहलका मचा रखा था। इनमें ब्रूनो की बेटियां बिहार के जनसंहारों पर लिखी गई थी। ऐसी नृशंस घटना पर इतनी महत्वपूर्ण रचना लिखना किसी बड़े कवि का ही काम हो सकता था। संजीव की कहानी तिरबेनी का तड़बन्ना और सृंजय की कामरेड का कोट भी बिहार के सामंतवाद विरोधी संघर्ष की पृष्ठभूमि पर लिखी गई बड़ी रचनाएं हैं और इनका समय भी कमोबेश ब्रूनो की बेटियां का ही है। हृषिकेश सुलभ ने मृच्छकटिकम का जो अनुवाद माटीगाड़ी नाम से किया था, उसका मंचन मेरे पटना पहुंचने से ठीक पहले हुआ था और उसकी चर्चा वर्ग संघर्ष के मुहावरों के साथ बहुत बाद तक सुनाई देती रही।

पटना में मैंने गिनती के दो-तीन नाटक ही देखे, लेकिन उनमें दो को कभी भूल नहीं सकता। पारंपरिक ढब वाला इप्टा का सामा चकेवा (जिसमें एक साथ बज रहे बीसियों मृदंगों की थाप नाटक का जिक्र आते ही कानों में गूंजने लगती है) और सतीश आनंद का ताम्रपत्र। पटना रेडियो स्टेशन के एक विशेष आयोजन में गिरिजा देवी और शोभा गुर्टू के गाए चैता-ठुमरी और और एल. राजम के बजाए वायलिन को भी मैं जिंदगी भर सहेज कर रखने लायक अनुभव मानता हूं। करीब पंद्रह साल बाद दिल्ली में इन्हें दोबारा सुनने का मौका मिला, लेकिन एक कलाकार को उसके प्राइम पर सुनना कुछ और ही बात हुआ करती है।

दुर्भाग्यवश, पटना के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में ज्यादा शामिल होने का मौका मुझे नहीं मिल सका। मुझे लगता है, इलाहाबाद के राजनीतिक जीवन से निकल कर पटना के अपने शुरुआती दौर में मैं कुछ ज्यादा ही किताबी और घरघुसना हो गया था। अलबत्ता इरफान इसमें गले तक डूबे हुए थे और बाद में उन्होंने सीधे इसमें कुछ योगदान भी किया। 1988 से 1990 तक दो सालों में पढ़ाई मैंने बहुत भयंकर ढंग से की। खूब पढ़ना और उससे ज्यादा लिखना। जनमत के लिए यह जरूरी था क्योंकि हर हफ्ते उसके अड़तालीस पेज भरे जाने जरूरी थे और रिपोर्टें, पत्र, राजनीतिक गतिविधियों की सूचनाएं वगैरह मिलाकर दस-पंद्रह पेज से ज्यादा का मैटीरियल कभी नहीं हो पाता था। इस क्रम में जनमत का अधिकतम प्रिंट ऑर्डर दस हजार प्रतियों तक पहुंचा, लेकिन फिर वसूली कम होने लगी और प्रिंट ऑर्डर भी नीचे आना शुरू हो गया।

लग रहा था कि पत्रिका को बाहरी अनुभव से समृद्ध करना जरूरी है, लेकिन इसका कोई रास्ता समझ में नहीं आ रहा था। इसी दौरान पटना में मेरी मुलाकात राजीव से हुई। राजीव बहुत गहरी और तीक्ष्ण वैचारिक समझ वाले वाम बुद्धिजीवी थे (आज भी हैं), लेकिन सीपीआई से लेकर माले तक किसी भी स्थापित कम्युनिस्ट पार्टी से उनका संवाद नहीं बन सकता था। रूसी क्रांति के नेताओं में वे स्तालिन से नफरत करते थे और घोषित रूप से लियोन त्रात्स्की को पसंद करते थे। बल्कि त्रात्स्की के विचारों में मसीहाई तत्व देखते थे। भारत की कोई भी कम्युनिस्ट पार्टी उनके इस विचार से इत्तफाक नहीं कर सकती थी।

सीपीआई(एमएल) की एक रैली, इस पार्टी व इसके जुड़े कुछ लोगों से संबंधित एक वीडियो, देखने के लिए क्लिक करें….. CPI(ML)

उनके विचारों का जमीनी आंदोलनों से कोई संपर्क नहीं था और बहस के दौरान वे निपट अकादमिक लगने लगते थे। उनसे मेरी दोस्ती का आधार उनके विचारों से ज्यादा उनका जीवन बना। वे कानपुर आईआईटी से एम.एससी. कर रहे थे, जहां उन्हें एक ऐसी लड़की से दीवानगी की हद तक प्यार हो गया, जिसे उनके विचारों और उनकी भावनाओं से कुछ भी लेना-देना नहीं था। एक दिन अपनी रिसर्च पूरी करके वह अमेरिका चली गई और दीवानगी के आलम में राजीव कानपुर से पटना रवाना हो गए। रास्ते में कहीं ट्रेन धीमी हुई तो उतर गए और चांद को देखकर घंटों रोते रहे।

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….जारी…

चंदू भाईचंद्रभूषण को उनके जानने वाले चंदू या चंदू भाई के नाम से पुकारते हैं. चंदू भाई हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार हैं. इलाहाबाद, पटना और आरा में काम किया. कई जनांदोलनों में शिरकत की. नक्सली कार्यकर्ता भी रहे. ब्लाग जगत में इनका ठिकाना ”पहलू” के नाम से जाना जाता है. सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर बहुआयामी सरोकारों के साथ प्रखरता और स्पष्टता से अपनी बात कहते हैं. इन दिनों दिल्ली में नवभारत टाइम्स से जुड़े हैं. चंदू भाई से यह डायरी लिखवाने का श्रेय वरिष्ठ पत्रकार और ब्लागर अजित वडनेरकर को जाता है. अजित जी के ब्लाग ”शब्दों का सफर” से साभार लेकर इस डायरी को यहां प्रकाशित कराया गया है. इस डायरी के पहले पार्ट को पढ़ने के लिए क्लिक करें- एक नक्सली की डायरी (1)

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