हम रोते भी हैं तो बताते हैं, वो हंसते भी हैं तो छिपाते हैं…. : कल अशोक चले गए दिल्ली से। दिल्ली से बहुत दूर। उस शहर का नाम हम किसी को पता नहीं है। उन तक पहुंचना संभव नहीं है। क्यों गए, किसलिए गए, कुछ पता नहीं। बस, चुपचाप चले गए। कल ही रात अलीगढ़ के एक पत्रकार को दिल्ली के एक चैनल के बाहर जमकर मारा गया। रात में गए थे हम लोग उससे थाने में मिलने। उसे सुना और महसूस किया। उसकी खबर आज दी जाएगी। आज धर्मेंद्र भी चला गया। दिल्ली छोड़ गया। सामान तो पहले ही जा चुका था। आज वो भी चला गया। धर्मेंद्र मरा तो नहीं, लेकिन एक मौत जीकर जा रहा है, जिंदगी जीने। ट्रेन में बैठा होगा। सुबह 11 बजे थी। जाने से पहले अंतिम लिखा दे गया। साथ में एक मोबाइल नंबर भी जो आज रात में चालू हो सकेगा। दिल्ली वाला नंबर, और जो चालू होने वाला है, दोनों नीचे डाल दिया है, पर प्लीज, उसे कोई नौकरी के लिए न बुलाए, उसे कोई सांत्वना न दे, उसे कोई सहानुभूति न दिखाए। उसे जाने दीजिए, चुपचाप, बिलकुल अकेले। उसी तरह जैसे कोई मरकर जाता है, बच जाने की खुशी और उम्मीद के साथ। उसे डिस्टर्ब न करें। उसे जीने दें, अपनी नई जिंदगी, शुक्र है इसी दुनिया में जिएगा, वरना लटक कर मरने के उसके पास हजारों बहाने थे, पर वो बहादुर है, एक मीडिया घराने द्वारा दिए गए स्लो प्वायजन मौत को उसने जीने और स्वीकारने से इनकार कर दिया। मैं निजी तौर पर इस जिंदा आदमी को दिल से प्रणाम करता हूं, चरण छूना चाहता हूं, चूम लेना चाहता हूं क्योंकि मुर्दों के इस दिल्ली देस में इतना हिम्मतवाला बहुत दिन बाद देखा है, शायद जरनैल सिंह के बाद कोई एक बंदा और मिला है जिसके लिए कह सकता हूं कि वो धर्मेंद्र हम लोगों के समय का हीरो है, एक बड़ा फैसला लेकर और उसके बारे में दुनिया को बताने का साहस करने के कारण। आज रोक नहीं सका खुद को रोने से, बहुत दिन बाद दिन में रोया हूं.
कई वजह है, एक तो खुद ही हूं वजह कि दिन में रोने लगा हूं अब… दूसरी वजह ये कि रात में बचा हुआ दो-तीन पैग रम आज सुबह के वक्त बीत गए क्रिसमस और आ चुके विंटर वैकेशन के नाम पर सुबह बनी मटर-आलू की घुघनी और रात बची मछली संग गटक लिया….. तीसरे, दिल्ली ने बहुत अच्छा मेरे साथ भी तो नहीं किया… मैं भी तो एक दिन गांव जा रहा था पर भूखे-प्यासे रहकर भी बच्चों को पालने की धुन-जुनून में जीता-भटकता-बहकता-लड़ता चला गया…. और, जाते-जाते रह गया हूं अभी तक दिल्ली में…. रोने का कोई एक बहाना नहीं होता, ढेर सारे बहानों का मिला-जुला समुच्चय आंख से पानी निकालता है… कुछ वजह और भी हैं….. यह सब लिखते और कुछ सुनते-महसूसते-सोचते भावुक हो गया… वो भावुकता जिसे हम सभी अब पास भी नहीं फटकने देना चाहते… वो भावुकता जिसे हम कतई जीना पहचानना बोलना बताना नहीं चाहते… जिसे बताने में शायद अंदर का मर्द, अंदर का इगो किल होता है…. जिसे बताना-सुनाना शायद बचकाना, बकवास और देहातीपन माना जाता है…. बाकी अन्य कारक और वजह, रोने के पीछे, जो मुझे लग रहे हैं, संभवतः कुछ ये हैं…. इस गाने को सुनके, अशोक और धर्मेंद्र के दिल्ली से चले जाने से, दयानंद का लिखा पढ़ के…. ये कुछ लाइने हैं जो मैं सुन रहा हूं… लता और जगजीत का गाया (सजदा एलबम से)…. अंत में एक चीज और… धर्मेंद्र ने जो लिखा है, उसमें आज एक शब्द भी मैं ठीक नहीं कर पा रहा हूं… कई गल्तियां रह गई होंगी, उससे, फिर मुझसे, आप सब समझदार हैं, मीडिया के हैं, इसलिए उसकी मेरी गल्तियां माफ करना…
ग़म का खजाना तेरा भी है, मेरा भी
ये नजराना तेरा भी है, मेरा भी
अपने ग़म को गीत बनाकर, गा लेना
राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी
तू मुझको और मैं तुझको, समझाऊं क्या
दिल दीवाना तेरा भी है, मेरा भी
शहर में गलियों गलियों जिसका, चर्चा है
वो अफसाना तेरा भी है, मेरा भी
मयखाने की बात न कर, वाइज़ मुझसे
आना-जाना तेरा भी है, मेरा भी
-यशवंत, भड़ास4मीडिया
ऐड़ा बनकर पेड़ा खा रहे हैं कई
लखनऊ विश्वविद्यालय के महाराजा महमूदाबाद छात्रावास में 13 साल (86 से 99) रहने के क्रम में चंद साल में ही चीफ रेजीडेंट हो गया था क्योंकि ऐसे वर्ग के लोग यहां रहने आते थे, जो बीकाम पूरा होते ही पैतृक व्यवसाय में घुस जाते थे। कुछ ने सीए व आईसीडब्ल्यूए वगैरा किया, पर तीन-चार साल में चले गए, पर ब्यूरोक्रेट बनने की गरज से पड़ा रहा। रघुराज प्रताप सिंह (राजा भैया), अरविंद सिंह गोप को लेकर आते थे तो समर पाल सिंह, राकेश सिंह राना, रमेश श्रीवास्तव, बृजेश मिश्र व पाठक आदि चीफ होने के कारण बड़ा सम्मान देकर सपोर्ट मांगते थे। बाद में यही सब करीब दर्जन भर लोग सांसद-विधायक बने तो कई मंत्री भी। जागरण के वरिष्ठ पत्रकार बृजेश सिंह जी सामने वाले हबीबउल्लाह छात्रावास में रहते थे। दूसरे सुबह जब कक्षाओं के लिए निकलता था तो डेढ़ किलोमीटर के रास्ते में कम से कम डेढ़ सौ लौग भाई साहब नमस्कार व भैया नमस्ते की आवाजें लगाते थे। अब यह सब दिल्ली में कहां रखा और इसके बिना मैं सूखकर कांटा हुआ जा रहा था, सो भाग निकला क्योंकि यहां तो उल्टा था। दोपहर में मकान मालिक/मालकिन को नमस्ते करो तो शाम को आफिस में ऐसे-ऐसे लोगों को, जिन्हें देखकर घिन आ जाए।
नमस्ते से एक वाकया याद आया। हमारे एक साहब हैं उप समाचार संपादक प्रदीप शुक्ला, वही जिनका जिक्र पूरे धारावाहिक में द्वितीय पंक्ति के नाम से किया गया है। दरअसल समझने वाले पूरा मामला समझ रहे थे और मैं उनका नाम लिखकर इंटरनेट की दुनिया से उन्हें दूर ही रखना चाहता था ताकि नाम अमर न हो जाए, पर आफिस से कई ज्यादा समझदार लोगों (इनके दुर्व्यवहार से परेशान) के फोन आए कि ऐसे घटिया और अक्षम आदमी को इतने सस्ते में निपटा दिया गुरु। आखिर बात क्या है…कहीं सेटिंग तो नहीं हो गई। शील सर इन्हें सगा समझते रहे और ये साहब उनकी ही जड़ें खोदते रहे। दरअसल शील सर को इनकी काबिलियत पर पूरा शक था तो उन्होंने एक दिन जिद पकड़ ली, पूछा राजधानी का सेकेंड एडिट लिखा। तब इन्होंने संजीव जी स्नेही से लिखने को कहा तो उन्होंने कहा कि अरुण चौधरी जी कहेंगे, तभी लिखेंगे। चौधरी जी ने कहा, तब उन्होंने लिखा। इन्होंने कई अक्षम जूनियर लोगों को डेस्क इन-चार्ज बना रखा है तो कई काबिल सीनियर को खुड्डे लाइन (उनके अंडर में) लगा रखा है। ऐसे सेंटर, जहां अखबार कम बिकता है, वहां का इन-चार्ज दूसरे गुट के प्रतिभाशाली लोग हैं तो अपने बंदों को बड़े व कमाऊ सेंटरों पर बैठा रखा है।
इनसे कई को बोलना तक नहीं आता है कि कौन सी बात कितने डेसिबल में करनी चाहिए पीक आवर में संपादकीय विभाग में। रघुवंशी सर को असंतोष खत्म करना चाहिए। अभी तक कंपनी मुलाजिमों की जो भी सूची बनती थी, उसमें इनका नाम पहले नंबर पर होता था, पर अब धर्मशाला यूनिट के प्रभारी श्री किशोर झा का तबादला नोएडा होने के बाद ये सूची में नंबर दो पर लुढ़क गए हैं, जिसके बाद दर्जनों उप संपादकों को निश्चित ही सुकून हो रहा होगा। अब यह सिर झुकाकर घुसते हैं और इन्हें पंकज शर्मा और अनुज श्रीवास्तव के अलावा कोई भी (आई रिपीट कोई भी) नमस्ते नहीं करता है। इनकी अक्षमता की भी कहानी है। 2007 में नवभारत टाइम्स में टेस्ट देने गए थे तो इसी दौरान कहीं संतुष्टि में बड़ी ई की मात्रा लगाकर चले आए थे, फेल हो गए थे। हवा उड़ा दी कि अवधेश जी के साथ मेरा भी हो गया है तो जागरण प्रबंधन भी झांसे में आ गया और उल्टे 5000 रुपये देकर पुरस्कृत किया। उस दौरान 13 माह में इनके 12 हजार रुपये बढ़े थे।
प्रबंधन यहां पर गलत था और आज भी गलत है। एडिट इन्हीं साहब से लिखवाना चाहिए, वह भी सामने बैठाकर क्योंकि अब रुपया पाते हैं 36 हजार से अधिक और काम नहीं धेला भर का। एक खबर भी अगर चमका दें तो गुप्ता जी का पैसा वसूल हो जाए। राजीव सर का भला हो, जो किसी लायक बना गए, वरना 2004 में मैं सब एडिटर था व यह साहब सीनियर सब और पगार में जो दूने से अधिक का फर्क हो चुका है, वह था सिर्फ 2000 रुपये। जागरण के एकमात्र हितैषी इन साहब ने 11 दिसंबर को एक सूची जारी की, जिसमें राजधानी डेस्क पर मुझे चौथे नंबर पर था। इससे भी मैं खुंदक खा गया। देखना है कि प्रबंधन ऐड़ा बनकर पेड़ा खाने वालों को कब तक ढोता है और इनाम देता है।
वे लोग पांच करोड़ का गले पर चढ़कर काम ले लेंगे
सीजीएम सर, दिल्ली के कई निजी स्कूल वाले आपको व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं। मयूर विहार फेज-3 के एक स्कूल वाले के पास बेटे के लिए गया तो उसने एडमीशन फी 2007 में बताई थी 10 हजार रुपये। आपके यहां नौकरी करने का हवाला दिया तो आठ हजार पर तैयार हो गया था, पर दुर्भाग्य से मेरे पास वह भी नहीं थे तो फिर हर माह डेढ़ हजार रुपये फीस कहां से भरता क्योंकि दूध वाले का बिल भी करीब इतना ही होता था व किराने वाले का भी। बड़ा कष्ट होता है, जब किसी साथी को बच्चा पैदा कराने के पहले बैंक या कंपनी से लोन लेना पड़ता है। गुप्ता जी बैठकों में कहते हैं कि सड़क और चौराहे पर तुम ही होते हो जागरण और संजय गुप्ता।
चलो मान लिया कि होते हैं, पर जिसके सामने हम होते होंगे, वह सड़क के गुप्ता जी के जूते और कपड़े देखकर क्या सोचता और छी-छी ही कहता होगा क्योंकि आपके सूट अरमानी के और हमारे शादी के। बूट न आक्सफोर्ड और न ही कैंब्रिज, वही मंगल और शनि के बाजार में खरीदे हुए। साढ़े पांच साल में तीन-चार संपादकीय प्रभारी बदल चुके हैं, हर साल बार-बार प्रूव करो खुद को, बुढ़ापे तक प्रूब करते रहो खुद को और करते रहो 2011 तक प्रमोशन का इंतजार। केंद्र सरकार में काफी बड़े ओहदे पर कार्यरत सगे बड़े भाई से एक बार कहा कि गुप्ता जी या सीजीएम साहब को फोन कर दो (जागरण में सिफारिश खूब चलती है) तो एक प्रमोशन और चार-पांच हजार का एंक्रीमेंट ही मिल जाए, नहीं तो कानपुर या लखनऊ ट्रांसफर ही हो जाए, पर उनके उसूल आड़े आ गए और बोले कि तुम्हें पांच हजार दे देंगे और हमसे पांच करोड़ का गले पर चढ़कर काम ले लेंगे।
अब शामियाना गड़ेगा गांव में और आएंगे…
एक बार एक बरगद टाइप के अधिकारी ने मूड में आने के बाद कुछ बात चलने पर कहा कि देखना प्रदीप कहीं का जल्द ही यूनिट प्रभारी बनेगा तो प्रतिभा से वाकिफ होने के कारण मेरे मुंह से निकला ऐसा क्यों। उनसे ज्यादा काबिल तो कई चीफ सब हैं संपादकीय में। उन्होंने कहा कि गधे हो, उसके इतना जबरदस्त लायजनर कौन है। सभी आला अधिकारियों के घर जाता रहता है हर हफ्ते, पखवाड़े और हर माह। बुक रिव्यू हो या सेकेंड एडिट, भाई साहब धर्मेंद्र को बुलाओ, तो भैया अपनी पगार का पैसा भी मेरी ओर खिसकाओ और जब बारी आए एंक्रीमेंट व प्रमोशन की तो घर पर सब्जी लाने वालों का कराओ। इन्हीं सब कारणों से जो शामियाने साल में एक बार छत पर जालंधर में सिर्फ गैदरिंग के लिए जरूर लगता था, अब वे लगेंगे गांव में। यह सपना मैंने पाला था लविवि में पढ़ाई के दौरान कि जहां भी रहूंगा, साल में एक बार लोगों को घर पर इकट्ठा जरूर करूंगा और जो भी आर्डरली होगा, उसे दादा कहकर पुकारा करूंगा। इस चीज को निभाया भी आफिस में पानी न पिलाने वालों को भी चाचा और दादा कहकर।
दरअसल नौकरी के दौरान मैं डर गया था कि कहीं हत्यारा न बन जाऊं, हसीन सपनों का हत्यारा इसलिए क्विट करना जरूरी हो गया क्योंकि सपनों के मामले में मुझे शहीद कवि पाश (घर जाकर पत्नी से बातचीत की थी 2000 में कि कैसे चल रहा है परिवार) का शागिर्द समझिए। दरअसल मीडिया कुछ बातों को उठाता तो है जोर-शोर से, पर दूसरी खबरों के आते ही पीछे वाली को जल्द ही भुला भी देता है और फिर कभी पलट कर देखने की कोशिश तक नहीं करता है कि घटना के पीडि़तों का हाल क्या है।
स्व. कुंवर जी अंजुम व राजीव ओझा जी हमेशा कहते रहे कि ठाकुर यार, अब दिल्ली में दावत नहीं देते हो तो एक ही जवाब होता था, यहां उस स्तर के लोग नहीं है, जबकि सच यह है कि यहां महंगाई व जिम्मेदारी बढ़ी हुई थीं और पगार उस स्तर की थी नही। दुनिया में सबसे ज्यादा तेजी से विकसित होने वाले इस कंट्रीट के शहर नोएडा में बहुत मारा पत्थर की दीवारों पर सिर। मत्था जरूर फूट गया, पर दीवार नहीं गिरी। यानी कि जागरण से सुधरने की आशा करना ही व्यर्थ है। सिर्फ जिंदा रखता है, मरने नहीं देता है ताकि उसका काम चलता रहे। इससे ज्यादा सस्ती लेबर कहीं नहीं हैं, ठेकेदार काट रहे हैं बैठे-बैठे मलाई। श्रम बेचा था, शर्म नहीं। अब और नहीं चाहिए दिल्ली का आमलेट, इससे तो बेहतर है गांव का घासलेट। कम वेतन पाकर किस्मत को कोसने वाले भाइयों, जब टाटा, भारती, वालमार्ट और मारुति सभी गांव का रुख कर रहे हैं तो फिर हम धंधा क्यों नहीं बदल सकते।
न बरगद का डर, न सरहद व हिमनद का
आपके भी दिल में एक लाख टके का सवाल उठ रहा होगा कि इतनी कम पगार जागरण में मिलती है तो हाउस बदलते क्यों नहीं। दरअसल यह कोई समाधान नहीं हैं क्योंकि इस कला का लाभ साल में सिर्फ पांच-सात लोग ही उठा पाते हैं और बाकी वहीं उतने में ही सड़ते रहते हैं। इसके अलावा दूसरे मीडिया घरानों में जागरण के कर्मी की वैल्यू भी कम हैं। कई बार तो बुलावा ही नहीं आता है और कई बार लोग पूछ भी लेते हैं कि तुम्हारे यहां इतना सफोकेशन क्यों है। एक से झुंझला कर मैंने तो कह दिया कि क्योंकि अखबार ऊपर से नंबर वन है और हम हम लोग नीचे से नंबर वन। अब तेईस साल हो गए हैं घर छोड़े हुए। जा रहा हूं, जल्द ही फिर मिलेंगे कुछ और भूली-बिसरी यादों के साथ। नया रिंग होगा, बाक्सिंग डे (26 दिसंबर) का दिन होगा। इस दिन की शाम से नया नंबर होगा (09335596996) और सामने होगा नया एरीना। साथ ही अनंत तक की ऊंचाई छूने के लिए खुला आसमान। न किसी बरगद का डर होगा, न सरहद का और न ही हिमनद का, जिनका क्रमवार स्वभाव होता है अपने नीचे घास का तिनका तक नहीं उगने देना, अपने से आगे नहीं जाने देना और अपने से ऊपर होकर जाने की इजाजत नहीं देना यानी कि गलाकाट प्रतियोगिता, जिसमें अपना कभी यकीन भी नहीं रहा। इस उम्मीद के साथ यहां से जो भी गया है, बेहतर पैकेज पर गया है, हमारा भी बेहतर ही होगा। दोस्तों को यहां तक के सफर के लिए धन्यवाद।
आगे किसी दूसरे अखाड़े (क्लर्किल जर्नलिज्म नहीं) में फिर मुलाकात होगी। कुछ अतिप्रिय अनुजों के नाम लिखकर सम्मान के लिए धन्यवाद करना चाहता हूं, पर डर है कि गलती से भी यदि किसी का नाम छूट गया तो बुरा मान जाएगा इसलिए माफी चाहता हूं। सच्चे बड़े-छोटे भाई प्रणाम-प्यार स्वीकार करें, बस यूं ही, मेरी बुराइयों के साथ मुझे अपना मानते रहें, मैं कभी दुनियादारी में लायक तो नहीं बन पाया, पर इस नालायक को बहुतों से प्यार है, जिनका नाम मैं नहीं ले पा रहा क्योंकि वाकई लिस्ट बहुत बड़ी है…. शायद उन्हीं के चलते जिंदा हूं… लड़ रहा हूं…. साहस के साथ सच कहने की हिम्मत कर पा रहा हूं…. आप लोगों का प्यार मिलेगा और घृणा भी है तो मुझे मंजूर रहेगा…. इसी अभिलाषा के साथ….
आपका वही पुराना
धर्मेंद्र
संपर्क-
09335596996
0981006452
….समाप्त….