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15 जनवरी के दिन मीडियाकर्मियों को क्या करना चाहिए?

देश के कई जिलों से सैकड़ों पत्रकारों ने भड़ास4मीडिया को मेल भेजकर जानना चाहा है कि 15 जनवरी के दिन वे किस तरह से विरोध दर्ज कराएं? कुछ पत्रकारों का कहना है कि वे जिस पत्रकार संगठन के सदस्य हैं, उसने विरोध दर्ज कराने के लिए किसी तरह का कोई आह्वान नहीं किया है। ऐसे लोगों से सिर्फ यही कहा जा सकता है कि यह मामला किसी पत्रकार संगठन या मीडिया के किसी खास हिस्से का नहीं है। यह हर मीडियाकर्मी और हर आजादी पसंद नागरिक का मामला है। आप संपादक हों, ट्रेनी हों या पत्रकारिता के छात्र हों, 15 जनवरी के दिन निजी तौर पर या सामूहिक तौर पर, जो भी विकल्प उपलब्ध हो, काला दिवस मनाना चाहिए। काला दिवस मनाने का यह मतलब कतई नहीं है कि हम काम पर न जाएं। पढ़ाई-लिखाई के साथ लड़ाई लड़ने के लिए नीचे लिखे तरीकों में से किसी एक को आजमा सकते हैं-

<p align="justify">देश के कई जिलों से सैकड़ों पत्रकारों ने <strong>भड़ास4मीडिया </strong>को मेल भेजकर जानना चाहा है कि 15 जनवरी के दिन वे किस तरह से विरोध दर्ज कराएं? कुछ पत्रकारों का कहना है कि वे जिस पत्रकार संगठन के सदस्य हैं, उसने विरोध दर्ज कराने के लिए किसी तरह का कोई आह्वान नहीं किया है। ऐसे लोगों से सिर्फ यही कहा जा सकता है कि यह मामला किसी पत्रकार संगठन या मीडिया के किसी खास हिस्से का नहीं है। यह हर मीडियाकर्मी और हर आजादी पसंद नागरिक का मामला है। आप संपादक हों, ट्रेनी हों या पत्रकारिता के छात्र हों, 15 जनवरी के दिन निजी तौर पर या सामूहिक तौर पर, जो भी विकल्प उपलब्ध हो, काला दिवस मनाना चाहिए। काला दिवस मनाने का यह मतलब कतई नहीं है कि हम काम पर न जाएं। पढ़ाई-लिखाई के साथ लड़ाई लड़ने के लिए नीचे लिखे तरीकों में से किसी एक को आजमा सकते हैं-</p>

देश के कई जिलों से सैकड़ों पत्रकारों ने भड़ास4मीडिया को मेल भेजकर जानना चाहा है कि 15 जनवरी के दिन वे किस तरह से विरोध दर्ज कराएं? कुछ पत्रकारों का कहना है कि वे जिस पत्रकार संगठन के सदस्य हैं, उसने विरोध दर्ज कराने के लिए किसी तरह का कोई आह्वान नहीं किया है। ऐसे लोगों से सिर्फ यही कहा जा सकता है कि यह मामला किसी पत्रकार संगठन या मीडिया के किसी खास हिस्से का नहीं है। यह हर मीडियाकर्मी और हर आजादी पसंद नागरिक का मामला है। आप संपादक हों, ट्रेनी हों या पत्रकारिता के छात्र हों, 15 जनवरी के दिन निजी तौर पर या सामूहिक तौर पर, जो भी विकल्प उपलब्ध हो, काला दिवस मनाना चाहिए। काला दिवस मनाने का यह मतलब कतई नहीं है कि हम काम पर न जाएं। पढ़ाई-लिखाई के साथ लड़ाई लड़ने के लिए नीचे लिखे तरीकों में से किसी एक को आजमा सकते हैं-

  1. 15 जनवरी को काली पट्टी माथे पर या बांह पर बांधकर ही घर से निकलें और पूरे दिन इसे बांधे रहें।
  2. जरूरी समझें तो काले कानून के विरोध में सरकारी आयोजनों के कवरेज का सामूहिक रूप से बहिष्कार करें।
  3. प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को संबोधित एक ज्ञापन बनाएं और इसकी एक-एक कापी जिलाधिकारी को सौंपें।
  4. विरोध दर्ज कराने के लोकतांत्रिक तरीकों धरना, उपवास, मौनव्रत, जुलूस, नारेबाजी को आजमा सकते हैं।
  5. केंद्र सरकार के प्रतीकात्मक पुतले को जिला मुख्यालय पर नारेबाजी के साथ जला सकते हैं।
  6. काले कानून की प्रतीकात्मक प्रतियों को जिला मुख्यालय पर जलाया जा सकता है।

(अगर आपके पास काले कानून की प्रतियां नहीं हैं तो प्रतीकात्मक रूप से एक सादे कागज पर ‘मीडिया को गुलाम बनाने वाला काला कानून’ लिखें और इसको इस प्रकरण पर प्रकाशित खबरों (पोर्टल, अखबार, मैग्जीन या अन्यत्र) के प्रिंट के बिलकुल उपर रख कर लपेट लें। काले कानून के इस प्रतीकात्मक पुतले का दहन करें)

प्रत्येक मीडियाकर्मी, मीडिया संगठन को उपरोक्त विकल्पों में से जो भी सूट करता हो,  उस पर 15 जनवरी के दिन अमल करना चाहिए। अगर आप विरोध दर्ज कराते हैं तो उसकी खबर और तस्वीर हम तक [email protected] के जरिए पहुंचा सकते हैं।

ध्यान रखिए, यह लड़ाई सिर्फ इलेक्ट्रानिक मीडिया की ही नहीं है। ‘इमरजेंसी सिचुवेशन’ और ‘नेशनल क्राइसिस’ जैसे धीर-गंभीर शब्दों की आड़ में आज टीवी पर जनांदोलनों को दिखाने से रोके जाने की तैयारी है तो कल इसे प्रिंट मीडिया और वेब माध्यमों पर भी लागू किया जा सकता है। सरकार ने टीवी को पहले इसलिए निशाना बनाया है क्योंकि कुछ गल्तियों के चलते टीवी वालों के प्रति जनता में भी गुस्सा है। इसी गुस्से का लाभ सरकार उठा रही है। अब जबकि टीवी के लोग खुद एक संस्था का गठन कर अपने लिए गाइडलाइन तैयार करा चुके हैं और उसे फालो करने का वादा कर चुके हैं, ऐसे में सरकार का काला कानून लाना उसकी नीयत को दर्शाता है।

नेताओं की चले तो देश में मीडिया कभी आजाद तरीके से काम न कर सके क्योंकि ये मीडिया और न्यायपालिका ही हैं जो अपनी आजादी का उपयोग करते हुए बड़े-बड़े शूरमाओं की असल पोल-पट्टी सामने लाने में सक्षम होते रहे हैं और जनता के गुस्से को सत्ताधारियों तक पहुंचाने का माध्यम बनते रहे हैं। सरकार में बैठे लोगों के मन में टीवी वालों के प्रति गुस्सा इसलिए भी है क्योंकि मुंबई आतंकी हमलों के बहाने न्यूज चैनलों ने देश की लचर सुरक्षा व्यवस्था पर तीखे अंदाज में सवाल उठाए। सरकार और उसकी एजेंसियों के नकारेपन को पूरे देश के सामने उजागर किया। इसी ‘गल्ती’ की सजा मीडिया को देने पर आमादा है सरकार।

कैबिनेट नोट बटने का मतलब होता है मंत्रिमंडल की अगली किसी भी बैठक में इस पर मुहर लगाकर कानून बना देना। मीडिया के लिए कानून संसद में बहस के जरिए बनाए जाने की बजाय चोर दरवाजे से कानून लाने की तैयारी है। इसी का नतीजा है कि देश की विपक्षी पार्टियों के नेताओं तक को इस बात की खबर न हो सकी है कि सरकार मीडिया के साथ क्या बर्ताव करने जा रही है। अब जबिक मीडिया के लोग सभी पोलिटिकल पार्टियों के नेताओं को सरकार की अलोकतांत्रिक मंशा के बारे में बता रहे हैं तो हर नेता का यही कहना होता है कि उन्हें तो इस बारे में खबर तक नहीं है।

दोस्तों, मीडिया में होने के नाते हम-आप पर जो दायित्व है, उसका निर्वाह 15 जनवरी के दिन हम-आप जरूर करेंगे, यह उम्मीद चौथे खंभे की आजादी में विश्वास रखने वाले हर शख्स को है।

आभार के साथ

यशवंत सिंह

एडीटर, भड़ास4मीडिया

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