हमारा हीरो – एसएन विनोद
पार्ट (2)
”आरुषि के कथित एमएमएस के प्रसारण के लिए किसी को दंडित करना चाहिए था तो सीईओ को दंडित किया जाना चाहिए था. बल्कि नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए सीईओ को स्वयं इस्तीफा देना चाहिए था. पर वे कौशिक को बलि चढ़ते देखते रहे. ‘इंडिया न्यूज’ में ऐसी अनेक घटनाएं हो रही थीं, जिसमें सिर्फ राजनीति काम कर रही थी.”
-नागपुर में आपने काफी लंबी पारी खेली और कहा जाता है कि नागपुर में आपके प्रशंसकों की भरमार है। यह सब कैसे, किस तरह हुआ?
–1988 में मैं रांची से नागपुर आ गया. मराठी लोकमत समूह ने हिन्दी दैनिक निकालने की योजना बनायी थी. प्रख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर के आदेश पर मैं नागपुर आया. तब नागपुर में ‘नवभारत’ एकमात्र स्थापित दैनिक था. उसके मुकाबले एक नये हिन्दी दैनिक ‘लोकमत समाचार’ का प्रकाशन बड़ी चुनौती थी. मेरी टीम में करीब दो दर्जन युवा पत्रकार बिहार से नागपुर आए. इसके अलावा पत्रकारिता में प्रवेश को उत्सुक कुछ बिल्कुल नए चेहरे भी जुड़े. इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके पुण्य प्रसून वाजपेयी (संप्रति संपादक जी न्यूज चैनल), आलोक रंजन (संप्रति सहारा समय) तथा डॉ. राम ठाकुर (लोकमत समाचार) ने भी अपने पत्रकारीय जीवन की शुरुआत लोकमत समाचार से ही की. कुछ समय के बाद डॉ. संतोष मानव (संप्रति दैनिक भास्कर) और आनंद सिंह (संप्रति राष्ट्रीय सहारा) भी हमारी टीम में शामिल हो गए. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मेरे संपादन में लोकमत समाचार व प्रभात खबर से जुड़े कई पत्रकार बाद में देश के प्रतिष्ठित विभिन्न अखबारों के संपादक बने. इस संदर्भ में सुधांशु श्रीवास्तव (संप्रति आउटपुट एडीटर, अमर उजाला, नोएडा), विजय भास्कर (पूर्व संपादक, हिन्दुस्तान, भागलपुर एवं प्रभात खबर, जमशेदपुर), मणिमाला (पूर्व संपादक, वनिता), महेश खरे (पूर्व संपादक, हिन्दुस्तान, भागलपुर), दीपक अंबष्ठ (संप्रति स्थानीय संपादक, प्रभात खबर, धनबाद), दिनेश जुयाल (स्थानीय संपादक, हिन्दुस्तान, देहरादून), सुनील श्रीवास्तव (पूर्व संपादक, प्रभात खबर, रांची) एवं राय तपन भारती के नाम उल्लेखनीय हैं.
बहरहाल, मैं बात कर रहा था लोकमत समाचार की. सभी ने जी-जान लगाकर चौबीसों घंटे अखबार के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया. ‘लोकमत समाचार’ के लिए मैं स्वयं लोगों अर्थात् पाठकों के बीच गया. पूरे विदर्भ और सीमा से जुड़े मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा, बालाघाट, बैतूल, सिवनी, राजनांदगांव, दुर्ग-भिलाई आदि शहरों की धूलें फांकीं. यहां की नस-नस को पहचान उन्हें स्वयं में आत्मसात किया. ‘लोकमत समाचार’ क्षेत्र की धड़कन बन गया. इसकी निष्पक्षता, निडरता और सत्यता के उदाहरण दिए जाने लगे. संस्थापक जवाहरलाल दर्डा (अब स्वर्गीय) कांग्रेसी थे और महाराष्ट्र के कैबिनेट मिनिस्टर. बावजूद इसके ‘लोकमत समाचार’ की पहचान एक पृथक स्वतंत्र दैनिक के रूप में बनी. संपादकीय में बाबूजी (दर्डाजी) अथवा उनके पुत्र अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक विजय दर्डा का कोई हस्तक्षेप नहीं था. अनेक ऐसे अवसर आए, जब ‘लोकमत समाचार’ में कांग्रेस और राज्य की कांग्रेसी सरकार के हित-विरोधी समाचार और आलेख प्रकाशित हुए. अनेक बार सरकार से टकराव हुए. फिर भी प्रबंधन तटस्थ बना रहा.
एक-दो उदाहरण देना चाहूंगा. एक बार हमारे मुख्य उप-संपादक हर्षवर्धन आर्य (संप्रति- निवासी संपादक, ‘लोकमत समाचार’) को पुलिस ने झुग्गी-झोपड़वासियों के एक आंदोलन के दौरान गिरफ्तार कर लिया. मैंने उनकी गिरफ्तारी को चुनौती दी. पत्रकार संघ के साथ सड़कों पर उतरा. एक आंदोलन-सा छिड़ गया, पुलिस के खिलाफ. देश के अखबारों में इसकी चर्चा होने लगी. तब शरद पवार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे और जवाहरलाल दर्डा मंत्रिमंडल के सदस्य. पवार ने बाबूजी (दर्डाजी) से शिकायत की कि यह क्या हो रहा है! बाबूजी का जवाब था कि ”वे (विनोद जी) हमारे संपादक हैं. वे अगर सरकार के खिलाफ लिख रहे हैं, तो हमारे खिलाफ भी लिख रहे हैं, चूंकि मैं सरकार का हिस्सा हूं, लेकिन हम उनके संपादकीय क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करते.” अंत में सरकार ने मामले की जांच के लिए समिति बनायी. तब तक मामला अदालत में चला गया था. हाजिरी के लिए आर्य जी के पास समन्स आते थे. मैंने आर्य जी को स्पष्ट कह रखा था कि ”आप अदालत नहीं जाएंगे. उन्हें जो करना है, कर लें. सरकार को मामला वापस लेना होगा.” अंत में मामला वापस हुआ. वह नागपुर में पत्रकारों की बड़ी जीत थी.
लोकमत समाचार के प्रवेशांक में ही प्रकाशित एक विशेष खबर पर महाराष्ट्र विधानसभा में विशेषाधिकार हनन का मामला उठाया गया लेकिन खबर की प्रमाणिकता को देखते हुए अंतत: अध्यक्ष ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया. इस प्रकार लोकमत समाचार प्रवेशांक से ही अपनी निडरता के लिए चर्चित होने लगा. एक वाकया और. नक्सल प्रभावित गढ़चिरोली में कुछ आदिवासी युवतियों के साथ पुलिसकर्मियों द्वारा किए गए बलात्कार की विस्तृत खबर ‘लोकमत समाचार’ में प्रकाशित हुई. खबर पुण्य प्रसून वाजपेयी ने लाकर दी थी. विपक्ष ने विधानसभा में इस मुद्दे को उठाया. काफी हो-हंगामा हुआ. विधानसभा में राज्य के गृहमंत्री ने समाचार का खंडन करते हुए उसे बेबुनियाद बताया. रात में बाबूजी (दर्डाजी) ने मुंबई से फोन पर मुझे गृहमंत्री के बयान की जानकारी दी. दूसरे दिन गृहमंत्री के खंडन की खबर के साथ हमने एक बॉक्स आइटम ‘हमारी चुनौती’ शीर्षक के साथ लगाया, जिसमें हमने अपनी खबर को सही बताते हुए सरकार को चुनौती दी. बाद में बढ़ते दबाव के कारण सरकार ने जांच कराई और खबर को सही पाया.
ये उदाहरण यह बताने के लिए कि ‘लोकमत समाचार’ ने संचालकों की दलीय प्रतिबद्धता से इतर समाज-हित में पत्रकारीय दायित्व निभाया. इसका श्रेय मुख्यत: जवाहरलाल दर्डा व उनके पुत्र विजय दर्डा को जाता है, जिन्होंने कभी भी हस्तक्षेप नहीं किया. यही वजह रही कि विश्वसनीयता व निष्पक्षता के मामले में लोकमत समाचार एक आदर्श बन चुका था. विभिन्न संस्थाओं, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक संगठनों ने अपने कार्यक्रमों में मुझे बुलाना शुरू कर दिया. हालांकि मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसा नहीं चाहता था, किंतु संस्थान के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक विजय दर्डा ने इसके लिए मुझे प्रोत्साहित किया. मेरे आरंभिक इनकार पर उन्होंने कहा था कि ”चूंकि आप नागपुर के लिए नए हैं इसलिए आपको लोगों के बीच जाना चाहिए ताकि आप लोगों को समझ सकें और लोग आपको समझ सकें.” मैं लोगों के बीच गया. इतना गया कि शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो, जब विभिन्न कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि या अध्यक्ष के रूप में मेरी उपस्थिति न हो! कार्यक्रम चाहे साहित्यिक हो, सामाजिक हो, पत्रकारीय हो या कला-संस्कृति से जुड़ा हो अथवा विश्वविद्यालय, लॉयंस क्लब, रोटरी क्लब द्वारा आयोजित विभिन्न विषयों पर सेमिनार ही क्यों न हो. सार्वजनिक प्रतिष्ठानों द्वारा आयोजित समारोहों में भी लोग-बाग मुझे सुनने के लिए बुलाने लगे.
नागपुर से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक हितवाद के संपादक मेघनाद बोधनकर ने एक बार सार्वजनिक रूप से कहा था कि ”विनोद जी हमसे कहीं ज्यादा नागपुरीयन हो गए हैं.” बीच के संक्षिप्त अंतराल को छोड़ दें तो लगभग 13 वर्ष मैं ‘लोकमत समाचार’ के साथ रहा. इस अखबार में प्रति रविवार को प्रकाशित मेरा ‘मंथन’ कॉलम अपने बेबाकपन व सामाजिक सरोकारों के कारण काफी लोकप्रिय रहा. कई क्षेत्रों में तो लोग मुझे मंथन वाले विनोद जी के नाम से पुकारने लगे. मंथन की एक कड़ी की चर्चा जरूरी है. बात 1991 की है. मुंबई में प्रदर्शनकारी पत्रकारों पर कुछ शिव सैनिकों ने हथियारों के साथ हमला किया. मणिमाला (नवभारत टाइम्स) सहित कुछ पत्रकार गंभीर रूप से घायल हो गए. मणिमाला का जबड़ा टूट गया था. मैंने ‘नामर्द’ शीर्षक के अंतर्गत शिव सेना और उसके सुप्रीमो बाल ठाकरे की कड़ी आलोचना की. प्रतिक्रिया स्वरूप सैंकड़ों शिव सैनिकों ने नागपुर स्थित मेरे आवास पर हल्ला बोल दिया. मामले ने काफी तूल पकड़ा. कमलेश्वर जी के नेतृत्व में साहित्यकारों और पत्रकारों का एक शिष्टमंडल तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री शंकरराव चव्हाण से मिलकर विरोध दर्ज किया. नेता-अभिनेता मित्र शत्रुघ्न सिन्हा ने भी हस्तक्षेप किया. शिव सेना ने तब सार्वजनिक रूप से माफी मांगी थी.
एक और संदर्भ. अंग्रेजी दैनिक नागपुर टाइम्स के संपादक आर. एन. दुबे की एक पुलिस इंस्पेक्टर ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. दुबे की पहचान एक इमानदार सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी थी. उनकी हत्या से पूरा नागपुर शहर दहल उठा था. पुलिस के खिलाफ जनाक्रोश भड़क उठा था. इस हत्याकांड पर मंथन में की गई मेरी टिप्पणी से पुरा नागपुर द्रवित हो उठा था. गाड़ी से कुचल जाने से किसी कुतिया के पिल्ले की मौत हो या फिर 14 नवंबर बाल दिवस के दिन माउंट कार्मेल स्कूल की दस वर्षीय छात्रा की स्कूल के सामने ही सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो, ये सभी मंथन के विषय बनते थे.
इस बीच केन्द्रीय मंत्री विलास मुत्तेमवार द्वारा प्रकाशित मराठी दैनिक ‘जनवाद’ का प्रधान संपादक भी रहा. मराठी दैनिक के संपादन को मैंने खूब ‘इन्जॉय’ किया. सन् 2001 से अप्रैल 2006 तक दिल्ली जाने के पहले दैनिक ‘नवभारत’ (भोपाल-नागपुर) का संपादक रहा. नवभारत में भी प्रथम पृष्ठ पर ‘बेबाक’ शीर्षक से प्रतिदिन कॉलम लिखता रहा. चाहे कोई भी व्यस्तता हो स्तंभ की कड़ी को कभी टूटने नहीं दिया. एक ऐसा भी अवसर आया, जब रांची में एक सड़क दुर्घटना में पत्नी के साथ बुरी तरह घायल होकर अस्पताल में पड़ा रहा, लेकिन अस्पताल में ही एक स्थानीय सहयोगी पत्रकार को बुलाकर डिक्टेशन देता रहा. ऐसे भी अवसर आए, जब नागपुर से बाहर रहा और समय नहीं मिला तो बैठे-बैठे मोबाइल फोन द्वारा नागपुर कार्यालय को डिक्टेशन देकर स्तंभ लिखवाता रहा.
एक बार दिल्ली से नागपुर ट्रेन से आ रहा था. भोपाल से पहले किसी अन्य ट्रेन के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने के कारण हमारी गाड़ी रोक दी गई. मुझे लगा कि समय पर नागपुर नहीं पहुंच पाऊंगा. ट्रेन के डिब्बे में ही स्तंभ लिख डाला और मोबाइल से फोन कर एक सहयोगी पत्रकार को भोपाल स्टेशन आने को कह दिया. वे स्टेशन आए, उन्हें मैंने स्तंभ दिया और उन्होंने इसे नागपुर फैक्स कर दिया. ऐसा भी अवसर आया, जब अचानक एक दिन नागपुर से मुंबई जाना पड़ा. नागपुर में स्तंभ लिखवाया नहीं था. मुंबई पहुंच कर हवाई अड्डे से अपने पुत्र के घर टैक्सी से जाते हुए मोबाइल फोन पर ही नागपुर कार्यालय में स्तंभ लिखवा डाला. सहायक संपादक चंद्रमोहन द्विवेदी का इस कार्य में मुझे भरपूर सहयोग मिला. चूंकि पाठक इस स्तंभ का रोज इंतजार करते थे, मैंने उन्हें कभी निराश नहीं किया. विदेश-यात्रा पर होने के दौरान भी मैं अपना स्तंभ नियमित भेजता रहा. शायद यह पाठकों की आत्मीयता और नागपुरवासियों का विश्वास था, जिसने मुझे उनके बीच उनका बना डाला.बात आप जब प्रशंसकों की कर रहे हैं, तब मुझे लगता है कि ऐसी बड़ी फौज इस कारण संभव हो पायी कि मैं नागपुर में समरस होकर रह गया. नागपुर, सचमुच मेरा हो गया और मैं नागपुर का….!
-‘इंडिया न्यूज’ में आप कैसे आये? यहां क्या हुआ, जो आपको बीच में ही इसे छोड़कर लौटना पड़ा?
–उन दिनों में दिल्ली में सीनियर मीडिया ग्रुप (एस- वन चैनल एवं साप्ताहिक पत्रिका ‘सीनियर इंडिया’) में प्रधान संपादक था. एक दिन ‘जनमत’ चैनल से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हरीश गुप्ता ने टेलीफोन कर मुझे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मिलने बुलाया. बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि हरियाणा के एक राजनेता विनोद शर्मा टी.वी. न्यूज चैनल ओर दैनिक अखबार निकालने की योजना बना रहे हैं. बातचीत के दौरान उन्होंने यह भी खुलासा किया कि वे शीघ्र ही ‘जनमत’ छोड़कर उनके साथ जुड़ जाएंगे. हम इस विषय पर कई बार मिले, ज्यादातर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में ही. उनकी इच्छा थी कि मैं अखबार के साथ जुड़ जाऊं, वे न्यूज चैनल देखेंगे. इस बीच वे कुछ सप्ताह के लिए विदेश चले गए. लौटने पर उन्होंने मुझे बताया कि अखबार के लिए उनकी गैरहाजिरी में संपादक पद पर कांग्रेस के एक नेता की अनुशंसा पर नियुक्ति हो गई है. एक-दो मुलाकात के बाद उन्होंने पेशकश की कि मैं फिलहाल उनके न्यूज चैनल से जुड़ जाऊं. दायित्व की चर्चा करते हुए उन्होंने ईमानदारी के साथ यह जरूर कहा कि लोगों के बीच यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि ”आप मुझे रिपोर्ट कर रहे हैं. इसलिए हम काम का बंटवारा कर लें.” तय पाया कि संपादक (समाचार एवं समन्वय) के रूप में देश के सभी ब्यूरो मेरे अधीन रहेंगे. ध्यान रहे कि उस समय सभी ब्यूरो की स्थापना होनी थी. मुंबई में स्टुडियो आदि के साथ बड़ा केन्द्र बनाया जा रहा था.
हरीश जी ने तब यह भी कहा था कि तब मैं अपना मुख्यालय मुंबई में स्थानांतरित कर सकता हूं. मैंने तब पूरे देश में घूम कर, मुंबई, लखनऊ, पटना, रांची, भोपाल, रायपुर, जयपुर, वाराणसी आदि ब्यूरो की स्थापना की, वहां की नियुक्तियां कीं. दिल्ली में भी ‘ड्राई रन’ शुरू हुआ, तब मैं सुबह पांच-साढ़े पांच बजे ओखला स्थित स्टुडियो पहुंच जाता था. न्यूज बुलेटिन और विभिन्न कार्यक्रमों की तैयारियां तब शुरू हो जाती थीं. कंपनी के युवा प्रबंध निदेशक कार्तिक शर्मा एक उत्साही मार्गदर्शक के रूप में हमेशा मौजूद रहते थे. लंदन में अपनी शिक्षा पूरी करने वाले कार्तिक स्वयं दिन-रात कार्यालय-स्टुडियो में काम की देखभाल करते थे. उनके जेहन में कई महत्वाकांक्षी योजनाएं रहती थीं. उन्हीं में एक भोजपुरी चैनल ‘गंगा’ भी था. मैं एक बार दौरे पर रांची गया था, जब फोन कर कार्तिक शर्मा ने ‘गंगा’ चैनल की चर्चा करते हुए मुझे इसका दायित्व संभालने के लिए कहा. वापस दिल्ली आने पर कार्तिक शर्मा ने हरीश गुप्ता के सामने स्पष्ट कर दिया कि ‘गंगा’ के ‘चैनल हेड’ विनोद जी रहेंगे. मुझे उन्होंने कहा कि, ”विनोद जी, ‘गंगा’ इज योर बेबी, इसे संभालिए.”
यह तय पाया कि ‘गंगा’ का मुख्यालय मुंबई में रहेगा. मुंबई जाने के एक दिन पूर्व प्रबंध निदेशक कार्तिक शर्मा ने सी.ई.ओ. हरीश गुप्ता और मेरे साथ मीटिंग की. मीटिंग में उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि न केवल भोजपुरी ‘गंगा’ चैनल बल्कि ‘इंडिया न्यूज’ के सभी महत्वपूर्ण ब्यूरो यथा मुंबई, लखनऊ, पटना, रांची, रायपुर की जिम्मेदारी भी मेरी होगी. उन्होंने हरीश गुप्ता को संबोधित करते हुए साफ शब्दों में बता दिया कि हरीश जी इन सभी ब्यूरो के संबंध में मैं विनोद जी से पूछूंगा. इसके बाद गुजरात की जिम्मेदारी भी प्रबंध निदेशक ने मुझे दे दी. संभवत: यह व्यवस्था कुछ लोगों को पसंद नहीं आयी. दिल्ली में अंदर-ही-अंदर षडय़ंत्र रचा जाने लगा.एक दिन मुझे तत्कालीन असाइनमेंट हेड पंकज शुक्ला और डिप्टी डायरेक्टर (न्यूज) राजेश बादल ने मुंबई फोन कर दिल्ली में रचे जा रहे षडय़ंत्र की जानकारी दी. मैं इससे बहुत दु:खी हो चला था. पूरी जिंदगी दायित्व निर्वाह के प्रति समर्पण के बाद ऐसी ‘राजनीति’ मुझे स्वीकार नहीं थी. जब ‘आरुषि हत्याकांड’ से जुड़ी खबरों के प्रसार में सभी न्यूज चैनल होड़ में लगे थे, तब एक दिन शाम को ‘मिड डे’ के डायरेक्टर (न्यूज) शिशिर जोशी का फोन मुंबई में मेरे पास आया कि ”आप लोग यह क्या दिखा रहे हैं?” मैं तब बाहर निर्माणाधीन हॉल में कुछ काम कर रहा था. केबिन में जाकर टी.वी. देखा तो मैं स्वयं अचंभित रह गया. हमारे ‘इंडिया न्यूज’ चैनल पर आरुषि का एक कथित घोर आपत्तिजनक ‘एमएमएस’ प्रसारित किया जा रहा था. मैंने तुरंत राजेश बादल को फोन किया कि यह कैसे दिखाया जा रहा है? बादल ने बताया कि उनकी और असाइनमेंट हेड की आपत्ति के बावजूद सी.ई.ओ. निर्णय लेकर स्वयं प्रसारण करवा रहे हैं.
सी.ई.ओ. मेरे टेलीफोन पर तब उपलब्ध नहीं हो रहे थे. रात में उनका मुंबई फोन आया, तब उनसे भी मैंने अपनी आपत्ति दर्ज की. उनके अपने तर्क थे. पूरे एपिसोड का सर्वाधिक दु:खद पहलू यह था कि मुंबई के हमारे वरिष्ठ सहयोगी अरुण कौशिक ने किसी अन्य के द्वारा दिए जाने पर उस एमएमएस को दिल्ली भेजा और असाइनमेंट हेड को यह सूचित किया कि ऐसे एमएमएस मुंबई में वितरित किए जा रहे हैं. कौशिक ने एमएमएस की सत्यता के प्रति अपना संदेह भी प्रकट करते हुए इसकी जांच करा लेने को कह दिया था. तब दिल्ली में आउटपुट हेड आशीष मिश्रा ने एमएमएस देखने के बाद उसे रोक दिया. आशीष ने, अवकाश पर लखनऊ जाने के पूर्व स्पष्ट निर्देश दे दिया था कि यह एमएमएस संदिग्ध है, इसका प्रसारण नहीं होगा. इसके चार-पांच दिनों बाद सी.ई.ओ. ने आशीष मिश्रा की अनुपस्थिति में स्वयं स्टुडियो में बैठकर एमएमएस के प्रसारण को सुनिश्चित किया. मामले ने जब तूल पकड़ा, पुलिस केस हुआ, सूचना-प्रसारण मंत्रालय से शो-कॉज नोटिस भी जारी हुआ. हालांकि मुझसे व्यक्तिगत बातचीत में सी.ई.ओ. ने प्रसारण की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली, लेकिन खामियाजा भुगतना पड़ा मुंबई के विशेष प्रतिनिधि अरुण कौशिक को अपनी नौकरी गंवाकर! अगर आरुषि के कथित एमएमएस के प्रसारण के लिए किसी को दंडित किया जाना चाहिए था तो सी.ई.ओ को दंडित किया जाना चाहिये था. बल्कि नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए सी.ई.ओ. को स्वयं इस्तीफा दे देना चाहिए था. लेकिन वे कौशिक को बलि चढ़ते देखते रहे. ‘इंडिया न्यूज’ में ऐसी अनेक घटनाएं हो रही थीं, जिसमें राजनीति और सिर्फ राजनीति काम कर रही थी. कर्मचारियों का मनोबल गिर रहा था और वे स्वयं को असुरक्षित पा रहे थे. जबकि युवा प्रबंध निदेशक कार्तिक शर्मा जी-जान से हर चीज व्यवस्थित करने में जुटे थे. लेकिन षडय़ंत्रकारी सक्रिय रहे.
मुंबई में हमने तीन स्टुडियो बनाये. यह तय पाया था कि भोजपुरी चैनल ‘गंगा’ के साथ ‘इंडिया न्यूज’ के लिए बुलेटिन और कार्यक्रम भी वहां से प्रसारित किए जाएंगे. लेकिन अचानक मुझे सूचित किया गया कि ‘गंगा’ का मुख्यालय दिल्ली कर दिया जाए. मुझे यह कुछ अटपटा लगा. ‘इंडिया न्यूज’ के सलाहकार मुंबई पहुंचे. उन्होंने मुझसे कहा कि वस्तुत: दिल्ली में आपकी जरूरत है. आप वहां आ जाएं. ‘गंगा’ के साथ-साथ ‘इंडिया न्यूज’ का भी काम आपको ही देखना होगा. उन्होंने भविष्य की कुछ कथित योजनाओं की जानकारी दी. लेकिन पूरी बातचीत के दौरान मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि ये सभी भी किसी ‘राजनीति’ के अंग हैं. इस बीच कार्तिक शर्मा ने मुझे दिल्ली बुला लिया. ढेर सारी बातें हुईं. मुझे दी गई पेशकश की जानकारी देते हुए मैंने अपनी असहजता से उन्हें परिचित करा दिया. दिल्ली से मुंबई जाने पर मैंने पत्नी को नागपुर भेज दिया था, उनकी अस्वस्थता के कारण मैं उन्हें अकेला छोडऩा नहीं चाहता था. मुझे लगा कि वापस पत्नी-परिवार के पास नागपुर चला जाना चाहिए. कार्तिक को मैंने अपनी उसी इच्छा की जानकारी दी. वे तैयार नहीं हो रहे थे. उनकी सहृदयता और अपने प्रति सम्मान को देखते हुए निर्णायक लहजे में मैं उन्हें कुछ कह नहीं पा रहा था. उनका जो विश्वास मुझ पर रहा, उस कारण भी संस्थान से पृथक होने का दु:ख मुझे हो रहा था. लेकिन पत्नी की अस्वस्थता के कारण मुझे नागपुर लौटने का निर्णय लेना पड़ा. इसी आधार पर चार-पांच पंक्तियों का एक त्यागपत्र लिख मैंने कार्तिक शर्मा को क्षमा सहित भेज दिया. हां, यहां मैं यह जरूर बताना चाहूंगा कि अंतत: ‘इंडिया न्यूज’ में अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति ओर समर्पण के कारण युवा प्रबंध निदेशक कार्तिक शर्मा ‘षडयंत्र’ पर विजय प्राप्त कर संस्थान को बुलंदी की ऊंचाइयों पर ले जाने में सफल होंगे.
-आप हिन्दी के वरिष्ठतम पत्रकारों में से हैं और पत्रकारिता के हर तरह के ढंग देखे हैं. क्या आप इसे किसी किताब का हिस्सा बनाएंगे?
–हां, पत्रकारिता के रंग-बेरंग को मैं अपने जेहन में संजो रखा है. अनेक खट्टे-मीठे अनुभव प्रतिदिन आंखों के सामने आते रहते हैं, इन पर एक पुस्तक ‘दंश’ तो लगभग तैयार है. शायद कुछ और भी तैयार हो जाए.
-आपकी जिंदगी का वो पल, जिसे आप कभी न भूलना चाहें?
–जिस दिन मैं दादा बना था. 13 दिसंबर 2004 का वह पल जब ‘परी’ मेरी गोद में एकटक मुझे निहार रही थी.
-आपको किस चीज पर अभी तक पछतावा है?
–‘प्रभात खबर’ से पृथक होने का. उसकी टीस आज भी मुझे सालती है.
-आपकी कमजोरियां क्या हैं?
–सभी पर आंख मूंद कर विश्वास करना.
-आपकी अच्छाइयां क्या हैं?
–मुझे पता नहीं, आप ही बता दें.
जारी…
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