सिस्टम ठीक नहीं होगा तो जूते पड़ते रहेंगे : दैनिक जागरण के नेशनल ब्यूरो में कार्यरत पत्रकार जरनैल सिंह गृह मंत्री की प्रेस कांफ्रेंस में एक सवाल के जवाब से अंसुतष्ठ होकर जूता उछाला और देखते-देखते देश-विदेश में चर्चा के विषय बन गए। उन्हें इस ‘गलती’ के लिए सजा मिल चुकी है। दैनिक जागरण से उन्हें बर्खास्त किया जा चुका है। जरनैल से पूरे मुद्दे और आगे की योजना पर विस्तार से बातचीत की भड़ास4मीडिया के एडिटर यशवंत सिंह ने। पेश है इंटरव्यू के अंश-
-जागरण प्रबंधन ने अब आपको नौकरी से निकाल दिया है। गृहमंत्री पर जूता उछालने की घटना के ठीक बाद आपसे प्रबंधन की तरफ से क्या कहा गया था?
–घटना के बाद मुझे कहा गया था कि 15-20 दिन आप घर पर आराम कीजिए। ये भी कहा गया था कि आप मीडिया में जाकर बात न करें, लेकिन मेरे पर आरोप लग रहे थे कि मैं अकाली हूं, मैं किसी पार्टी के साथ मिला हुआ हूं। अगर मैं उस बात को साफ नहीं करता तो मेरे पर ये आरोप लगे रहते। लोग कहते कि मैं किसी पार्टी के साथ मिला हुआ हूं, लेकिन मैं किसी पार्टी के साथ जुड़ा नहीं हूं।
मैं मानता हूं कि मेरे से पत्रकार के तौर पर पत्रकारिता के कोड आफ कंडक्ट का उल्लंघन हुआ है, लेकिन ये स्थिति क्यों बनी? क्या पुलिस ने अपनी मर्यादा का पालन किया है? सिख दंगों के मामले में न एफआईआर दर्ज की, न कोई केस दर्ज किया। उल्टे गवाहों को तोड़ दिया गया। जो लोग केस दर्ज करवाने आए, उन्हें वापस भेज दिया गया। मित्तल कमेटी और नानावटी कमीशन ने दिल्ली के 150 पुलिस अधिकारियों के खिलाफ केस चलाने को कहा, लेकिन एक के भी खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। कानून ने 25 साल तक क्या किया? किसी भी गवाह को कोई सुरक्षा मुहैया करवाई? सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर के खिलाफ तो 12 साल तक कोई केस ही दर्ज नहीं हुआ। नरसिंहा राव की सरकार ने इन लोगों के खिलाफ वर्ष 1995-96 तक एफआईआर तक दर्ज नहीं होने दिया। सरकार ने अपनी मर्यादा का पालन नहीं किया। जिन 5000 लोगों को मारा गया, उनको न्याय दिलाने के लिए आखिर एक पत्रकार को अपनी मर्यादा का उल्लंघन करना पड़ा। मैं मानता हूं कि मेरी गलती है। मुझे अफसोस है अपनी गलती पर, लेकिन जो 25 साल से आराम से बैठे हैं, वे भी आगे आकर कहें तो सही कि उन्हें अपनी गलती पर अफसोस है।
मैंने अखबार के खिलाफ कुछ नहीं कहा था। जूता प्रकरण के बाद दैनिक जागरण की ओर से मुझसे कहा गया कि आप लोकसभा चुनाव होने तक घर बैठिए और चुप रहिए। फिर चुनाव बाद कहा गया कि इस्तीफा दे दीजिए, रास्ते खुले रहें तो ठीक, आपको कहीं और नौकरी करनी होगी, आपके लिए आसानी रहेगी। लेकिन मैंने कहा कि नौकरी से इस्तीफा नहीं दूंगा। इस्तीफा देने का मतलब होगा कि मैंने अपनी गलती मान ली है। बेहतर होगा कि जागरण प्रबंधन ही मुझे निष्कासित करे। जब मैं अपनी बात पर अड़ा रहा तो 1 जुलाई 09 को उन्होंने मुझे नौकरी से बर्खास्त कर दिया।
-आगे की क्या योजना है?
–मैंने तो पत्रकारिता को अपना करियर बनाया था। छात्र जीवन के आखिरी दिनों में पहले कभी मैंने लाइब्रेरियां खंगालते हुए जानने की कोशिश की थी कि 1984 में आखिर क्या हुआ था? तब, उस समय मुझे आश्चर्य हुआ कि दिल्ली के अंदर तीन दिन में तीन हजार लोग मारे गए थे और किसी अखबार ने इतनी भयानक घटना को अपनी खबरों का हिस्सा नहीं बनाया था। तीन दिन बाद इंडियन एक्सप्रेस में राहुल बेदी की रिपोर्ट छपी, दिल्ली के कल्याणपुरी मोहल्ले की। कल्याणपुरी में तीन सौ लोग मार दिए गए थे। एक ही मोहल्ले में। इसके अलावा जनसत्ता और इंडिया टुडे ने कुछ खबरें की थीं, बाकी सब चुप। तो ये पत्रकारिता हो रही थी। एक महीने बाद इंडिया टुडे ने सविस्तार उस लोमहर्षक घटना की जानकारी प्रकाशित की थी।
देखिए कि गुजरात में एक हजार लोग मारे गए, दो महीने के अंदर। यहां दिल्ली में तीन दिन के अंदर तीन हजार लोग मारे गए। तब मैंने सोचा कि मुझे पत्रकारिता के पेशे में जाना चाहिए। पत्रकारिता मैंने एक मिशन के तौर पर शुरू की। मेरी ऐसी भावना नहीं होती तो कोई और काम-धंधा कर लेता, और ज्यादा पैसे कमा सकता था। लेकिन मैंने देखा कि जितना शोषण पत्रकारिता में है, क्षेत्रवाद, जातिवाद जितने बड़े पैमाने पर यहां है, अपने 15 साल के अनुभवों से जाना कि उतनी बुराइयां तो और कहीं नहीं। मुझे हैरत हुई कि जो लोग (पत्रकार) दूसरों के शोषण के बारे में लिखते रहते हैं, अपने बारे में जुबान तक नहीं खोल सकते। यहां पर तो सबसे ज्यादा तानाशाही है। यहां तो ऐसा तंत्र है कि कोई पत्रकार प्रबंधन की मनमानियों के खिलाफ कुछ बोल नहीं सकता। अपने बारे में कुछ नहीं कर सकता है। किसी ने लिखा है न कि कुछ लोग केंचुए की तरह बिना रीढ़ की हड्डी के होते हैं। पत्रकारिता में कुछ ऐसे ही हालात हैं। लेकिन मैं बिना रीढ़ का कभी नहीं रहा, मैं रीढ़ की हड्डी वाला हूं, हमेशा अपनी बात दृढ़ता से रखता रहा हूं। न किसी से दबना, न किसी की चापलूसी करना।
आज तो खास कर हिंदी पत्रकारिता का बहुत बुरा हाल है। यहां शिवाय चाटुकारिता, चापलूसी के और कुछ बाकी नहीं बचा है। कोई मिशन नहीं, न कोई चरित्र रह गया है। यहां प्रोफेशनल लोग बिल्कुल नहीं बचे हैं। ऐसे लोग अखबारों के सिरहाने बैठा दिए गए हैं, जिनकी पत्रकारिता जैसे जिम्मेदार पेशे के लिए कोई प्रतिबद्धता ही नहीं, जिनका कोई आदर्श ही नहीं है। हिंदी पत्रकारिता के लिए यह बड़ी खतरनाक बात है, गंभीरता से सोचने का मामला है कि इतने विशाल हिंदीभाषी देश में क्यों एक छोटी-सी इंग्लिश मैग्जीन हिंदी के किसी बड़े अखबार से ज्यादा ताकत और अहमियत रख रही है? हिंदी अखबार वालों के लिए ये आत्मविश्लेषण बहुत जरूरी है।
-पंद्रह साल पहले आप पत्रकारिता के किन मूल्यों की बात सोच रहे थे?
–1984 के दंगों की हकीकत और मीडिया की भूमिका को लेकर मैं तभी से सोचने लगा था कि आखिर उस कत्लेआम की खबरें न छापने की वजह क्या रही? मीडिया से जुड़ने के बाद पता चला कि पत्रकार पंजाबी कम्युनिटी के बीच बहुत कम आते-जाते हैं। उनके बारे में बहुत कम जानकारी रखते हैं। उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती। जहां तक मेरी बात है, अन्याय किसी के भी साथ हो, मुझे पीड़ा होती है। वह जघन्यता किसी कम्युनिटी विशेष का मामला भर नहीं था। तंत्र की बर्बरता थी।
फिर भी एक पत्रकार के तौर पर मैं आगे अपना करियर जारी रखना चाहता था। गृहमंत्री पी.चिदंबरम पर जूता उछालने का वाकया एक संयोग मात्र था। मेरा पहले से ऐसा कोई इरादा नहीं था। उस दिन यदि मेरी ड्यूटी लोकसभा में होती, अथवा अन्यत्र कहीं होती तो मैं शायद वहां नहीं होता, न वह घटना होती। लेकिन घटनाएं खुद ब खुद होती ही गईं। उस दिन प्रेस कांफ्रेंस में चिदंबरम ने कहा कि वह सज्जन और टाइटलर के बरी होने पर खुश हैं। देश के गृहमंत्री की हैसियत से उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था। केंद्रीय गृहमंत्री देश की कानून व्यवस्था का सबसे बड़ा और जिम्मेदार ओहदेदार होता है, कानून का पिता होता है, मैं उस समय उनसे उनके नाइत्तफाकिया बयान पर तत्काल सवाल करना चाहता था, ताकि मेरे अखबार के लिए उस पर अलग से कोई स्टोरी दी जा सके। क्योंकि अगले दिन सज्जन-टाइटलर मामले पर कोर्ट में सुनवाई भी होनी थी। मुझे उस दिन प्रेस कांफ्रेंस में चिदंबरम से अपने सवाल का सही जवाब मिल गया होता तो शायद घटना ही नहीं हुई होती।
हमारी व्यवस्था पूरी तरह असंवेदनशील हो चुकी है। उसमें न्याय देने की इच्छाशक्ति खत्म हो चुकी है। अखबार में छपने के बाद ही किसी महिला की आपबीती मानवाधिकार का मामला बनती है, बाकी सब भुला दिया जाता है। तमाम महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा है, उनके मानवाधिकार पर कोई बात नहीं। आखिर चिदंबरम पर जूता पड़ने के बाद ही टिकट क्यों कटे? जब सज्जन-टाइटलर का टिकट काटते समय कांग्रेस ने कहा कि हम पंजाबी समुदाय के पीड़ितों की भावनाओं का कद्र करते हुए चुनाव मैदान से दोनों को हटा रहे हैं, तो यह समझदारी और संवेदना पहले टिकट देते समय कहां थी? वह पहले ही दोनों को टिकट नहीं देते तो बात यकीन करने लायक होती कि वह भावनाओं की सचमुच कद्र करते हैं। चिदंबरम पर जूता पड़ने के बाद ही क्यों भावनाओं की याद आयी? पहले नानावटी आयोग ने जो रिपोर्ट दी थी, उस पर कार्रवाई के लिए कोई संज्ञान लेने की बजाय दोनों को उल्टे टिकट दे दिया। एक तरफ कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कहा, जबकि उनके खिलाफ ऐसा कुछ न्यायालय में साबित नहीं हो सका है, लेकिन जिसके खिलाफ दस कमीशन आयोग बैठ चुके, उन्हें टिकट दे दिया जाता है, और चिदंबरम कहते हैं कि उनके छूटने से वह खुश हैं। ये दोहरे मानदंड आखिर क्यों? मेरा मानना है कि 1984 के दंगाइयों के खिलाफ अगर समय से कार्रवाई हुई होती तो गुजरात दंगा नहीं हुआ होता। सोनिया गांधी ने पहले तो पंजाब जाकर 84 के दंगों के लिए माफी मांगी, फिर राहुल गांधी ने भी उन दंगों पर अफसोस जताया और अगले ही दिन दिल्ली लौट कर दंगा आरोपियों के साथ उन्होंने फोटो खिंचवाई। उनमें कार्रवाई की हिम्मत नहीं।
यह सिस्टम इतना असंवेदनशील क्यों हो गया है? क्यों मुझे जूता मारना पड़ा, क्यों कोई आत्महत्या कर ले रहा है, कोई अपने पर मिट्टी का तेल उड़ेल ले रहा है? व्यवस्था इन हालात से आंखें क्यों चुरा रही है? पीड़ा बर्दाश्त से बाहर हो जाने पर तमाम लोग जिंदगी का रिस्क उठाने को मजबूर हैं। न्याय न मिलने पर अपनी जिंदगी खतरे में डाल दे रहे हैं। पूरा सिस्टम पुलिस के हाथ बिक चुका है। इसमें मीडिया की भी साझेदारी है। वे सिस्टम ठीक नहीं करेंगे तो आगे भी लोग मेरी तरह जूता उठाने को मजबूर होंगे।
-आपने यह नहीं बताया कि आगे की योजना क्या है?
–मैं तो पत्रकारिता ही जारी रखना चाहता हूं। फिलहाल, मैं 1984 के दंगों पर एक किताब लिख रहा हूं। उस किताब में मैं बताने की कोशिश कर रहा हूं कि उन दंगा पीड़ितों की आज भी क्या हालत है? दंगों के पच्चीस साल होने जा रहे हैं। तो उस किताब में दंगा पीड़ितों की 25 साल की आपबीती होगी। मैं चाहता हूं कि सरकार कम से कम उनके बच्चों की शिक्षा की जिम्मेदारी तो उठाए। इंतजारकीजिए, मैं अपनी किताब में बहुत कुछ खुलासा करने जा रहा हूं। जल्द ही वह किताब लोगों के हाथों में होगी।
-जूता प्रकरण के बाद आपको पूरे देश में नायक-खलनायक दोनों तरह से देखा जा रहा है। आप खुद को किस तरह से देखते हैं?
–जूता प्रकरण के बाद एक टीवी चैनल ने अपने सर्वे रिपोर्ट में बताया कि 99 फीसदी देशवासियों ने मेरे किये को उचित ठहराया है। सबने मेरा सपोर्ट किया है। मैंने अपनी तरफ से खुद कहा कि मुझेकुछ न कुछ सजा तो होनी चाहिए क्योंकि मैंने पत्रकारिता की मर्यादा का उल्लंघन किया है, बस। लेकिन 84 के दंगों के बाद से जो लोग 25 साल से कानून की मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हैं, उनकोसजा कब होगी? मुझे तीन महीने में सजा हो गई, नौकरी से निकाल दिया गया।
-पंजाब की राजनीति के आप नए आईकॉन बने हैं। आज आपको उस दंगे के खिलाफ पत्रकारिता में कीमत चुकानी पड़ी है, क्या अब, आगे राजनीति की बारी है?
–जूता प्रकरण के समय मेरे निर्मल जज्बात थे। उनका प्रकटीकरण मैंने किया। अगर मैं उसकी कोई कीमत लगवाता तो देश का आम आदमी मेरे ऊपर उंगली उठाता। और वह मेरे ऊपर भी नहीं, उस निर्मल जज्बात पर उंगली उठाता। हां, राजनीति को कुछ लोगों ने गंदा कर रखा है। पूरी राजनीति गंदी नहीं। फिलहाल, मेरा पत्रकारिता का इरादा है। राजनीति मेरी लड़ाई का माध्यम नहीं। ऐसे प्रस्ताव मुझे पहले भी मिले थे, मैंने ठुकरा दिया।
rudresh arya
January 23, 2010 at 7:32 am
main ye to nahin kah sakta jarnail singh ji ne kitna sahi kiya. lekin jitna kiya vah galat bahut kam tha, 60 saal ki swa sarkar ne desh ki halat 200 saal ke partantra jaisi sthiti jarur bana di hai. ye kaam karke main ye to nahi kah sakta ki jarnail ji shahid bhagat singh ban gaye hain lekin itna jarur saaf ho gaya hai ki unke is kadam mein ek kranti jaisi baat thi. vah din bhi ab dur nahin ki jab 1857 jaisi kranti ayegi lekin itna anter jarur hai ki us samay ek koshish thi gairon ko desh se nikalne aor ye prayatn hoga apno ye yaad dilane ka ki ye vakai apna hi desh hai aur hum sab ek hain.