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दिल्लीवालों ने बेटा से भतीजा बना दिया

[caption id="attachment_15096" align="alignnone"]एसपी और चंदनएसपी सिंह के शव के साथ बैठे चंदन प्रताप सिंह.[/caption]

27 जून करीब है। एसपी इसी दिन हम लोगों से जुदा हो गए। उनकी याद में उनके पुत्र चंदन प्रताप सिंह का एक संस्मरण पेश है… 

एसपी को मैं पापा कहता हूं। वो मेरे सगे पापा नहीं हैं। न हीं उन्होंने समाज के सामने ढोल पीटकर और न ही लिखा-पढ़ी कर मुझे बेटा बनाया। रिश्तों की उलझन में समझना चाहें तो वो मेरे चाचा थे। जब मैं बोलना सीख रहा था तब मेरे बाबा (दादाजी), आजी (दादीजी) और मम्मी ने कहा कि ये पापा हैं। तब से उन्हें पापा कह रहा हूं। बचपन में बड़ी मुश्किल होती थी सगे पापा और पापा के संबोधन को लेकर। लेकिन घरवालों ने इसका भी तोड़ निकाल दिया।

एसपी और चंदन
एसपी और चंदन

27 जून करीब है। एसपी इसी दिन हम लोगों से जुदा हो गए। उनकी याद में उनके पुत्र चंदन प्रताप सिंह का एक संस्मरण पेश है… 

एसपी को मैं पापा कहता हूं। वो मेरे सगे पापा नहीं हैं। न हीं उन्होंने समाज के सामने ढोल पीटकर और न ही लिखा-पढ़ी कर मुझे बेटा बनाया। रिश्तों की उलझन में समझना चाहें तो वो मेरे चाचा थे। जब मैं बोलना सीख रहा था तब मेरे बाबा (दादाजी), आजी (दादीजी) और मम्मी ने कहा कि ये पापा हैं। तब से उन्हें पापा कह रहा हूं। बचपन में बड़ी मुश्किल होती थी सगे पापा और पापा के संबोधन को लेकर। लेकिन घरवालों ने इसका भी तोड़ निकाल दिया।

पापा बंबई में नौकरी करने लगे थे। दोनों पापा की पहचान अलग करने के लिए मुझे सिखाया गया- कहो,  बंबइया पापा। जब मैं थोड़ा समझदार हुआ तो खुद ही इस संबोधन से बंबइया को निकाल दिया। पापा ने कभी मुझे चाचा का प्यार नहीं दिया। मुझे हमेशा बेटे का ही प्यार और दुलार मिला। हम दोनों को रिश्ते में कभी ये अहसास नहीं रहा कि वो मेरे सगे पापा नहीं हैं, वो केवल चाचा हैं। ये तो दिल्ली वालों की देन हैं,  जो मुझे बेटे के तौर पर नहीं,  भतीजे के तौर पर जानने लगे। मुझे याद है कि पापा एक बार बीबीसी के नरेश कौशिक जी के साथ गप्पे लड़ा रहे थे।  नरेश जी लंदन से आए हुए थे। मैं कमरे में दाखिल हुआ तो नरेश कौशिक ने मेरे बारे में पूछा तो पापा ने कहा – बेटा है। उनकी आंखें हैरत से फैल गईं। पूछा- एसपी,  तुम्हारा इतना बड़ा बेटा?  पापा ने हंसकर कहा- बेटे और भतीजे में कोई फर्क होता है क्या? एक बार सुहासिनी अली घर पर पर आईं। मुझे देखते ही कहा कि अरे, ये तो जवानी का एसपी है। पापा से मजाक का रिश्ता रखनेवाले किसी ने जवाब दिया- हमारे यहां, पड़ोसियों से शक्ल नहीं मिलती।

मेरे बाबा चार भाई थे। मेरे बाबा तीसरे नंबर पर थे। चार में से तीन बाबा कोलकाता में ही रहते थे। लेकिन सबसे बड़े बाबा कभी भी ग़ाज़ीपुर छोड़ने को राज़ी नहीं हुए। ये तीनों बाबा कभी ग़ाज़ीपुर बसने को राज़ी नहीं हुए। बड़का बाबा साल छह महीने में कोलकाता घूमने के लिए आते थे। हम बच्चे चारों को बाबा ही कहते थे। लेकिन कई बार आजियों को समझ में नहीं आता कि हम किस बाबा की बात कर रहे हैं। रिश्तों के इस उलझन को दूर करने का रास्ता निकाला गया। सबसे बड़े बाबा का नाम बड़का एसपी सिंहबाबा। दूसरे वाले बाबा का नाम दुकनिया बाबा। ये नाम इसलिए क्योंकि बड़े अफसर बनने से पहले अपने जवानी में वो मोटर गाड़ियों और गहनों के दुकान के मालिक थे। सबसे छोटे बाबा का नाम रखा गया बुच्ची बाबा। उनकी भाभियां उन्हें प्यार से घर में बुच्ची बुलाती थीं। इससे सब बाबाओं का संबोधन साफ हो गया। अब तीन बाबा तो रहे नहीं,  सबसे छोटे बाबा की उम्र ख़ासी हो गई है। बाबा के चारों भाइयों के अलगाव का होश तो मुझे नहीं हैं लेकिन इसका दर्द मैंने हमेशा अपने पापा और बाबा दोनों में ही पाया।

मेरे पिता जी तीन भाई। सबसे बड़े मुझे जन्म देनेवाले पापा (नरेंद्र प्रताप),  उसके बाद पापा (सुरेंद्र प्रताप) और उसके बाद छोटे चाचा (सत्येंद्र प्रताप)। मेरे अलावा एक और भाई हैं। मुझे पालने पोसने में घर के जिन लोगों ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई, वो थे मेरे बाबा।  उन्होंने मेरी पढ़ाई लिखाई का सारा बोझ उठाया। इसके अलावा हमारे घर में बुआ थीं। वो मेरे बाबा की बुआ थी,  जो विधवा होने के बाद बाबा के साथ यानी हमारे साथ रहती थीं। उन्होंने केवल मुझे ही नहीं, बल्कि मुझसे पहले के पीढ़ी के लोगों को पाला पोसा। उन्होंने पापा को भी पाला था। मुझे याद हैं, मैं सोया रहता था तो वो फूल (पीतल या कांसे की तरह के बर्तन) के एक बड़े से कटोरे में ढेर सारा दूध, गुड़ की भेली और रोटियां मीसकर मुझे खिलाती थीं। मैं नींद में ही खाते रहता था। मेरी मां घर का सारा काम काज करती थीं।

मेरे समय में कोई प्ले स्कूल था नहीं। मुहल्ले में ही एक प्राइमरी स्कूल था जिसमें कुल चार जमात तक पढ़ाई होती थी। उसमें मेरा दाखिला करा दिया गया। मैं गदहिया गोल (नर्सरी) में जाने को तैयार नहीं था। रो रहा था। खबर बाबा को लगी। बाबा आए। बगैर किसी पूछताछ के गाल पर जोरदार तमाचा रसीद किया। बगल में खड़ी मेरी सबसे छोटी बुआ ने मेरी ऊंगली पकड़कर स्कूल पहुंचा दिया। बाबा ने मुझे पहली और आखिरी बार थप्पड़ मारा। मेरे बाबा सारा जीवन फैशन परस्ती और दिखाने से नफरत करते रहे। अगर घर में कोई भी लैटेस्ट फैशन के कपड़े या बालों में दिख जाए तो समझिए मुसीबत टूट पड़ी। बाबा की सोच थी कि फैशन से बिगड़ने का रास्ता बेहद क़रीब होता है। ज़िंदगी में मैंने जो पहली पतलून पहनी,  वो मेरे मामा ने पहनाया। ज़िंदगी में जो पहली जींस पहनी, वो पापा ने दिए। जो पहली घड़ी पहनी, वो भी पापा की दी हुई थी। पापा जब भर आते, तो वो मेरे छोटे भाई के लिए तरह तरह के उपहार लाते। इसमें वॉकमैंन से लेकर साइकिल तक शामिल है। लेकिन मुझे हमेशा तोहफे में किताबें मिलीं। इसमें कई किताब लल्ला जी (योगेंद्र कुमार लल्ला, संयुक्त या सहायक संपादक,  रविवार) भेजते थे। पापा ने मेरे छोटे भाई को मसूरी के स्कूल में पढ़ाया भी।

पापा,  मेरे छोटे भाई को बेहतरीन स्कूलों में पढ़ाते रहे और मैं सरकारी स्कूलों और कॉलेज में पढ़कर पापा के पेशे में आ गया। पापा,  हमेशा मुझे पत्रकारिता में आने से रोकते रहे। कहते रहे कि कुछ और करो। लेकिन मुझ पर तो सनक सवार थी- पत्रकार बनने की। खैर पापा ने मुझे रास्ता दिखाया। दो टूक में कह दिया–  पत्रकार बनने का विरोध नहीं करूंगा लेकिन मुझसे कभी नौकरी की उम्मीद नहीं करना। वो अपने वचन पर आखिरी वक्त तक कायम रहे। करियर में मुझे शैलेश जी मिले, जिन्होंने टीवी चंदन प्रताप सिंहपत्रकार बनाया। बहुत बाद में संजय पुगलिया जी मिले, जिन्होंने आगे बढ़ाया।

इसके आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें….जारी…. 


लेखक चंदन प्रताप सिंह इन दिनों टोटल टीवी में राजनीतिक संपादक के रूप में कार्यरत हैं। उनसे संपर्क करने के लिए [email protected] का सहारा ले सकते हैं। This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it

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