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धर्मनिरपेक्षता के शहंशाह उदयन शर्मा

[caption id="attachment_15225" align="alignleft"]शेष नारायण सिंहशेष नारायण सिंह[/caption]उदयन शर्मा होते तो आज 61 वर्ष और एक दिन के हो गए होते। कई साल पहले वे यह दुनिया छोड़कर चले गए थे। जल्दी चले गए। होते तो खुश होते, देखते कि सांप्रदायिक ताकतें चौतरफा मुंह की खा रही हैं। इनके खिलाफ उदयन ने हर मोर्चे पर लड़ाइयां लड़ी थीं, और हर बार जीत हासिल की थी। उनको भरोसा था कि हिटलर हो या फ्रांका हो या कोई तानाशाह, हारता जरूर है। लेकिन क्या संयोग कि जब पंडित जी ने यह दुनिया छोड़ी तो इस देश में सांप्रदायिक ताकतों की हैसियत बहुत बढ़ी हुई थी, दिल्ली के फैसले नागपुर से हो रहे थे। यह उदयन के दम की ही बात थी कि पूरे विश्वास के साथ बताते थे कि यह टेंपरेरी दौर है, खत्म हो जायेगा। खत्म हो गयी सांप्रदायिक ताकतों के फैसला लेने की सियाह रात लेकिन वह आदमी जिंदा नहीं है जिसने इसकी भविष्यवाणी की थी। उदयन शर्मा बेजोड़ इंसान थे, उनकी तरह का दूसरा कोई नहीं। आज कई साल बाद उनकी याद में कलम उठी है इस गरीब की। अब तक हिम्मत नहीं पड़ती थी। पंडितजी के बारे में उनके जाने के बाद बहुत कुछ पढ़ता और सुनता रहा हूं। इतने चाहने वाले हैं उस आदमी के। सोचकर अच्छा लगता है। आलोक तोमर हैं और सलीम अख्तर सिद्धीकी, उदयन शंकर हैं तो ननकऊ मल्लाह भी। बड़े से बड़ा आदमी और मामूली से मामूली आदमी, हर वर्ग में उदयन के चाहने वाले हैं।

शेष नारायण सिंह

शेष नारायण सिंहउदयन शर्मा होते तो आज 61 वर्ष और एक दिन के हो गए होते। कई साल पहले वे यह दुनिया छोड़कर चले गए थे। जल्दी चले गए। होते तो खुश होते, देखते कि सांप्रदायिक ताकतें चौतरफा मुंह की खा रही हैं। इनके खिलाफ उदयन ने हर मोर्चे पर लड़ाइयां लड़ी थीं, और हर बार जीत हासिल की थी। उनको भरोसा था कि हिटलर हो या फ्रांका हो या कोई तानाशाह, हारता जरूर है। लेकिन क्या संयोग कि जब पंडित जी ने यह दुनिया छोड़ी तो इस देश में सांप्रदायिक ताकतों की हैसियत बहुत बढ़ी हुई थी, दिल्ली के फैसले नागपुर से हो रहे थे। यह उदयन के दम की ही बात थी कि पूरे विश्वास के साथ बताते थे कि यह टेंपरेरी दौर है, खत्म हो जायेगा। खत्म हो गयी सांप्रदायिक ताकतों के फैसला लेने की सियाह रात लेकिन वह आदमी जिंदा नहीं है जिसने इसकी भविष्यवाणी की थी। उदयन शर्मा बेजोड़ इंसान थे, उनकी तरह का दूसरा कोई नहीं। आज कई साल बाद उनकी याद में कलम उठी है इस गरीब की। अब तक हिम्मत नहीं पड़ती थी। पंडितजी के बारे में उनके जाने के बाद बहुत कुछ पढ़ता और सुनता रहा हूं। इतने चाहने वाले हैं उस आदमी के। सोचकर अच्छा लगता है। आलोक तोमर हैं और सलीम अख्तर सिद्धीकी, उदयन शंकर हैं तो ननकऊ मल्लाह भी। बड़े से बड़ा आदमी और मामूली से मामूली आदमी, हर वर्ग में उदयन के चाहने वाले हैं।

सबके अपने अनुभव हैं। मैं उदयन के चाहने वालों में सबसे ज्यादा आलोक तोमर को पसंद करता हूं। आलोक ने बचपन में अपने आदर्श के रूप में उदयन को चुन लिया था, गांव में शायद मिडिल स्कूल के छात्र के रूप में। बड़े होने पर जब लिखना शुरू किया तो भाषाई हनक वही उदयन शर्मा वाली थी।  उदयन शंकर की उदयन से दीवानगी का आलम यह था कि मां-बाप के दिए गए नाम को बदल दिया और उदयन बन गए। संतोष नायर भी हैं। अगर आज पंडित जी जिंदा होते तो मैं उनको बताता कि जन्म जन्मांतर का संबंध होता है क्योंकि संतोष पता नहीं कितने जन्मों से उनका बेटा है। नाम बहुत हैं उदयन शर्मा को चाहने वालों के, चाहूं तो गिनाता रहूं और धार नहीं टूटेगी। उदयन शर्मा के बारे में कई जगह पढ़ा है कि वे पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं मानते थे, मिशन मानते थे। हो सकता है सही हो, बस मेरी गुजारिश यह है कि उदयन शर्मा के व्यक्तित्व की विवेचना करने के लिए पुराने व्याकरण से काम नहीं चलेगा। उनको समझने के लिए जीवनी लिखने के नए व्याकरण की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि उदयन का जीवन किसी भी सांचे में फिट नहीं होता। उदयन शर्मा की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष पत्रकार के रूप में की जाती है। बात सच भी है लेकिन उनके घनिष्ठतम सहयोगी और मित्र ने उनको एक बार बताया था कि वे धर्मनिरपेक्ष नहीं, प्रो-मुस्लिम पत्रकार हैं। इतने करीबी ने कहा है तो ठीक ही होगा। उदयन शर्मा एक ऐसे इंसान थे जो अपनी लड़ाई हमेशा लड़ते रहते थे, कोई भी मौका चूकते नहीं थे। धर्मनिरपेक्षता उनकी सोच का बुनियादी आधार था, जिससे वे कभी हिले नहीं। जब भी मौका लगा सांप्रदायिक ताकतों को शिकस्त देने की कोशिश की।

रविवार के संपादक का पद संभाला तो चुनौतियां बहुत बड़ी थीं। उनके मित्र और बड़े पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने वह जगह खाली की थी। ज़ाहिर है कि पाठकों की उम्मीदें बड़ी थीं। उदयन ने उसे हासिल किया, रविवार को बुलंदियों पर पहुंचाया। उनकी चुनौती को और भी कठिन कर दिया संघ परिवार के नेताओं ने। 1984 के चुनाव में शून्य पर पहुंच गई पार्टी, बीजेपी ने हिन्दुत्व का नारा बुलंद किया। केंद्र और लखनऊ में कांग्रेस की सरकार थी लेकिन लीडरशिप ऐसी नहीं थी जो कि संघ के चक्रव्यूह की बारीकियां समझ सके। आर.एस.एस., विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, बीजेपी आदि संगठन धर्मनिरपेक्ष राजनीति और जीवन मूल्यों पर चौतरफा हमला बोल रहे थे। कांग्रेस में अरुण नेहरू और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे भाजपाई सोच वाले लोग थे और राजीव गांधी से वही करवा रहे थे जो नागपुर की फरमाइश होती थी। उदयन शर्मा की धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई राजनीति की इस दगाबाजी की वजह से और मुश्किल हो गयी थी। जब रविवार छोड़कर उन्होंने हिंदी संडे ऑबज़र्वर का काम शुरू किया तो विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन चुके थे, उनको बीजेपी का समर्थन हासिल था और उदयन शर्मा पर तरह तरह के दबाव पड़ रहे थे। लेकिन उदयन शर्मा कभी हारते नहीं थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह और लालकृष्ण आडवाणी की संयुक्त ताकत से लोहा लिया और वित्त मंत्रालय के बड़े अफसरों की गिड़गिड़ाहट की परवाह न करते हुए विश्व हिंदू परिषद के इनकम टैक्स मामले पर खबर छापी।

जब आडवाणी ने सोमनाथ से रथ लेकर अयोध्या की तरफ कूच किया तो लोगों को लगने लगा था कि अब आर.एस.एस. को रोका नहीं जा सकता। दंगों का सिलसिला शुरू हो चुका था। पंडित जी के संडे आब्ज़र्वर में लगातार खबरें छपती रहीं और जब ज्यादातर लोग आडवाणी की जय जयकार कर रहे थे तो उदयन के अखबार में खबर लगी ‘..रावण रथी विरथ रघुबीरा´। और इसी विरथ रघुबीर के सनातन धर्मी भक्तों के पक्षधर उदयन शर्मा ने कलम को आराम नहीं दिया। हमेशा कहते रहे कि इस देश का बहुसंख्यक हिंदू धर्मनिरपेक्ष है, और संघप्रेमी हिंदू बहुत कम हैं। उनको विश्वास था कि यह देश दंगाइयों की राजनीति को मुंहतोड़ जवाब देगा। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दिन उदयन शर्मा बहुत निराश थे, दुखी थे। पी.वी. नरसिंहराव को गरिया रहे थे। उनको शिकायत थी कि नरसिंह राव ने आर.एस.एस. की मदद की थी। अर्जुन सिंह, मानव संसाधन विकास मंत्री थे, उदयन की कोशिश थी कि अर्जुन सिंह इस्तीफा दें और नरसिंहराव को पैदल करें, क्योंकि उनको तुरंत सजा दी जानी चाहिए। यह नहीं हो सका। लेकिन उदयन शर्मा रुके नहीं। फिर चल पड़े अपने लक्ष्य की ओर।

बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद आर.एस.एस. वालों ने मुसलमानों को अपमानित करने की योजना पर काम शुरू कर दिया था। पंडित जी ने महात्मा गांधी की समाधि पर रामधुन का आयोजन करवा कर सांप्रदायिकता का जवाब दिया। देश का बड़ा से बड़ा आदमी आया और मदर टेरेसा आईं। शबनम हाशमी ने सहमत की ओर से वहीं राजघाट पर नौजवानों को शपथ दिलाई कि सांप्रदायिकता के खिलाफ जंग जारी रहेगी। इसके बाद पत्रकारिता, नौकरशाही और राजनीति में बैठे आर.एस.एस. के कारिंदों ने पंडित जी पर चौतरफा हमला बोला और उनको हाशिए पर लाने की कोशिश करते रहे। नफरत के सौदागरों के खिलाफ उदयन की लड़ाई कभी कमजोर नहीं पड़ी। अभिमन्यु को घेरकर मारने के बाद कौरव सेना विजयी नहीं होती, उसके बाद जयद्रथ वध होता है। आज जब सांप्रदायिकता के जयद्रथ का वध हो चुका है, कौरव सेना अपने घाव चाट रही है, उदयन शर्मा की बहुत याद आती है।

उदयन शर्मा ने पत्रकारिता की दुनिया में बुलंदियों पर झंडे गाड़े थे। डाकू फूलन देवी का आतंक चंबल के बीहड़ों में फैल चुका था, अखबार वाले हिंदी फिल्मों की महिला डाकुओं की तर्ज पर फूलन देवी को दस्यु सुंदरी लिखना शुरू कर चुके थे। उदयन शर्मा और फोटो पत्रकार जगदीश यादव ने बीहड़ों में फूलन देवी को ढूंढ निकाला और उसकी तस्वीर रविवार में छाप दी। उसके बाद से फूलन देवी के बारे में सही रिपोर्टिंग का सिलसिला शुरू हुआ। मुसलमानों के खिलाफ जब भी दंगाइयों के हमले हुए, उदयन शर्मा हमेशा उनके पक्ष में खड़े रहे। दलितों के खिलाफ सवर्णों के आतंक की रिपोर्ट पाठ्यपुस्तकों का विषय बन चुकी है। रिपोर्ट में ईमानदारी उदयन शर्मा का स्थाई भाव था।

पत्रकारिता के टैलेंट की गजब की पहचान थी उदयन को। गली कूचों से लोगों को पकड़कर लाते थे और पत्रकार बना देते थे। किसी बैंक क्लर्क को तो किसी ट्यूटर को, किसी टाइपिस्ट को तो किसी मैनेजर को, सबको पत्रकार बना दिया। मेरे जैसे मामूली आदमी को संपादकीय लिखने वाला पत्रकार बना दिया। इस जमात के ज्यादातर लोग बाद में उनसे नाराज भी हुए लेकिन उस भले आदमी ने कभी किसी की मुखालिफत नहीं की। मैं भी नाराज हुआ था लेकिन मुझे पहले से भी अच्छी नौकरी दिलवा दी। मुझे पता ही नहीं था, बाद में पता लगा कि उदयन की सिफारिश पर ही मुझे ब्यूरो चीफ बनाया गया था। एक बार मुझसे कहा कि आर.एस.एस. के खिलाफ लिखने वाले हर आदमी को अपना दोस्त मानो, उससे भाई की तरह व्यवहार करो क्योंकि असल में वही तुम्हारा हमसफर होगा। 1991 में कांग्रेस के टिकट पर वे लोकसभा का चुनाव लड़ गए थे, मध्य प्रदेश के भिंड चुनाव क्षेत्र से। सत्यदेव कटारे और रमाशंकर सिंह उनके सहयोगी थे लेकिन तमाम ऐसे लोग भी थे जो अंदर ही अंदर उनका विरोध कर रहे थे, उदयन शर्मा को सब कुछ मालूम था लेकिन किसी के खिलाफ कोई नाराजगी नहीं जाहिर की। राजीव गांधी खुद उनके चुनाव प्रचार में आए थे।

पंडित जी चुनाव हार गए लेकिन भिंड नहीं हारा। जिन लोगों ने उनकी मुखालिफत की थी, वे भी दिल्ली आते थे तो वे खुद और उनकी पत्नी नीलिमा शर्मा, जो भी हो सकता था, मदद करते थे। यह सिलसिला आज तक जारी है। उदयन शर्मा को एक मुहब्बत करने वाले इंसान के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। उनकी पत्नी नीलिमा जी, दोनों बेटे डेनिस और छोटू उनके सबसे करीबी दोस्त थे, इन लोगों से वे आदतन मुहब्बत करते थे। इसी भावना को बढ़ाते जाते थे जिसमें परिवार मित्र-मंडली, मुसलमान और धर्मनिरपेक्ष सोच का हर इंसान शामिल हो जाता था। उनके लिए पत्रकारिता मिशन नहीं कर्तव्य था और उसको उन्होंने बहुत ही बहादुरी से निभाया।

पंडित जी धार्मिक नहीं थे लेकिन परिवार के बड़ों के आगे उनका सिर झुकता था। इस महापुरुष के आगे मेरे जैसे मामूली आदमी का सिर हमेशा झुका रहेगा। अपनी बात को बेलौस और साफ-साफ कहना उनकी फितरत थी। अगर आज जिंदा होते तो बहुत खुश होते क्योंकि बीजेपी की मौजूदा हार में उनकी शुरू की गई उस लड़ाई का भी योगदान है जो उन्होंने लगभग निहत्थे लड़ी था। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उनके दिल से जो कराह निकली थी, उसी का नतीजा है बीजेपी चुनाव तो हार ही गई है, विघटन के कगार पर खड़ी है।


लेखक शेष नारायण सिंह पिछले कई वर्षों से हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इतिहास के छात्र रहे शेष रेडियो, टीवी और प्रिंट सभी माध्यमों में काम कर चुके हैं। करीब तीन साल तक दैनिक जागरण समूह के मीडिया स्कूल में अध्यापन करने के बाद इन दिनों उर्दू दैनिक सहाफत के साथ एसोसिएट एडिटर के रूप में जुड़े हुए हैं। वे दिल्ली से प्रकाशित होने वाले हिंदी डेली अवाम-ए-हिंद के एडिटोरियल एडवाइजर भी हैं। शेष से संपर्क करने के लिए [email protected] का सहारा ले सकते हैं।

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0 Comments

  1. saleem malik

    January 21, 2010 at 1:38 pm

    aap ne jo kha thhik he guru lekin aaj chinta kise he;;;;;;;

  2. bharatkarecha

    December 6, 2013 at 1:45 am

    Undyan sharma Aur surenderpatap singh ko pada kar bachpan aur student life ke den yada aa ghay .’ Daramyog’ aur bharati ji yada aa gayePER lekh mey Deramyug ka nam tak na hey. bharati ji ka enha banane may visha hath tha. Arical adura laga dono ke biba.

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