घर से 15 और दुनिया से 80 की उम्र में भागे

Spread the love

प्रभाकर पणशीकर
प्रभाकर पणशीकर
: मरने वाला महाराष्ट्र के ग्रामीणों का औरंगजेब था : प्रभाकर पणशीकर का जाना मराठी थियेटर का एक बड़ा नुकसान है : मराठी थियेटर के बड़े अभिनेता प्रभाकर पणशीकर नहीं रहे. १३ जनवरी को पुणे में उन्होंने अंतिम सांस ली. साठ से भी ज्यादा वर्षों तक मराठी थियटर में जीवन बिताने के बाद उन्होंने अलविदा कहा लेकिन इस बीच उनकी ज़िंदगी बहुत ही नाटकीय रही.

बचपन में घर से भागकर फुटपाथ पर ज़िंदगी बिताने के लिए वे मजबूर इसलिए हुए कि उनके पिता जी संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान् थे और वे अपने बेटे को नाटक में नहीं जाने देना चाहते थे. बाद में यही घर से भागा हुआ बालक नटसम्राट के रूप में पहचाना गया. घर से भागे तो १५ साल के थे और जब दुनिया से भागे तो उनकी उम्र अस्सी वर्ष की होने वाली थी. ६५ साल का यह सफ़र बहुत ही दिलचस्प है और मराठी समाज और नाटक में एक अहम मुकाम रखता है.

इस महान अभिनेता की अंतिम यात्रा में भी नाटकीयता है. कुछ नाटकों में उनके औरंगजेब के रोल की वजह से ही ग्रामीण महाराष्ट्र के बहुत सारे इलाकों में लोग मुग़ल सम्राट औरंगजेब को जानते हैं. १९६८ में प्रो वसंत कानेटकर ने एक बहुत बड़ा नाटक ‘इथे ओशालाला मृत्यु ‘प्रस्तुत किया था जिसमें उस वक़्त के मराठी रंगमंच के बड़े अभिनेताओं ने काम किया था. संभाजी का रोल डॉ काशीनाथ घंनेकर ने किया था जबकि चितरंजन कोल्हात्कर और सुधा करमाकर अन्य भूमिकाओं में थे. औरंगजेब की भूमिका प्रभाकर पणशीकर ने की थी.

अब तक इस नाटक के आठ सौ से ज्यादा प्रदर्शन हो चुके हैं और पणशीकर का औरंगजेब ही ग्रामीण मराठी समाज की नज़र में औरंगजेब है. इस नाटक में वे सात बार नमाज़ पढ़ते हैं. एक बार किसी गाँव में जहां नाटक चल रहा था, उनके नमाज़ पढने के सलीके को देख कर लोगों को लगा कि उन्हें मुसलमान बन जाना चाहिए. लोगों ने उनसे आग्रह भी किया. इस नाटक की सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसे संभाजी को मुख्य हीरो के रूप में पेश करने के लिए लिखा गया था लेकिन प्रभाकर पणशीकर का काम इतना प्रभावशाली था कि लोग नाटक देखने के बाद औरंगजेब के चरित्र को ही याद रख सके. इसी नाटक में डॉ श्रीराम लागू को अपनी अभिनय क्षमता दुनिया को दिखाने का मौक़ा मिला.

औरंगजेब की भूमिका प्रभाकर पणशीकर ने १९८७ में प्रो वसंत कानेटकर के नाटक ‘जिथे गवतास भले फुटतात’ में भी निभाई. पहली बार तो उन्होंने विजय के अभियान पर निकले औरंगजेब का रोल किया था लेकिन इस बार ९० साल के उस औरंगजेब की भूमिका थी जिसमें वह हार मान चुका है, निराश है. जो भी हो उन्होंने मराठा इतिहास से सम्बंधित जिन नाटकों में काम किया है वह हमेशा याद रखे जायेंगे. बाद में जब वे नाट्य निकेतन के प्रबंधक बने तो जो भी कलाकार गैरहाज़िर रहता, उसकी जगह पर अभिनय करते करते वे हर तरह के अभिनय के माहिर हो गए. उनका औरंगजेब इसीलिये सराहा गया कि उन्होंने नेगेटिव रोल में भी जान डाल देने की कला के वे माहिर हो गए थे.

१९६२ में उन्होंने “तो मी नवेच ” नाम के नाटक में काम करके मराठी जनमानस में जो मुकाम बनाया वह उनके जीवन का स्थायी भाव बन गया. ‘तो मी नवेच’ अकेला ऐसा नाटक है जिसे उन्होंने ३१ साल की उम्र में करना शुरू किया. जब तक हाथ पाँव चला उसमें काम किया. आख़िरी वक़्त में एक बार दिल्ली में जब वे पाँवकी तकलीफ से पीड़ित थे, उन्होंने उस नाटक के सभी पात्रों को व्हील चेयर पर बैठ कर निभाया और सराहे गए.

जीवन भर वे कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे. दो बार अखिल भारतीय मराठी नाट्य सम्मलेन के अध्यक्ष रहे. महाराष्ट्र सरकार के थियेटर सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के पद पर रहने के अलावा नटसम्राट नानासाहेब फाटक प्रतिष्ठान और डॉ काशीनाथ घाणेकर प्रतिष्टान के भी अध्यक्ष रहे. मराठी नाटक में जितने भी पुरस्कार होते हैं, उन्हें वे सब मिल चुके थे. उनकी संस्था को चलाने का ज़िम्मा अब उनके प्रशंसकों पर है, उनके अपने भतीजे अनंत पणशीकर उनके बहुत बड़े प्रशंसकों में से हैं. प्रभाकर पणशीकर का जाना मराठी थियेटर का एक बड़ा नुकसान है.

लेखक शेष नारायण सिंह देश के जाने-माने जर्नलिस्ट हैं.

अपने मोबाइल पर भड़ास की खबरें पाएं. इसके लिए Telegram एप्प इंस्टाल कर यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia

Comments on “घर से 15 और दुनिया से 80 की उम्र में भागे

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *