हमारा हीरो – प्रभाष जोशी
प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी का इंटरव्यू करने भड़ास4मीडिया की टीम उनके वसुंधरा स्थित निवास पहुंची तो शुरुआती दुआ-सलाम के बाद जब उनसे बातचीत शुरू करने का अनुरोध किया गया, तो उन्होंने हंसते हुए कहा- भई अपन के अंदर ‘भड़ास’ नाम की कोई चीज है ही नहीं। हालांकि जब प्रभाष जी से बात शुरू हुई तो बिना रूके दो घंटे से अधिक समय तक चली। इंटरव्यू में प्रभाष जी नए-पुराने सभी मुद्दों पर बोले।
प्रभाष जी का कहना है कि उन्होंने ‘हंस’ पत्रिका को कभी नहीं पढ़ा। एक ब्लाग पर खुद को ‘दंभी’ और ‘क्रूर’ कहे जाने का भी जवाब दिया। राकेश कोहरवाल और आलोक तोमर को जनसत्ता से निकाले जाने पर बोले- ‘मैं गुडी-गुडी वाला संपादक नहीं रहा। जनसत्ता के हितों का जो भी मामला हुआ, उसमें जो आड़े आया, उसे अपन ने बर्दाश्त नहीं किया। चाहे वो आलोक तोमर रहे हों या उमेश जोशी।” पेश है प्रभाष जोशी से भड़ास4मीडिया के रिपोर्टर अशोक कुमार की बातचीत के अंश-
-अपने बारे में शुरू से बताइए, जन्म से लेकर पढ़ाई-लिखाई तक के बारे में।
–मां का कहना है कि 15 जुलाई 1937 को जिस दिन मैं जन्मा, (मध्य प्रदेश के सिहोर जिले के आस्टा गांव में) दो-तीन दिन पहले से ही खूब बारिश हो रही थी। मेरे प्रसव के लिए मां मौसी के घर गई थीं। आस्टा गांव के किनारे पार्वती नदी बहती है। नदी लबालब थी, बाढ़ की स्थिति थी। मुश्किल इतनी थी कि मुझे और मेरी मां को खटिया पर डालकर जिनिंग फैक्ट्री (कपास के बीज की फैक्ट्री), जो सबसे ऊंची जगह थी, वहां लाया गया। तब जाकर हम बचे। उसके बाद भी बारिश दो दिन तक होती रही। हम 12 भाई बहन थे, जिसमें दो नहीं रहे। तीन बहनों के बाद मैं पहला बेटा था। गरीब परिवार था। मगर अभाव के बावजूद गदगद वातावरण था। मां पढ़ी-लिखी नहीं थी। सिर्फ गीता पढ़ पाती थी।
मेरे पिताजी होल्कर स्टेट में फौजदारी में थे। राव साहब कहलाते थे। दुनिया भर के अपराधी जिनमें ज्यादातर मुसलमान थे, अक्सर आया करते थे। एक दिन कोई अपराधी केस जीत गया। घर आया। पिताजी घर पर नहीं थे। उनने पिताजी जहां बैठते थे, वहां माला रखा, मिठाई रखी और चला गया। बड़ी बहनों की शादी हो गई तो मैं मां की मदद के लिए घर के सारे काम करता था। बहनों से भी बड़ा स्नेह था। जब बड़ी बहन का निधन हुआ तो मैने मालवा के लोकगीत ‘म्हारी बेन्या बाई जोवे बाट’ के शीर्षक से ‘कागद कारे’ में लिखा।
पढ़ने में रुचि नहीं थी। हाई स्कूल तक की शिक्षा महाराजा शिवाजी राव प्राइमरी और मिडिल स्कूल में हुई। बहुत तेज नहीं था, बस पास हो जाता था। एक बार फेल हो गया था तो शिक्षकों के पीछे लग कर सपलमेंटरी ले लिया। घुमक्कड़ी का शौक था। मित्र कैलाश मालवीय और मैं साइकिल से जंगल निकल जाते। मां घर से कसार बना कर देती थी। भूख लगती तो जंगल में ही मैं चूल्हा बनाता और मालवीय छाना (पशुओं के सूखे हुए गोबर) लाते। फिर दूध में कसार डालकर दोनों आधा-आधा खाते। कालेज में आकर थोड़ा ठीक हुआ।
सन् 51 या 52 में मैट्रिक के बाद इंदौर में ही होल्कर कालेज में दाखिला लिया, मगर पिताजी चाहते थे कि मैं साइंस और मैथ पढ़ूं तो गुजराती कॉलेज चला आया। नौकरी- करियर जैसी चीजों मे कभी मन नहीं लगा। क्रिश्चियन कॉलेज के समाजशास्त्र के प्रो. पाटिल लड़कों को गांव ले जाते थे। उनसे संबंध निकाल मैं भी साथ जाने लगा। तब देश आजाद हुआ था और देश को नए सिरे से बनाने का सपना था। सन् 1955 में इंटर की परीक्षा छोड़ दी और सुनवानी महाकाल गांव में लोगों के बीच काम करने चला गया।
-उसके बाद?
–पिताजी इससे काफी दुखी रहते थे। एक दिन बस से घर लौट रहा था तो पास में एक सज्जन बैठे थे। तब दाढ़ी उग आई थी और मैं खादी पहनता था। मुझे देखते रहे, फिर पूछा, किसके बेटे हो? मैने बताया। वो पिताजी के दोस्त थे। वे बोले, तुम्हारे पिता इसीलिए दुखी रहते हैं। फिर उन्होंने सुनवानी महाकाल में मुझे प्राइमरी स्कूल में मास्टरी पर लगवा दिया। सुबह बच्चों को इकठ्ठा कर पूरे गांव में झाड़ू देता था। अपना अनाज खुद पीसता था। गांव की महिलाएं मुझे छेड़ने के लिए अपने घर का अनाज मेरे दरवाजे पर रख जाया करती थीं। वहां गांव के हर घर में, चाहे वह किसी जाति का हो, मैंने खाना खाया। तब रसोई में महिलाएं और लड़कियां मेरे झाड़ू लगाने और अनाज पीसने को लेकर खूब मजाक किया करती। गांव का जब भी कोई बीमार होता तो उसे लेकर पास के शहर देवास जाता था। वहीं 55-56 में कुमार गंधर्व से मुलाकात हुई। दुनिया भर के क्लासिकल किताबों को यहीं पढ़ा। जिस लेखक को शुरू करता उसकी आखिरी किताब तक पढ़ जाता। चाहे वो तोल्सताय हों, शेक्सपीयर या चेखव। गांव वाले भी खूब मानते थे। जब वे अनाज बेचने इंदौर जाते तो मेरे घर पूरे साल का अनाज दे आते थे। 1960 तक मैं यहीं रहा। 60 में मुझे लगा कि या तो मुझे राजनीति में जाना पड़ेगा या मैं भ्रष्ट हो जाऊंगा, क्योंकि सारा गांव मुझे लिजेंड मानता था। उधर कांग्रेस वालों को लगता था कि मैं कांस्टीट्यूएन्सी बना रहा हूं, जबकि मैं तो देश के नव-निर्माण में लगा था।
-पत्रकारिता में कैसे आए? किन-किन मीडिया हाउसों से जुड़े रहे।
–जब मैंने वहां से हटने का फैसला किया तभी मैने सोचा कि पत्रकारिता में क्यों नहीं आऊं। बिल्ली के भाग से छीका फूटा वाली बात हुई। उसी दौरान विनोबा जी इंदौर आए। वो क्या कह रहे हैं, तब उन्हें समझने वाला कोई नहीं था। नई दुनिया, इंदौर के संपादक राहुल बारपुते ने कहा कि तुम करो। तब मैंने इसे एक महीने तक कवर किया। मैं सिर्फ हथेली पर नोट लेता था और उसी से पूरा पेज भर देता था। (बीच में विषय से हटकर उत्साहित होते हुए कहते हैं- मैनें हंस आज तक नहीं पढ़ा, मगर गंगा प्रसाद विमल ने फोन कर बताया कि ‘उन्होंने’ आपके बारे में लिखा है कि उनकी स्मृति से हर्ष होता है।) विनोबा जी सुबह तीन बजे से काम शुरू कर देते थे। मैं 2.45 में ही उनके पास पहुंच जाता। सारा दिन कवर कर वहां से नई दुनिया जाता। इसने पत्रकारिता के दरवाजे खोल दिये। मैं वहां काम करने लगा।
एक दिन कोई भी आफिस नही आया। तब मैने अकेले चार पन्नों का अखबार निकाला। दूसरे दिन मैं नाराज हुआ तो सभी ने कहा कि हम तो टेस्ट ले रहे थे। राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर और शरद जोशी के साथ वो जो ट्रेनिंग हुई, वो हमेशा काम आई। यहां 60 से 66 तक छह साल तक काम करते हुए मजे में बीता। इसी बीच एक बार प्रेस इंस्टीट्यूट में माइकल हाइट्स, जो लीड्स के किसी अखबार के संपादक थे, से मुलाकात हुई। वह हर क्षेत्र में मेरी रुचि से बेहद खुश थे। उन्होंने इंग्लैंड के प्रतिष्ठित वीकली ‘न्यू स्टेट्समैन’ के संपादक जॉन फ्रीमन से कहा। इस तरह मैं 1965 में इंग्लैंड गया। वहां इंग्लैंड से निकलने वाले ‘मैनचेस्टर गार्डियन’ और लीड्स के ‘टेलीग्राफ आर्गस’ में कुछ महीनों तक काम किया। फिर लौट आया।
वापस आने के बाद मैं कुछ नया करना चाहता था। नई दुनिया ट्रेडिशनल अखबार था और वहां प्रयोग की गुंजाइश नहीं थी। तभी शरद जोशी के पास भोपाल से ‘मध्यदेश’ नाम से अखबार निकालने का प्रस्ताव आया। मुझसे भी बात की गई तो मैने हामी भर दी। हम दोनों ने मिलकर इसे निकाला। बाद में अखबार आर्थिक संकट का शिकार हो गया। पत्नी का जेवर गिरवी रखकर अखबार चलाना पड़ा। रद्दी बेच कर मोटरसाइकिल में पेट्रोल डलवाया। सन् 66-68 तक चलने के बाद इसे बंद करना पड़ा। 68 में ही गांधी शताब्दी समिति में पब्लिकेशन का सचिव होकर दिल्ली आ गया। तब से दिल्ली में धूल फांक रहा हूं।
-आपने कहा कि ‘हंस’ कभी नहीं पढ़ा, आखिर क्यों?
–बस ऐसे ही। अपन को जंचा नहीं। राजेंद्र यादव ने मेरे बारे में काफी बुरा लिखा है। अच्छा भी लिखा है।
-जनसत्ता में कैसे आए?
–दिल्ली आने के बाद सन् 70 से 74 तक ‘सर्वोदय’ निकाला। यह वीकली था और मैं उसका संपादक था। सर्वोदय में श्रवण गर्ग (वर्तमान में दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर) और अनुपम मिश्रा (फिलवक्त, गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े हुए) मेरे साथ थे। रामनाथ गोयनका ने मुझे ‘सर्वोदय’ में पढ़ा था। उन्हें मेरी भाषा बहुत अच्छी लगी थी। इसी बीच सन् 72 में जयप्रकाश नारायण को चंबल के डाकुओं का समर्पण कराने के लिए कुछ युवाओं की मदद चाहिए थी, जो उनके बीच जाकर उनसे बात कर सके। अनुपम, श्रवण और मैं फरवरी से उनके साथ काम करने लगे। डाकुओं ने अप्रैल में आत्मसमर्पण कर दिया था। इस पर जेपी और मैने पंद्रह दिनों में एक किताब तैयार कर दी थी। इससे जेपी को मुझसे प्रेम था। तभी ‘एवरीमैंस’ नाम से वीकली पत्रिका शुरू हुई। इसके संपादक अज्ञेय जी थे। हम उसमें मदद करते थे। फिर हिंदी में अखबार निकालने की बात हुई। रामनाथ गोयनका ने पहले से ही ‘प्रजानीति’ नाम ले रखा था। तब पहली बार मैं गोयनका जी से मिला। मुलाकात काफी डिजास्टर थी। वह जिस तरह से लोगों के बारे में खुल कर गालियों से बात कर रहे थे, मैने सोचा कैसे काम करूंगा। मैने लौटकर जेपी को पांच पन्नों की चिठ्ठी लिखी। जेपी ने वह गोयनका को दे दी।
एक दिन राधाकृष्ण और गोयनका (74 की शुरुआत में) गांधी नीति, राजघाट कालोनी स्थित मेरे घर पहुंच गए। घर में एक खाट थी औऱ टूटी हुई कुर्सी। राधाकृष्ण काफी मोटे थे। कुर्सी पर उन्हें बैठाने से वह टूट न जाए इसलिए मैने उन्हें खाट पर और गोयनका जी को कुर्सी पर बैठाया। जाते समय मैं और मेरी पत्नी उन्हें छोड़ने आए। मैने हाथ जोड़कर कहा कि बैठने की जगह ठीक नहीं थी। मैंने माफी मांगी। उन्होंने छेड़ते हुए कहा- “महावत से दोस्ती, दरवाजो साकलो”। (बड़े-बड़े लोगों से दोस्ती रखते हो और घर ऐसा)। इस पर मेरी पत्नी हंस पड़ी थीं। जाते-जाते कहा कि भले ही काम करना या न करना, कल शाम को आना।
मैं दूसरे दिन गया। वह रोज शाम कनाट प्लेस के हनुमान मंदिर और गोल मार्केट के काली मंदिर जाते थे। गाड़ी से वो मुझे लेकर निकले। दर्शन करने के बाद पूछा- क्या दिक्कत है? क्यों नहीं आते? मैने कहा- मेरी आत्मा में एक टोमस पैकेट है। गोयनका ने कहा- वह कौन होता है? फिर मैने उन्हें वह कहानी सुनाई कि “राजा का एक दोस्त था। राजा ने उसे चर्च का मुखिया बना दिया। दोस्त ने जिस दिन चर्च संभाला, विद्रोह कर दिया।“ उन्होंने कहा, कोई बात नहीं, लड़ लूंगा तेरे से। फिर मैने मंजूर कर लिया। तब ‘प्रजानीति’ निकाली गई। यह सन् 74 से शुरू हुआ मगर इमरजेंसी के कारण 75 जून में इसे बंद करना पड़ा।
तब कहा जाता था कि इंदिरा जी और संजय दो लोगों से नाराज हैं। इंडियन एक्सप्रेस के संपादक मुलगांवकर से और प्रजानीति के संपादक प्रभाष जोशी से। हमने इंडियन एक्सप्रेस छोड़ दिया। फिल्म और स्पोर्ट्स का वीकली ‘आस-पास’ निकाला। इसे भी छह महीने बाद बंद करना पड़ा। काफी मुश्किल दिन थे, हम घर से बाहर निकलते तो पुलिस वाला बैठा मिलता। इंडियन एक्सप्रेस का घर छोड़ कर गांधी पीस फाउंडेशन के उसी घर में आ गए थे, जहां से बाद में जेपी को पकड़ा गया।
-यह तो ‘प्रजानीति’ की बात हुई, ‘जनसत्ता’ कैसे शुरू किया?
–जब चुनाव की घोषणा हुई मैं पटना में जेपी के यहां था। मैं वापस लौट आया। रामनाथ गोयनका घर आए। कहा कि अब अखबार निकाल सकते हैं। तब देश भर में चुनाव को लेकर क्या चल रहा है, इसको लेकर अखबार निकालने की योजना बनी। सभी प्रांतों से सभी भाषाओं के अखबार रोज हवाई जहाज से आते थे। सभी भाषाओं के जानकार को बुलाया जाता था। अनुवाद के बाद उसका जिस्ट तैयार होता। वह इंडियन एक्सप्रेस में छपता था। यह पूरे चुनाव चला। एक दिन रामनाथ जी ने कहा कि संपादकीय तो सभी लिख रहे हैं हमें न्यूज स्टोरी पर ध्यान देना चाहिए। हमने खबर छापनी शुरू कर दी। मजबूरीवश टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स सबको हमें फॉलो करना पड़ा। लोग इंडियन एक्सप्रेस को ‘जनता एक्सप्रेस’ कहने लगे।
फिर चंडीगढ़ से इंडियन एक्सप्रेस निकालना तय हुआ। दिल्ली का मोह छोड़ कर कोई जाना नहीं चाहता था। मैं वहां गया। सन् 77-78 से 81 तक वहां इंडियन एक्सप्रेस निकाला। सन् 81-83 तक इंडियन एक्सप्रेस, दिल्ली का आरई रहा। यहीं रहते हुए जनसत्ता की सारी योजना बनी।
-आपने राकेश कोहरवाल और आलोक तोमर को क्यों निकाला?
–(दिवंगत राकेश कोहरवाल के बारे में बचते हुए) मैने कागद कारे में लिखा है उनके बारे में। जहां तक आलोक की बात है, एक आर्टिकल था, गिरिराज किशोर का था। लेख छपने के लिए पूरी तरह तैयार था। उसमें कंप्यूटर पर सब उल्टा-पुल्टा कर दिया था। वह कंप्यूटर आलोक का था। उसे जाना पड़ा।
-आपने लिखा है कि महादेव चौहान, आलोक तोमर और राकेश कोहरवाल आपको अपराध बोध देते हैं। क्या है वह अपराध बोध?
–ये जब आए थे तो कुछ नहीं थे। जनसत्ता में नाम कमाया था। अखबार ने उन्हें कीर्ति दी थी। इनको उठाया था। सभी के टैलेंट को जनसत्ता ने उभारा था। हिट होने के बाद इनके तौर-तरीके बदल गए, जीवन में ऐसा होता है जब आपकी प्रतिभा को एक बार निखरने का मौका मिल जाता है, तब। आपमें जो प्रतिभा है उसे संभाल कर रोज तराशना और उसे रचनात्मक कार्य में लगाए रखना भी एक प्रतिभा है, वरना जिनमें अधिक प्रतिभा होती है वो विस्फोट करके नष्ट हो जाते हैं। ऐसे कई लोग थे जो जनसत्ता से जाने के बाद फिर कभी नहीं बढ़े।
जब मेरी पांच किताबों का एक साथ विमोचन था, तब अमर-उजाला के समूह संपादक (अब ग्रुप प्रेसीडेंट, न्यूज) शशि शेखर ने कहा था ‘हम जनसत्ता में आलोक तोमर का नाम सुनते थे। अब वो कहां हैं, किसी को नहीं पता।’
जब अखबार शुरू हुआ था तभी मैने सबको बुला कर कहा था कि हमें मिलकर एक परिवार बनाना है और यह परिवार अखबार बनाएगा। पांच साल तक पूरे 22 लोगों की टीम थी। इस टीम ने कैसा अखबार निकाला, आप जानते हैं।
-आज जनसत्ता अपने निम्न स्तर पर है, जबकि आपका नाम इससे जुड़ा हुआ है। इसे सुधारने के लिए आप खुद क्या कर रहे हैं?
–अभी भी खबर पढ़ने वालों का अखबार जनसत्ता ही है। यह एक अखबार के लिए बड़ा सम्मान है। इंडियन एक्सप्रेस के विभाजन के बाद हालात गड़बड़ हो गए। गोयनका की मृत्यु हुई और तभी मनमोहन सिंह के कारण भारत का खुले बाजार में प्रवेश हुआ। तब एड और सर्कुलेशन हावी हो गया। संपादकीय पीछे छूट गया। अब अखबार नो प्राफिट नो लॉस पर चल रहा है। विज्ञापन पाने के लिए हम ऐसा-वैसा कुछ नहीं करते। इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता में संपादक आज भी संपादक हैं। यह दिवंगत रामनाथ गोयनका की परंपरा है। मुझसे 99 में सीईओ बनने के लिए कहा गया था, मैने मना कर दिया।
-उमेश जोशी ने अपने ब्लॉग पर आपको ‘दंभी’ और ‘क्रूर’ कहा है। क्या अदावत है उनसे?
–कोई अदावत नहीं। वो हमारे यहां रहते हुए टीवी पर काम करने लगे। हमारे यहां ऐसा नहीं होता था। इसलिए हमने उन्हें कभी प्रमोट नहीं किया। अभय कुमार दुबे ने भी ऐसा ही किया था। हमने उन्हें कई बार समझाया कि क्यों करते हो। टीवी पर काम करना चाहते हो तो अखबार छोड़ दो भाई। जनसत्ता के हितों का जो भी मामला हुआ, उसमें जो भी आड़े आया हो, उसे अपन ने कभी बर्दाश्त नहीं किया। चाहे वो आलोक तोमर हों या जोशी। मैं गुडी-गुडी वाला संपादक कभी नहीं था। अच्छा एडमिनिस्ट्रेटर था।
-अभय छजलानी के सम्मान समारोह में आप नहीं थे, क्या आपको नहीं बुलाया गया था?
–बुलाया था। प्रेस क्लब वालों ने, जिन्होंने समारोह रखा था, मुझे बुलाया था। मगर मुझे हिंदी विद्यापीठ के वार्षिक बैठक में जाना था। मैं वहां का कुलाधिपति हूं। तारीख मुझसे पूछ कर ही तय की गई थी। कैसे जाता, मैने मना कर दिया।
-टीवी न्यूज का स्तर इतना घटिया क्यों हो गया है?
–दुनिया में हर जगह टीवी इंटरटेनमेंट का माध्यम है। अपना इंटरटेनमेंट का आदर्श बालीवुड है। वैसे ही वहां फोर ‘सी’ से मामला चलता है, जिसमें सिनेमा, क्राइम, क्रिकेट और चौथा कॉमेडी भी शामिल है। मैने एक बार बीबीसी पर कहा था कि टीवी सभी चीजों को “नाकुछ” किए बिना नहीं दिखा सकता।
-आपको कौन-कौन से सम्मान मिल चुके हैं?
–कई मिल चुके हैं भई। साहित्य अकादमी का प्रतिष्ठित ‘शलाका पुरस्कार’ (07-08) मिल चुका है। उत्तर प्रदेश का ‘लोहिया विशिष्ट सम्मान’ भी मिला है। बिहार में भी सम्मानित हुआ हूं। मध्य प्रदेश जो अपना राज्य है, उसे छोड़कर बाकी लगभग सभी राज्य मुझे सम्मानित कर चुके हैं।
-किन-किन पत्र-पत्रिकाओं में लिख रहे हैं?
–‘प्रथम प्रवक्ता’ और ‘तहलका’ में। जनसत्ता में लिखना जारी ही है। कई बार लोग पीछे पड़ जाते हैं तो लिखना पड़ता है। कभी-कभी भाषण भी लिखने पड़ते हैं।
-कौन-कौन सी किताबें लिखी हैं, आगे क्या लिख रहे हैं?
–अब तक नौ किताबें लिखी है। चंबल की बंदूक गांधी के चरणों में, हिंदू होने का धर्म, मसि कागद, कागद कारे। पांच किताबें एक साथ आई थी। जीने के बहाने, धन्न नर्वदा मैय्या हो, लुटियन के टीले का भूगोल, खेल सिर्फ खेल नहीं है और जब तोप मुकाबिल हो। इन दिनों मैं हिंसा-दान के ऊपर लिख रहा हूं, ‘अटका कहां स्वराज‘। एक किताब रामनाथ गोयनका, कुमार गंधर्व और गांधी के ऊपर लिखने की योजना है।
मैं अपना आत्म-वृतांत भी लिखना चाहता हूं। फिलहाल शीर्षक दिया है ‘ओटत रहे कपास’। 5 अप्रैल सन् 1992 को पहली बार कागद कारे लिखा था। इसे 2012 तक लिखूंगा, पूरे बीस साल हो जाएंगे तब। 75 की उम्र तक सब निपटा दूंगा। 75 के बाद कोई लिखना नहीं। 20-25 साल की उम्र में जैसा सोचा करता था वैसा हो गया हूं।
-परिवार में कौन-कौन है?
पत्नी, दो बेटे और एक बेटी। पत्नी का नाम ऊषा है। बेटी सोनाल की शादी हो चुकी है। वह एनडीटीवी इमेजिन की मुखिया है। बेटा संदीप जोशी क्रिकेट खिलाड़ी रह चुका है। फिलहाल दिल्ली में एयर इंडिया अकादमी में क्रिकेट और हॉकी की कोचिंग देता है। एक बेटा सोपान जोशी देश की प्रमुख विज्ञान एवं पर्यावरण पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ में मैनेजिंग एडिटर है।
–प्रभाष जोशी को वर्तमान में कोई दूसरा प्रभाष जोशी नजर आता है?
–कोई आदमी दूसरे जैसा नहीं बन सकता। हां, अखबार में हरिवंश को अच्छा मानता हूं, क्योंकि वह हर तरह की जिम्मेदारी लेने को तैयार रहते हैं। पूरा अखबार अपने माथे पर लेता है। टीवी में रवीश कुमार अच्छी पत्रकारिता कर रहा है। वैसे ही ‘तलहका’ में प्रतिष्ठान विरोधी स्वर हैं।
-शुक्रिया सर
– धन्यवाद।
rajkumar sahu, janjgir chhattisgarh
November 6, 2010 at 1:08 pm
prabhsh daa ji ki lekhni, patrakarita ke liye aaj bhi jivant swar hai.