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सार्थक पत्रकारिता का ये सारथी

प्रभाष जोशी

जीवन के 72 बसंत पार कर चुके मनीषी, गांधीवादी विचारक और सार्थक पत्रकारिता के सारथी प्रभाष जोशी अनुपम और अतुलनीय हैं। सोचता हूं उनसे जुड़ी स्मृतियों का क्रम कहां से शुरू करूं। चलिए, उनसे अपनी पहली मुलाकात से ही प्रारंभ करता हूं। मैं आनंदबाजार प्रकाशन समूह के हिंदी साप्ताहिक ‘रविवार’ में उप संपादक के रूप में काम कर रहा था। सुरेंद्र प्रताप सिंह यहां से दिल्ली जा चुके थे और उदयन शर्मा जी हमारे नये संपादक बन कर आ गये थे।

प्रभाष जोशी

प्रभाष जोशी

जीवन के 72 बसंत पार कर चुके मनीषी, गांधीवादी विचारक और सार्थक पत्रकारिता के सारथी प्रभाष जोशी अनुपम और अतुलनीय हैं। सोचता हूं उनसे जुड़ी स्मृतियों का क्रम कहां से शुरू करूं। चलिए, उनसे अपनी पहली मुलाकात से ही प्रारंभ करता हूं। मैं आनंदबाजार प्रकाशन समूह के हिंदी साप्ताहिक ‘रविवार’ में उप संपादक के रूप में काम कर रहा था। सुरेंद्र प्रताप सिंह यहां से दिल्ली जा चुके थे और उदयन शर्मा जी हमारे नये संपादक बन कर आ गये थे।

एक दिन उदयन जी ने मुझे अपने चेंबर में बुलाया और कहा- ‘पंडि़त, तुम्हें एक जिम्मेदारी सौंपता हूं। आज दिन भर आपकी आफिस से छुट्टी लेकिन आपको मेरा एक जरूरी काम करना है।’

मैंने पूछा- ‘पंडित जी, कैसा काम?’

उदयन जी बोले- ‘महान पत्रकार और गांधीवादी विचारक प्रभाष जोशी महानगर आ रहे हैं। वे सन्मार्ग हिंदी दैनिक के संपादक रामअवतार गुप्त (अब स्वर्गीय) के प्रयास से स्थापित संस्था ‘पत्रकारिता विकास परिषद’ के समारोह में भाग लेने आ रहे हैं। आपको महात्मा गांधी की विचारधारा पर उनका एक इंटरव्यू लेना है। यह इंटरव्यू ही हमारे रविवार के अगले अंक की आमुख कथा होगी।’

मैंने कहा- ‘वे समारोह में व्यस्त रहेंगे, ऐसे में उन्हें पकड़ पाना क्या आसान होगा?’

उदयन जी बोले- ‘यह आपकी समस्या है, मुझे तो प्रभाष जी का इंटरव्यू चाहिए।’

पंडित जी का हुक्म तो बजाना ही था। मैं सीधा कोलकाता महानगर के भारतीय भाषा परिषद के सभागार पहुंच गया, जहां पत्रकारिता विकास परिषद का समारोह चल रहा था। मैं  रामअवतार गुप्त जी से मिला और उनसे सारी बात बतायी और कहा- ‘सर! जैसे भी हो मुझे प्रभाष जोशी जी का इंटरव्यू लेना है। उदयन जी का आदेश है। मैं आपकी मदद के बगैर पूरा नहीं कर पाऊंगा।’

श्री गुप्त जी से पुराना परिचय था क्योंकि मैंने पत्रकारिता का प्रशिक्षण सन्मार्ग से ही लिया था। सौभाग्य से मैं उनका कृपापात्र भी था इसलिए उनसे यह आग्रह करने में मुझे झिझक या परेशानी नहीं हुई।

मेरी बातें सुन कर उन्होंने कहा- ‘राजेश जी, इसमें परेशान होने की क्या बात है। कार्यक्रम खत्म होने के बाद जोशी जी हमारे सन्मार्ग कार्यालय जायेंगे। आप भी साथ चलिए, वहीं उनका इंटरव्यू ले लीजिएगा।’

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मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। काम आसान होता दिखा। कार्यक्रम खत्म होने के बाद कार में मैं श्री गुप्त जी और जोशी जी के साथ ही बैठ गया। राह में श्री गुप्त जी ने मेरा परिचय जोशी जी को देकर मेरा काम और आसान कर दिया। उस महान संपादक और मेरे बीच जो अपरिचय का संकोच था, वह छंट गया। मैं भी कुछ सहज हुआ और जोशी जी से बात करने लगा। बातों-बातों में मैंने इंटरव्यू वाली बात भी बता दी। वे बिना ना-नुच के राजी हो गये।

हम सन्मार्ग कार्यालय पहुंचे तो गुप्त जी जोशी जी को अपने कक्ष में ले गये। साथ में मैं भी था। जोशी जी और गुप्त जी में वार्तालाप होने लगा। जोशी जी ने उनसे पूछा कि सन्मार्ग की प्रसार संख्या कितनी है। मुझे याद है गुप्त जी ने जो संख्या बतायी, उससे जोशी जी के चेहरे की चमक और भी दीप्त हो गयी। अब सोचता हूं कि शायद जनसत्ता के कलकत्ता आगमन की भूमिका भी उसी क्षण बन गयी होगी।

थोड़ी देर वार्तालाप के बाद गुप्त जी कार्यालय से बाहर निकल गये और जाते-जाते कहते गये – ‘राजेश जी, अब आप इत्मीनान से जोशी जी का इंटरव्यू लीजिए।’

मेरे सामने एक मनीषी थे, ऐसे मनीषी जिन्होंने अपार चिंतन-मनन किया था और अपने क्षेत्र के महारथी थे। जो सुलझी हुई, सधी हुई और निर्भीक पत्रकारिता के ध्वजवाहक के रूप में ख्यात और सम्मानित थे। उनसे मुझे एक और महान आत्मा गांधी के दर्शन के बारे में जानना था। मैंने अपनी इच्छा जोशी जी से जाहिर की।

इसके बाद उनके मुख से गांधी दर्शन और उनकी अवधारणा के बारे में जो कुछ धारा प्रवाह सुना, उससे मैं मुग्ध हो गया। जोशी जी उपनिषदों, वेदों से उद्धृत करते और बताते जाते कि क्या थी गांधी की अवधारणा। वह अवधारणा जिसमें जन-जन के कल्याण और सुख की कामना थी। गांवों को एक ईकाई मान कर विकास को उस स्तर तक ले जाने और गांव रूपी ईकाई को आत्मनिर्भर बनाने का सोच था गांधी का। जोशी जी ने गांधी की अवधारणा पर विस्तार से बताते हुए कहा- ‘आज हम उस रास्ते से भटक गये हैं। हम विदेशी चाबी से देशी ताला खोलने की कोशिश कर रहे हैं। क्या था हमारा भारतवर्ष। हमारे यहां वृक्षों की पूजा होती थी, मेघों की पूजा होती थी। हमारे यहां यह परंपरा थी कि सुबह जब आंख खुले तो पृथ्वी पर पैर रखने के पहले हम प्रार्थना करते थे- समुद्र वसने देवि पर्वत स्तन मंडले/ विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पादस्पर्शम् क्षमस्व में। आज क्या हो रहा है। हम कहां जा रहे हैं। जीवन की आपाधापी में हम जीवन के शाश्वत मूल्यों को भूल गये हैं। अपनी पहचान खो बैठे हैं हम।’

जोशी के इंटरव्यू पर आधारित यह आलेख ‘हम विदेशी चाबी से देशी ताला खोलने की कोशिश कर रहे हैं’ शीर्षक से रविवार साप्ताहिक की आमुख कथा बना और इसे खूब सराहा गया। यह मेरी प्रभाष जी से पहली मुलाकात थी। उतने बड़े पत्रकार होकर भी वे मुझे असहज नहीं लगे और थोड़ी देर की बातचीत में वे  बहुत अपने से लगने लगे थे। बड़े लोगों की यही सच्ची विशेषता होती है कि वे अपने बड़प्पन का रौब किसी पर गालिब नहीं करते। उस वक्त स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि कभी जोशी जी का आशीर्वाद मिलेगा और उनके साथ काम करने का मौका मिलेगा।

यह मौका भी कुछ अरसा बाद आ गया। उदयन जी अंबानी समूह के पत्र संडे आब्जर्वर के संपादक बन कर दिल्ली चले गये और कुछ समय बाद प्रतिष्ठित पत्रिका रविवार भी असमय बंद हो गयी। इसके कुछ अरसा बाद एक विज्ञापन निकला कि एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक को पत्रकार चाहिए। मैंने भी वहां आवेदन कर दिया। जानता नहीं था कि यह कौन-सा पत्र है। तभी दिल्ली से एसपी सिंह जी का मेरे लिए संदेश आया कि मैं उस राष्ट्रीय दैनिक के लिए अप्लाई कर दूं। वह एक्सप्रेस ग्रुप का हिंदी दैनिक जनसत्ता है। मुझे बहुत खुशी हुई कि अगर चयन हुआ तो प्रभाष जी जैसे महान संपादक के साथ काम करने का मौका मिलेगा। मैंने एसपी सिंह जी को सूचित किया कि मैंने आवेदन भेज दिया है।

कुछ अरसा ही बीता होगा कि प्रभाष जी का हस्तलिखित इनलैंड लेटर आया। उसमें लिखा था- ‘मेरे कुछ पत्रकार बंधुओं ने आपका नाम सुझाया है और कहा है कि जनसत्ता के कलकत्ता संस्करण में आपको भी शामिल किया जाये। हमारे यहां यह परंपरा है कि हरेक को परीक्षा देकर ही आना पड़ता है। मैं भी परीक्षा देकर ही आया हूं। क्या ही अच्छा हो अगर आप भी हमारी कसौटी में कस कर हमारे साथी बनें।’

इसके कुछ अरसा बाद एक्सप्रेस समूह के लिफाफे में एक पत्र आया जिसमें उल्लेख था कि एक स्थानीय होटल में लिखित परीक्षा के लिए पहुंचना है। हम पहुंचे हमने। परीक्षा दी लेकिन काफी समय बीत जाने पर भी कोई समाचार नहीं मिला। परेशान हो रहा था। रविवार बंद हो चुका था। बेकार था और कलकत्ता में ही नौकरी करने का अवसर मिल रहा था यह देख कर खुशी हो रही थी लेकिन दिल्ली से कोई समाचार ही नहीं आ रहा था। कुछ अरसा बाद एक्सप्रेस ग्रुप से फिर एक पत्र आया जिसमें फिर लिखित परीक्षा देने का आग्रह किया गया था। बड़ा गुस्सा आया। कितनी बार परीक्षा ली जायेगी। खैर परीक्षा तो दे दी लेकिन पता किया कि जोशी जी ठहरे कहां हैं। पता चला ग्रांड होटल में हैं। वहां गया और उन्हें प्रणाम कर पूछा –‘पंडित जी आप कितनी बार परीक्षा लेंगे। मैं तो पहले भी परीक्षा दे चुका हूं। क्या कापी खो गयी है।’

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इस पर जोशी जी बोले- ‘नहीं राजेश जी, डिस्पैच में गड़बड़ी हो गयी। आपके पास तो इंटरव्यू की चिट्ठी जानी थी, भूल से परीक्षा वाली चली गयी। आपने परीक्षा दे दी तो?’

‘जी हां, अब और परीक्षा तो नहीं देनी होगी?’

जोशी जी बोले- ‘नहीं, अब आपके पास इंटरव्यू का ही लेटर जायेगा।’          

दिन बीते, कुछ अरसा बाद इंटरव्यू लेटर आया और हमें सुबह आठ बजे ही होटल ताज पहुंचने के लिए कहा गया। मुझे याद है झमाझम बारिश हो रही थी, मैं नियत समय पर होटल पहुंच गया लेकिन मेरा नंबर शाम पांच बजे के बाद आया। इतनी देर तक बैठा-बैठा अनखना गया था लेकिन जब जोशी जी से सामना हुआ, उन्होंने हंस कर स्वागत किया। याद है इंटरव्यू लेने वालों में जोशी जी के अलावा अमित प्रकाश सिंह (प्रख्यात कवि त्रिलोचन शास्त्री जी के सुपुत्र) भी थे। अमित जी ही कोलकाता जनसत्ता के समाचार संपादक बने। दोनों ने कुछ सवाल किये और मेरा चयन हो गया।

जनसत्ता की टीम में मुझे, अरविंद चतुर्वेद, कृपाशंकर चौबे और पलाश विश्वास को वरिष्ठ पाया गया। यह खुद प्रभाष जी ने ही तय किया। उन्होंने प्रारंभ में मुझे शिफ्ट इनचार्ज बना दिया, वह भी रात की शिफ्ट का। रात 2 बजे तक की ड्यूटी अखर रही थी, लेकिन जोशी जी का आदेश था, जो टाला नहीं जा सकता था। एक दिन मैं जब कोई कापी एडिट कर रहा था, तभी किसी के हाथों का स्पर्श अपने कंधे पर महसूस किया। कोई हलके से मेरे कंधे दबा रहा था। मैं यह सोच ही रहा था कि कौन है, तभी जोशी जी की चिरपरिचित आवाज उभरी- ‘भाई अपने राजेश जी के कंधों पर बडा भार है।’ मैं अचकचा कर उठा और उन्हें प्रणाम किया। फिर अक्सर ही उनके दर्शन होने लगे और हम उनके पत्रकारिता व जीवन के अनुभवों से समृद्ध होने लगे। वे अक्सर जब भी कलकत्ता आते, संपादकीय के साथियों से अवश्य मिलते। उन्हें अपने अनुभव सुनाते और पत्रकारिता के गुर भी सिखाते। उनका इस बात पर बड़ा जोर रहता  कि खबरें आसान और बोलचाल की भाषा में लिखी जायें। इसके लिए वे कहा करते- ‘जिस तरह तू बोलता है, उस तरह तू लिख।’

किसी समाचारपत्र की लोकप्रियता और सफलता के बारे में उनका कहना है कि कोई समाचारपत्र जब ठेलावाले, रिक्शावाले या पानवाले जैसे सामान्य तबके के व्यक्ति में दिखेगा, तभी वह कामयाब माना जायेगा। हमें याद है, वे शब्द भी खूब गढ़ते हैं। आतंकवादियों के लिए प्रभाष जी ने शब्द गढ़ा मरजीवड़े। उनका इस बात पर भी जोर रहता कि समाचारपत्र जिस अंचल से निकलता है, उस अंचल की क्षेत्रीय भाषा का उसमें समावेश हो। जैसे कलकत्ता जनसत्ता के लिए उन्होंने कहा था कि आप आवश्यकता या जरूरत की जगह दरकार लिख सकते हैं जो बंगला में भी प्रचलित है।

जनसत्ता में उनका साप्ताहिक स्तंभ ‘कागद कारे’ आज भी लोग बेहद पसंद करते हैं। वे मालवा के हैं और उनके इस स्तंभ में अक्सर वहां की सोंधी मिट्टी की महक, वहां के लोकरंग पाठक महसूस कर सकते हैं। यह स्तंभ जोशी जी की व्यक्तिगत स्मृतियों या उनके अपने घर-परिवार, साथियों या सम सामयिक विषयों तक सीमित है लेकिन इसका फलक इतना व्यापक है कि हर व्यक्ति इसे पढ़ कर प्रीतिकर महसूस करता है। मैं मूलतः बुंदेलखंड का हूं लेकिन कभी-कभी ‘कागद कारे’ में उनके मालवा के रंग मुझे अपनी माटी, अपने घर-गांव के लगे। भारत की विविधता में एकता का यह अनुपम उदाहरण है कि आपको हर अंचल के लोकरंग कहीं न कहीं बेहद अपने लगेंगे, भले ही उनमें भिन्नता हो।

जोशी जी मूलतः अंग्रेजी के पत्रकार रहे हैं। जहां तक याद आता है, जब गोयनका जी ने हिंदी दैनिक जनसत्ता निकालने की सोची तो जोशी जी को चंड़ीगढ़ से लाया गया, जहां वे इंडियन एक्सप्रेस में थे। मूलतः अंग्रेजी के पत्रकार होने के बावजूद कुछ ही अरसे में उन्होंने जनसत्ता को वह लोकप्रियता दिलायी जो अपनी मिसाल आप है। प्रारंभिक दिनों में जनसत्ता और एक्सप्रेस समूह के अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस को खबरों की विश्वसनीयता के लिए जाना जाता था। उस वक्त जब कभी कोई विवादास्पद स्टोरी ब्रेक होती या किसी घोटाले का परदाफाश होता, एसपी सिंह हम लोगों से कहते -जरा इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता की फाइल देख लीजिए, वहां स्टोरी आयी है तो ठीक है।

रविवार के दिनों की ही बात है, हम लोग अक्सर जनसत्ता देखते ही थे। वह अखबार समाचारों की दृष्टि से तो औरों से अलग था ही उसका ले-आउट भी अनोखा था। सारे अखबार आठ कालम के होते हैं जनसत्ता छह कालम का। एक दिन अखबार के प्रथम पृष्ठ पर पाठकों के प्रति एक अपील छपी थी कि जनसत्ता की प्रसार संख्या 1 लाख पहुंच चुकी है, अब इसे मिल बांट कर पढ़ें, हम इससे अधिक नहीं छाप सकते। यह जोशी जी के सतत प्रयास, निष्ठा और उनकी सूझबूझ का ही परिणाम था, जो यह पत्र इतना लोकप्रिय हुआ। जब सत्ता लोकतंत्र के चौथे पाये पत्रकारिता के कंठ रोध के प्रयास में लगी थी, उस वक्त प्रभाष जोशी ने एक्सप्रेस समूह के जनसत्ता हिंदी दैनिक के माध्यम से निर्भीक, सटीक और सोद्देश्य पत्रकारिता की वह ज्योति जलायी, जिसने सच को बिना झिझक प्रस्तुत करने वाले पत्रकारों में नया साहस और जोश भरा। सत्ता के आतंक में रेंगती,  घिसटती पत्रकारिता प्रभाष जी की बांह पकड़ने के बाद सीना तान कर खड़ी हो गयी। इस तरह पत्रकारों की उस नयी पीढ़ी ने जन्म लिया, जिसने सत्ता के दंभ को, मीडिया को मूक कर देने की उसकी कोशिश को कुचल कर रख दिया। प्रभाष जी ने ऐसी सामाजिक सरोकार से जुडी पत्रकारिता को सम्मान दिलाया और जन-जन में लोकप्रिय बनाया। यह हमारा सौभाग्य रहा कि हमें भी उस महामना का आशीर्वाद और मार्गदर्शन मिला जो सदैव हमारा संबल और पाथेय रहेगा।

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वे दीर्घायु हों और हमेशा इसी तरह लोगों का मार्गदर्शन करते रहें, अपनी ज्ञान सुरसरी से सबको अभिसिंचित करते रहें और तैयार करते रहें सामाजिक सरोकार से जुड़े पत्रकारों की टोली, बस यही कामना है।


राजेश त्रिपाठीलेखक राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं और तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इन दिनों हिंदी दैनिक सन्मार्ग में कार्यरत हैं। राजेश से संपर्क [email protected] के जरिए कर सकते हैं। राजेश समसामयिक विषयों पर अपने ब्लाग www.rajeshtripathi4u.blogspot.com पर अक्सर लिखते रहते हैं।

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