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दिल्ली में नवजात नई दुनिया को तगड़ा झटका

किसी अखबार की मूल पूंजी क्या होती है? उसकी विश्वसनीयता। तभी तो कई पीढ़ियों तक लोग एक ही अखबार को घर में मंगाते रहते हैं। लंबे समय तक अखबार को परखने के बाद पाठक जब अखबार को अपना लेता है तब उसकी सूचनाओं पर आंख मूंद कर भरोसा करने लगता है। बदले में अखबार भी अपनी विश्वसनीयता का ध्यान रखता है ताकि उसके पाठक छले न जाएं। किसी नए लांच अखबार के लिए तो विश्वसनीयता सबसे बड़ा एजेंडा होता है। पर घनघोर प्रतिस्पर्धा के इस दौर में विश्वसनीयता की लगातार ऐसी-तैसी हो रही है। दिल्ली में नवजात नई दुनिया ने जो कुछ किया वह इसी श्रेणी में आता है। इस अखबार के नए बने पाठकों को गहरा झटका लगा है। लगे भी क्यों न, एक दिन आप पहले और अंदर के पन्ने पर किसी नेता का बड़ा इंटरव्यू छापते हैं और अगले दिन उसी नेता की खंडन रूपी चिट्ठी।

<p align="justify">किसी अखबार की मूल पूंजी क्या होती है? उसकी विश्वसनीयता। तभी तो कई पीढ़ियों तक लोग एक ही अखबार को घर में मंगाते रहते हैं। लंबे समय तक अखबार को परखने के बाद पाठक जब अखबार को अपना लेता है तब उसकी सूचनाओं पर आंख मूंद कर भरोसा करने लगता है। बदले में अखबार भी अपनी विश्वसनीयता का ध्यान रखता है ताकि उसके पाठक छले न जाएं। किसी नए लांच अखबार के लिए तो विश्वसनीयता सबसे बड़ा एजेंडा होता है। पर घनघोर प्रतिस्पर्धा के इस दौर में विश्वसनीयता की लगातार ऐसी-तैसी हो रही है। दिल्ली में नवजात <strong>नई दुनिया</strong> ने जो कुछ किया वह इसी श्रेणी में आता है। इस अखबार के नए बने पाठकों को गहरा झटका लगा है। लगे भी क्यों न, एक दिन आप पहले और अंदर के पन्ने पर किसी नेता का बड़ा इंटरव्यू छापते हैं और अगले दिन उसी नेता की खंडन रूपी चिट्ठी।</p>

किसी अखबार की मूल पूंजी क्या होती है? उसकी विश्वसनीयता। तभी तो कई पीढ़ियों तक लोग एक ही अखबार को घर में मंगाते रहते हैं। लंबे समय तक अखबार को परखने के बाद पाठक जब अखबार को अपना लेता है तब उसकी सूचनाओं पर आंख मूंद कर भरोसा करने लगता है। बदले में अखबार भी अपनी विश्वसनीयता का ध्यान रखता है ताकि उसके पाठक छले न जाएं। किसी नए लांच अखबार के लिए तो विश्वसनीयता सबसे बड़ा एजेंडा होता है। पर घनघोर प्रतिस्पर्धा के इस दौर में विश्वसनीयता की लगातार ऐसी-तैसी हो रही है। दिल्ली में नवजात नई दुनिया ने जो कुछ किया वह इसी श्रेणी में आता है। इस अखबार के नए बने पाठकों को गहरा झटका लगा है। लगे भी क्यों न, एक दिन आप पहले और अंदर के पन्ने पर किसी नेता का बड़ा इंटरव्यू छापते हैं और अगले दिन उसी नेता की खंडन रूपी चिट्ठी।

खंडन में नेता कहता है कि इंटरव्यू  में कही गई ऐसी-वैसी बातें उसने बिलकुल नहीं कही। अब भला पाठक किसे सही माने? अखबार के रिपोर्टर को? या इंटरव्यू देने वाले नेता को? या दोनों की मिलीभगत माने? या अखबार बेचने की टुच्ची हरकत समझे? अखबार के संपादक इस मामले में स्थिति स्पष्ट करने, अखबार की तरफ से स्टैंड लेने, कोई कार्रवाई करने की बजाय अपने स्वभाव के अनुरूप मामले को रफा-दफा कर सब कुछ गोलगप्पे जैसा बना देने में ज्यादा सक्रिय दिखे। नई दुनिया के इस नए कारनामें की चहुंओर चर्चा हो रही है।

प्रकरण कुछ इस तरह है। नई दुनिया में नियुक्त कई तरह के एडीटरों में रोविंग एडीटर भाषा सिंह हैं, जो वामपंथी आंदोलन से लंबे समय से जुड़ी हुई हैं। उन्होंने दक्षिणपंथी नेता विनय कटियार का इंटरव्यू लिया। अखबार के संपादक ने उस इंटरव्यू को न सिर्फ पहले पन्ने पर टॉप में जोरशोर से छापा बल्कि अंदर भी आधा पेज से ज्यादा स्थान दिलाया।

पहले तो एक बारगी समझ न आया कि आखिर विनय कटियार को इतना तवज्जो क्यों? अगर इंटरव्यू में कोई खास बात उन्होंने कही है तो उसे पहले पन्ने पर विशालकाय डिस्प्ले में समेटा जा सकता था लेकिन उसे और ज्यादा विशालकाय रूप में अंदर छापने का क्या मतलब? हालांकि ये सवाल पाठक भला कैसे उठा सकता है, सो नए जमाने में चल रहे नए-नए प्रयोगों में से इसे भी एक प्रयोग मानकर पाठकों ने विशाल इंटरव्यू को पढ़-पचा लिया। पर अगले ही दिन पहले पन्ने और अंदर के पन्ने पर खंडन। इस खंडन में विनय कटियार ने कहा कि उन्होंने कोई ऐसी-वैसी बात नहीं कही जैसी बात मेरे मुंह से कही बताई जा रही है।

मोदी पूंछ हिलायेंगे, आग लगायेंगे, सबक सिखायेंगे शीर्षक से 19 अक्टूबर को पहले और अंदर के पेज पर प्रकाशित इंटरव्यू का 20 अक्टूबर को खंडन भी पहले और अंदर के पेज पर छपा। पहले पन्ने पर छोटे से रंगीन बाक्स में खंडन और अंदर पेज नंबर सात पर तीन कालम में कटियार की खंडन रूपी चिट्ठी छापी गई।

अगर कटियार ने इंटरव्यू में वो सब बातें कहीं थीं तो नई दुनिया ने खंडन क्यों प्रकाशित किया? अगर वाकई कोई तेवरदार संपादक होता तो वो खंडन की बजाय खबर छापता  कि अब इनकार कर रहे हैं कटियार। पर आलोक मेहता ने झुकना बेहतर समझा। इस खबर ने भाषा सिंह की वर्षों से बनी-बनाई छवि पर भी बट्टा लगाया है। अगर उनसे विनय कटियार ने इंटरव्यू में वो सब बातें कहीं थीं जो उन्होंने लिखा है, तो उन्हें हर हाल में अपने संपादक के सामने खंडन न छापने के लिए स्टैंड लेना चाहिए था। संपादक न मानते तो अपने सरोकार और तेवर को कायम रखते हुए ऐसी चाकरी करने से इनकार कर देना चाहिए था। पर आलोक महेता और भाषा सिंह, दोनों ने अपना पत्रकारीय दायित्व नहीं निभाया।

चलिए, मान लेते हैं कि इंटरव्यू में कई फर्जी बातें जोड़ दी गईं। तो जिन्होंने ये फर्जीवाड़ा किया, क्या उसे तलाशा गया? उसके खिलाफ कार्रवाई की गई?

कुछ लोगों का कहना है कि नया अखबार जमाने की मुहिम में कई बार ऐसी बेवकूफी भरी हरकतें जोश में होश खोकर कर दी जाती हैं लेकिन इन हरकतों से अखबार की बन रही विश्वसनीयता को कितना बड़ा झटका लगता है, शायद इसका अंदाजा इन संपादकों को नहीं है। कुल मिलाकर इस एक बड़े प्रकरण से नई दुनिया दिल्ली में पाठकों के लिए संदिग्ध हो गया है। जितने शान से इंटरव्यू छापा गया, उतने ही शान से अगले दिन खंडन के मसले पर कुछ सवाल तो हैं ही जिनका जवाब नई दुनिया के प्रधान संपादक आलोक मेहता को देना चाहिए-

  1. क्या विनय कटियार का इंटरव्यू भाषा सिंह ने रिकार्ड नहीं किया था?
  2. क्या कटियार के इंटरव्यू को सनसनीखेज बनाने के लिए मनमाफिक बदला गया?
  3. अगर सब कुछ सही था तो फिर खंडन क्यों छाप दिया गया?
  4. क्या नई दुनिया के संपादक को कोर्ट-कचहरी से डर लगता है?

भड़ास4मीडिया ने इस प्रकरण पर बात करने के लिए नई दुनिया के प्रधान संपादक आलोक मेहता के मोबाइल पर रिंग किया पर उन्होंने फोन नहीं उठाया। बाद में उन्हें एसएमएस के जरिए विनय कटियार इंटरव्यू व खंडन प्रकरण पर उनका पक्ष बताने के लिए संदेश भेजा गया पर उनका जवाब नहीं आया।

ऐसे मामलों में मौन शायद सबसे बड़ा हथियार होता है।

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आपको इस प्रकरण में क्या सच्चाई नजर आती है? अपनी राय [email protected] पर मेल कर सकते हैं।

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0 Comments

  1. Brajesh Shukla

    October 12, 2010 at 9:22 pm

    Brajesh Shukla JBP
    Abhi 19 Oct. Aaya nahi. Khabar ki date sahi prakashit kare.
    Ase Interview to Phone per lane se hota hai. Amne-Samne me to ye sab hona he nahi chaiya.

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