: श्रद्धांजलि : रामशंकर अग्निहोत्री ने मन, वचन और कर्म से निभाया एक ध्येयनिष्ठ पत्रकार होने का धर्म : भरोसा नहीं होता कि कोई विचार किसी को इतनी ताकत दे सकता है कि वह उसी के सहारे पूरी जिंदगी काट ले। लेकिन दुनिया ऐसे ही दीवानों से बेहतर बनती है। यह दीवानगी ही किसी को खास बना जाती है।
मुझे याद आता है वे राममंदिर के आंदोलन के व्यापक असर के दिन थे। 1990 के वे दिन आज भी सिरहन से भर देते हैं। उसी समय मैंने पहली बार वरिष्ठ पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री को विश्व संवाद केंद्र, लखनऊ के पार्क रोड स्थित दफ्तर में देखा था। आयु पर उनका उत्साह भारी था। उनके जीवन के लक्ष्य तय थे। विचारधारा उनकी प्रेरणा थी और कर्म के प्रति समर्पण उनका संबल। वे जानते थे वे किस लिए बने हैं और वे यह भी जानते थे कि वे क्या कर सकते हैं। तब से लेकर रायपुर, भोपाल और दिल्ली की हर मुलाकात में उन्होंने यह साबित किया कि वे न तो थके हैं न ही हारे हैं।
बुधवार सुबह जब रायपुर से डा. शाहिद अली का फोन आया कि अग्निहोत्री जी नहीं रहे तो सहसा इस सूचना पर भरोसा नहीं हुआ। क्योंकि उनकी गति और त्वरा कहीं से कम नहीं हुयी थी, इस विपरीत समय में भी और अपनी बढ़ती आयु के चलते भी। काम करने के अंदाज और तेजी से कहीं भी जा पहुंचने में वे हम नौजवानो से होड़ लेते थे। हम सोचते थे यह आदमी ऐसा क्यूं है। लेकिन पिछले साल जब मध्यप्रदेश की सरकार ने उन्हें अपने प्रतिष्ठित माणिकचंद्र वाजपेयी सम्मान से अलंकृत किया और उस मौके पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान,संस्कृति मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा की मौजूदगी में पूर्व सरसंघचालक के.सी.सुदर्शन ने जो कुछ उनके बारे में कहा उसने कई लोगों के भ्रम दूर कर दिए।
श्री सुदर्शन ने स्वीकार किया कि वे श्री अग्निहोत्री के ही बनाए स्वयंसेवक हैं और उनके एक वाक्य – “संघ तुमसे सब करवा लेगा” ने मुझे प्रचारक निकलने की प्रेरणा दी। यह एक ऐसा स्वीकार था जो रामशंकर अग्निहोत्री की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता को जताने के लिए पर्याप्त था। यह बात यह भी साबित करती है कि अगर वे चाहते तो कोई भी उंचाई पा सकते थे किंतु उन्होंने जो दायित्व उन्हें मिला उसे लिया और प्रामणिकता से उसे पूरा किया। आज की राजनीति में पदों की दौड़ में लगे लोग उनसे प्रेरणा ले सकते हैं।
14 अप्रैल, 1926 को मप्र के सिवनी मालवा में जन्में श्री अग्निहोत्री की जिंदगी एक ऐसे पत्रकार का सफर है जिसने कभी मूल्यों से समझौता नहीं किया। वे अपनी युवा अवस्था में जिस विचार से जुड़े उसके लिए पूरी जिंदगी होम कर दी। विचारधारा और लक्ष्यनिष्ठ जीवन के वे ऐसे उदाहरण थे जिस पर पीढ़ियां गर्व कर सकती हैं। पांचजन्य, राष्ट्रधर्म, तरूण भारत, हिंदुस्तान समाचार, आकाशवाणी, युगवार्ता वे जहां भी रहे राष्ट्रवाद की अलख जगाते रहे। उनका खुद का कुछ नहीं था। देश और उसकी बेहतरी के विचार उनकी प्रेरणा थे। राजनीति के शिखर पुरूषों की निकटता के बावजूद वे कभी विचलित होते नहीं दिखे।
युवाओं से संवाद की उनकी शैली अद्बुत थी। वे जानते थे कि यही लोग देश का भविष्य रचेंगें। रायपुर में हाल के दिनों में उनसे अनेक स्थानों पर, तो कभी डा. राजेंद्र दुबे के आवास पर जब भी मुलाकात हुयी उनमें वही उत्साह और अपने लिए प्यार पाया। वे सदैव मेरे लिखे हुए पर अपनी सार्थक टिप्पणी करते। अपने विचार परिवार के प्रति उनका मोह बहुत प्रकट था। संपर्कों के मामले में उनका कोई सानी न था। पहली मुलाकात में ही आपका परिचय और फोन नंबर सब कुछ उनके पास होता था और वे वक्त पर आपको तलाश भी लेते।
मैंने पाया कि उनमें बढ़ी आयु के बावजूद चीजों को जानने की ललक कम नहीं हुयी थी वे मुझे कभी विश्राम में दिखे ही नहीं। यह ऐसा व्यक्तित्व था जिसकी सक्रियता ही उसकी पहचान थी। हर आयोजन में वे आते और खामोशी से शामिल हो जाते। उन्हें इस बात की कभी परवाह नहीं थी उन्हें नोटिस भी किया जा रहा है या नहीं। मान-अपमान की परवाह उन्होंने कभी नहीं की, इस तरह के मिथ्या दंभ से दूर वे अपने बहुत कम आयु के हम जैसे नौजवानों के बीच भी खुद को सहज पाते तो सत्ता और शासन के शिखरों पर बैठे लोगों के बीच भी। जो व्यक्ति पांचजन्य का प्रबंध संपादक, राष्ट्रधर्म का संपादक, लगभग एक दशक नेपाल में एक हिंदी समाचार एजेंसी का संवाददाता रहा हो, हिंदुस्तान समाचार का प्रधानसंपादक और अध्यक्ष जैसे पदों पर रहा हो, जिसे भारतीय जनता पार्टी ही नहीं देश की राजनीति के प्रथम पंक्ति के सभी राजनेता प्रायः नाम से पुकारते हों, जिसने दर्जन भर देशों की यात्राएं की हों, साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में जिसकी एक बड़ी जगह हो।
माधवराव सप्रे संग्रहालय,भोपाल से लेकर इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती जैसे संस्थाएं जिसे सम्मानित कर चुकी हों ऐसे व्यक्ति का इस कठिन समय में चला जाना वास्तव में एक बड़ा शून्य रच रहा है। वास्तव में वे एक ऐसे समय में हमसे विदा हुए हैं जब पत्रकारिता पर पेड न्यूज और राजनीति पर जनविरोधी आचरणों के आरोप हैं। देश अनेक मोर्चों पर कठिन लड़ाइयां लड़ रहा है चाहे वह महंगाई, आतंकवाद और नक्सलवाद की शक्ल में ही क्यों न हों। आज हम यह भी कह सकते हैं कि रामशंकर
अग्निहोत्री अपने हिस्से का काम कर चुके हैं, पर क्या हमारी पीढ़ी में उनका उत्तराधिकार, उनकी शर्तों पर लेने का साहस है ? शायद नहीं, क्योंकि ये जगह सिर्फ उनकी है और इस विपरीत समय में सारे युद्ध हमें ही लड़ने हैं उनके बिना ही। रामशंकर अग्निहोत्री सही मायने में उस विचार यात्रा के पथिक थे जो भारत का विचार है, हमारा अपना विचार है। क्या हम विचारों पर जम आई धूल को पोंछकर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देने के लिए तैयार हैं?लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं.
dhirendra pratap singh
July 13, 2010 at 6:57 pm
aadarniya sanjay aap ne bahut hi bahumulya jankari sri agnihotri ji ke bare me di halanki hindusthan samachar me kafi dino se juda hone ke karan unke vyaktitav se anbhigy nahi hu pr apne kai anya pahluo ke bare me jankari di hardik dhnyavad
dhirendra pratap singh bureau chief hindusthan samachar dehradun uttrakhand