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साहित्य

सुब्रत राय सहारा के जीवन पर किताब

: पुस्तक समीक्षा : ‘मुझे याद है- दादाभाई और हमारा परिवार’ : पुस्तक ‘मुझे याद है’ दादाभाई और सहारा परिवार के कर्ताधर्ता सुब्रत रॉय सहारा, जो कि प्यार से ‘सहाराश्री’ के नाम से जाने जाते हैं, के जीवन और समय पर केन्द्रित है। पुस्तक की लेखिका हैं श्रीमती कुमकुम रॉय चौधरी, जो कि उनकी छोटी बहन हैं और उन्हें प्यार से ‘दादाभाई’ कह कर सम्बोधित करती हैं। सहारा इंडिया परिवार में ‘छोटी दीदी’ स्वयं एक वरिष्ठ एग्ज़ीक्यूटिव होने के साथ ही लोकप्रिय सामाजिक हस्ती हैं जो अपनी बहुआयामी व लोकहितैषी सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए जानी जाती हैं।

: पुस्तक समीक्षा : ‘मुझे याद है- दादाभाई और हमारा परिवार’ : पुस्तक ‘मुझे याद है’ दादाभाई और सहारा परिवार के कर्ताधर्ता सुब्रत रॉय सहारा, जो कि प्यार से ‘सहाराश्री’ के नाम से जाने जाते हैं, के जीवन और समय पर केन्द्रित है। पुस्तक की लेखिका हैं श्रीमती कुमकुम रॉय चौधरी, जो कि उनकी छोटी बहन हैं और उन्हें प्यार से ‘दादाभाई’ कह कर सम्बोधित करती हैं। सहारा इंडिया परिवार में ‘छोटी दीदी’ स्वयं एक वरिष्ठ एग्ज़ीक्यूटिव होने के साथ ही लोकप्रिय सामाजिक हस्ती हैं जो अपनी बहुआयामी व लोकहितैषी सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए जानी जाती हैं।

कुमकुम रॉय चौधरी पुस्तक के प्राक्कथन में ‘मैं एक-एक शब्द रोज बटोरती रही’ शीर्षक के अंतर्गत कहती हैं, ‘दादाभाई की पुस्तकें उनके दार्शनिक और चिन्तनशील व्यक्तित्व की दर्पण हैं जिनमें झांककर कोई भी उनके विचारों से परिचित हो सकता है और उनके व्यक्तित्व की एक झलक पा सकता है। परन्तु फिर भी लोगों में यह जानने की उत्सुकता तो रहती ही है कि ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण किस पारिवारिक पृष्ठभूमि में हुआ, किन परिस्थितियों के बीच से हुआ, कौन से तत्व उनके व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक हुए, आदि।

इन्हीं सब बातों को लेकर दादाभाई के बारे में जानने की उत्सुकता लोगों में प्रायः दिखती रही है। उनकी जिज्ञासायें अनेकानेक रूपों में प्रकट होती रही हैं। क्योंकि मैं दादाभाई की छोटी बहन हूं इसलिए मुझे हर समय इन जिज्ञासाओं का सामना करना पड़ा है। यह कुछ ऐसी बातें थीं जिन्होंने मुझे दादाभाई पर पुस्तक लिखने के लिए प्रेरित किया। मेरे मन में यह विचार घर कर गया कि मैं अपने आदरणीय दादाभाई पर ऐसी पुस्तक लिखूं जो लोगों की जिज्ञासाओं को शान्त कर सके और उनके व्यक्तित्व को समग्रता से प्रस्तुत कर सके।’

वस्तुतः यही सब बातें हैं जिनके बारे में यह पुस्तक लिखी गयी है। यह पुस्तक सुब्रत रॉय सहारा के व्यक्तिगत जीवन और उनके परिवार के बारे में, जो कि लेखिका का भी परिवार है, लोगों की जिज्ञासाओं को शान्त करने में पूरी तरह सफल है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि पुस्तक सुब्रत रॉय सहारा के अनेक अनछुए और अज्ञात पक्षों को उदघाटित करती है, जो इस पुस्तक को और अधिक पठनीय बना देते हैं।

लेखिका अपने दादाभाई के जन्म से लेकर वर्तमान स्थिति तक के जीवन के अनेक आकर्षक और बहुमूल्य संस्मरणों/घटनाओं का बड़े ही सजीव ढंग से व्याख्या करते हुए रेखाचित्र खींचती हैं – अपने दादाभाई की चारित्रिक अभिरुचि, उनके संकल्प और दूरदृष्टि, उनकी सफलताएं और असफलताएं, उनकी बुद्धिमानी, उनकी कठोर मेहनत और धैर्यशीलता, उनकी विश्वसनीयता, उनकी वचनबद्धता और समर्पण, अपनी संस्था के प्रति और सहयोगी कार्यकर्ताओं के कल्याण की कामना, मानवीय क्रियाकलापों के उच्च लक्ष्यों के प्रति उनका लगाव और उनकी मानवीय जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टि, जिसके अंतर्गत उन्होंने अपने एकछत्र व्यावसायिक साम्राज्य की रचना की और इस प्रकार उच्च उपलब्धियों, सफलताओं और लोकप्रियता का कथानक रचा। दूसरे शब्दों में, पुस्तक इस बात का उल्लेख करती है कि किस तरह बचपन का चंचल ‘चंदन’ सुब्रत रॉय सहारा ‘सहाराश्री’ – व्यावसायिक जगत में एक गुरुतर व्यक्तित्व के रूप में और आधुनिक भारत के घर-घर में लोकप्रिय व्यक्ति के रूप में जाना जाने लगा।

पुस्तक एकमात्र सुब्रत रॉय सहारा का ही वर्णन नहीं करती है, यद्यपि वो केन्द्रीय भूमिका में रहते हैं। लेखिका इससे भी परे जाकर अपने बाबूजी (पिता) और अपनी मामूनी (माता) के परिवार तक का भी वर्णन करती हैं। बिहार के अररिया से लेकर उप्र के गोरखपुर तक वह अपने बाबूजी और मामूनी के साथ ही उनके परिवार से जुड़ी अनेक कथा-कहानियों के विभिन्न चरित्रों और उनके सम्बन्धित कथानकों के विषय पर भी कलम चलाती हैं। ऐसा ही एक किस्सा है जब बाबूजी अपनी ससुराल में अपनी ही मृत्यु का टेलीग्राम भेजते हैं। ऐसा वो अपने बच्चों को वापस बुलाने के लिए करते हैं, जो अपने घर से बहुत दूर अपने मामा के घर गये होते हैं। यद्यपि कठोर सा लगने वाला यह गंभीर मजाक पढ़ने में रोचक है।

दूसरी घटना में वह बताती हैं कि कैसे उनके दादाभाई बचपन में अपनी जेब में पत्थर रखने के शौकीन थे…  बस इसलिए कि वो उनको अपनी जेबों के भरी होने का अहसास दिलाते थे। एक अन्य किस्से में वह बताती हैं कि उनके दादाभाई कितने तीक्ष्ण बुद्धि के बालक थे। एक बार जब परिवार रेलवे स्टेशन पहुंचा तो देखा कि जिस ट्रेन को वो पकड़ना चाहते हैं वह स्टेशन छोड़ रही है। त्वरित बुद्धि सम्पन्न दादाभाई ने तुरन्त ही रेल ट्रैक पर एक सिक्का गिरा दिया और उसको फिर से प्राप्त करने के बहाने उसकी ओर दौड़े। ट्रेन रुक गयी और सभी पारिवारिक सदस्यों के साथ ही अन्य अनेक छूटे हुए यात्री भी उसे पकड़ने में सफल रहे। पुस्तक में इस प्रकार की रोचक कहानियों की प्रचुरता है।

लेखिका विवाह, जन्मदिन, विवाह-वर्षगांठ जैसे उत्सवों के माध्यम से न केवल अपने पारिवारिक जीवन की झलक प्रस्तुत करती है बल्कि इसके साथ ही सुब्रत रॉय सहारा द्वारा शुरू किये गए वाणिज्यिक उपक्रमों का भी विस्तृत लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है जो कि गोरखपुर में सहारा की शुरुआत से लेकर सहारा इंडिया परिवार के वर्तमान में भारतीय कारर्पोरेट जगत में बहुआयामी और करोड़ों के उपक्रमों तक फैला है। लेखिका अपने भाई को महान व्यक्ति के रूप में चित्रित करती हैं जो एक ओर खेलों से प्यार करता है और उन्हें बढ़ावा देता है, तो वहीं दूसरी ओर विविध विस्तृत आयामी सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों जिनमें भूकम्प और बाढ़ पीड़ित लोगों की मदद से लेकर कारगिल युद्ध के शहीदों व मुम्बई में हुए आतंकवादी हमलों के शहीदों के परिवारों को सहायता पहुंचाने वाली घटनाओं का भी जिक्र करती हैं।

लेखिका अपनी रुचि के क्षेत्रों का भी वर्णन करती हैं जैसे बुटीक की शुरुआत करना और फैशन शो आयोजित करना, भगवान गणेश की मूर्तियों व चित्रों के संग्रह का शौक, जो कि लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज हुआ है। लेखिका की इन गतिविधियों में भी उनके दादाभाई की मौजूदगी झलकती है।

पुस्तक सरल और सहज भाषा में लिखी गयी है जो कि हर-एक के लिए समझने में आसान है। बोलचाल की भाषा में कथा का तरीका पाठक को अपनी पकड़ से मुक्त होने नहीं देता और उसकी रुचि बराबर बनी रहती है। इस पुस्तक को पढ़ने का आनन्द वैसा ही है जैसे कल्पनालोक में ले जाने वाला रोचक साहित्य, जिसकी पकड़ पाठक पर कभी ढीली नहीं होती। वहीं इसके साथ ही पुस्तक की पकड़ को और खूबसूरती मिलती है सम्बंधित अवसरों के फोटोग्राफ्स के द्वारा। इनमें से अनेक फोटोग्राफ्स दुर्लभ और बेहतरीन हैं। यह पुस्तक लेखिका ने अपनी मां को समर्पित की है और पुस्तक की शुरुआत ‘मां’ नामक बेहतरीन कविता से होती है, जिसे लेखिका ने स्वयं लिखा है।

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पुस्तक : मुझे याद है – दादाभाई और हमारा परिवार

लेखिका : कुमकुम रॉय चौधरी

प्रकाशक : आत्माराम एंड संस, दिल्ली

मूल्य : 4,000/-

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0 Comments

  1. SUNIL SINGH, DANTEWADA, CG

    July 24, 2010 at 5:30 am

    Aisi pustako ke padhne se prerna jarur milegi. Sahara Shree ke Zero se Hiro banne ki kahani aapne aap me ramanch paida kar deti hai…

  2. Pksingh

    July 25, 2010 at 9:02 am

    Saharashree aap aadmi nahi bhagwan hai.100 aur jiye ek sahara desh bnaye

  3. asif khan

    May 7, 2011 at 9:48 am

    लेखिका महोदया कृपया इस पुस्तक में आपके सहाराश्री के भ्रष्टाचारों का भी उल्लेख जरुर करे। पढ़कर हार्दिक प्रसन्नता होगी और आपके रुप में देश को एक उत्कृष्ट लेखिका भी मिलेगी जो लिखते वक्त केवल तथ्यों को प्राथमिकता देती है ना कि रिश्तो का। ये भी लिखे कि कैसे एक फकीर राजा बन गया और जनता से चिट फंड के पैसे लेकर अरबपति बन गया। इसके साथ ही उनके दलालों,मसलन उपेन्द्र राय का जिक्र भी अपनी किताब में जरुर करे। ये भी बताए कि 2जी स्कैम में आपके सहाराश्री ने कैसे करोड़ों की रिश्वत दी। उम्मीद करता हूं आपकी किताब में निष्पक्षता देखने को मिलेगी। सभार धन्यवाद।

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