इंटरव्यू : सुप्रिय प्रसाद (न्यूज डायरेक्टर, न्यूज 24) : पार्ट 1 : टीवी न्यूज इंडस्ट्री के ऐसे धुरंधर हैं सुप्रिय प्रसाद जो बेहद कम समय में सफलता की उस उंचाई पर पहुंच गए जहां जाने की हसरत हर एक टीवी जर्नलिस्ट पाले होता है। आईआईएमसी से पास किया और सीधे आजतक में घुस गए। धीरे-धीरे इतना बढ़ गए कि पूरे आज तक को कंट्रोल करने लगे। कौन-सी खबर चलनी है, किसे गिरा देना है, इसका मंत्र सुप्रिय देने लगे। किस खबर से टीआरपी आएगी, किससे नहीं, इसका वाचन सुप्रिय करने लगे। कैसे दूसरे न्यूज चैनलों को आगे न बढ़ने दिया जाए, इसकी रणनीति सुप्रिय तैयार करते। सुप्रिय ने एसपी, नकवी, उदय शंकर जैसे कई दिग्गजों से बहुत कुछ सीखा तो अपने से ज्यादा अनु्भवी व उम्रदराज कई दिग्गजों को बहुत कुछ सिखाया भी।
करीब डेढ़ दशक तक आजतक के साथ काम करने के बाद सुप्रिय ‘न्यूज24’ चले आए। आजतक में सुप्रिय का आखिरी पद था एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर का। वे न्यूज डायरेक्टर के रूप में ‘न्यूज 24’ लांच कराने आए। न सिर्फ आए, बल्कि आज तक के कई दिग्गजों को भी तोड़ ले आए।
सुप्रिय सेल्फ मेड हैं। न इनका कोई रिश्तेदार पत्रकारिता में है और न कोई परिजन। सुप्रिय ने शून्य से शुरू किया। झारखंड के दुमका जैसी जगह से स्ट्रिंगर के रूप में प्रभात खबर के लिए काम शुरू किया। सीखने की ललक, जी-तोड़ मेहनत का माद्दा, सहजता और साफगोई, ये कुछ वो सामान हैं, जिनके जरिए सुप्रिय अपने करियर की यात्रा पर बेहिचक आगे बढ़ते रहे, मंजिल के करीब पहुंचते रहे। मजेदार तो यह कि इस शख्स ने अपनी मंजिल ही तय नहीं की, चलते जाने में ही इन्हें आनंद है।
सरल और सहज स्वभाव वाले सुप्रिय का व्यक्तित्व दिखावटी नहीं है। वे जो हैं, सो हैं। आप उन्हें पसंद करें या ना-पसंद। सुप्रिय कई चेहरे नहीं ओढ़ते। एक-से उनका काम चल जाता है। तभी तो वे अपनी कमियों पर खुलकर बात करते हैं। अपनी गल्तियों को स्वीकार कर लेते हैं। किसी को लेकर इगो नहीं रखते वे। पिछले दिनों एक रविवार सुप्रिय से लंबी बातचीत हुई। पेश है उस बातचीत के अंश-
-पत्रकारिता से वास्ता कैसे पड़ा? पत्रकार कब-कैसे बने? आजतक किस तरह पहुंचे?
–बिहार में 1989 में चुनाव हुए थे। उसके बाद लालू यादव मुख्यमन्त्री बने थे। उस समय मैं पटना में था। मदर की बीमारी के कारण मुझे पटना में रहना पड़ा। मेरी मम्मी के हार्ट का ऑपरेशन हुआ था। मुझे करीब छः-सात महीने बिहार में रहने का मौका मिला। उस समय मेरी मुलाकात कुछ प्रेस वालों से, पत्रकारों से हुई। उनके प्रभाव में मैंने भी लिखना-पढ़ना शुरू कर दिया। उन दिनों मैं दुमका (झारखंड) में ग्रेजुएशन कर रहा था। चुनाव समेत कई मुद्दों पर लिखना शुरू किया। कुछ लोगों को मेरा लेख पसंद आया। प्रभात खबर में भी एक लेख छपा। उसके बाद संयोग ऐसा बना कि मैं प्रभात खबर से जुड़ गया। मैं बता दूं कि मेरे घर वाले मुझे अपना करियर बनाने की आजादी दे चुके थे। पिताजी सरकारी नौकरी करते थे। उनकी बिहार के अलग-अलग जिलों में पोस्टिंग होती रहती थी और मैं उनके साथ उन शहरों में रहता था। बेगूसराय, भागलपुर, मुजफ्फरपुर होते हुए दुमका पहुंचे। मैं प्रापर दुमका का ही रहने वाला हूं जो झारखंड में पड़ता है। तो बता रहा था, पढ़ाई के साथ-साथ मैं प्रभात खबर के लिए अपने घर दुमका से ही रिपोर्टिंग करने लगा। उसी समय आडवाणी रथ यात्रा लेकर आए और अरेस्ट हो गए। उन्हें अरेस्ट करने के बाद दुमका की जेल में रखा गया। दुमका में देश भर के पत्रकारों का मेल लग गया। प्रभात खबर के लिए रिपोर्टिंग करने के कारण मेरी भी मुलाकात इन पत्रकारों से हुई। आडवाणी की रिपोर्टिंग के दौरान बहुत कुछ जानने-सीखने को मिला।
आडवाणी करीब दस दिन तक वहां की जेल में नज़रबन्द रहे। उस दौरान रिपोर्टिंग करने में काफी मजा आता था। दिन भर कुछ न कुछ घटित होता रहता। कहीं लाठीचार्ज, तो कहीं प्रदर्शन तो कहीं नारेबाजी। कुछ न कुछ होता ही रहता था। पूरे दिन प्रेस से फोन भी आते रहते थे कि क्या चल रहा है वहां? मैं अपडेट देता रहता था। दिल्ली से भी कई पत्रकार दुमका पहुंचे थे कवर करने। इन सभी से मिलने के बाद ऐसा लगा कि पत्रकारिता में जाना चाहिए। एक संयोग और बना। जब मैं पढ़ाई करता थे, तो हमारे केमिस्ट्री के हेड ऑफ डिपार्टमेंट बीबी सहाय थे, जो हिन्दुस्तान टाइम्स के लिए काम भी करते थे। वे दुमका से ही हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखते थे। उनके अलावा भी हमारे तीन-चार प्रोफेसर थे, जो यह काम करते थे। इससे मुझे लगना लगा कि पत्रकारिता बड़ी ही रेस्पेक्टेड जॉब है, इसीलिए इस क्षेत्र में सक्रिय होना चाहिए, हाथ आजमाना चाहिए, लिखना-पढ़ना चाहिए। इस तरह पत्रकारिता करने, रिपोर्टिंग करने में मजा आने लगा, आनन्द आने लगा। चस्का लग गया इस पेशे का। रोज खबरें तलाशता और उसकी रिपोर्टिंग करता।
पत्रकारिता करते हुए ही मैंने ग्रेजुएशन कंप्लीट किया। कुछ दिनों तक प्रभात खबर में काम करने के बाद मैं 1994 में दिल्ली चला आया। इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मास कम्युनिकेशन का अखबारों में विज्ञापन देखा। पत्रकारिता प्रशिक्षण के इस संस्थान के बारे में कुछ-कुछ जानता भी था। आईआईएमसी के लिए प्रयास किया और मेरा सेलेक्शन हो गया। आईआईएमसी से 1995 में जैसे ही कोर्स समाप्त हुआ, उसी दौरान आजतक शुरू होने वाला था और मैंने 10 जून 1995 को आजतक ज्वाइन कर लिया। आजतक के दफ्तर मैं खुद बाकायदा अपना इंटरव्यू देने गया। आजतक शुरू होने वाला था, इसीलिए वहां दिग्गज लोग रखे जा रहे थे। वहां मृत्युंजय कुमार झा और अजय चौधरी उन दिनों हुआ करते थे। उन लोगों ने मेरा इंटरव्यू लिया। पहले रिटेन टेस्ट हुआ। उसके बाद वीडियो फुटेज दिखाई गई, जिसे देखकर स्टोरी लिखनी थी। अंततः 10 जून 1995 को मैंने आजतक ज्वाइन कर लिया। इन दोनों लोगों से काफी कुछ सीखने को मिला। अजय दा तो नहीं रहे, मृत्युंजय जी आईबीएन7 में हैं।
-एसपी से आपकी मुलाकात कब हुई?
–आजतक में मैंने बारह साल काम किया। मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे एसपी के साथ काम करने का मौका मिला। 1 जुलाई 1995 को एसपी सिंह आजतक में आए थे और 17 जुलाई 1995 को आजतक लांच हुआ था। वैसे, एसपी ने अपनी ज्वायनिंग से पहले ही आजतक आना शुरू कर दिया था। वे आते और एंकरिंग की प्रैक्टिस करते। मुझे याद है 19 जून 1995 को नकवी जी ने ज्वाइन किया। धीरे-धीरे टीम बनती चली गई। खबर को लेकर एसपी सिंह के अन्दर जो कमिटमेंट था, जो दीवानापन था, वो अदभुत था।
उस दौर में एसपी ऐसे व्यक्ति थे जो रोजाना कम से कम चालीस से पचास अखबार पढ़ते थे। वे सारे रीजनल अखबार भी पढ़ते थे। उन्हें कई क्षेत्रीय भाषाओं की जानकारी थी। एसपी की हर क्षेत्र पर कड़ थी। उनसे कोई भी सवाल पूछ लीजिए, जवाब सटीक देते थे। चुनाव के बारे में, किसी भी देश के बारे में, मैच के बारे में… उनसे कभी भी, कुछ भी जाकर पूछ सकते थे। उनसे किसी भी विषय पर बात कर सकते थे। इसीलिए एसपी सिंह के साथ काम करके बहुत कुछ सीखने को मिला। मैं मानता हूं कि मेरी बुनियाद जो इतनी मजबूत हुई, वह एसपी के साथ काम करने की वजह से ही हुई। जितने लोगों ने एसपी सिंह के साथ काम किया, वे आज भी मानते हैं कि एसपी के साथ काम करने का ही नतीजा है कि हम सब इतने अच्छे से काम कर रहे हैं। जब आजतक शुरू हुआ था तो एसपी एक-एक खबर को पढ़ते थे। एक-एक खबर पर अपनी राय देते थे। चूंकि मैं न्यूज के साथ उनसे सीधे रूप से जुड़ा होता था इसीलिए मुझे उनसे इंटरैक्शन का बहुत मौका मिलता था। छोटी टीम होने के कारण मिलने-जुलने में ज्यादा परेशानी भी नहीं होती थी।
-शुरुआत आपने रिपोर्टिंग से की या डेस्क से?
–मुझे शुरुआत में तीन महीने के कांट्रैक्ट पर रखा गया। कोई पद वगैरह नहीं दिया गया था। यूं समझिए कि एक ट्रेनी रिपोर्टर के रूप में काम शुरू किया। कई खबरें कीं। बहुत कुछ समझने का मौका मिला। उस समय काम इतना आसान न होता था। बुलेटिन शुरू करने से घंटा भर पहले टेप प्रिव्यू के लिए देना होता था। स्क्रिप्ट के लिए लगना पड़ता था। एंकरिंग भी अलग तरीके से होती थी। सब कुछ टुकड़ों-टुकड़ों में होता था। चीजों को मैनेज और कोआर्डिनेट करना मुश्किल काम था। इन सभी कामों को सीखना, करना शुरू कर दिया।
जब मेरा तीन महीने का कांट्रैक्ट पूरा हो गया तो मैं एसपी से जाकर मिला। मैंने उन्हें सूचित किया- सर, मेरा तीन महीने का कांट्रैक्ट पूरा हो गया है, आप मुझे बता दीजिए कि 10 तारीख के बाद से मुझे आना है कि नहीं। एसपी सिंह ने तब हंसकर कहा- बड़ा अच्छा सवाल है तुम्हारा। लेकिन इसमें सोचने वाली कोई बात ही नहीं है। मैं तुम्हारे काम से बहुत खुश हूं। तुम काम पर आ जाना। मुझे रिपोर्टिंग छोड़कर डेस्क पर आने के लिए कहा जाता रहा। पर मैं रिपोर्टिंग छोड़ना नहीं चाहता था। रिपोर्टिंग के लिए अड़ा रहा। मुझे इस बात से डर लगता था कि अगर मैं डेस्क पर आ गया तो पता नहीं भविष्य में कहीं नौकरी मिलेगी भी या नहीं। तीन महीने बाद मुझे असिस्टेंट न्यूज कोआर्डिनेटर का पद दिया गया। बाद में मैं आजतक के इनपुट में काम करने लगा। जब आज तक छोड़ा तब मैं आउटपुट का एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर था।
-आपका सबसे टफ टाइम कब रहा आजतक में?
–सबसे मुश्किल वक्त वह था जब एसपी सिंह का निधन हुआ। एसपी आजतक में करीब दो साल तक रहे। एसपी की मौत के बाद सबसे बड़ा चैलेंज था आजतक को बनाए रखना क्योंकि वह इसके एक ब्राण्ड आइकन बन गए थे। यह कल्पना करना मुश्किल था कि एसपी के बिना आजतक कैसे चलेगा? वे बेहद पापुलर थे। उनका एंकरिंग का अन्दाज लोकप्रिय था। खबर और स्क्रिप्ट, दोनों में एसपी का जो तेवर था, वह आजतक का तेवर बन चुका था। एक-एक स्क्रिप्ट वह खुद देखते। एक-एक एंकरलिंक वह खुद लिखते। इसीलिए आज तक की जो शुरुआत हुई, वह बहुत जबरदस्त थी। एसपी के जाने के बाद राहुल देव आए। वे एक साल तक रहे। राहुल देव के बाद नकवी जी आए। नकवीजी रहे चैनल शुरू होने तक। नकवी जी के जाने के बाद उदय शंकर रहे। सबसे अच्छी बात यह रही कि मुझे सभी बासों ने काम करने की पूरी आजादी दी। जो टीम थी उसमें दीपक चौरसिया, कुमार राजेश, अलका सक्सेना, दिबांग, आशुतोष, शैलेश, संजय पुगलिया… जैसे लोग जुड़ते रहे। एक मजबूत और बड़ी टीम बनी। इन सभी लोगों के साथ काम करते हुए सीखने-समझने का काफी मौका मिला।
-आपकी सफलता का राज क्या है?
–मैं समझता हूं कि इसे आप मेरा काम के प्रति कमिटमेंट कह सकते हैं। मैं जी जान लगा के काम करता था। जब आज तक के बीस मिनट थे, तब भी और जब तीस मिनट थे। जो चैलेंजेज आजतक के सामने आते थे, उसे हल करने में मैं अपनी भूमिका तलाश लेता था। मैं उस काम को खुद-ब-खुद करने लगता था। उस समय मैं प्रोड्यूसर भी नहीं था। आज तक को 24 घंटे का न्यूज चैनल बनाकर लांच किए जाने तक मैंने अपनी भूमिका तलाश ली थी। जब यह चैनल लांच हुआ तो उसका पहला बुलेटिन मैंने ही बनाया। मैं रात में आफिस में होता। सुबह का पहला बुलेटिन मैं बनाता था। पहला बुलेटिन पूरा रिकार्ड होता था। इसमें सब कुछ नया होता था।
मेरे काम और मेहनत से मेरे बासेज का मुझ पर विश्वास बढ़ता गया। बासेज को लगने लगा कि सुप्रिय रिजल्ट डिलीवर कर देता है। ऐसे ही काम करता चला गया। बढ़ता चला गया। बाद में एक ऐसा दौर भी आया जब अजीत अंजुम, आशुतोष, संजीव पालीवाल, अमिताभ श्रीवास्तव और मैं, हम सभी एक समान पद पर आजतक में थे। यह 2002 के आसपास की बात है।
-आपकी शादी किससे, कब और कैसे हुई?
–मेरी शादी 2001 में हुई। उसी साल आजतक शुरू हुआ था। उसी साल मेरी शादी भी हुई थी। मैंने लव मैरिज की। अनुराधा प्रीतम नाम है उनका। अनुराधा से मेरी मुलाकात आज तक में ही हुई थी। उन्होंने आज तक में कुछ दिनों तक काम किया। हम दोनों वहीं मिले। एक दूसरे को पसन्द करने लगे। कोई फिल्मी या रोमांटिक या मसाला लव स्टोरी नहीं है। हम दोनों बातचीत करते रहते। एक दिन तय कर लिया कि शादी कर लेते हैं। मुझे याद नहीं कि शादी के लिए किसने पहले प्रपोज किया। पर मुझे लगता है कि मैंने ही शादी के लिए सबसे पहले कहा होगा। अनुराधा आज तक के बाद जी में चली गईं। शादी के समय बीबीसी में आ गईं थीं। इन दिनों फिर बीबीसी पहुंच गईं हैं। (हंसते हुए) यहां मैं बता दूं कि मेरी जिंदगी में या भाग्य में, जो कह लीजिए, एपी की गुलामी लिखी हुई है। पहले अरुण पुरी उर्फ एपी के यहां आज तक में काम किया। फिर अनुराधा प्रीतम उर्फ एपी से शादी की। अब अनुराधा प्रसाद उर्फ एपी (न्यूज 24) के यहां काम कर रहा हूं। यह विकट संयोग है।
–अगले 15-20 वर्षों में आप किस पद पर खुद को देखना चाहते हैं?
-जब मैं मीडिया में आया था तो उसके चार साल बाद 49 साल की उम्र में अप्पन मेनन की मृत्यु हो गई। अगले साल 48 साल की उम्र में एसपी सिंह की भी मृत्यु हो गई। तो मुझे लगने लगा कि शायद पचास साल की उम्र पार कर पाना टीवी वालों के लिए बड़ा मुश्किल होता है। इसलिए अगले पन्द्रह-बीस सालों के बारे में मैंने कभी सोचा ही नहीं।
-खाने-पीने में आपका क्या शौक है?
–मैंने आज तक शराब नहीं पी है। न सिगरेट पी। मुझे खाने का जरूर शौक है। नॉनवेज खाना बहुत पसंद है। मैं सप्ताह में केवल दो दिन मंगलवार और गुरुवार नॉनवेज नहीं खाता। बाकी रोजाना नॉनवेज खाना चाहता हूं। मुझे केवल खाना खाना ही नहीं, खाना खिलाना भी बहुत अच्छा लगता है। वैसे, खाना बनाना मुझे आता नहीं है। मैं केवल चाय बनाना जानता हूं।
-कई लोग कहते हैं कि शराब सफलता की जननी है?
–मैं नहीं मानता। यह भी हो सकता है कि मैं शराब नहीं पीता इसलिए ज्यादा सफल नहीं हूं (हंसते हुए)। मेरा मानना है कि पीना और न पीना हर व्यक्ति का निजी मसला है और वह उस पर डिपेंड करता है। पीने व न पीने के लिए कोई नियम नहीं बनाया गया है।
-आप आज तक में काम करते हुए किन लोगों से बहुत प्रभावित हुए?
–जैसे कि मैंने पहले भी बताया, आजतक जब शुरू हुआ तो मुझे एसपी से बहुत कुछ सीखने को मिला। कॉपी लिखने के मामले में मैंने नकवी जी से बहुत कुछ सीखा। लाइव में कैसे काम करते हैं और टीवी न्यूज में चौबीसों घंटे कैसे काम किया जाता है, यह मैंने उदय शंकर जी से सीखा।
-जब आप खाली रहते हैं तो क्या करना पसंद करते हैं?
–मुझे टीवी पर क्रिकेट मैच देखना सबसे अच्छा लगता है। कई बार तो मैं मौका निकालकर स्टेडियम में मैच देखने चला जाता हूं। खाली समय में अगर पुराने मैच भी चल रहे हों तो उसे देख सकता हूं। मुझे फिल्मों का इतना शौक नहीं है। फिल्म उतना ही देखता हूं जिससे फिल्म से संबंधित कोई न्यूज न छूट जाए। जैसे मुन्ना भाई फिल्म की बड़ी चर्चा थी तो मैंने वह फिल्म तब देखी जब लोग उस पर प्रोग्राम चलाने को कह रहे थे। इस समय थ्री इडियट्स को लेकर बड़ी चर्चा है। कोई कहता है कि इस मूवी में ऐसा है तो कोई कहता है कि वैसा है। इस मूवी से खबर क्या निकल सकती है, इसके लिए मैं थ्री इडियट्स को देखा।
-क्या आजतक में काम करते हुए कभी किसी से कोई गंभीर विवाद हुआ?
–ऐसा कोई विवाद तो नहीं हुआ। मेरे विवाद ऐसे होते थे कि मान लीजिए कोई गेस्ट आजतक पर आया तो उसे तय समय से देर से छोड़ा। उस गेस्ट को इसी समूह के दूसरे चैनलों पर जिस समय पर जाना था, वह समय निकल गया। तो आरोप लगता था कि सुप्रिय ने गेस्ट को देर से छोड़ा इसलिए वह समय से दूसरे चैनल पर नहीं जा पाया। तो इस तरह के विवाद होते थे। कहा जाता था कि सुप्रिय आज तक को लेकर बड़ा पजेसिव है। वह हर चीज को आजतक में रखना चाहता है जबकि मैनेजमेंट चाहता था कि कोई भी गेस्ट या खबर दोनों-तीनों चैनलों में जाए। तो आजतक को लेकर जो मेरा पजेसिव बिहैवियर व एग्रेसन रहा, उसे मुद्दा बनाया जाता था। बाकी कोई दुखद विवाद मेरे साथ नहीं रहा आजतक में।
-जीवन में सबसे ज्यादा दुखी कब हुए आप?
–मेरे लिए सबसे दुखद का क्षण वही था जब एसपी सिंह की मृत्यु हुई थी। मैं चौदह दिनों की छुट्टी के बाद जब वापस आया तो उस दिन इत्तेफाक से एसपी एंकरिंग कर रहे थे। उन्होंने उसी दिन मुझे इनक्रीमेंट लेटर भी दिया था। शनिवार का दिन था। 14 जून 1997 को उन्होंने अपना आखिरी बुलेटिन पढ़ा। वह स्टोरी उपहार काण्ड पर थी। उसे लेकर वह बहुत भावुक हो गए थे। उपहार अग्निकांड में मृतकों के रोते हुए परिजनों के मुंह पर कैमरे व माइक लगाकर जबरन बाइट लिए जाने वाले दृश्यों से वे बेहद दुखी हो गए थे। उन्हें इस प्रवृत्ति पर सख्त एतराज था। यह दृश्य देख वे एकदम से भावुक हो उठे। उनका दुख उनके चेहरे से जाहिर हो रहा था। वे वहीं बैठे रहे। प्रोग्राम खत्म होने के बाद जब हम लोग पीसीआर से बाहर निकले तो किसी भी आदमी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह अन्दर जाकर उनसे कुछ पूछे। लेकिन मैं उन सभी में सबसे जूनियर था तो इसलिए लोगों ने मुझसे कहा कि तुम अन्दर जाओ।
मैं अन्दर गया और अपनी आदत के अनुसार उनसे कहा- चलिए सर, यह सब तो लगा ही रहता है। तब एसपी ने मुझसे कहा था कि यदि यही सब पत्रकारिता है तो मुझे ऐसी पत्रकारिता नहीं करनी। उस 14 जून को वह काफी इमोशनल होकर गए थे वहां से। इसके बाद दूसरे दिन सण्डे था। मैंने उनसे फोन पर काफी देर बातचीत की थी। यह मेरी उनसे आखिरी बार बात थी। 16 जून को वह बीमार पड़े। हम लोगों को 26 की रात को पता चल गया था कि कल सुबह उनका लाइफ सपोर्ट सिस्टम हट जाएगा और वह नहीं रहेंगे। वह रात काटनी हम लोगों के लिए बड़ी मुश्किल हो गई थी। (सुप्रिय कुछ क्षण के लिए चुप हो जाते हैं… आंखों में आ चुके आंसू को साफ करने लगते हैं)
देश-दुनिया उम्मीद लगाए बैठी थी कि एसपी बच सकते हैं, पर हम लोगों को डाक्टर के जरिए पता चल गया था कि एसपी कल नहीं रहेंगे। काटे न कट रही थी वो रात। काम करते हुए रोते रहते थे हम लोग। 27 को एसपी के न रहने के बाद भी हम लोगों ने न्यूज बुलेटिन चलाया क्योंकि उन्होंने ही कहा था कि जिन्दगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है। इसीलिए हम लोगों ने उनकी बात को मानते हुए यह बुलेटिन चलाया था। मुझे एसपी के अंतिम दिन को याद कर आज भी गहरा दुख होता है। लगता है कुछ छूट गया है, कुछ मिस हो गया है।
-आपकी महत्वाकांक्षा क्या है?
–मेरी महत्वाकांक्षा है न्यूज24 को नंबर वन न्यूज चैनल बनाना।
-टीवी जर्नलिज्म में आप इतने सफल हो जाएंगे, इसका अंदाजा आपको था?
–मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा था कि मैं किसी न्यूज चैनल का न्यूज डायरेक्टर बनूंगा, एडिटर बनूंगा। लेकिन यह बात 14 साल पहले एसपी सिंह ने नकवी जी से और अजय दादा से कही थी कि यह लड़का आगे चलकर एक दिन एडिटर बनेगा। बाद में मुझे यह बात नकवी जी ने और अजय दा ने बताई। यह जरूर था कि जब मैं प्रोड्यूसर था तो भी मैं एक एडिटर की तरह ही काम करता था। मेरे सीनियर एडिटर्स का मुझ पर इतना भरोसा होता था कि जब मैं काम करता तो कोई बीच में आकर मुझे डिस्टर्ब नहीं करता था।
-टीवी न्यूज की दुनिया में तीन प्रभिशाली दिग्गज आपकी नजर में कौन हैं?
–आशुतोष, दीपक चौरसिया और पुण्य प्रसून वाजपेयी, ये तीन लोग मुझे अलग-अलग कारणों से मुझे अच्छे लगते हैं।
-नए लोगों को शिकायत होती है कि उन्हें न्यूज चैनलों में मौका नहीं मिलता?
–देखिए, जब मैं इस फील्ड में आया था तो मैं यहां किसी को नहीं जानता था। मेरा कोई रिश्तेदार भी पत्रकार नहीं हैं। मैंने कभी भी किसी रिश्तेदार या परिचित को नौकरी नहीं दी। जिन्हें भी रखा, सिर्फ प्रतिभा के आधार पर रखा। यदि आपके अन्दर टैलेंट है तो आपको काम करने से कोई रोक नहीं सकता। आपको कभी न कभी नौकरी मिलनी ही है, यह बात आप हमेशा अपने दिमाग में रखिए। बस, जरूरी यह है कि अपने को आप आधुनिक समय व तकनीक के हिसाब से अपग्रेड करते रहिए।
-आप टीवी स्क्रीन पर नहीं दिखते पर जो दिखते हैं, उनमें से बहुतों को कंट्रोल किया है. इस बारे में कुछ बताएं?
–मैं अपने को बड़ा भाग्यशाली समझता हूं कि प्रोग्राम के मामले में मैंने एसपी सिंह से लेकर कई बड़े एंकरों को कमाण्ड दिया है। एसपी के जमाने में भी मैं ही आजतक का रन डाउन फाइनल करता था। आखिरी समय में भी मैं ही तय करता था कि कौन-सी न्यूज जाएगी और कौन-सी गिरायी जाएगी।
हां, यह बताना चाहूंगा कि प्रभु चावला जब ‘सीधी बात’ प्रोग्राम करते हैं तो वे पीसीआर की बात बहुत अच्छे से सुनते हैं। उनको जो भी कमाण्ड दी जाती है, उसे बड़े आसानी से मान लेते हैं। ब्रेक लेने को कहा जाए तो तुरंत ब्रेक ले लेते हैं। कोई नया सवाल सुझाया जाता है गेस्ट से पूछने के लिए तो वे तुरंत पूछ लेते हैं। कभी-कभी बड़ी हैरानी होती है कि इतने बड़े संपादक होकर वे हम लोगों की बात को कितनी आसानी से सुन और मान लेते हैं। प्रभु के साथ काम करने में यही सबसे अच्छा लगता है कि वे आपकी बात तुरंत मान लेते हैं। काम को लेकर उनके अन्दर किसी प्रकार का इगो नहीं होता।
दीपक चौरसिया एनर्जेटिक रिपोर्टरों और एंकरों में हैं। दीपक का काम के प्रति कमिटमेंट लेवल इतना हाई है कि वे कभी समय को लेकर चिंतित नहीं होते। उन्हें जब जो काम कहिए, तुरंत करने को तत्पर रहते हैं। उनमें भी इगो नहीं है। अगर कोई काम है तो वे यह नहीं सोचते कि यह काम उनके लेवल का है भी या नहीं। आज के नए-नए रिपोर्टरों को आप देखेंगे तो वे बड़े आराम से कह देते हैं कि मैं क्राइम नहीं करूंगा, फिल्म नहीं करूंगा, ये नहीं करूंगा, वो नहीं करूंगा। दीपक जो भी करते हैं, पूरे दिल से करते हैं। दीपक की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे जब फील्ड में चले जाते हैं तो आप अच्छी स्टोरी के प्रति निश्चिंत हो जाते हैं। अगर वह आदमी मौके पर पहुंच गया तो वह आपको सबसे बेहतरीन स्टोरी लाकर देगा। वह कोई भी चीज मिस नहीं करेगा। बल्कि आपको कुछ एक्स्ट्रा ही लाकर देगा। दुर्भाग्य की बात यह है कि आने वाले दिनों के लिए अभी तक दूसरा दीपक तैयार नहीं हो पाया है।
पुण्य प्रसून वाजपेयी जी को लीजिए। उनकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि उनसे किसी भी विषय पर बुलवा लीजिए। वे किसी भी विषय पर नानस्टाप बोल सकते हैं। एंकरिंग करते वक्त उन्हें चाहे क्रिकेट पर बोलना हो, सिनेमा पर बोलना हो या पॉलिटिक्स पर बोलना हो, वह एक ही स्टेप में सभी विषयों पर बोल सकते हैं। इससे भी बड़ी खूबी उनमें यह है कि उन्हें टेलीप्रांप्टर की जरूरत नहीं पड़ती है। वह अपने मन से ही बोलते हैं। यह उनकी अच्छाई है पर यही उनके साथ दिक्कत भी है। वे जब बोलने लगते हैं तो उन्हें कंट्रोल करना मुश्किल होता है। उनके साथ टाइम कंट्रोल करना बड़ा मुश्किल काम होता है। इसीलिए जो पैनल पर प्रोड्यूसर बैठा होता है, उनके लिए प्रसून जी को रोकना बहुत बड़ा काम होता है। लेकिन यदि वह लाइव में एंकरिंग करते हैं तो फिर उनका कोई जवाब नहीं। पूरे लय में चलते हैं।
तीसरे, आशुतोष के साथ सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह बहुत एग्रेसिव हैं। खासतौर इंटरव्यू में। डिस्कशन्स में उनके जो सवाल हाते हैं, उनका जो एग्रेसन है, वह ज्यादातर लोगों को बहुत पसन्द आता है।
-टाइम कंट्रोल की आपने बात कही। इससे संबंधित कोई मजेदार घटना?
–पहले जब आजतक डीडी न्यूज पर बीस मिनट के लिए शुरू हुआ था तो उस जमाने में न ईपी होता था, न एंकर के नजदीक कोई जा पाता था, और न ही कोई टेली प्राम्पटर होता था। एंकर व गेस्ट तक पहुंचने का कोई जरिया नहीं होता था। बीस मिनट के कार्यक्रम में तय किया गया कि खबरों के अलावा किसी खबर पर संक्षिप्त डिस्कशन भी रखा जाए। उस समय लालू यादव बिहार के मुख्यमन्त्री थे। वे दिल्ली आए हुए थे। उनको एक दिन गेस्ट के तौर पर स्टूडियो बुलाया गया। अन्दर स्टूडियो में लालू और एसपी दोनों के बीच में सवाल-जवाब शुरू हुआ। लालू का इंटरव्यू रिकार्ड हो रहा था। चूंकि हमारे पास केवल बीस मिनट का टाइम होता था जिसमें तीन से चार मिनट का ही इंटरव्यू जा पाता था। जब एसपी सिंह ने लालू से पहला सवाल पूछा तो लालू अपने स्वभाव के मुताबिक बोलते चले गए, रुके ही नहीं। एसपी ने उनको इशारा भी किया कि आप रुक जाओ तो मैं अपना दूसरा प्रश्न पूछूं। लेकिन लालू नहीं रुके। वे पहले सवाल के जवाब में पांच दस मिनट तक बोल गए। एसपी ने देखा कि ये बंदा तो रुक ही नहीं रहा है और इसे रोकने के लिए इशारेबाजी भी काफी नहीं है, कोई दूसरा उपाय करना पड़ेगा। एसपी ने टेबल के नीचे लालू के पैर पर अपना पैर जोर से मारा, तब जाकर लालू रुके।
-वे कौन से काम हैं, जिसे करना अभी बाकी है?
–सच कहूं तो मुझे बहुत सारा कुछ पढ़ना है। पढ़ाई के मामले में मैं बहुत पीछे हूं। अभी बहुत सारी किताबें हैं, जिन्हें मैं पढ़ना चाहता हूं लेकिन समय के अभाव के कारण पढ़ नहीं पाता। मैं एक किताब भी लिखना चाहता हूं। इस किताब में अपने कुछ निजी अनुभवों को लिखूंगा। दरअसल, टीवी के अपने काम में मैं इतना इनवाल्व होता गया कि बाहरी दुनिया से एकदम कटता चलता गया। अब आप चाहे इसे मेरी बुराई मानें या अच्छाई। …जारी…
सुप्रिय से संपर्क prasad.supriya@rediffmail.com के जरिए किया जा सकता है.
सुप्रिय से बातचीत के एक अंश को आप यहां भी सुन-देख सकते हैं-
इस शख्स ने 'आजतक' को बनाया नंबर वन
इस शख्स ने 'आजतक' को बनाया नंबर वन… आजतक चैनल के संपादक सुप्रिय प्रसाद का एक पुराना इंटरव्यू…. टीवी टुडे समूह के मैैनेजिंग एडिटर सुप्रिय प्रसाद से यह बातचीत 2 मार्च 2010 को भड़ास4मीडिया डाट काम के संपादक यशवंत सिंह ने की थी.
Bhadas4media ಅವರಿಂದ ಈ ದಿನದಂದು ಪೋಸ್ಟ್ ಮಾಡಲಾಗಿದೆ ಶುಕ್ರವಾರ, ಫೆಬ್ರವರಿ 15, 2019
Comments on “काटे नहीं कट रही थी वो काली रात : सुप्रिय प्रसाद”
supriya ji
aapko aapki mehnat aur height ke koti koti naman. mai aapka nam to bahut suna tha lekin abhi tak mila nahi hu, lekin jitna suna tha usse kahi adhik paaya. kam samaye me bulandiyo ke liye once agin congrates.
thankig u
Bibhuti kumar Rastogi
senior Reporter
Dainik Jagaran
suprio.. boss merne ki baat mat kiya karo….Tum jiyo hazaron saal….
MaiN ban sakta huN doosra Deepak Chaurasiya….. koi mauka deke to dhekhe….
yashwant ji
apne NEWS 24 par to koi sawal hi nahin poocha. akhir wahan kaisi kat rahi hai..
ajit anjum kitna kaam me interfere karte hain.
is channel ki trp kyon nahin badh pa rahi hai..
anuradha ji ki anchoring kaisi lagti hai…
bhale in sawalon ka supriyo jawab nahin dete.. lekin poochna to chahiye tha.
aap to lolly pop interview karke chale aye
i raed ur about carrier how to reach top. its impressive, i like it . i want to be a repoter. plz tell me some quality of repoter which is not bookish.
सुप्रिय सर,
पत्रकारिता में आपकी यात्रा दुमका जैसे छोटे से इलाके से निकलकर दिल्ली की मीडिया मंडी तक में अपनी अलग पहचान बनाने तक जिस तरह पहुंची है वो वाकई क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। मैं ख़ुद झारखंड की पैदाइश हूं और मेरी पढ़ाई से लेकर नौकरी तक वहीं शुरू हुई। एक बार नौकरी के सिलसिले में आपसे मिला भी था साल 2008 के अंत में, न्यूज़ 24 के आपके केबिन में। जितनी सहजता से आपके साथ सिर्फ़ 10 मिनट ही मिल पाया और आपने बड़ी शालीनता से अपने ओहदे की ऊंचाई के विपरीत जिस तरह मुझे तवज्जो दी, कॉफ़ी भी पिलाई थी. इत्तफ़ाक से बीते एक साल से मैं आपके पास ही फ़िल्म सिटी में एक संस्थान में नौकरी करते हुए भी मिल नहीं सका, अलबत्ता आपके साथ वो बेहद अहम 10 मिनट मैं नहीं भूल पाया, वजह बड़ी छोटी है कि जिस वक्त मैं तीन महीने तक दिल्ली और नोएडा की सड़कों पर नौकरी पाने के लिए धक्के खा रहा था, उस वक्त आपके रूप में एक मीडिया हाउस का इतने बड़े पद पर बैठा एक ऐसा शख़्स मिला जो कम से कम मेरी मुश्किल समझ रहा था. ये और बात है कि आपके साथ मुझे काम करने का मौका मिलता उससे पहले ही मुझे कहीं और नौकरी मिल गई, लेकिन आज आपके इंटरव्यू को पढ़ने के बाद यही लगा कि एक पीढ़ी है जो आज भी एसपी जैसे महान पत्रकार के दिखाए रास्ते पर चलकर पत्रकारिता की बुनियादी परंपराओं को सींच रही है, वर्ना मौजूदा दौर के कथित टीवी पत्रकारों का तो ख़ुदा ही मालिक है। आपका साक्षात्कार अच्छा लगा, कई संदेश हैं हम जैसे पत्रकारिता के छात्रों के लिए। सर सिर्फ़ एक ही सवाल मन में उठता रहता है कि आख़िर हम टीवी वाले लोग क्यों अपनी ज़िन्दगी कम कर लेते हैं ख़बरों की होड़ में, एक-दूसरे से आगे निकलने के दौरान। क्या इस सवाल पर सोंचने का वक्त किसी के पास नहीं है, अगर है तो जवाब बाहर आना ही चाहिए. बहुत अच्छा लगा कि वीर बिरसा मुंडा और संथाल परगना के वीर सिद्धो-कानो की धरती का लाल देश की राजधानी में अपना परचम लहरा रहा है…
ईश्वर आपको हमेशा शीर्ष पर बनाए रखे,
असीम शुभकामनाएं, राकेश
आजतक में सुप्रियो सर को देखकर पता नहीं क्यों मुझे इतना डर लगता कि मैं उन्हें देखते ही रास्ता बदल लेता। मुझे याद है वर्ल्ड कप को लेकर कपिल दा जबाब एक शो शुरु होने जा रहा था जो कि इंडिया इस्लामिक सेंटर से लाइव होना था। शो का वो पहला दिन था। हमलोग इन्टर्न की हैसियत से जितना कुछ कर सकते थे किया। फिर मैंने देखा कि वो शो से ठीक पांच मिनट पहले सबकुछ देखने आए। आजतक में उनका बहुत ही भारी-भरकम व्यक्तित्व था। गजब की ठसक। मैं फिर उन्हें देखते ही रास्ता बदलने लग गया। दीप्ति जो कि गेस्ट कॉर्डिनेशन में हुआ करती थी,उन्होंने कहा कि सर इन बच्चों ने बहुत मेहनत की है। वो हल्के से मुस्कराए। लेकिन उनके प्रति मुझे डर बना रहा।
उसके बाद मैंने एसपी के कार्यक्रम में देखा।..फिर मन में वही भाव।
इधर करीब डेढ़ महीने पहले मैं न्यूज24 में अपने रिसर्च के सिलसिले में और टेलीविजन की इकॉनमी पर बात करने के लिए अजीत अंजुम जी से बात करने गया। अजीत अंजुमजी का बात करने का अंदाज ही ऐसा है कि आप लाख चाहने के बाद भी नार्मल टोन में रहकर बात कर ही नहीं सकते। वो आपको उत्तेजित कर जाएंगे। बीच-बीच में मैं भी हो जाता लेकिन उस दिन मैं उनसे सीखने और समझने गया था इसलिए बहुत ही आराम से बैठा उन्हें सुन रहा था। इतने में वो अंदर आए। उन्हें देखते ही मेरे फिर पुराने भाव। अजीतजी ने उन्हें बताया कि ये कुछ टेलीविजन इकॉनमी पर बात करने आया है। वो हल्के से मुस्कराए। मैं अपनी सीट से उठ गया था,वो हमें बैठने कह रहे थे लेकिन जितनी देर वो अंदर रहे,मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं उनके सामने बैठूं।
सुप्रियो सर को लेकर मेरे भीतर सम्मान का भाव तो है ही लेकिन पता नहीं क्यों मिलने पर डर-सा महसूस करता हूं।..
यशवंत जी,
सुप्रिय प्रसाद अच्छे लगे. हम लोगों जैसे ही मामूली आदमी लेकिन बुलंदियों पर . मुबारक. लेकिन एक बात उनसे ज़रा सख्ती से कह दें. ३५ साल ठोकर खाने के अपने तजुर्बे के आधार पर कह रहा हूँ.. फौरन से पेशतर अपना वज़न कम करना शुरू कर दें. यह बहुत ज़रूरी है .अगर आप न कह सकें तो मुझे बताएं मैं कह दूंगा. कृपया इसे बहुत गंभीर बात माने और हिन्दी पत्रकारिता के इस नए सूर्य की तरक्की की कामना करें.
aap ye sab paise leker chapte ho na yashwant ji
Being a student fo journalism, i would like to say supriyo sir has done a great job..we should learn from him.more over its great to know that he is from The land of great.. Birsa Munda.becaause iam also from Jharkhand..well last but not the least…my all good wishes to Mr. supriyo !!
Regards
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Shishir Kumar Das
University Of Journalism & Mass Communication Raipur,Chhattisgarh!!
parnam sir,aap ka interview dekha aapke carrier ka itihas b pda.sahi samay par sahi mauke par aap nahi chooke aur aapka smart work aapko sahi jagah par le gya.aasa karta hoon aage b din dogni rat chogni taraki karen.
respected supriyo sir.. aapke anubhav padhkar romanchit ho utha,
aapki gadha sun kr apne ko aapke raste pr chalne ka man karta hai,
sir.. mai b aapke sanidhya me bahut neeche stringer ke roup me khajuraho/chhatarpur (m.p.) me kam kr raha hou….