गांव से लौटा (3) : गांव गया तो गांव से भागा नहीं. दुखी मन से दिल्ली लौटा. दिल में दबी आवारगी की हसरत जो पूरी हुई. लोग कहते हैं कि शहर में आवारगी भरपूर होती है लेकिन मुझे तो लगता है कि आवारगी के लिए गांव ज्यादा अच्छे अड्डे हैं. आवारगी बोले तो? अरे वही, पीना, खाना, नाचना, गाना, मन मुताबिक जीना. शहर में बार, माल, कार में बैठकर दारू पीने से ज्यादा अच्छा है गांव में पेड़ के नीचे बैठकर ताड़ी पीना. जितनी भयंकर गर्मी पड़ती है उतनी ही ज्यादा मात्रा में ताड़ी का धंधा चलता है.
मैं भी पीने पहुंचा. बचपन के कुछ दोस्तों के कान में फुसफुसा कर कहा कि गुरु ताड़ी वाड़ी नहीं पिलवावोगे? लुंगी में सौ का नोट बांधकर चल पड़ा ताड़ीबन्ना. ताड़ी बेचने वाले पंडीजी लबनी (मिट्टी का बर्तन, जिसमें ताड़ी रखते हैं) से थोड़ा दूर हटे तो एक बकरी आई और लबनी में पड़ी ताड़ी गटक कर चल पड़ी. अरे वाह, यहां तो बकरियां भी ताड़ी पी लेती हैं.
देखिए बकरी के ताड़ी पीने का दृश्य…