अमिताभ ठाकुर ने ठीक ही लिखा है… अति स्थानीयता या कूपमंडूकता?। मेरे जनसत्ता के अलावा ज्यादातर अखबार अति स्थानीय हो गए हैं। यह अपने अखबार की तारीफ नहीं है। यह सच्चाई है। अगर अखबार में स्थानीय खबरें ही भरी रहेंगी, तो देश- दुनिया में क्या हो रहा है, इसकी जानकारी कैसे मिलेगी? और अगर आप देश- दुनिया की खबरों से अनजान हैं तो फिर सूचनाओं के इस युग में क्या आप पीछे नहीं हैं? लेकिन एक अच्छी बात है।
अब लोग अखबारों के अलावा रेडियो, टेलीविजन से भी खबरों की पुष्टि करने लगे हैं। हालांकि रेडियो और टीवी की खबरों में भी मसाले ज्यादा होते हैं और खांटी खबर कम, लेकिन लोग करें तो क्या करें। जब मैं दिल्ली में हुआ करता था तो समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा वैकल्पिक मीडिया की बात किया करते थे। लेकिन यह पत्रिका निकालते भी हैं। लकिन बात बहुत आगे नहीं बढ़ पाई। एक और बात है- खबर का अर्थ हो गया है राजनीतिक खबरें। नेताओं से जुड़ी खबरें। क्या देश में इनके अलावा कोई चीज नहीं है? विग्यान (माफ कीजिए मेरे कंप्यूटर में त्र के बाद वाला ग्य नहीं है), चिकित्सा, स्वास्थ्य की खबरें हमारे अखबारों की लीड खबर क्यों नहीं बन सकती? आखिर ऐसा क्या है कि हमें रोज राजनीति की ही खबरें लीड लेने पड़ें। क्यों हमें रोज राजनेताओं को ही लीड खबर बनानी चाहिए? वे देश के लिए क्या कर रहे हैं?
अगर मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में दो मंत्री कम कर दिए जाएं तो इससे क्या फर्क पड़ेगा? मेरा उत्तर है- कुछ नहीं। अगर किसी राजनीतिक दल का अस्तित्व खत्म हो जाए तो इससे देश को क्या फर्क पड़ेगा? मेरा उत्तर है- कुछ नहीं। ये लोग देश के विकास के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। वरना क्या देश की आजादी के ६३ साल बाद भी हर नागरिक को पीने का साफ पानी नहीं मिलता? चिकित्सा की सुविधाएं नहीं मिलतीं? दूर एक जिले में बीमारी से मर रहे आदमी को अच्छे डाक्टर नहीं मिलते? इस लोकतंत्र को एक बार फिर परखने की जरूरत है मित्रों। मीडिया फिर राजनीतिक नेताओं और राजनीति को सुपर हाईलाइट कर रहा है। यह एक ट्रेंड बन गया है। लोग इसे पढ़ते हैं और बस अखबार एक ओर रख देते हैं। यह सच है- अति स्थानीयता हमें सीमित कर देती है। पंगु बना देती है। हम अपने एक खास दायरे से बाहर नहीं निकल पाते। एक बार फिर इस ट्रेंड को तोड़ने की जरूरत है। यह बहस आगे बढ़नी चाहिए।
पाठक रोज स्थानीय नेताओं और कथित सामाजिक कार्यकर्ताओं की खबरें पढ़ कर ऊब जाते हैं। लेकिन वे इसकी शिकायत करें तो किससे। अखबारों ने कोई ऐसी व्यवस्था की नहीं होती है कि पाठक शिकायत करें। चिट्ठी लिखने से अब कुछ होता नहीं है। स्थानीय बने हुए बड़े अखबार ऐसे लोगों को बैठाते हैं जो अपनी ही धुन में रहता है। उसे पाठक की नहीं सुननी है। उसे अपने स्वार्थ देखने हैं। जो कुछ पाठक के पास जाएगा वह तो पढ़ेगा ही। पाठक सबसे बेचारा हो जाता है। उसके पास एक ही विकल्प है, वह जिस अखबार को पसंद नहीं करता, उसे लेना बंद कर दे।
लेकिन गांव और कस्बे का आदमी करे तो क्या करे। उसके पास तो अच्छे विकल्प भी नहीं हैं। एक को छोड़ कर दूसरे को पढ़ना शुरू करेगा तो उसमें भी वही स्थानीयता। देश- विदेश की खबरें गायब। इस पर लंबी बहस की जरूरत है। खबरों की भाषा भी विचित्र हो चली है। वाक्यों का गठन हैरान करने वाले। शब्दों की मात्राएं अशुद्ध। एक खबर कैसी होनी चाहिए, इसका बाकायदे नियम है। इसे टूटने देना नहीं चाहिए। इसका भी उल्लंघन अक्सर आप देख सकते हैं। सधे शब्दों से ही तो खबर या उसके विश्वलेषण में जान आती है। लेकिन मशीन की तरह काम करने से ऐसा नहीं होगा। शांति से बैठा कर खबर लिखवाने से होगा। हड़बड़ी में खबर लिख कर हड़बड़ी में पेज पर लगा देने से अर्थ का अनर्थ होना निश्चित है।
लेखक विनय बिहारी सिंह कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं और हिंदी ब्लाग दिव्य प्रकाश के माडरेटर भी। पत्रकारिता के साथ-साथ अध्यात्म में रुचि रखने और रमने वाले विनय बिहारी से संपर्क करने के लिए [email protected] का सहारा ले सकते हैं।
Kamal Ahmad Roomi
August 17, 2010 at 11:21 am
aane wale waqt main newspaper aur news channelon ke sthaniya sanskarn zyada safal hone. haal main europeon union ke ek seminar main bhi wakton ne kaha ki aane waala samya sthaniya samacharon ka honga desh dunia main baitha vyakti apne shahar ka samachar parhne aur dekhne ka ichchcuk hoga. aise main sthaniya samachar dene wali websites, channals aur news paper ki maang barhegi
K Kumar
August 17, 2010 at 7:49 pm
विनय बिहारी सिंह का दर्द लाखो-करोड़ों पाठकों का दर्द है। मैं भी उनकी बातों से इत्तेफाक रखता हूं। पहले अखबार सूचनाएं तो देते ही थे, पाठकों को दुनिया देखने-समझने की दृष्टि भी प्रदान करते थे। लेकिन जमाना बदला, मालिक-संपादकों के सोचने का तरीका बदला। अब कहा जाने लगा है कि पाठकों के बीच ज्ञान बांटने की जरूरत नहीं। वे समझ नहीं पाएंगे। उनके बीच वही परोसा जाए, जो वे आसानी से समझ सकते हों या जिन विषयों में उनकी दिलचस्पी हो। मालिक – संपादकों की ऐसी समझ का ही नतीजा है कि अखबार अपना वास्तविक अर्थ खोते जा रहे हैं।
बिना किसी वैज्ञानिक विश्लेषण के डेस्क पर तय कर लिया जाता है कि पाठक क्या चाहता है। फिर वही अखबार में परोस दिया जाता है। मेरा मानना है कि हमारे मालिक-संपादक भारतीय जनता को ज्ञान से वंचित रखने की साजिश में जाने-अंजाने भागीदार बन जा रहे हैं। इस पूरे मामले का दूसरा पहलू प्रबंधक बन चुके संपादकों की योग्यता से भी जुड़ा हुआ है।
ऐसा नहीं है कि योग्य लोगों की कमी है। पर मालिकों को ऐसे लोगों को लेकर क्या करना। क्या ऐसे लोग उनकी दुकानदारी में सहायक हो सकेंगे? फिर व्यवस्था को भी तो मालिक-संपादकों की नीति ही भाती है। इन तमाम परिस्थितियों के बावजूद विनय जी ने जो मुद्दा उठाया है, उस पर बहस जारी रहनी चाहिए। कभी तो सूरत बदलेगी।
मुझे लगता है कि डिजिटल मीडिया सूचना के लोकतंत्रीकरण के मामले में क्रांति ला सकता है। बशर्ते कंप्यूटर साक्षरता के मामले में जन अभियान चले।