सुशील की ओर देखा तो आंखें निकाल ली जाएंगी

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Alok Tomarसुशील कुमार सिंह हिंदी पत्रकारिता में संतों की श्रेणी में आते हैं। वे ऐसे गजब आदमी हैं कि अपने धर्म गुरु, पारिवारिक सदस्य और अपना नया पंथ चलाने वाले एक बाबा जी के नाम पर बहुत सारे दोस्तों को विदेश यात्रा करवा चुके हैं लेकिन आज तक खुद विदेश नहीं गए। एक बड़े अखबार के चीफ रिपोर्टर के नाते बहुतों का भला किया लेकिन दिवाली, दशहरे और नए साल पर उपहार देने वालों को बहुत विनम्रतापूर्वक वे उपहार सहित घर से लौटा दिया करते थे। बाद में एनडीटीवी और सहारा में भी बड़े पदों पर रहे।

इन जगहों पर भी किसी से नहीं सुना कि उसने सुशील कुमार सिंह को किसी बहाने कोई उपहार दिया हो। इन्हीं सुशील के लिए उत्तर प्रदेश के लखनऊ के गोमती नगर थाने से एक पुलिस टीम दिल्ली में गिरतारी के लिए आ जाए तो आश्चर्य होना और आघात लगना स्वाभाविक था। दरअसल यह तो पता ही नहीं था कि सुशील अब एक वेबसाइट चलाते हैं और उसमें नेपथ्य की सारी खबरे देते हैं। जो खबरे नेपथ्य में रही हों उन्हें कायदे से नेपथ्य में ही रहना चाहिए यानी दबा कर रखा जाना चाहिए। गॉसिप अड्डा नाम के जिस वेब पोटल को सुशील कुमार सिंह अपने मित्रों के साथ मिल कर चलाते हैं उसमें एक खबर एक बड़े प्रकाशन समूह के खिलाफ या उसके बारे में चली गई।

अब अगर कोई अखबार अपने ग्रुप चेयरमैन यानी मालिक की मृत्यु की खबर छापे और उस खबर में फोटो किसी और का चला जाए और इतना ही नहीं, जब पूरा संगठन शोक मना रहा हो तो एक अधिकारी की विदाई के बहाने शानदार पार्टी हो तो खबर लिखना तो बनता ही है। यह खबर लिखी गई और काफी दिनों तक अलग-अलग वेबसाइटों पर घूमती रही लेकिन अचानक इस समाचार पत्र समूह के अपने आप को दादा समझने वाले एक कर्मचारी ने पुलिस का सहारा ले लिया।

उसने रपट लिखवाई कि सुशील कुमार सिंह यह खबर हटाने के लिए पैसे मांग रहे हैं और ब्लैकमेलिंग कर रहे हैं। मायावती की पुलिस बगैर मायावती के आदेश के, इतनी उत्साहित हुई कि सुशील को पकड़ने दिल्ली आ पहुंची। वह तो दिल्ली में और खास तौर पर पत्रकारिता के संसार में इतना हंगामा हो गया कि टीम को वापस लौटना पड़ा लेकिन मामले अब भी कायम हैं और गिरफ्तारी की आशंका अब तक मौजूद है। आगे बढ़ें, इसके पहले आप देख लीजिए कि लिखा क्या गया था?


उनकी आत्मा को शांति मिले

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी अखबार के मालिक का देहांत हो जाए और अपने ही अखबार में उसका फोटो गलत छप जाए। लेकिन यह कमाल किया हाल में हिंदुस्तान टाइम्स ने। उसने अपने हिंदी सहयोगी दैनिक हिंदुस्तान के कारनामों को पछाड़ते हुए के. के. बिरला के निधन पर जो तस्वीरें प्रकाशित कीं उनमें से एक तस्वीर किसी और की थी। उसके अगले दिन भूल-सुधार करते हुए अखबार ने बताया कि पिछले दिन एक तस्वीर में कैप्शन गलत छप गया था। यानी फिर गलत सूचना दी गईए क्योंकि कैप्शन ही नहीं वह तस्वीर ही गलत थी क्योंकि वह किसी और की थी। अब इस दूसरी गलती के लिए भूल-सुधार की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी क्योंकि उसके बाद मालिक के निधन पर संस्थान में अवकाश था।

इतना ही नहीं, निधन वाले दिन हिंदुस्तान टाइम्सए लखनऊ में मार्केटिंग के एक सीनियर अधिकारी की फेयरवेल पार्टी थी जिसे स्थगित नहीं किया गया। इस कार्यक्रम में अखबार के सभी सीनियर लोग मौजूद थे। वहां मिठाई भी खिलाई गई और स्नैक्स भी। विदाई के रस्मी भाषण भी दिए गए। चौंकाने वाली बात यह है कि यह कार्यक्रम संस्थान के चेयरमैन के. के. बिरला की शोक सभा के मुश्किल से आधे घंटे बाद शुरू हुआ। फहमी हुसैन और नवीन जोशी इत्यादि जो आधे  घंटे पहले बिरला जी को श्रद्धांजलि दे रहे थे अब कंपनी से जा रहे मार्केटिंग अधिकारी की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे।


पढ़ लिया आपने? इसमें ऐसा क्या है जिससे देश की शांति और व्यवस्था और कुल मिला कर कानून को खतरा महसूस हो रहा हो? और फिर इस वेबसाइट में या इस टिप्पणी में सुशील का नाम तक नहीं था। होना होता तो यह मामला साइबर क्राइम का बनता मगर इसमें ब्लैकमेलिंग से ले कर सब कुछ डाल दिया गया था और जाहिर है कि गोमती नगर पुलिस थाने में अपने आप को महान पत्रकारिता संगठन बताने वाले लोगों ने अच्छा खासा चढ़ावा भी चढ़ाया होगा। वरना ऐसे छोटे मोटे मामले में दिल्ली पुलिस को छलावा दे कर उत्तर प्रदेश पुलिस एक सभ्य और सुशील पत्रकार को पकड़ने दिल्ली नहीं आ धमकती।

मुसीबत यह है कि सुशील कुमार सिंह का न कोई आपराधिक रिकॉर्ड है और न ब्लैकमेलिंग के लिए उन्हें जाना जाता है। जैसा कि पहले कहा, वे तो अपने घर आए उपहार तक लौटा देते रहे हैं। अगर किसी मीडिया संस्थान के पास पैसा है तो उसे मुबारक लेकिन उसके कर्मचारी और वह भी खास तौर पर मैनेजर किस्म के कर्मचारी अगर किसी खबर पर किसी पत्रकार पर हमला बोलेंगे तो उसका जवाब उन्हें वैसा ही मिलेगा। देखते ही देखते इंटरनेट से जुड़े पूरे देश के पत्रकार जमा हो गए और उन्होंने हल्ला बोल की घोषणा कर दी। सुशील कुमार सिंह अकेले नहीं थे और जब इतने पत्रकार जमा हो गए और इंटरनेट पर हर जगह यह मुद्दा छा गया तो उत्तर प्रदेश पुलिस की टीम को वापस लौटना पड़ा और यह शायद पुलिस के हित में ही हुआ होगा।

वेब पत्रकारिता आज का सच और संपूर्ण सच है और अगर किसी बड़े मीडिया संस्थान के गुलामों को लगता है कि वे चूंकि बड़ा अखबार छापते हैं और बेचते हैं इसलिए इंटरनेट पर काम कर रहे लोगों को खामोश कर लेंगे तो यह उनकी गलतफहमी है। यह तय होना अभी बाकी है कि वर्दी में बैठे हुए लोगों ने इस मामूली से मामले को जो अधिक से अधिक मानहानि का हो सकता था, एक आपराधिक मामला बना कर दिल्ली पर धावा क्यों बोला और दिल्ली पुलिस आखिरकार चुप क्यों रही। असली बात यह है कि अब बड़े अखबार चलाने वालों को यह भूल जाना चाहिए कि वे जैसी चाहे वैसी दादागीरी कर सकते हैं। उनका अखबार चाहे जितना बिकता हो, सुशील कुमार सिंह के साथ दो हजार से ज्याद ब्लॉग और वेबसाइटें जो पूरी दुनिया में पढ़ी जाती है और उन पर रोक लगाने का साहस न मायावती की पुलिस के पास है और न शिवराज पाटिल की दिल्ली पुलिस के पास।

इस अभियान में निकले इंस्पेक्टर रूद्र प्रताप सिंह और उनकी टीम के साथ हमारी सहानुभूति है लेकिन अगर उन्होंने सुशील कुमार सिंह की ओर आंखें उठा कर भी देखा तो आंखें निकाल ली जाएंगी।


लेखक आलोक तोमर मशहूर पत्रकार हैं। उनसे aloktomar@hotmail.com के जरिए संपर्क किया जा सकता है।

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