देरी के लिए माफी। वादे के अनुसार, ‘पत्रकारिता के पापी‘ शीर्षक से एक महिला पत्रकार द्वारा भेजे गए संस्मरण को यहां हूबहू प्रकाशित किया जा रहा है। इसमें कई जगह गालियां हैं और कुछ एडल्ट कंटेंट भी। इसे संपादित नहीं किया गया है ताकि आप इस महिला पत्रकार की भावना, पीड़ा, मजबूरी, दुख, हालात को संपूर्णता के साथ समझ सकें। उन्होंने अपना नाम आर. बिभा प्रकाशित करने को कहा है। मेल आईडी देने से मना किया है। संस्मरण के आगे का पार्ट लेखिका ने अभी भेजा नहीं है। -संपादक
पत्रकारिता के पापी
कहां से कैसे शुरू करुं, समझ में नहीं आ रहा लेकिन अब मुझे बर्दाश्त भी नहीं हो रहा। मैं वो सब कहना चाहती हूं, जो मेरे साथ हुआ और जो औरों के साथ हो रहा है। मुझे नहीं पता, इसके छपने के बाद या किसी के पढ़ने के बाद क्या होगा। पहले मैं इस तथाकथित चतुर्थ स्तंभ यानि पत्रकारिता के लिए वर्तमान की योग्यता की कुछ चर्चा करना चाहूंगी, मेरी जैसी लड़की के लिए- जो सुंदर हो, बेवक्त भी, स्ट्रिंगर को छोड़कर हमेशा सबको आमंत्रण देने वाली मुस्कराहट से भरपूर हो। कंप्रोमाइज करने का प्रमाणपत्र हाव-भाव में शामिल हो। किसी ऐरे-गैरे पत्रकार की पैरवी हो- जिसे पूर्व में वह खुद को वक्त-बेवक्त छूने-दबाने का मौका दे चुकी हो। और भी बहुत सारी योग्ताएं हैं, जिसकी बाद में चर्चा करूगीं (यह योग्यता छोटे-मझोले शहरों में पत्रकारिता में कैरियर बनाने वाली मुझ जैसी के लिए है, न कि आईआईएमसी, एसीजे और सिम्बाएसिस से पढ़ने वाली के लिए- खैर उनकी बात वे जानें)। हां तो मेरे हिसाब से थोड़ी सी चर्चा पुरूषों या युवाओं की योग्यता पर भी कर लें। लड़के के लिए- असफल पत्रकारों द्वारा खोले गए स्कूल से पत्रकारिता का प्रमाण पत्र। मनोभाव- भंगिमा के रूप में डिप्लोमा इन पितांबरी यानि चापलूसी। यह एक्स्ट्रा में होनी चाहिए। उसके बाद सेटिंग, गेटिंग। फील्ड या पत्रकारिता में आने की इच्छुक लड़की को बास के बिस्तर तक पहुंचाने में जीवन की सारी ऊर्जा झोंक देने का माद्दा हो। साथ ही पत्रकारिता की प्राचीन काल सभ्यता- सब्जी पहुंचाना, दूध लाना सब्सिडियरी है। आदि-आदि।
राजधानी पटना। मेरी जैसी लड़की के लिए एक अच्छा अनुभव। स्टेशन पर उतरते ही हनुमान मंदिर में बज रहे सुंदरकांड की पंक्ति मधुर आवाज में पहुंची। ढ़ोल गंवार शुद्र पशु नारी….. सकल ताड़न। सर झुका के थोड़ा प्रणाम। बाहर आते ही निगाहें पटना की उस सहेली को ढूंढ़ने लगी जो हाल में राजधनी के एक पाश कालोनी से शुरू हुए प्रदेश न्यूज चैनल में एंकरिंग करने लगी थी। उसने पत्र देकर मुझे पटना बुलाया था क्योंकि मुझे भी राजेन्द्र मोहन पाठक के सस्ते उपन्यास के पत्रकार किरदार सुनील से बड़ा प्यार था। मैं भी बरखा दत्त बनना चाहती थी। टीवी पर दिखने और समाज को बदल देने का जज्बा था। इसलिए मैं पूरी तैयारी के साथ पहुंची थी। एंकर बनना था। आगे के बाल थोड़े कटवाए। पार्लर से आइब्रो बनवाकर पहुंची थी। आखिर पूरे पटना के लोग मुझे टी.वी. पर देखने वाले थे।
खैर मेरी सहेली स्टेशन के बाहर एक मुछमुंडे लड़के के साथ स्कूटर लिए खड़ी थी। जाते ही गले मिली और बिभा कहकर लिपट गई और सीधे कान में कहा- एक्स्ट्रा स्मार्ट लग रही है तू। मैं भी चौंक गई क्योंकि मेरी सहेली मुझसे ज्यादा सुंदर थी लेकिन ध्यान से जब मैंने उसका चेहरा देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ।
खैर, थोड़ी बातचीत के बाद मुछमुंडे के स्कूटर पर हम दोनो बैठ गए। वहां से आर ब्लाक, फिर गोलंबर चौराहा। इस बीच वह मुझे बता चुकी थी कि शहर के बड़े होटल- जो रास्ते में चाणक्या और पाटलीपुत्रा के रूप में शान से खड़े थे- यहां हम लोग सप्ताह में तीन दिन जरूर आते हैं, पीसी में (प्रेस कांफ्रेस में), कॉफी गिक्ट, चाय फ्री। बातें करते-करते हम बिहार के उस इकलौते इलेक्ट्रानिक चैनल के दफ्तर में आ गए। यह टी.वी. पर जैसा दिखता है वैसा नहीं। रिसेप्सन पर बैठा एक आदमी। बातचीत में पता चला कि वह चैनल का पावरफुल टीटू है। उसके माथे के ठीक ऊपर लगी थीं दर्जन भर लड़के-लड़कियों की तस्वीरें जो इस चैनल में काम कर दूसरे बड़े चैनलों में जा चुके थे।
छोटे से आफिस में छोटी सी औपचारिकता पूरी करने के बाद मैं सहली के साथ उसके डेरे पर चली आई। इस बार भी मुछमुंडे ने घर तक छोड़ा। जाते वक्त वह मेरी सहेली के हाथ में कुछ प्लास्टिक का टुकड़ा-सा दे गया जिसके बाद मैने देखा, मेरी सहेली मुस्कुरा दी। उसके बाद हम रूम में चले गए। फ्रेश हुए। मैं गांव से लाई पूड़ी और आलू की भुजिया लेकर बैठ गई। दोनों ने खाया और फिर सो गए। सुबह मैं सबसे पहले सोकर उठी। देखा, बिस्तर पर गुटखे के दो पाऊच पड़े हुए हैं। नाम है तलब। मेरा माथा ठनका। ये खाती है। खैर- कुछ देर बाद मेरी सहेली भी उठी। जब मैनें उसका चेहरा देखा तो मुझे तो जैसे लकवा मार गया। यह क्या? अंदर तक धंसी आंखें, आखों के बाहर काला घेरा, बाल उलझे। चेहरे पर जहां भर की थकान। मात्र तीन साल की एकंरिग में यह हाल। मुझे वह सहेली याद आई जिसका गदराया बदन और सुंदर-सलोना चेहरा हुआ करता था। चपड़-चपड़ बात करते उसके होंठ। अब ये सभी काले पड़ गए हैं। तब तक उसने मुझे जैसे गहरे कुंए से निकाला। क्या देख रही हो बिभा। अरे यार, बहुत काम करने पड़ते हैं। मैं बोली- लेकिन यार, तू बताती है कि टी.वी. पर तो तू पूरी हीरोइन दिखती है। वह बोली- अरे, वह सब मेकअप रहता है।
दूसरे दिन हम लोग उस दड़बे में पहुंचे। यानि आफिस। चारों तरफ से कुछ पुर्जे आए थे, स्थानीय कार्यक्रम के। सभी लोग अपना कैमरा और सफेद मुठ वाला लोगो यानि चैनल का आईडी लेकर फील्ड में जा रहे थे। रिर्पोटिंग करने। मेरे से झूठ-मूठ का बायोडाटा-फोटो रखाने के बाद मुझे भी एक मुछमुंडे के साथ बिठा दिया गया। और मैं चली रिर्पोटिंग करने। लग रहा था जैसे मेरे सामने सभी बौने हैं। मैं तो रिपोटर्र हूं। और मुछमुंडा मेरा कैमरामैन। हम लोग फ्रेजर रोड के एक राजस्थानी होटल में पहुंचे जहां पहले से शहर के कुछ नामी गिरामी राष्ट्रीय और हैदराबाद की एक कंपनी के क्षेत्रीय चैनल के संवाददाता मौजूद थे। उस भीड़ में मात्र दो लड़कियां थी। एक पावरविजन चैनल जो पटना में केबल वालों के रहमोकरम पर चलता था। दूसरी मैं, जो एकमात्र सिटी हर्ट कहे जाने वाले प्रदेश न्यूज की रिपोर्टर। मैं भी कुर्सी पर बैठ गई। मेरे साथ आया मुछमुंडा मुझे डंडा पकड़ा कर अपने बैग से सोनी का कैमरा निकालकर रिकार्डिंग शुरू कर चुका था। लेकिन मेरे पीछे मुझे लेकर फुसफुसहाट हो रही थी। नई छोटी। बची नहीं होगी। खा चुका होगा। ऐसे थोड़े ही। बहुत घाघ है। बिना उसके एंकरिंग रिपोर्टिंग संभव नहीं। अरे यार बता रहा था। बड़े अच्छे से करता है वो। एक बार जिसे बीठा लगाकर कर दे तो वह उसकी मुरीद हो जाए। बीठा मतलब तबले के नीचे रखा जाने वाला कपड़े से बना शून्य। वहां कुछ नहीं हुआ। किसी मत्सय संघ की पीसी थी। इसलिए सभी को कुछ समोसे और एक प्लास्टिक की थैली से सबर करना पड़ा। उसे लेने के लिए मारा-मारी मची थी। भीड़ से अलग एक लड़का भी दिखा जो बिना खाए-पिए सिर्फ प्रेस रिलीज लेकर चलता बना। उसके जाते ही किसी के मुंह से निकला- साला बाहन चो… उदयन शर्मा और अरूण शौरी की औलाद।
हमलोग दो घंटे बाद आफिस पहुंचे। तब तक वहां का माहौल अलग था। सभी अपने हाथ में कैमरा लिए उसमें से टेप निकाल रहे थे। बाद में मुझे भी मुछमुंडे ने टेप दिया और डंप करा लाने को कहा। एक कोने में पड़े कंप्यूटर और वीटीआर के पास मै गई। वहां डंप किया गया। उसके बाद हम लोगों को एक-एक कप चाय मिला। तब मेरी सहेली मुझे दिखी। हाय, ये चेहरा क्या बना रखा है। लगता है किसी ने फेयर एंड लवली की पूरी ट्यूब चेहरे पर पोत दी हो। मैने उससे पूछा। वह बोली- बिभा, मैं एंकरिंग करने जा रही हूं। वह भी प्राइम टाइम की। उसके थोड़ी देर बाद टी.वी. पर मेरी सहेली मुख्य समाचार पढ़ रही थी। मंदिरी इलाके में भीषण डकैती। दो गिरफ्तार। मैं भी तो एंकर बनने आई थी। ये कहां मुझे दौड़ा रहे हैं। मैं बाहर आफिस में बैठी थी। सहेली को काम खत्म करते-करते रात के नौ बज गए। तब तक आफिस से मेरी सहेली का मुछमुंडा छोड़कर सभी जा चुके थे। मेरी सहेली और हम निकलने वाले थे। तब तक तथाकथित बास, पावरफुल टीटू आ गया। और उसने मुझे आते ही कहा- वेरी वैलडन बिभा, आज तुमने अच्छी रिपोर्टिंग की। मैं मन ही मन अचंभित। आज तो मैंने कुछ किया ही नहीं।
रात के 9:30 बजते ही दफ्तर में कुछ और चेहरे आने लगे। एक-दो को मैने दिन में देखा था और बाकी सभी थोड़े उम्रदराज और थोड़े नौवजवान थे। बाद में पता चला सभी यहां पहले थोड़ा बहुत काम करते थे। बाकी एक या दो दैनिक प्रतिष्ठित अखबार के संपादक जैसे कुछ हैं। मैंने सहेली से कहा- अब चलो। लेकिन वह सबसे घुल-मिलकर बातें कर रही थी। भारत के तथाकथित बड़े सरकुलेशन वाले एक अखबार के अधिकारी से सहेली काफी घुल-मिल रही थी। मुझे बातचीत में सिर्फ ‘श्योर’ और ‘जरूर-जरूर’ शब्द ही सुनाई दिए। उसके बाद मेरी सहेली मेरे पास आई और साथ में मुछमुंडा। उसने मुझे हाथ में एक चाबी थमाई और कहा- तू डेरा पर चली जा, मैं देर से आउंगी। मैं चुपचाप चली गई। लेकिन लग रहा था कुछ आंखें नशे में मेरे शरीर को नाप रही थी। जैसे कोई कमर, कुल्हा, नितंब, ब्रा साइज और गले का कटाव देख रहा था। धत्, मैं क्या सोच रही हूं। कितने महान और अच्छे काम करने वालों को लेकर इतना गंदा विचार, छी!
घर में आते ही मैं सो गई। दिनभर की थकान और स्कूटर के पीछे बिना उससे सटे हुए अकड़कर बैठना। थक गई थी मैं। लेकिन ‘नमस्कार’ और ‘मुख्य समाचार’ जैसे शब्द थकान का अनुभव नहीं होने दे रहे थे। सुबह मैं देखती हूं मुझसे कुछ दूरी पर मेरी सहेली सोई पड़ी है, बेसुध। मैंने जगाना उचित नहीं समझा। पास के कमरों में कंपटीशन की तैयारी कर रही लड़कियों को ध्यान से देखने लगी जो पढ़ाई पूरी मेहनत से कर रही थी। लेकिन क्या होगा बैंक पीओ बनकर। ये लोग टी.वी. पर थोड़े ही आ सकती हैं। सपनों में दो घंटे कैसे बीते, मैं नहीं जानती। फिर मैंने अपनी सहेली को जगाया। उसने कहा- बिभा, तुम चली जाओ, मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं। तुम चली जाओ। कोई पूछेगा तो मेरे बारे में बता देना। मैने कहा- मैं अकेले नहीं जाउंगी। सहेली बोली- जा यार, काम कर, मैं ठीक हो जाउंगी। मैं दड़बे में चली आई। लेकिन आज मुझे किसी के साथ नहीं भेजा गया। मैं बस एक कोने में बैठी रही। बाद में किसी की जोर-जोर से बोलने की आवाज सुनाई दी… ”अपने-आपको सब क्या समझती है। मैं रोज एक एंकर पैदा कर सकता हूं। साली, हराम…आती है यहां………. मरवाने।” मेरा चेहरा फक्क! ये कौन है जो इतनी भद्दी-गंदी गालियां दे रहा है। उसके थोड़ी देर बाद एक लड़का दौड़ता हुआ आया और मेरे हाथ में स्केच पेन से मोटे अक्षरों में लिखे कुछ कागज पकड़ा गया। उसने कहा- टी सर ने कहा है, इसे जोर-जोर से पढ़ें और दुहराएं। मैं ठीक वैसा ही करने लगी। दो घंटे बाद मुझे वहां के स्टूडियों में बुलाया गया। मेकअप हुआ और मैं बैठी थी लकड़ी की उस कुर्सी पर जहां से देखने पर सिर्फ कैमरा दिखता है लेकिन अंदर गर्व और खुशी का अनोखा तूफान चलता है। जैसे लगता है पटना के लाखों लोग मुझे देख रहे हैं। मेरा सपना सच हुआ और मैंने उस दिन समाचार पढ़ा। यह प्रसारित भी हुआ। उस दिन मुझे भी घर जाने में विलंब होने लगा। आज भी स्थानीय पत्रकारिता के कई बड़े चेहरे उस दड़बे में आने लगे थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इतने बड़े संस्था के अधिकारी इस दड़बे में क्या करने आते हैं।
खैर, मैं मुछमुंडे के स्कूटर के पीछे बैठी, लेकिन अकड़कर नहीं। थोड़ा रीलैक्स होकर। आज मैं बात करने के मूड में थी सो मुछमुंडे से पूछ बैठी- आज मेरी एंकरिंग कैसी रही? उसने कहा- सुपर। उसके बाद मैंने पूछा- तुम बताओ पत्रकारिता के बारे में। तुम तो यहां बहुत दिनों से हो। उसके बाद उसने उस छोटे से सफर में जो कुछ बताया उसने मेरा दिमाग हिला दिया। लेकिन मैनें उसकी बातें बस हूं हां में अनसुनी कर दी। वह कह रहा था कि उसे पत्रकारिता में आने से पहले अपनी जाति और गोत्र का पता नहीं था। यहां आने के बाद सब याद हो गया। अब वह नाम से पहले गोत्र बताता है- पराशर, सिन्हा, पांडे, भूमिहार, राजपूत। गंगा उस पार का है। इस पार का नहीं। एक और बात जो वह नहीं जानना चाहता था, अब समझ गया। वह अब अपने साथ ईर्ष्या, द्वेष, द्रोह, जलन सब कुछ साथ लेकर चलता था। उसने यह भी कहा- सच्चाई से जितना दूर रहो, उतना ही ठीक है। वह अश्विनी सरीन, हेमंत शर्मा, पुण्य प्रसून और कमाल खान नहीं बन सकता। उसे बनने भी नहीं दिया जाएगा। इसलिए जीने के लिए यह सब सीखना होगा। एक दूसरे के सर पर पैर रखकर आगे बढ़ना।
मैं रात के ग्यारह बजे डेरा पहुंची। मेरी सहेली मेरा इंतजार कर रही थी। मैं जाते ही गले से लिपट गई। लेकिन वह ठंडी पड़ी रही। मैने आश्चर्य से पूछा- तुम खुश नहीं हो मेरे एंकर बन जाने से। इतना सुनते ही उसके आंखों में आंसू आ गए। उसने कहा- तुम क्यों गई एंकरिंग करने। मैने शुरू में फील्ड में भेजा था। मैने कहा- इसमें क्या गलती हुई? सहेली ने कहा- ठीक है खाना खाकर सो जाओ, सुबह बात करेंगे। सुबह मैं तैयार होकर पहले ही बैठ गई। लेकिन यह क्या? सहेली अभी भी दांत मांज रही है। मैने पूछा- जाना नहीं है क्या? उसने कहा- नहीं, तुम जाओ। मेरी तबीयत आज भी ठीक नहीं है। मैं इतना सुनते ही निकल पड़ी। मुझे लगा मुछमुंडा की बात सही है। मुझसे मेरी सहेली जल रही है। लेकिन मुझे हर हाल में आगे बढ़ना है।
मुझे दूसरे दिन भी एंकरिंग करनी थी। इतना ही नहीं, आज मुझे यह भी बताया गया था कि कल की मेरी एंकरिंग सबको पसंद आई है और आज बड़े चैनलों के दो और अखबार के एक व्यक्ति मुझे कुछ बताएंगे। हो सकता है मुझे कहीं और भी चांस दिया जाए। आज मैंने और ज्यादा मन लगाकर एंकरिंग की। सब लोगों ने तालियां बजाई। धीरे-धीरे एक-एक कर सब चले गए। बचे सिर्फ टीटू सर और बाहर से आए तीन लोग। मुझे टीटू सर ने अपने बगल में बिठाया और बाहर से मुछमुंडा द्वारा लाया गया स्प्राईट का बोतल खोला गया। मुझे भी एक ग्लास दिया गया। मैंने पीने के साथ कहा कि मैं निकलूंगी सर, मेरी सहेली इंतजार कर रही होगी। टीटू सर बोले- छोड़ो उस सहेली को, तुम्हारे लिए पास में मैने घर देखा है, कल से वहीं रहना। उसके बाद टीटू सर ने कहा- तुम्हारी सहेली का बूथ से फोन आया था, कह रही थी, सर, बिभा को एंकरिंग में मत रखिए। तुम उसे सहेली कहती हो। यह सुनकर मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ जब सर ने नोकिया 6600 से मेरी सहेली की आवाज सुनाई।
मेरा सर भारी होने लगा था। बीच-बीच में आंखें बंद हो रही थी। पता चल रहा था मैं किसी दूसरे कमरे में हूं। मेरे तन पर कुछ कम कपड़े हैं। टीटू सर मेरे दोनों पैरों के बीच अपना सर रखे हैं। लग रहा था जैसे लिजलिजा सा चीज मुझे स्पर्श कर रहा है। मेरी आंखें तो बस खुल रही थीं और बंद हो रही थीं। उसके बाद तथाकथित उन दो बड़े पत्रकारों का लिजलिजापन भी मुझे छुआ। मैं निढाल पड़ी रही। सुबह मैंने अपने को प्रदेश चैनल के एक पास वाले मकान में सोए हुए पाया। पूरा बदन पीरा रहा था। टूट रहा था। एंकर बनने का सपना गायब था। सारा सिद्धांत, प्रतिबद्धता, ग्लैमर, सपने, सब कुछ बिखर सा गया था। मुझे सहेली के वे आंसू याद आ रहे थे जो मुझे एंकरिंग करने से रोक रहे थे। अब समझ में आया था कि क्यों रोक रही थी वो। जैसे-तैसे मैं डेरा पर पहुंची और उसे गले लगाकर रो पड़ी। लेकिन उसकी आंखों के तो आंसू जैसे सूख चुके थे। उसने कहा- चिंता मत कर, मैने सेटिंग कर ली है, हम यहां इस चैनल में नहीं रहेंगे, हम साऊथ इंडिया की एक कंपनी के नए लांच हुए चैनल में चलेंगे, चिंता मत कर। मेरी सहेली ने मेरे आंसू पोंछे और कहा- मैं तुझे एकंरिंग करने से क्यों रोक रही थी, सुन। यहां प्रतिभा सुंदरता कुछ नहीं। सब झूठ है। इक्के-दुक्के को छोड़ दो तो सब के सब हरामी हैं। इन्हें मुफ्त की दारू, लड़की मिल जाए, बस यही इनका संपादकीय है। ये बौद्धक और सिद्धांत से समझौता न करने जैसे विषय पर भाषण पिला देंगे। लेकिन वह सिर्फ इनका मुखौटा है। हां, यह बात अलग है कि किसी लड़की का भोग भी काफी सैद्धांतिक तरीके से करते हैं। उसे सब्जबाग, ग्लैमर व सपनों का संसार दिखाकर सब कुछ लूट लेते हैं।
तू जानती नहीं। मैं मुंह खोल दूं तो कितनों की कुर्सी सरक जाएगी। सरे बाजार नंगे हो जाएंगे साले। भड़वे। जिस्मखोर। सुअर की औलाद….। यह सब सुनकर मुझे सब कुछ अजूबा-सा लगने लगा था। लेकिन मेरी सहेली रूकने वाली कहां थी। उसने फिर कहा- इक्के-दुक्के नहीं, दर्जनों सच्चे पत्रकार हैं लेकिन उनके लिए कोई जगह नहीं। कोई फ्रीलांसर है, तो कोई फ्रस्टेशन का शिकार है। मैने यहां के बड़े-बड़े चेहरों को लड़कियों का ………. चाटते देखा है। सब साले प्रबंधन, स्थानीय प्रशासन, स्थानीय बिजनेसमैन के दरवाजे के कुत्ते हैं। दिन में जाओ तो ऐसे मिलेंगे जैसे समाज के सबसे चरित्रवान और सिद्धांत पर चलने वाले व्यक्ति हों। लेकिन शाम ढलते ही रात में मिलने वाली मुफ्त दारू और लड़की के चक्कर में रहते हैं। मेरी आंखों के काले घेरे देख रही थी तुम। यह इन्हीं मादरजातों की देन है। मैं दो बार एबार्शन करा चुकी हूं…….। उसके बाद वह फूट-फूटकर रोने लगी। मुझे तो लग रहा था किसी ने जैसे सारा खून निचोड़ लिया हो। थोड़ी देर रोने के बाद वह फिर शुरू हो गई। जानती है, इसमें कुछ लड़कियों का भी हाथ रहा है जो अब दूसरी जगहों पर चली गई हैं। मैं तुम्हें क्या बताऊं, जिन अखबारों को तू चिल्ला-चिल्ला कर पढ़ती थी, उसके जिला संवाददाता भी दारू की बोतल और लड़की पर बहाल होते हैं। यहां का एक अखबारी चोट्टा जो आज तक बदला नहीं गया, उसे सिर्फ सुंदर लड़कियों को चूसना, अपनी चापलूसी कराना, अपनी जाति के लोगों को आगे बढ़ाना ही आता है। ईमानदारी से उसे सख्त नफरत है। बोलते-बोलते वो हांफने लगी थी। जैसे-तैसे सुबह हुई और हम एक नए क्षेत्रीय चैनल के दरवाजे तक पहुंच गए। पहुंचे ही नहीं बल्कि प्रदेश न्यूज के नाम पर कापी एडिटर/ रिपोर्टिंग में 5 हजार रुपए महीने की सेलरी पर ज्वाइन भी कर लिया। लेकिन यहां कि कहानी ने तो शोषण और मानसिक प्रताड़ना की परिभाषा ही बदलकर रख दी। जारी….
yogesh
September 17, 2010 at 4:09 pm
es sach ko ujagar karke badi himmat ka kam kiya. ese kahte hain asli patrkarita jo aapni kalikh ko bhi khol kar rakh de. kon kahta he ki tum stragal kar rahi patrkar ho. tum tdhakdhit mahan patrkaron ke muh par tmacha ho. sadhubaad.
bherusingh
November 22, 2010 at 3:28 pm
aap k sath jo kus huwa vh galt hai, ase logo ke schhe samne la kar aap ne jo himmt dikhae vh tarif k kabil hai, aur schhi ptarkarita ka prichya hai, ase drindo k khilaf aap complane kare thaki unke muh par kalikhe poti jay……….